एक कहावत है- घर की मुर्गी, दाल बराबर! अर्थात जब तक बच्चे अपने माता- पिता के साथ रहते हैं तब तक न तो बड़े उनकी कद्र करते हैं और न ही वे अपने बड़ों की। बच्चों को अनुशासन के प्रवचन मिलते रहते हैं और बड़ों को उनकी अनदेखी की बेपरवाही।
लेकिन जब वही बच्चे बाहर चले जाते हैं तो उनकी हर छोटी - बड़ी मांग को तवज्जो मिलने लगती है। वो भी मां- बाप का मोल समझने लगते हैं।
देश के विभाजन के बाद सायरा बानो के पिता पाकिस्तान में जा बसे और ख़ुद बेटी पढ़ने के लिए लंदन में रहने लगी। ऐसे में जहां मां नसीम बानो को कभी फ़िल्मों में काम करने की अनुमति तक नहीं मिली थी वहीं छुट्टियों में घर आई सायरा को शूटिंग दिखाने के लिए तो ख़ुद उनकी माताश्री ले ही गईं, बल्कि कुछ निर्माताओं ने इस खूबसूरत गुड़िया को फ़िल्मों में काम करने की पेशकश भी कर डाली।
आख़िर सायरा के शौक़ और मां नसीम की इच्छा ने रंग लाना शुरू किया और स्कूली पढ़ाई पूरी होते - होते ही सायरा को फ़िल्मों में उतारने के बारे में भी गंभीरता से सोचा जाने लगा। अभी सोलह साल की उम्र भी पूरी नहीं हुई थी कि "जंगली" फ़िल्म से सायरा को फ़िल्म जगत में आगाज़ का सुनहरा आमंत्रण मिल गया।
लेकिन राजकपूर का वो छोटा भाई शम्मी कपूर रूपसी सायरा बानो को ज़्यादा पसंद नहीं था। शम्मी कपूर की कुछ फ़िल्में तब तक आ ज़रूर चुकी थीं मगर वो अपने बड़े भाई राजकपूर की तरह कामयाब नहीं था। चुलबुली सायरा तो चाहती थीं कि अगर उन्हें दिलीप कुमार जैसे गंभीर और संजीदा अभिनेता के साथ काम करने का अवसर मिले तो मज़ा आ जाए। उन्हें समझाया गया कि ख़ुद सायरा अभी कमसिन हैं, नादान हैं, नाज़ुक हैं, भोली हैं और सबसे बड़ी बात तो यह है कि उनकी उम्र अभी बड़े बड़े एक्टर्स के साथ संजीदा भूमिकाएं करने की नहीं है।
लेकिन इन्हीं चुलबुली सायरा बानो की मम्मी केवल अपने ज़माने का "परी चेहरा" ही नहीं थीं बल्कि अभिनय में भी बड़ी स्टार का दर्जा भी पा चुकी थीं और इस बेमुरव्वत ज़माने से लोहा लेने में खासी अनुभवी भी हो चली थीं। वो अच्छी तरह जानती थीं कि पृथ्वीराज कपूर के बेटे और राजकपूर के भाई के साथ जोड़ी बना कर लॉन्च होना क्या अहमियत रखता है। ख़ास कर ऐसे में जबकि ख़ुद बिटिया सायरा के पिता पाकिस्तान जा बसे हों और पत्नी नसीम बानो की फ़िल्मों को घटिया कह कर पाकिस्तान में रिलीज़ होने से रोक रहे हों। मां ने सही सलाह देकर सायरा को सही रास्ता दिखाया।
याहू! सायरा फ़िल्मों में आ गईं।
ये सातवें दशक के शुरुआती दिन थे। नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी और नूतन के दिन!
ताज़गी भरे सायरा बानो के चेहरे ने लोगों का ध्यान खींचा। अखबारों ने लिखा कि नए दशक की शुरुआत नए चेहरों से हो रही है। साधना, आशा पारेख, शर्मिला टैगोर और सायरा बानो के कदम नई उमर की नई फसल की तरह पड़े।
लेकिन छोटी- छोटी बातें बड़े- बड़े अफसाने बना देती हैं। लोग कहते कि साधना, आशा पारेख और शर्मिला टैगोर को जहां उनकी स्ट्रगल व जद्दोजहद ने स्टार बनाया, वहीं सायरा बानो को मम्मी की अंगुली थाम कर टहलते हुए कामयाबी की ऊंचाइयां मिल गईं। नतीजा यह हुआ कि रिसालों में उनके अभिनय की नहीं बल्कि चेहरे और नसीब की चर्चा ज़्यादा हुई। शम्मी कपूर भी तो तब तक "बंदरब्रांड उछलकूद" की छवि ही रखते थे।
जो हो, फ़िल्म "जंगली" ज़बरदस्त कामयाब हुई। और ज्वारभाटा, दीदार, आन, देवदास जैसी फ़िल्मों के तिलिस्मी नायक दिलीप कुमार की ये फैन, शोख चंचल लड़की ख़ुद भी एक तारिका बन गई।