- साहस भरा सार्थक प्रयास
सुषमा मुनीन्द्र
सुपरिचित रचनाकार नीलम कुलश्रेष्ठ के साहस, श्रम, जोखिम वृत्ति, एकाग्रता को धन्यवाद देना चाहिये कि इन्होंने धर्म जैसे सर्वाधिक संवेदनशील मसले पर एक नहीं, तीन पुस्तकें सम्पादित कर डालीं -
(1) धर्म की बेडि़यॉं खोल रही है औरत - खण्ड एक
(2) धर्म के आर-पार औरत
(3) धर्म की बेडि़यॉं खोल रही है औरत - खण्ड दो
धर्म पर तमाम पुस्तकें लिखी गई हैं लेकिन ‘धर्म की बेडि़यॉं खोल रही है औरत `खण्ड दो में नीलम कुलश्रेष्ठ ने ऐसी सामिग्री का चयन किया है जो धर्म के पक्ष-विपक्ष की परख-पड़ताल करती है साथ ही धर्म को लेकर स्त्रियों के विवेक सम्मत दृष्टिकोण को स्पष्ट करती है। भूमिका में कुँवर पाल सिंह ने निर्णायक बात लिखी है ‘‘हमारे समाज में धर्म की भूमिका नकारात्मक रही है।’’
सच है, धर्म की स्थापना प्राणी मात्र के योगक्षेम के लिये की गई थी कि धर्म पर चलने से मनुष्य में नियम, नियमितता, नैतिकता, आत्म नियंत्रण, आत्म शुद्धि का भाव जागृत होगा लेकिन नकारात्मक भूमिका के कारण धर्म विभेद, भेदभाव, आडम्बर, पाखण्ड, अंधविश्वास, अहंकार, छल-बल, धन प्रदर्शन, चढ़ोत्री, चंदा उगाही, स्त्री शोषण की ओर उन्मुख होता चला गया। ख़ासकर स्त्रियों को धर्म का भय दिखाकर जिस तरह घेरा गया, धर्म उनके लिये ऐसा भयानक अंतहीन चक्र बनता चला गया जिससे छूटना असम्भव लगता है।
नीलम कुलश्रेष्ठ आत्म कथन में लिखती हैं ‘‘स्त्रियों को निकृष्ट समझने व शोषित करने की जालसाजी युगों से होती आ रही है जो अब ज्वालामुखी का विस्फ़ोट बन रही है।’’ इस बेहद व्यवहारिक टिप्पणी को मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कहानी ‘केयर ऑफ़ स्वात घाटी’ में इंगित करती है ‘‘उस समय के ब्राह्मणों ने सदियों तक अपने लाभ के लिये बहुत कुछ नष्ट हो जाने दिया और बहुत कुछ क्षेपकों की तरह हमारे महान ग्रंथों में जोड़ दिया। (पृष्ठ 109)।’’ सर्व विदित है सिक्ख धर्म को छोड़कर सभी धर्मों में स्त्री की स्थिति को दूसरे दर्जे पर रखा गया है। पुरुष वर्चस्वादी समाज में हिंदू, इस्लाम, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध ........ अन्य धर्म स्त्रियों के प्रति संवेदनशील नहीं रहे हैं। जैसे सभी धर्म एक-दूसरे की प्रतिलिपि हैं। हर धर्म में पुरुष वर्चस्व है। संजय सहाय अपने आलेख ‘धार्मिक औरतें’ में लिखते हैं ‘‘सभी धर्मों में सबसे समर्पित भक्त महिलायें होती हैं। धर्म का सारा व्यापार कारोबार इनके भरोसे चलता है लेकिन हर धर्म का संस्थापक और उसका परमपिता कोई पुरुष होता है। स्त्रियों के लिये ओहदे नहीं हैं या छोटे-छोटे हैं, जो परमपिताओं से बहुत नीचे दर्जे के हैं।’’ हम देख ही रहे हैं पितृ सत्तात्मक समाज के कठोर पारिवारिक-सामाजिक-धार्मिक यम-नियम का पालन करने हेतु स्त्रियों को किस तरह विवश ही नहीं भयभीत किया गया है। यदि वे कथित यम-नियम का पालन नहीं करेंगी, उनका लोक (मायके-ससुराल में ठौर नहीं मिलेगी। अन्य ठौर ढूँढ़ेंगीं तो कुल्टा-कलंकिनी कही जायेंगी) बिगड़ेगा। निर्जल व्रत, उपवास, भजन-कीर्तन नहीं करेंगी। साधू-संतों का चरणामृत नहीं लेंगी तो परलोक (रौरव नर्क की भागी बनेंगी) बिगड़ेगा। पुरुष नीति-अनीति करने के लिये मुक्त है लेकिन कुल की कीर्ति को बढ़ाने के लिये स्त्रियों का कर्तव्य है सीता और सावित्री बन कर रहें। सुधा अरोड़ा अपने आलेख ‘स्त्री शक्ति की भूमिका से उठते कई सवाल’ में लिखती हैं ‘‘जीवन के हर संघर्ष में जीत तब ही निश्चित हो पाती है जब स्त्री माँ, बहन, पत्नी, बेटी, मित्र ........ किसी न किसी रूप में साथ हो। पुरुष की शक्ति का स्त्रोत स्त्री है। पुरुष अर्थ उपार्जन करते हैं तो स्त्री घर-परिवार देखती है कि सामाजिक संरचना और पारिवारिक संस्कृति कायम रह सके।’’ सम्भव है पुरुष समुदाय इस तथ्य को समझता हो पर श्रेय स्त्रियों को नहीं देना चाहता।’’
‘‘इन (मुस्लिम) स्त्रियों को नहीं बताया जाता उनके कुछ अधिकार हैं। जान लेंगी तो माँगने लगेंगी (हलाला निकाह: एक वैध वैश्या वृत्ति - हुस्न तबस्सुम निहाँ)।’’ समाज में बदलाव आया है लेकिन सामाजिक-पारिवारिक संदर्भों में स्त्रियों को जो अधिकार मिलने चाहिये पूर्णतः आज भी नहीं मिले हैं। शिक्षा और आर्थिक सक्षमता का प्रतिशत बढ़ने के साथ स्त्रियों ने जान समझ लिया है यदि पुरुष आधिपत्य का विरोध नहीं करेंगी, सदियों से चली आ रही स्त्री नियति को नहीं बदल पायेंगी। फलतः वे उस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का साहस करने लगी हैं जो कुत्सित, निर्दय, स्वार्थी, धोखेबाज है। क्षोभ, ग्लानि, गुस्से को व्यक्त करने लगी हैं। अधिकारों, चयन, रुचि, पसंद को लेकर प्रतिबद्ध होने लगी हैं। स्त्री शक्ति को पहचानने लगी हैं। प्रश्न करने लगी हैं।
इस पुस्तक के ‘कविता खण्ड’ में रचनाकारों ने ऐसे तर्क और प्रश्न किये हैं जो स्त्री शक्ति का द्योतक है-
-‘‘अग्नि पार उतरकर सीता। जीत गई विश्वास। देखा दोनों हाथ बढ़ाये। राम खड़े थे पास। उस दिन से संगत में आया। सचमुच का वनवास (वनवास-जाहेरा निगाह)।’’
- ‘‘क्योंकि इस लंका में सीता ही नहीं। मंदोदरी भी कैद है। राम और रावण एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। औरत की स्वतंत्रता के खिलाफ दोनों इकट्ठे हैं (सीता हो या मंदोदरी - बृज किशोर मेहता)।’’
-‘‘मत राखो अपने बेटे का नाम राम। ये भी सीता को छोड़। सत्ता ही चाहेगा। (रघुकुल रीति - डाँ0 रेनू सक्सेना)।’’ -‘‘निबाहती रही जिन्हें पूरे नेम-धरम से मैं। बैठे हैं सिर नीचे कर। हार गये हैं मुझे वस्तु की तरह .......... आज के बाद। कौन स्त्री मानेगी। पति को रक्षक। (अग्नि तेज - रंजना जायसवाल)।’’
