Bhaiya mujhe maaf kar do in Hindi Moral Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | भैया मुझे माफ़ कर दो 

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भैया मुझे माफ़ कर दो 

नवीन और मानव दोनों भाइयों की उम्र में केवल एक वर्ष का ही अंतर था। नवीन मानव से बड़ा था, बचपन से दोनों साथ में खेलते-कूदते बड़े हुए थे। नवीन मानव से ज़्यादा प्रतिभाशाली था, चाहे पढ़ाई हो या स्कूल में होने वाली कोई भी गतिविधि। इन सब बातों के कारण मानव के दिल में नवीन के प्रति ईर्ष्या जन्म ले रही थी। नवीन तो अपने भाई मानव से बहुत प्यार करता था और हमेशा उसकी हर तरह से मदद भी करता था।


उनके पापा विश्वनाथ हमेशा मानव को समझाते और कहते, अपने भैया जैसे बनो मानव।


विश्वनाथ जी का बार-बार इस तरह कहना मानव को बिल्कुल पसंद नहीं था, उसे लगता था यह तो उसका अपमान है।


विश्वनाथ के द्वारा इस तरह तुलना करने से मानव के मन में ईर्ष्या का पौधा तीव्र गति से बढ़ रहा था। इस बात से नवीन बिल्कुल अंजान था।


नवीन हमेशा अपने पिता से कहता, "पापा आपको इस तरह तुलना नहीं करना चाहिए, मानव को ख़राब लगेगा।"


विश्वनाथ यह जानते थे कि मानव नवीन की कामयाबी से ईर्ष्या करता है, उन्हें हमेशा यह चिंता लगी रहती थी कि इस तरह के माहौल में बच्चे प्यार से कैसे रहेंगे।


नवीन को लिखने का बहुत शौक था वह बहुत ही अच्छी कहानियाँ और कविताएँ लिखता था। उसकी कहानियाँ सभी को बहुत पसंद आती थीं। अपने भाई को देखकर मानव ने भी लिखना शुरू कर दिया। नवीन की रचनाएँ समाचार-पत्र, पत्रिकाओं में अक्सर छपती ही रहती थीं। फ़ेसबुक पर भी लोग उसकी रचनाओं को बहुत पसंद करते थे। मानव ने भी अपनी रचनाएँ फ़ेसबुक और समाचार पत्र पत्रिकाओं में भेजना शुरू कर दिया। लाख कोशिश करने के बाद भी वह नवीन जितना अच्छा नहीं लिख पाता था।


एक बार एक कहानी प्रतियोगिता में दोनों भाइयों ने भाग लिया और कुछ ही दिनों में उस प्रतियोगिता का परिणाम भी आ गया। उस प्रतियोगिता में नवीन को विजेता घोषित किया गया। नवीन के पास बधाइयों का ताँता लग गया, किंतु मानव अपने भाई की इस जीत पर ख़ुश नहीं था। नवीन ने आज पहली बार महसूस किया कि मानव ख़ुश नहीं है। उसने तो बधाई के दो शब्द तक नहीं बोले। नवीन तो अपने छोटे भाई को हमेशा आगे बढ़ते देखना चाहता था। आज उसका मन बहुत दुःखी था वह इस बात को स्वीकार ही नहीं कर पा रहा था कि मानव उसकी जीत से ख़ुश नहीं है।


नवीन सोच रहा था कि इस प्रतियोगिता की भावना को जो मानव उसके ही साथ कर रहा है, ख़त्म करना होगा। उसे अपने भाई को इस से बचाना होगा वरना हमारा परिवार टूट जाएगा। मानव के मन में यदि ऐसी भावना होगी तो प्यार कहाँ होगा। नवीन बहुत दुःखी था उसे अपनी जीत की भी ख़ुशी नहीं थी।


कुछ समय यूँ ही बीतता गया। मानव का बदला हुआ व्यवहार नवीन को बेचैन कर रहा था। नवीन से मानव दूर होता जा रहा था। नवीन ने तो अपने मन में ठान लिया था कि वह अपने भाई को अपने से दूर कभी नहीं होने देगा। उसके दिल से ईर्ष्या के संक्रमण को अपने प्यार की दवा से हमेशा के लिए ख़त्म कर देगा।


कुछ ही दिनों में एक लेख प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। दोनों ने प्रतियोगिता में भाग लिया था तथा वे अपना-अपना लेख लिख रहे थे।


एक दिन नवीन ने मानव से कहा, "मानव मुझे तुम्हारा लेख दिखाओ?"


