Mahapurush ke jivan ki baat - 6 in Hindi Biography by Pandya Ravi books and stories PDF | महापुरुष के जीवन की बात - 6 - लाला लाजपत राय

Featured Books
Categories
Share

महापुरुष के जीवन की बात - 6 - लाला लाजपत राय

मित्रों, आज ओर एक महापुरुष के जीवन पर लिखने जा रहे हैं !
आप मेरी बातो को पढेगे ओर जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे तो मेरा प्रयास सार्थक होगा ऐसा में मानता हूं! मेरी स्टोरीज को रेंटिंग नहीं देंगे तो चलेगा लेकिन पढना लास्ट तक! यही मेरी आप सबसे गुजारिश है!

पंजाब की मिट्टी में बहुत सारे क्रांतिकारियों का जन्म हुआ और उन्होंने देश के लिए अपना बलिदान दिया। ऐसे ही एक क्रांतिकारी जिसका नाम है लाला लाजपत। उनको‌ ' पंजाब केसरी ' के नाम से भी जाना जाता है।

लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब के लुधियाना जिले के जगरांव में 28 जनवरी 1865 को हुआ था। लाला लाजपत पढ़ाई लिखाई की। बाद में इन्होंने कुछ समय हरियाणा के रोहतक और हिसार शहरों में वकालत की।सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की थी ।
उन्होंने अंग्रेजों के सामने कांग्रेस की भिक्षा देही को नहीं अपनाया उन्होंने युद्ध देही का ब्युगल बजा दिया । बाद में देश के लोग भी इनके साथ हो गये ।

उन्होंने कभी भी शस्त्र को नहीं उठाया था ! लेकिन उन्होंने सशस्त्र क्रांतिकारी की बड़ी सेना तैयार कर दी । १९ साल की उम्र में लाहोर में दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों की स्थापना कर दी ।

गरीबों की आर्थिक मदद करने के हेतु पंजाब नेशनल बैंक का प्रारंभ किया । आर्य समाज के संपर्क में आने के बाद वो राष्ट्रवाद के रंग में मिल गये । दुष्काल के वक्त ब्रिटिश सरकार ने किसानों के प्रति अमानवीय रवैया अपनाया । और मैंने इसका विरोध किया। उसके बाद बर्मा की मांडले जेल में घकेल दिया गया। सरकार के प्रति जनता का आक्रोश इतना बढ़ गया कि लाला लजपतराय जी को ६ महिने के अंदर छोड़ने पड़े ।


उस समय विश्व में प्रथम युद्ध छिड़ गया । सरकार ने उनके लिए देश लौटने का दरवाजा बंद कर दिया। युद्ध की समाप्ति के छह साल बाद वे देश लौट आए, उसी वर्ष उन्हें कोलकाता में कांग्रेस के एक सत्र में राष्ट्रपति का ताज पहनाया गया। असहयोग आंदोलन के कारण उन्हें फिर जेल जाना पड़ा । लेकिन वह कांग्रेस में ज्यादा समय तक टिके नहीं रहे।



जब गांधीजी ने चौरी चौरा हत्याकांड के खिलाफ अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। कुछ ही समय बाद मोतीलाल नेहरू की स्वराज पार्टी में शामिल हो गए। वहां उसका मोहभंग हो गया । बाद में उन्होंने हिन्दू संगठन का काम संभाला। एक मुस्लिम पिता के बेटे ने इस हद तक प्रतिक्रिया दी कि वह हिंदू महासभा के अध्यक्ष बन गए और अपने कारावास के दौरान शिवाजी की जीवनी लिखते हुए शुद्धिकरण आंदोलन को भी प्रोत्साहित किया।

इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने यह तय करने के लिए एक मिशन का गठन किया कि देश को आजादी दी जाए या नहीं। इस मिशन के सात सदस्य अंग्रेज थे। साइमन इसके प्रमुख थे। लालाजी ने इसका पुरजोर विरोध किया, वे विदेशी कौन हैं जो यह निर्णय करते हैं कि हमें स्वतंत्रता देनी है या नहीं? उनके नेतृत्व में लाहौर के रेलवे स्टेशन सायमन आगमन का व्यापक तरीके से विरोध किया गया।


परिणाम कि परवाह किए बिना वो झुंझते रहे । उस दौरान हुए लाठी-चार्ज में ये बुरी तरह से घायल हो गये। उस समय इन्होंने कहा था: "मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।" 17 नवंबर 1928 को इन्हीं चोटों की वजह से इनका देहान्त हो गया।


लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी पर जानलेवा लाठीचार्ज का बदला लेने का निर्णय किया। इन देशभक्तों ने अपने प्रिय नेता की हत्या के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई।