Saheb Saayraana - 21 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | साहेब सायराना - 21

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साहेब सायराना - 21

कहा जाता है कि फिल्मी दुनिया पैसे का खेल है। जो जितना कमाए वो उतना बड़ा खिलाड़ी। जिस एक्टर को सबसे ज्यादा पैसा मिले वो ही सबसे बड़ा कलाकार। जिस फ़िल्म पर सबसे ज्यादा पैसा ख़र्च हो वो सबसे बड़ी फ़िल्म।
लेकिन हमारे कुछ अभिनेता- अभिनेत्रियां ऐसे रहे जिन्होंने पैसे को बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं दी।
दिलीप कुमार भी एक ऐसी ही विभूति थे। उन्होंने पैसे को सब कुछ कभी नहीं समझा। एक दौर ऐसा था जब हर छोटा बड़ा फिल्मकार अपनी फ़िल्म में दिलीप कुमार को लेने के लिए लालायित रहता था। उस समय दिलीप साहब चाहते तो ताबड़तोड़ फ़िल्में साइन करके ख़ूब पैसा बटोर लेते। कई लोगों ने ऐसा किया भी। वो सफ़लता मिलते ही अंधाधुन इतनी फ़िल्में साइन करके बैठ गए कि हर शुक्रवार को उनकी कोई न कोई फ़िल्म रिलीज़ होती दिखाई देती। लेकिन ऐसे एक्टर्स का दौर जल्दी ही ठंडा पड़ जाता और फिर कोई उनका नामलेवा भी नहीं बचता।
दिलीप कुमार ने हमेशा तसल्ली से काम करने को ही अहमियत दी। अच्छी तरह पढ़ कर मनमाफिक गिनी- चुनी स्क्रिप्ट्स स्वीकार करना और फिर उनमें अपना बेहतरीन देने की कोशिश करना,यह दिलीप कुमार की आदत थी।
कहा तो यहां तक जाता था कि वो फ़िल्म में केवल अपनी भूमिका ही नहीं बल्कि हर फ्रेम में दखल देते थे और फ़िल्म को परफेक्ट बनाने के लिए प्रयत्न करते थे।
दिलीप कुमार पर फिल्माए गए गीतों में एक से बढ़कर एक नायाब गाने हैं जो बेहद लोकप्रिय भी हुए हैं लेकिन अपनी फ़िल्मों के आम मिजाज़ के विपरीत उन्हें ख़ुद पर फिल्माए गए हल्के- फुल्के गाने ही ज़्यादा पसंद रहे। गंगा जमना फ़िल्म का गाना "नैन लड़ जई हैं तो मनवा मा कसक होइबे करी" उन्हें बहुत पसंद था। इसके अलावा फ़िल्म नया दौर में उन पर फिल्माया गया गीत "उड़ें जब जब जुल्फ़ें तेरी कंवारियों का दिल मचले"तो देश भर में युवाओं को गुदगुदा गया। इस गीत की लोकप्रियता से दिलीप कुमार के व्यक्तित्व का वो पक्ष उभर कर सामने आया जो उनकी धीर - गंभीर भूमिकाओं में छिप गया था। इसे कई दशक बीत जाने के बाद अब तक भी युवा मनोभावों की दिल फरेब अभिव्यक्ति माना जाता है।
इसके अलावा "साला मैं तो साहब बन गया" भी दिलीप कुमार का पहचान गीत है। राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत उनका गीत "ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का, इस देश का यारो क्या कहना" भी ख़ुद उनके पसंदीदा गीतों की फ़ेहरिस्त में शामिल है।
दिलीप कुमार ने पर्दे पर एक से बढ़कर एक गीतों को जीवंत किया। एक गीतकार ने तो ख़ुद उनकी और उनकी धर्मपत्नी सायरा बानो की फ़िल्मों के नाम पिरो कर ही एक अर्थवान गीत तैयार कर दिया-
"एक पड़ोसन पीछे पड़ गई
जंगली जिसका नाम
प्यार- मोहब्बत क्या समझाए
जिसको राम और श्याम!
कि तेरी- मेरी नईं निभनी
मैं था एक आज़ाद मुसाफ़िर
गया देखने मेला
इस मेले में लगी हुई थी
"आई मिलन की बेला"!
पिछली सदी के अंतिम कुछ दशकों में दिलीप कुमार लगभग फ़िल्मों से उदासीन से ही रहे। दो- चार साल में एक बार कोई न कोई निर्माता उन तक कोई प्रस्ताव ले आता तो वो अपनी शर्तों पर उसे स्वीकार कर लेते। उनकी शर्तों में रुपए- पैसे की बात नहीं होती थी बल्कि वो साथी कलाकारों और भूमिका को लेकर ही संजीदा रहते थे। कर्मा, विधाता, कानून अपना अपना, शक्ति, क्रांति, धर्माधिकारी, इज्ज़तदार, किला आदि ऐसी ही फ़िल्में थीं जिनमें उनकी उपस्थिति अमिताभ बच्चन, रेखा, नूतन, शम्मी कपूर, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, अनिलकपूर आदि के साथ रही।
सीमित फ़िल्मों के साथ - साथ घर परिवार की भी कोई विशेष जिम्मेदारी न होने से उन्हें समय काफ़ी मिलने लगा। ऐसे में उन्हें उनकी गरिमामय उपस्थिति का लाभ उठाते हुए उन्हें मुंबई के शेरिफ का पद दिया गया। उनका आना- जाना व उठना बैठना ग़ैर फिल्मी लोगों के साथ भी होने लगा। उन्हें राज्यसभा में भेजने से ऐसा समझा जाने लगा कि संभवतः सरकार उन्हें राजनीति में लाकर सक्रिय भूमिका से जोड़ना चाहती है किंतु इसके लिए दिलीप साहब तैयार नहीं हुए। शायद मन ही मन वो ये बात अच्छी तरह समझ गए थे कि धार्मिक उन्माद और प्रवंचना के इस युग में न कट्टर हिन्दू उनके हो सकेंगे और न ही कट्टर मुसलमान। अतः उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी ही बरती।
दिलीप कुमार सामाजिक कार्यों व सैन्य कल्याण के कार्यक्रमों में लगातार रुचि लेते रहे।
उन्हें सर्वोच्च दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाज़ा गया।
सायरा बानो का साथ उनके लिए एक मिल्कियत की तरह रहा। सायरा जहां उनमें एक वरिष्ठ संरक्षक देखती थीं वहीं दिलीप कुमार भी उनमें एक युवा सक्रिय संगिनी देखते थे।
इस तरह इन दो को कभी किसी तीसरे की कमी नहीं खली।