Tantrik Rudrnath Aghori - 15 in Hindi Horror Stories by Rahul Haldhar books and stories PDF | तांत्रिक रुद्रनाथ अघोरी - 15

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तांत्रिक रुद्रनाथ अघोरी - 15

श्राप दंड - 4

तांत्रिक रुद्रनाथ बताते रहे ,
" उस दिन रात हो गई थी। कुछ सूखे लकड़ी व पत्तों को जलाकर मैं उसके पास ही सो गया था।
उसी के 10 दिनों के अंदर वह अद्भुत घटना घटी।
जिसने मुझे समझा दिया था कि मनुष्य बहुत ही कम जानता है। बहुत सारी ऐसी भी चीजें हैं जिसके बारे में मनुष्यों को अब तक नहीं पता है।
नींद से जागने के बाद मैंने चलना शुरू कर दिया। 2 घंटे में ही वसुधारा जलप्रपात के सामने पहुंच गया। वसुधारा जलप्रपात के बारे में मेरे मन में कुछ अलग ही धारणा की उत्पत्ति हुई थी लेकिन वह इस वक्त खत्म हुई। यह जलप्रपात देखने में बहुत ही असाधारण है इसमें कोई शक नहीं। यहां देखने की बात एक और है कि इस जलप्रपात का पानी नीचे गिरने की जगह ज्यादातर हवा में उड़ रहा है। ऐसा होना कोई अस्वाभाविक नहीं है इसका कारण हिमालय के पर्वतों से आने वाली तेज हवा है।
मैं धीरे-धीरे जाकर ना जाने क्या सोच जलप्रपात के नीचे ही खड़ा हो गया। पैरों तले वहां पर पानी में एक बड़ा सा है बर्फ का स्तर तैर रहा है। धीरे-धीरे हवा की गति कम हुई और उसी वक्त मेरे सिर पर बर्फ जैसी ठंडी पानी आकर गिरने लगी। वसुधारा जलप्रपात अपने स्वर्गीय शीतलता के जल से मुझे भिगा रहा था। मैंने पीछे घूम कर देखा और मुझे ऐसा लगा कि इस जगह को किसी दैवीय शक्ति में बहुत ही चिंता मग्न करके बनाया है।
वसुधारा जलप्रपात के ठीक सीधे ही अपना सिर ऊंचा करके नीलकंठ पर्वत खड़ा है। आहा! यही प्रकृति का खेल है।
वसुधारा जलप्रपात को अब मैंने पीछे छोड़कर आगे चलना शुरू कर दिया। दाहिने तरफ के बादामी रंग के पहाड़ धीरे-धीरे खत्म होने लगे। इस वक्त मेरे बाएं तरफ पास ही ही बर्फ से ढके पहाड़ खड़े हैं। धीरे-धीरे मैं हिमालय के और करीब पहुंचने लगा। अब मैं जिधर भी देखता उधर ही बर्फ से ढके पहाड़ हैं। चलते-चलते अचानक ही कहीं रुक कर पीछे देखने पर ऐसा लगता है कि मानो जहां से चला था अभी वहीं पर हूं। इतनी देर से चल रहा हूं आखिर में कहां पहुंचा?
केदारनाथ के गुरुदेव ने मुझे बातों ही बातों में एक बार बताया था कि हिमालय में जाना अर्थात किसी भूलभुलैया में प्रवेश करने जैसा है। बुद्धि , धैर्य, भक्ति , एकाग्रता , दृढ़ संकल्प अगर शरीर व मन में नहीं है तो यह कार्य नहीं हो सकता । इस बात को आज मैं समझ सकता हूं।
उत्तर - पूर्व की तरफ ही मैं चलता रहा। शाम हो गई है, सिर के ऊपर आसमान में हल्के लाल - पीले व नीले रंग की छटा फैली हुई है । अंधेरे में पहाड़ी रास्तों पर चलना बहुत ही कठिन है। आज रात के लिए यहीं पर रुक जाऊँ, इसी बारे में सोच रहा था। लगभग 10 मिनट तक और चलने के बाद मैं एक ऐसी जगह पर पहुंचाँ जहां पर जमीन कुछ समतल था। बाएं तरफ की पर्वत की श्रृंखला यहां पर ढलान की तरह है। पास ही एक घना जंगल भी है। बाएं तरफ के पूरे समतल जगह पर यह जंगल फैला हुआ। दाहिनें तरफ कुछ ही दूरी पर पर्वत श्रृंखला है। मुझे ऐसा लगा कि यह जगह बहुत ही अच्छा है। यहां पर कुछ दिन रहने के बाद , सोच - विचार करके आगे बढ़ा जाएगा। और यहां पर मैं एक छोटा सा झोपड़ी घर भी बनाऊंगा। जंगल में लकड़ियों का ढेर होगा तथा इसके अलावा छोटे बड़े पत्थर तो चारों तरफ हैं ही । वह रात किसी तर काटकर भोर होते ही मैं अपने काम में लग गया।
लकड़ी लेने जंगल में कुछ अंदर तक गया था। जंगल में कुछ अंदर जाते ही चीज नजर में पड़ी। यह मैंने तीसरी बार देखा। मैंने पहले दो बार इस बारे में इतना नहीं सोचा था। मैंने देखा कि जमीन पर कुछ दूरी पर कई जगह बड़े-बड़े निशान हैं। उसके अंदर पानी जमने के कारण छोटे छोटे पेड़ - पौधे उग आए हैं। यह बहुत ही अद्भुत बात थी। हिमालय मानो और भी रहस्यमय होता जा रहा था।
बहुत सारे लकड़ी व छोटे पत्थर लाकर दोपहर तक मैंने छोटा सा झोपड़ी घर बना लिया। उसी रात से ही वह अद्भुत घटना शुरू हुई।
इसी तरह लगभग 5 दिन बीत गया। उसी जगह के जंगल में मैंने कई फलों के पेड़ को देखा। बेर , संतरा , सेब और भी कई प्रकार के फलों का पेड़ वहां पर था। उन पेड़ों के डालों पर पके बेर, हरे सेब , संतरा लटक रहे थे। इन्हीं सब फलों को संग्रह करके खाता था।
उस दिन रात से ही वह घटना शुरू हुई। रात को अपने बनाए हुए झोपड़ी में लेटा हुआ था उसी वक्त मेरे कानों में एक आवाज आई। उसके साथ ही जमीन मानो हल्का सा कंपन कर रहा था। उठकर जंगल की और नजर डालते ही मुझे दिखाई दिया कि जंगल के अंदर से कोई चलते हुए जा रहा है। उसका चेहरा बड़ा सा है। जंगल के अंदर कहीं-कहीं पत्तों के बीच से चाँद की रोशनी अंदर गई है। उस जंगल की मिट्टी और पत्थरों में कुछ तो है। रात को चांद की रोशनी में जंगल की मिट्टी से एक हल्की रोशनी निकलने लगती है। चांद की रोशनी और मिट्टी से निकलने वाली रोशनी ने जिस रोशनी को तैयार किया है उसी रोशनी में वह आदमी थोड़ा बहुत दिख रहा है। उसके कंधे पर थैले के जैसा कुछ झूल रहा है। इसके बाद धीरे-धीरे चलते हुए एक गड्ढे को पार करके वह आदमी ढलान वाले रास्ते पर कहीं खो गया।
इसके अगले दिन ही सुबह से भारी बरसात शुरू हुई। उस बरसात का क्या ही कहना पूरे 4 दिन तक होता रहा। इस झोपड़ी को बना लिया था इसीलिए सिर छुपाकर बच गया था। हिमालय में बरसात अर्थात साक्षात मौत। इस जगह पर घना जंगल है शायद इसीलिए यहां तेज बारिश हो रही थी। पांच दिन के बाद बरसात की गति थोड़ी कम हुई। जंगल के अंदर पेड़ों के शाखाओं पर हल्का बर्फ जम गया है। पहले से ही बहुत सारा फल संग्रह करके रख लिया था इसीलिए किसी तरह चल गया। अगर यह नहीं होता तो भी मुझे कोई परवाह नहीं था।
उस दिन रात को ही वह घटना हुई।....

***

प्रोफेसर उपाध्याय लैब के लेफ्ट सेल्टर में बैठकर अपने काम में मग्न थे।
उनका स्टूडेंट आदित्य लैब में आकर उनके तरफ ही जा रहा था। तब तक दरवाजा खुलने की आवाज से प्रोफेसर उपाध्याय अपना चेहरा उठाकर इधर ही देख रहे थे। आदित्य ने अपने हाथ में लिए हुए पार्सल को प्रोफेसर की ओर बढ़ा दिया। पार्सल से कागजों को निकालकर प्रोफ़ेसर साहब देखते रहे। उनको देखकर ऐसा लग रहा है कि वो उन कागजों में अब खो गए हैं....। चश्मे के उस तरफ के दोनों आँख पलक झपकाना भी नहीं चाहते।....

***
क्रमशः....