मानव संकोच वश मना नहीं कर पाया, इच्छा ना होते हुए भी उसे अपना लेख नवीन को दिखाना ही पड़ा।


"हाँ भैया दिखाता हूँ,” कहकर वह लेख लेकर आया।


नवीन ने उसके लेख में काफ़ी सुधार करवाया। मानव मन ही मन सोच रहा था, "भैया ख़ुद भी इस प्रतियोगिता में हैं, फिर क्यों मेरा लेख सुधार रहे हैं, आख़िर विजेता तो उन्हें ही बनना है।"


नवीन ने लेख में सुधार करके उसे दे दिया। मानव ने जब वह पढ़ा तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गईं। ओ माय गॉड, यह लेख इस तरह भी हो सकता है, वह हैरान था।


उसने कहा, "थैंक यू भैया" और वहाँ से चला गया।


वह सोच रहा था कि उनका ख़ुद का लेख तो इससे भी ज़्यादा अच्छा होगा। कुछ ही दिनों में परिणाम घोषित हो गया, जिसमें इस बार मानव विजेता था। वह सपने में भी ऐसा नहीं सोच सकता था कि नवीन भैया के होते हुए वह विजेता बन सकता है।


उसके विजेता घोषित होते ही सबसे पहले नवीन ने उसे बधाई देते हुए सीने से लगा लिया। मानव ने देखा द्वितीय व तृतीय स्थान पर भी नवीन का नाम नहीं था। तब उसने चुपके से नवीन के कमरे में जाकर उसकी डायरी से वह लेख निकाल कर पढ़ लिया जो नवीन ने अपने ख़ुद के लिए लिखा था किंतु दे दिया उसे। मानव ने सोचा इसका मतलब नवीन भैया ने इस प्रतियोगिता में भाग ही नहीं लिया। उसे जिताने के लिए उन्होंने अपने लेख को उसके नाम पर कर दिया।


मानव की आँखों से आँसू बह निकले। वह स्वयं को बहुत ही छोटा महसूस कर रहा था। मानव ने देखा जो लाजवाब पंक्तियाँ नवीन ने अपने लेख में लिखी थीं, वह सब मानव के लेख में डलवा दीं। आज मानव को एहसास हो रहा था कि उसमें और नवीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। वह मुझे कितना प्यार करते हैं और मैं। उसे स्वयं पर शर्म आ रही थी।


वह सोच रहा था, "भैया बिल्कुल वैसे ही हैं, जैसा वह लिखते हैं किंतु मैं बिल्कुल वैसा नहीं हूँ जैसा लिखता हूँ। इसीलिए भैया के लेख, कहानियाँ सब इतने ज़्यादा अच्छे होते हैं क्योंकि वह उनके मन की गहराई से निकलते हैं, सच्चाई से निकलते हैं। उसमें किसी भी तरह की कोई बनावट नहीं होती। नहीं, नहीं यह मेरा क्षेत्र है ही नहीं। मैं इसके लायक हूँ ही नहीं, मुझे अपने लिए कुछ और सोचना चाहिए, मैं जो भी करूँ, पूरे मन से ईमानदारी से करूँ।"


वह नवीन के पास गया वह बिना कुछ बोले ही नवीन के गले लग कर फफक कर रोने लगा और कहा, "भैया मुझे माफ़ कर दो, मुझे अपनी ग़लती का एहसास हो गया है। मैं जान गया हूँ, तुमने इस प्रतियोगिता में भाग ही नहीं लिया और क्यों नहीं लिया, यह भी जान गया हूँ। भैया तुम मुझसे बहुत अच्छे और बड़े लेखक हो। मैं तुम्हारी इस कला को मरने नहीं दूँगा। तुमने पिछले एक हफ्ते से कुछ भी नहीं लिखा है। भैया मुझे वचन दो, तुम लिखना नहीं छोड़ोगे।"


नवीन ने मानव को चुप कराते हुए कहा, "मानव तुम भी बहुत प्रतिभाशाली हो। कई चीजों में मुझसे बहुत अच्छे, देखो ना तुम्हारी पेंटिंग, कितनी लाजवाब होती हैं। मैं तो एक गोला भी सही आकृति में नहीं बना सकता। मानव क्या यह प्रतियोगिता और यह हार-जीत ही हमारे प्यार के बीच में दरार पैदा कर सकती हैं? क्या यह हमारे परिवार को तोड़ सकती हैं? नहीं मानव, हमारा प्यार, हमारा परिवार इन सब से बहुत ऊपर है और तुम्हारे लिए तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि हमारा परिवार हमेशा एकता के सूत्र में बंधा होना चाहिए।"


मानव और नवीन के माता-पिता अपने बेटों की बातें सुन रहे थे। उन्हें आज नवीन की बातें याद आ रही थी कि पापा तुलना मत करो, मानव को बुरा लगेगा। वह सोच रहे थे शायद यह उनकी ही ग़लती थी जिसने मानव को ईर्ष्या के दलदल में फंसा दिया था किंतु नवीन ने आज सब ठीक कर दिया था।


उन्हें नाज़ था अपने नवीन पर जिसने अपने भटकते भाई को सही रास्ता दिखाया और नाज़ था अपने छोटे बेटे मानव पर जिसने अपनी ग़लती को स्वीकार किया और अपने मन को गंगा जल की तरह साफ़ और पवित्र कर लिया। वे ख़ुश थे कि उनके बेटे प्यार और समझदारी से हमेशा एक दूसरे का ख़्याल रखेंगे और एक दूसरे का मुश्किल घड़ी में साथ भी देंगे। माता-पिता को इससे ज़्यादा और चाहिए भी क्या था, उन्हें तो आज दुनिया की सारी दौलत ही मिल गई थी।



रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक