बटुक दीक्षा समारोह
यशवंत कोठारी
हिंदी व्यंग्य साहित्य में बटुक व्यंग्यकारों का दीक्षा संस्कार करने का एक नया चलन देखने में आया है .इस चलन के चलते कई बटुक उपनयन संस्कार हेतु यजमान, पंडित,आदि ढूंढ रहे हैं. वर्षों पहले मनोहर श्याम जोशी ने साहित्य में वीर बालक काल की स्थापना की थी उसी पर म्परा का निर्वहन करते हुए मैं व्यंग्य में बटुकवाद की घोषणा करता हूँ .बटुक बिना किसी मेहनत के क्रांतिवीर कहलाने को आतुर रहते हैं.बटुकों का दीक्षा संस्कार स्वयंभू बड़े मठाधीश, संपादक, प्रकाशक करते हैं, यदि आप स्वयं ही पत्रिका में मालिक ,संपादक प्रकाशक व् घरवाली प्रबंधक हो तो फिर कहना ही क्या, आप जेसा पंडित-यजमान कहाँ मिलेगा ?यदि बटुक स्वस्थ सुन्दर हो व् लिखने की प्रेरणा साथ रखता हो तो बटुक का दीक्षा संस्कार जल्दी होता है उसकी रचनाओं का संशोधन , परिमार्जन, परिवर्धन,संपादन व् प्रकाशन शीघ्र कर उसे साहित्य के आकाश में ध्रुव् तारे की तरह चमका दिया जाता है .यदि बटुक के बजाय बटूकी होतो कहना ही क्या , उसका नख शिख तक संवार कर उसे स्थापित कर दिया जाता है, कई बार सामूहिक भोज, साँझा चूल्हे की भी ख़बरें आती हैं.बटुक यदि किसी उच्च प द पर हो तो मठाधीश जल्दी से स्वयम को लाभार्थी बना लेते हैं , इस चक्कर में कई बटुक संसथान से निलंबन को प्राप्त करते हुए निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं.बटुक का दीक्षा संस्कार दाह संस्कार हो जाता है .
बटुक को गुरु जनों का ऐसा आशीर्वाद मिलता है की वो जलदी ही विपक्षी गुरुं की कपाल क्रिया में निष्णात हो जाता है.साहित्य में भी नूरा कुश्ती चलती रहती है, बटुक धीरे धीरे सब समझ जाता है और एक दिन गुरु के लिए मसान जगाने वाला बटुक मठ में आग लगा कर स्वयम का मठ बना कर खुद को मठाधीश घोषित कर देता है .सोदेबाजी भी चलती रहती है, समीकरण बनते बिगड़ते रह ते हैं .बटुक अपनी रचना के प्रकाशन के लिए कई पापड़ बैल् ता है. गुरु उसे कुछ मित्रों की रचनाएँ इकट्ठी कर खुद सम्पाद क बन् ने की सलाह देता है , मुफ्त का चन्दन घिस मेरे नंदन उनका वेद वाक्य बन जाता है , वे किसी की भी धोती , साडी खोलने की हिमाकत कर सकते हैं . सेल्फ पब्लिशिंग के नाम पर प्रकाशकों के सलाहकार बन कर दलाली कमाते हैं .
बटुक रूपी सत्ता प्रतिष्ठान की लानत मलामत गुरु आज्ञा से करता है , लेकिन ज्योंही उसे या गुरु को सम्मान –पुरस्कार मिलता है , वो उसे जनता का पैसे मान कर रख लेता है, और दूसरों को मिलने पर जुगाड़-पंथी बताता है.एक बटुक ने कई राज्यों के स्थायी निवास प्रमाणपत्र बनवा लिए, जहाँ से इनामों की घोषणा वहां के लिए प्रार्थना पत्र तेयार.
नोकरी क राज्य में, निवास ख राज्य में , इनाम ग राज्य से बस गुरु कृपा बनी रहे. बटुकों को साहित्यिक राज निति का कोर्स कराया जाता है. उनको कविता से ज्यादा फाउंडेशन की आन्तरिक कार्य प्रणाली समझाई जाती है.बटुक की पुस्तकों के लोकार्पण समारोह कराये जाते हैं, बटुक के खर्चे पर सायंकालीन आचमन की व्यवस्था की जाती है, लोकार्पण की विस्तृत रपट छापी जाती है, अन्यत्र न छपे तो अपना अख़बार जिन्दा बाद. विमोचन करता को पालकी में बिठा कर लाया जाता है, ये बात अलग है की विमोचन के बाद विमोचन करता को पैदल ही जाना पड़ता है.बटुक बोस के झूंठे बिल विश्वविद्यालय से पास करा ता है ,बेचारा बटुक.
साहित्य में इन बटुकों की पोजीशन क्रातिवीरों की नहीं अपितु क्रांति भीरुओं व् पेड़ों के इर्द गिर्द उछल कूद कने वाले बंदरों की तरह हो जाती है.वे अकादमी के दफ्तर के बा हर तब तक उछल कूद करते हैं जब तक सफलता को प्राप्त नहीं हो ते.
कई बटुक नोकरी धंधे के लिए किसी से भी भिड़ जाते हैं , लेकिन एक बार एक से ही लड़ते –झगड़ते है. गुरु के निर्देशानुसार कई बटुक खुद भी जूतों में डाल बाँटने लग जाते हैं . बटुक फटे जूतों की कीमत भी यजमान से वसूलता है.सच्चा बटुक मान मर्यादा, नोकरी आदि को ढेंगे पर रखने की घोषणा कर ता रहता है, लेकिन मोका मुनासिब देख कर ये चीजे अपने खीसें में डाल ता रहता है. बटुकों को अपने कब्जे में करने लिया यजमान , पंडित यज्ञोपवीत का ख र्चा उठाने का नाटक करते हैं , फिर किसी फेलोशिप से या नोकरी से वर्षों कमिशन वसूलते रह ते हैं. बटुक गुरु आज्ञा से अन्य लेखकों को गाली देता है, उनकी रचानाओं को नकल सिद्ध कर देता है,उनकी थीसिस को झाली बता देता है.फिर निष्ठां बदलने पर पूर्व गुरु व् गुरु आनी की पोल सार्वजनिक रूप से चोराहे पर खोलता है, .ये बटुक कायर भी हो जाते है, वायर भी हो जाते है और टायर भी हो जाते हैं .
बटुक पुरस्कारों की राजनीती में भी जम कर भाग लेता है , पैसा निर्णायकों का प्रमाण पत्र मेरा या मेरे गुरु का .हिंदी साहित्य में बटुको का दीक्षा समारोह जा री है.
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यशवंत कोठारी
८६, लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बहार जयपुर-३०२००२मो-९४१४४६१२०७