-‘‘सावित्री ! सतयुग गया। और अभी भी तू सतर्क नहीं हुई। (सावित्री - संजय तिगांवकर)।’’
- ‘‘राजा को मिल गया था। उत्तराधिकारी। भरत को अपना साम्राज्य। मगर शकुन्तला। तुम तो निमित्त मात्र (शकुन्तला: तुम न कर पाई प्रेम व्यापार - डॉं0 प्रभा मुजुमदार)।’’
-‘‘किसी रात चली जाती। दुध मुँहे राहुल का। मुँह पोंछ कर। सोते हुये चरणों पर। सिर नवा कर। लौटती वह। भिक्षा देही की गुहार पर। तुम क्या करते ? प्रथम दान क्या देते ? (बुद्ध से कुछ प्रश्न - डॉं0 वत्सला पाण्डेय)।’’
-‘‘पर मैं। कभी गंगा नहीं बनूँगी। ........... नहीं करने दूँगी तुम्हें। अपने जीवन में। अनावश्यक हस्तक्षेप। तुम्हारे कथित-अकथित पापों की। नहीं बनूँगी भागीदार। (मैं कभी गंगा नहीं बनॅूगी - रेखा चमोली)।’’
- ‘‘छठे वेतन आयोग के बाद। मॅंहगे हो गये हैं लड़के। पूरा नहीं पड़ेगा लोन। प्रार्थना कर रही हैं वे। सोलह सोमवार। पाँच मंगलवार। सात शनिवार। निर्जल - निराहार। (`व्रतधारियों के लिये` शुभम श्री)।’’
सचमुच आज भी कुँवारी लड़कियों को चैक कर देखा जाता है। आज भी इनके लिये विवाह को अंतिम लक्ष्य बनाये रखा गया है। फतह पाने के लिये लड़कियाँ व्रत, उपवास, मनौतियों में उलझी रहती हैं। जापान जैसे उन्नत और प्रगतिशील देश में भी स्त्रियॉं पीड़ित और जर्जर हैं। उन्हें बचपन से सिखया जाता है - `तुम्हारा जन्म विवाह के लिये हुआ है। तुम्हें पति की हर बात को मानना है। हमारा पितृ सत्तात्मक समाज कहता है - पत्नी को दासी की तरह पति और उसके परिवार वालों की सेवा में अपना जीवन अर्पण कर देना चाहिये।’ लेकिन स्त्रियों को क्या मिलता है ? परिवार और परिजनों की सेवा में अपना सम्पूर्ण जीवन लगाकर जब वृद्धावस्था में पहॅुचती हैं परिजन उन्हें अशक्त - अक्षम - अधिकारहीन मान कर वृंदावन और बनारस की गलियों में भटकने के लिये भेज देते हैं। इन स्त्रियों की वेदना, विषाद, विवशता अपार है। पेट भरने के लिये घंटों भजन गाती हैं (रिपोर्ताज - वृंदावन की बंगाली विधवायें व सुलभ इंटरनेशनल - नीलम कुलश्रेष्ठ)। हमारे देश में ऐसे आश्रम, अखाड़े, मठ, मंदिर, मस्जिद, चर्च हैं जहाँ अकूत सम्पदा है लेकिन सुलभ इंटरनेशनल के अलावा इन स्त्रियों को कहीं से आर्थिक सहयोग नहीं मिलता।
हमारे धार्मिक संस्थान पंडित-पुजारी, मुल्ला-मौलवी स्त्रियों का उद्धार नहीं दैहिक शोषण करते हैं (कहानी - दास्तान ए कबूतर - कुसुम अंसल)। देवदासी प्रथा के नाम पर जिन बच्चियों - युवतियों को देवता को समर्पित किया जाता था, महंत, पंडे, सामंत उनका दैहिक शोषण करते थे। कर्नाटक के बेलगाँव जिले के येलम्मा देवी मंदिर में आज भी देवदासी उत्सव में बच्चियों को देवदासी बनाया जाता है। कुछ बच्चियों का चयन स्वयं महंत करते हैं, कुछ निर्मम अभिभावक लड़की से मुक्ति पाने के लिये स्वेच्छा से उसे देवदासी बनवाते हैं। कितनी क्रूरता है कि कहीं देवदासी बनाकर लड़कियों से उनका आम जीवन छीना गया कहीं गणिका बना कर, कहीं विष कन्या बना कर, कहीं भूत बाधा से प्रेरित या डायन बता कर।
बेहद ख़ूबसूरत नवजात को दूध के साथ बूँद-बूँद विष पिलाकर, नमकविहीन फीका भोजन खिला कर, जिव्हाग्र पर विषैले सर्प का दंश करवा कर क्रूर विधि से विष कन्यायें तैयार की जाती थीं। ये विष कन्यायें गुप्तचरी करती थीं। सेना में रखी जाती थीं। राजा के शत्रुओं की हत्या करती थीं। (कहानी - `ओधवती ....... अन्य और विष कन्यायें` संतोष श्रीवास्तव)।
विष कन्याओं की तरह गणिकाओं को भी वैभव उपलब्ध होता था लेकिन वे आम जीवन नहीं जी सकती थीं। बसंत सेना अनोखी थी जिसने धनविहीन चारुदत्त से विवाह कर साबित किया गणिकाओं के लिये साधन सम्पन्न जीवन नहीं, मनुष्य का आम जीवन महत्पूर्ण है। (कहानी - बसंत सेना: एक गणिका - डॉं0 मीरा रामनिवास)। इतना ही नहीं अंधविश्वास का भी आसान शिकार स्त्रियॉं रही हैं। इन्हें ही डायन घोषित कर प्रताड़ित किया जाता है। इनकी धन-सम्पदा हड़पी जाती है। मजार, हिन्दू चौरों में हिंसक - अमानवीय तरीके से इनके सिर पर से भूत, जिन्न, चुड़ैल उतारने का दावा बल्कि दिखावा किया जाता है। तेज़ी से झूमने, चीखने, बाल खींचे जाने, झाड़ू से पीटे जाने जैसी प्रताड़ना से स्त्रियों की ऑंखें ऊपर चढ़ने लगती हैं। मुँह से फेन निकलने लगता है। साधू, संत, गुरू, बाबा, तपसी चमत्कारी भभूत, तावीज, सिंदूर, फूल अभिमंत्रित जल से ग्रह दशा सुधारने, मोक्ष का मार्ग बताने जैसे छल-छद्म से स्त्रियों को ही बरगलाते हैं। इनका धन लूटते हैं, दैहिक शोषण करते हैं। धर्म और अंधविश्वास की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि कुछ शिक्षित लोगों का भी मत है कुछ व्याधियाँ और संकट चिकित्सा से नहीं झाड़-फूँक, मंत्र-जाप, गुरू कृपा से ही दूर होते हैं (कहानी - गुरू श्री महाराज - नीलम कुलश्रेष्ठ)।
नीलम कुलश्रेष्ठ ने इस पुस्तक के लिये परिश्रमपूर्वक ऐसी रचनाओं का चयन किया है जो स्पष्ट करती हैं धर्म की आड़ में स्त्रियों के विरुद्ध आदिकाल से विकट साजिश रची जाती रही है। कहीं उन्हें वस्तु समझा जाता है कहीं मूक-वधिर जीव। उनसे संबंधित फैसले पिता या पति करते थे जो कि आज भी करते हैं। गांधारी, माधवी, अहिल्या पिता के गलत फैसलों से विवश हुईं तो ओधवती, द्रौपदी, हिडिम्बा पति के ग़लत फ़ैसलों से आहत हुईं। भीष्म से पराजित हुये गांधार नरेश सुबल ने भीष्म की आधीनता से बचने के लिये भीष्म की शर्त स्वीकार कर पुत्री गांधारी का मत जाने बिना उसे उनके सुपुर्द कर दिया था। हस्तिनापुर पहुँच कर गांधारी को विदित हुआ उसका विवाह दरअसल नेत्रविहीन धृतराष्ट से सुनिश्चित हुआ है। पराये राज्य में उसके प्रतिकार का अर्थ न था। उसने क्रोध और प्रतिशोध में जीवन पर्यन्त आँखों पर पट्टी बाँधने का अटल निर्णय कर लिया कि जहाँ पिता राजनीतिक संबंध और लाभ को प्रमुखता दे, भीष्म षडयंत्र रचे, पति नेत्रविहीन हो, ऐसे जगत को देखने का मतलब नहीं (नाटक - गांधारी - जयवर्धन)।
राजा ययाति अपनी पुत्री माधवी को भोग के लिये तमाम राजाओं के पास भेजते हैं (कहानी - ओधवती ........)। अहिल्या अपने पिता राजा बध्यश्व की बचनबद्धता का भाजन बनी। इन्द्र, अहिल्या को पटरानी बनाना चाहते थे पर बध्यश्व वचनबद्ध थे। बध्यश्व के संतान नहीं हो रही थी। गौतम ऋषि ने सशर्त पुत्रेष्ठि यज्ञ किया कि बध्यश्व अपनी पहली संतान को उनकी सेवा में समर्पित करेंगे। बचन न निभाने से ऋषि श्राप देंगे जैसे भय से बध्यश्व अपनी पहली संतान अहिल्या को वृद्ध गौतम के आश्रम में छोड़ आते हैं। अहिल्या की वृद्ध पति में रुचि नहीं है। वह इन्द्र का आव्हान करती है। सूचित होने पर ऋषि उसका त्याग करते हैं। ‘‘आपने वृद्धावस्था में तरुणी को पत्नी बनाया, यह सही है ?’’ जैसा निर्भीक प्रश्न कर अहिल्या, ऋषि को ग्लानि से भर देती है (कहानी - श्राप और पश्चाताप - डॉं0 वासुदेव)। यात्रा पर जा रहे सुदर्शन अपनी पत्नी ओधवती को निर्देश दे गये घर में पधारे हुये अतिथि धर्मराज के सत्कार में कमी न रखे। धर्मराज चाहें तो ओधवती उनकी काम पिपासा भी शांत करे। ओधवती, पति के निर्देश का पालन करने को बाध्य हुई (कहानी - ओधवती ......)।
हिडिम्बा तो ऐसी हतभाग्य है जिसे भीम (पति) ने बिसरा दिया लेकिन वह अपना कर्तव्य नहीं भूलती। पांडवों की ओर से युद्ध करने के लिये पुत्र घटोत्कच और पौत्र को भेजती है। पुत्र-पौत्र वीर गति को प्राप्त होते हैं लेकिन पांडव नोटिस नहीं लेते। व्यथित हिडिम्बा मीलों का फासला तय कर शरशैया पर पड़े भीष्म के सम्मुख आती है। ऐसे वेधक प्रश्न करती है जिनके उत्तर न भीष्म, कृष्ण, कुंती, द्रौपदी के पास हैं न उस भीम के पास जिसने हिडिम्बा से गुप्त विवाह कर उसका उपभोग किया और द्रौपदी के साथ समाजस्वीकृति जीवन जीता रहा। ये स्थितियाँ सदियों पहले की नहीं, आज का भी सच हैं। स्त्रियों के योगदान पर ध्यान नहीं दिया जाता। नहीं सोचा जाता स्त्रियों को भी अपने लिये टाइम और स्पेस चाहिये। उन्हें सामाजिक-पारिवारिक-धार्मिक दबावों में यूँ रखा जाता है कि वे अपने लिये कुछ न सोचें, न कहें, न करें। जबकि धर्म वह है जो समानता का व्यवहार करे, भूख खत्म करे, शांति दे, आराम दे, सुरक्षा दे, सुंदर जीवन पर विश्वास दृढ़ करे, स्त्री और पुरुष की सहभागिता सुनिश्चित करे। कहानी ‘योगक्षेम’ का यश तर्क करता है ‘‘विचार, दर्शन, वेदशास्त्र से संसार के काम क्या चलाये जा सकते हैं ? ........... धर्म और दर्शन एक दबाव है। ज्ञान और ईश्वर बंधन। मोक्ष और स्वर्ग कल्पना है या विश्वास। ........... जप-तप से न शुद्धि होती है, न ध्यान-साधना से मन शांत होता है। ......... आसक्ति, तृप्ति, विरक्ति, फिर मुक्ति।’’
इसी सिद्धांत का अनुमोदन नीलम कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘हवा जरा थमकर बहो’ भी करती है। संत जीवन धारण कर आश्रम में रहने वाली संयासिन शैलजा का चित्त, आश्रम में आने वाले एक व्यक्ति, जो उनकी ओर आकृष्ट है, की ओर सायास चला जाता है। शैलजा संत जीवन से बाहर आने का साहस नहीं कर पाती यद्यपि उस व्यक्ति की स्मृति मात्र में मोक्ष की अनुभूति होती है। प्रकृति का यही सच है। मोक्ष पृथ्वी की दो सर्वश्रेष्ठ इकाइयों पुरुष और स्त्री के मिलन में ही निहित है। सृष्टि ईश्वर है। ईश्वर की सत्ता इस मिलन से कायम है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ,सन्यास जैसी व्यवस्था ही उत्तम है। इस व्यवस्था में मनुष्य अपने कर्तव्य, वचन, व्यवहार, आचरण को लेकर सजग, सतर्क, एकनिष्ठ, नैतिक, ईमानदार रहे तो इससे बड़ा धर्म कुछ नहीं है। मनुष्य जीवन अपने आप में श्रेष्ठ है। इस जीवन में ‘‘हमें भी मुट्ठी भर आसमाँ और कदम भर जमीं चाहिये (97)।‘‘ की कामना रखने वाली स्त्री का भी उतना ही हक है, जितना पुरुष का।
धर्म की बेडि़यॉं तोड़ कर वे मनुष्य जीवन को भरपूर जीना चाहती हैं ‘‘एक दिन। मनुष्य की परिभाषा। पढ़ रही थी मैं। समझ रही थी मैं। पढ़ते-समझते। खुद को भी मनुष्य समझ लिया था मैंने। तब से। पुरुष प्रधान समाज में। ऊॅंगलियाँ उठ रही थीं मुझ पर। प्रश्न चिन्ह लग गया था। मेरी उस भूल पर। जहाँ मैं भी। एक मनुष्य थी। (कविता - मैं भी मनुष्य हूँ - डॉं0 नलिनी पुरोहित)।’’
अंत में यही कहूँगी पुस्तक में इतना विस्तार, इतनी रेंज, इतने प्रसंग, इतने प्रश्न, इतने तर्क, इतनी चुनौती, इतनी गहराई है जिसे समीक्षा में समेटना सम्भव नहीं है। यह पुस्तक वह सलीका और विवेक देती है जिससे हम आस्था और पाखण्ड में फर्क कर लें। पुरुष समुदाय अपनी मानसिकता बदलने का उपक्रम करें। प्रबुद्ध और जनतांत्रिक समाज यह सोचने के लिये विवश बल्कि प्रेरित हो कि मनुष्यता ही सबसे बड़ा धर्म है। नीर-क्षीर विवेक को प्रस्तुत करने के लिये नीलम कुलश्रेष्ठ की जितनी सराहना की जाये कम है।
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पुस्तक - धर्म की बेडि़यॉं खोल रही है - औरत खण्ड दो
सुषमा मुनीन्द्र
सम्पादक - नीलम कुलश्रेष्ठ
द्वारा श्री एम. के. मिश्र
प्रकाशक - शिल्पायन
जीवन विहार अपार्टमेन्ट्स 10295, लेन नं0 1, वेस्ट गोरख पार्क द्वितीय तल, फ्लैट नं 07 शाहदरा, दिल्ली - 110032
महेश्वरी स्वीट के पीछे
प्रकाशन वर्ष- 2018
रीवा रोड, सतना (म0प्र0)-485001
मूल्य - 600/-
मोबाइल - 07898245549