फिल्मी दुनिया में एक से बढ़कर एक कई प्रतिष्ठित पुरस्कार हैं जो एक्टर्स का मनोबल तो बढ़ाते ही हैं, कभी- कभी सफ़लता का कालजयी इतिहास भी रच देते हैं।
फ़िल्म पत्रिका "फ़िल्मफेयर" द्वारा शुरू किए गए अवॉर्ड्स भी ऐसे ही पुरस्कार हैं जो कलाकारों की अभिनय यात्रा का पैमाना तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
दुनिया की इस सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री के इतिहास में अब तक सबसे ज़्यादा फ़िल्मफ़ेयर बेस्ट एक्टर अवॉर्ड्स जीतने का श्रेय दिलीप कुमार के नाम ही है। पहली बार 1954 में फ़िल्म "दाग़" के लिए अपना पहला पुरस्कार जीतने के बाद दिलीप कुमार ने "देवदास" से लेकर नवें दशक में आई फ़िल्म "शक्ति" सहित कुल आठ बार इस प्रतिष्ठित पुरस्कार को जीता। उनकी आज़ाद, नया दौर, लीडर, राम और श्याम, कोहिनूर जैसी फ़िल्मों में उनके काम के लिए ये पुरस्कार बार- बार उनके नाम हुआ। लेकिन ख़ास बात ये है कि कभी किसी ने ये नहीं कहा कि दिलीप कुमार को इनमें से किसी भी फ़िल्म के लिए साल के बेस्ट एक्टर का पुरस्कार क्यों दिया गया। बल्कि इसके उलट ये कहा गया कि उन्हें मधुमति, मुगले आज़म, अंदाज़, गंगा जमना आदि के लिए भी बेस्ट एक्टर का पुरस्कार मिलना चाहिए था। यही दर्शकों की ओर से किसी भी कलाकार का सबसे बड़ा सम्मान है।
उनकी दिल दिया दर्द लिया, आदमी, अमर, पैग़ाम जैसी फ़िल्मों ने दुख- दर्द की उच्चतम अभिव्यक्ति को जिया। नया दौर जैसी फ़िल्म में उन्होंने जैसे लोगों को बदलती दुनिया के साथ ही खड़ा कर दिया।
पिछली सदी के बीतते- बीतते उन्हें राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित किया गया। उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान से भी नवाज़ा गया।
शुरू से ही एक बड़े संयुक्त परिवार में रहते हुए दिलीप कुमार ने कभी फ़िल्मों को धन से नहीं जोड़ा। और न ही कभी फ़िल्मों के अलावा कोई अन्य तरीका अपने धन को और बढ़ाने के लिए अपनाया। हां, फ़िल्मों में आने से पहले ज़रूर उन्होंने कुछ और व्यवसायों में हाथ आजमाया। उन्होंने पुणे में फलों व मेवों का काम भी किया। किसी भी कार्य में आधिक्य से अधिक संपूर्णता उनका पैशन देखा गया। दिलीप कुमार को अपने समकालीन राजकपूर और देवानंद से एक इसी आधार पर अलग माना जा सकता है। दिलीप ने कार्य के लिए व्यक्तिगत संबंध और संपर्क को भी कभी बीच में नहीं आने दिया। अपने लिये सुविधाजनक स्थिति बना कर आगे बढ़ना उन्हें पसंद रहा।
दिलीप हर लम्हा दिलीप रहे।
दिलीप कुमार से जुड़ा एक ख़ूबसूरत राज़ भी है जिसे आज उनके न रहने के बाद तमाम दुनियां जानती है। काश, ये सच हो जाता।
जी हां, दिलीप कुमार के एक भाई का पोता अयूब खान फ़िल्मों में आया था। शुरू - शुरू में इसे केवल इस सुरूर में ही पसंद किया गया कि जनाब दिलीप साहब के खानदान से ताल्लुक रखते हैं। पर्दे पर उसके गाए गीत "चेहरा क्या देखते हो, दिल में उतर कर देखो ना..." में उसका भोला और मासूम सा चेहरा लगा भी बेहद प्यारा। दबी ज़ुबान से कहा गया कि शायद फिल्मी दुनिया को दूसरा दिलीप कुमार मिल जाए। लेकिन उतावले मीडिया कर्मियों की ये हड़बड़ी भरी घोषणा उस समय टायं -टायं -फिस्स हो गई जब अयूब खान साहब जैसे तशरीफ़ लाए थे वैसे ही वापस तशरीफ़ ले गए। न उनकी फ़िल्म चली और न वो ख़ुद चले।
वैसे फ़िल्म जगत में ये चलन तो है कि कुछ लोग बार- बार नाकाम होकर भी यहां येन केन प्रकारेण बने रह जाते हैं बशर्ते उनका कोई ज़ोरदार आका हो। मसलन उनके अब्बा... अम्मी..! लेकिन अगर आपका कोई नहीं हो तो फ़िर ये कोई खाला का घर नहीं है, आपको जाना ही होगा। लेकिन अयूब खान के दादाजी युसूफ खान साहब फ़िल्मों के बेहद खुद्दार दादाजी ठहरे। लिहाज़ा उनके लिए कुछ नहीं किया जा सका।
एक बार सायरा बानो से पूछा गया कि क्या आपकी इच्छा नहीं होती कि आपकी भी कोई संतान हो...अच्छा, अगर आपकी कोई औलाद होती तो वो कैसी होती??
पूछने वाले ने शायद ये सोचा हो कि मैडम अयूब खान का नाम लें लेकिन इसका कुछ जवाब सायरा जी देतीं उससे पहले ही दिलीप साहब बोल पड़े- "फ़िल्म स्टार शाहरुख खान मेरा बच्चा है। वो मेरा ख्याल बिल्कुल एक बेटे की तरह ही रखता है।"
सायरा जी ने उनकी बात का खंडन नहीं किया बल्कि मुस्कुरा पड़ीं।