प्रगति गुप्ता
'स्टेपल्ड पर्चियाँ' प्रगति गुप्ता का कहानी संग्रह अपने शीर्षक से ही एक उत्सुकता को जन्म देता है | ग्यारह विभिन्न शीर्षकों में बँटी ये कहानियाँ हौले से बहुत से प्रश्न कानों में उंडेल जाती हैं |
एक लम्बे अर्से से यह पुस्तक मेरे पास थी लेकिन मेरी कुछ अवशताओं के कारण मुझे इन सबको पढ़ने में, इनके पात्रों के साथ संवाद करने में देरी होती गई और इसीलिए इन पर थोड़ा-सा भी कुछ लिखने में बहुत देरी हो गई |
प्रगति की कुछ कहानियाँ मैंने पहले भी पढ़ी थीं, उन पर उनसे चर्चा भी हुई थी लेकिन पुस्तक हाथ में आने के उपरांत भी इनको एक साथ पढ़ने का अवसर मुझे बहुत देर में मिल सका |
संग्रह की पहली कहानी का कथ्य व उसका ट्रीटमेंट जब मैंने पहली बार पढ़ा था, मेरे मनोमस्तिष्क में जैसे बर्फ़ सी जमा गया था| इस कहानी का कथ्य मुझे आम कहानियों से इसलिए भी भिन्न लगा क्योंकि कहानी की आत्मा तक पहुँचने की यात्रा ने मुझे थका दिया था | इस यात्रा से शुरू होकर ज़िंदगी के अन्य मार्गों तक पहुँचने में ख़ासा समय लगा | इसका कारण संग्रह की पहली कहानी की कथावस्तु में अटक जाना था |मेरे लिए लेखिका के मन के कोने तक पहुँचना भी एक दुरूह कार्य रहा | दुरूह इस प्रकार कि मैं काफी समय पहली कहानी में ही अटकी रही हूँ, आगे बढ़ने की इच्छा होते हुए भी इस कहानी ने मुझसे अपने आपको कई बार पढ़वा लिया | जबकि इसी संग्रह में एक और कहानी लगभग इसी कथ्य की है लेकिन इसका समुद्र व अन्य आत्माओं से संवाद का चित्रण एक अनकही व्यथा-कथा रचता है |
संग्रह की सारी ही कहानियाँ विभिन्न विषयों पर केंद्रित हैं किन्तु उनकी सफ़लता इस बात पर आधारित है कि लेखिका ने सभी कहनियों का ट्रीटमेंट बहुत चिंतनशील होकर किया है |लेखिका ने सजगता, सहजता को मद्देनज़र रखते हुए बड़ी शालीनता से इतनी गहन बात कह दी है कि पाठक चिंतन के लिए बाध्य है |
गुम होते क्रेडिट कार्ड्स जहाँ एक आत्मविश्वास की टूटन और उसे पुन:जोड़ने का प्रयास है तो खिलवाड़ आज की पीढ़ी के लिए सौ सौ प्रश्न लेकर आ उपस्थित होता
है | अनुत्तरित प्रश्न सहमा देता है |तो तमाचा समाज के चेहरे पर लगकर एक खुरदुरा प्रश्न खड़ा करता है|
सोलह दिनों का सफ़र भी बहुत सारी अनकही पीड़ाओं को जन्म देता है |
ग़लत कौन ? डॉक्टर व मरीज़ के विभिन्न कोणों पर बुनी गई कहानी है जो हमारे समक्ष चित्रित होती रहती है | लेखिका का जुड़ाव रोगियों व चिकित्सकों के साथ बहुत गहरा रहा है | उनकी संवेदनाओं व अनुभूतियों की छुअन कहानियों को समाज की ऎसी कहानियाँ बना देती है जो मन पर गहरा आघात करती हैं, पीड़ा छोड़ती हैं |
काश ! एक मानसिक सदमें से निःसृत कथा है | उससे गुज़रने के बाद न जाने कितने चित्र व प्रश्न आँखों के सामने आ खड़े होते हैं | मानसिक संवेदनाओं से उपजी पीड़ा का निराकरण कैसे ? यह एक ऎसी मानसिक आघात देती कहानी है जिसमें रिश्तों की टूटन ऎसी कठोर मीनार बना देती है कि आदमजात की भूखी प्रवृत्ति सिर उठाने लगती है, एक ठहरी हुई उम्र को न जाने कितनी अनजानी पीड़ाओं से भरने लगती है |
बी प्रैक्टिकल आज के समय के उन बंद सिरों को खोलने का प्रयास है जो आज मनोमस्तिष्क पर पालथी मारकर बैठे हैं, उनकी प्रस्तुति कुछ खुरदुरे प्रश्न लेकर समक्ष आती है, कुछ ऐसे अहसासों को जन्म देती है जो एक उम्र में पीड़ा का लहलहाता सागर बनकर सामने आने लगता है |
स्टेपल्ड पर्चियाँ जैसे हरहराते हुए सागर से मन के सारे बंद खोल देना चाहती है | मन को रुपहले रंगों में भिगोना चाहती है| मुक्त होने का अहसास लिए आगे बढ़ने की शालीन कारण खोजते प्रश्नों की कतार में खड़ी हो केवल अपने लिए जीने के मार्ग की खोज करती दिखाई देती है |
अंतिम कहानी 'माँ, मैं जान गई हूँ ' पाठक को थर्राहट से भरने के लिए काफ़ी है | प्रश्न यह उठता है कि आखिर कैसे और कब तक कौमार्य को संभालने के लिए संगीन सायों में चलना होगा |यह शाश्वत प्रश्न दिलों में अँधेरे बढ़ाता जाता है |
कहानियाँ बहुत बड़ी नहीं हैं इसलिए उन्हें पढ़ने में अधिक समय नहीं लगता किन्तु उनके गहराव का दायरा इतना गहन है कि उनसे संवाद करने में ख़ासा समय चिंतन के बंद कमरे में प्रश्नों के अंबार से दम घुटता ज़रूर महसूस होता है |यही कहानियों की सफ़लता है कि वे पाठक को अपने घेरे से मुक्त नहीं करतीं |
प्रगति की पृष्ठभूमि से उन्हें जो कुछ भी मिला है वह इन कहानियों में यत्र-तत्र स्पष्ट दिखाई देता है | संभवत: इसका कारण यह भी हो सकता है कि मैं इनसे, इनके विचारों से काफ़ी हद तक परिचित हूँ | यह परिचय इनके साथ मिलने से कम, लंबी वार्तालाप से अधिक हुआ है, इसमें संशय नहीं है |
भारतीय ज्ञानपीठ से संग्रह का प्रकाशित होना अपने में एक गर्व है, इसके लिए प्रिय प्रगति को अशेष साधुवाद ! भविष्य में इनका लेखन इनके नाम के अनुसार उत्तरोत्तर प्रगति करेगा, इसमें कोई संशय नहीं है |
बहुत सारे स्नेह के साथ मैं प्रगति को अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करना चाहती हूँ | विलंब के लिए 'सॉरी' भी !
डॉ. प्रणव भारती
अहमदाबाद