साहित्य जगत में ऐसे अनेक नाम हुए हैं, जिन्होंने एक युग की शुरुआत की है। अपने साहित्य सृजन से लोगों को अनेक कृतियां प्रदान की हैं, जिसे पढ़कर पाठक जुड़ाव महसूस करने के साथ-साथ उससे एक आंतरिक लगाव भी महसूस करता है।
साहित्य में अनेक विद्याएं हैं और हर विद्या स्वयं में एक-दूसरे से अलग है। साथ ही हर विद्या की अपनी खासियत है। आज का युग डिजिटल युग है और आज के समय में फेसबुक, व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया पर जितनी रचनाएं तैरती हुए दिखती है, उन अधिकांश रचनाओं में साहित्य की ध्जजियां उड़ती हुए दिखती है। आज प्रेम से लेकर आलोचनात्मक विद्या का स्तर गिर गया है। हालांकि आज भी अनेक किताब और अनेक लेखक ऐसे हैं, जिन्हें पढ़कर साहित्य जीवंत महसूस होता है।
आज के वक्त में साहित्य में अनेक बदलाव देखे जा रहे हैं। आज हम जिसे सबसे ज्यादा मिस कर रहे हैं, उसमें व्यंग्य लेखन शामिल है क्योंकि आज हम जितना अन्य विद्याओं को पढ़ रहे हैं, उसमें व्यंग्य खोता हुआ नज़र आता है। साहित्य जगत में व्यंग्य विद्या का नाम आते ही श्रीलाल शुक्ल जी का जिक्र आना लाजिमी है। श्रीलाल शुक्ल जी व्यंग्य लेखन में एक ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने व्यंग्य के ज़रिये ना केवल सिस्टम से सवाल किए बल्कि उसे किताब के ज़रिये पाठकों तक पहुंचाया भी। उनकी किताब राग दरबारी में उन्होंने सिस्टम में व्यापत हर एक गंदगी का बड़ी ही रचनात्मक तरीके से उल्लेख किया है। श्रीलाल शुक्ल जी ने सरकारी व्यवस्था में रहते हुए भी उसकी परतों में कैद सड़ांध और शैक्षणिक अराजकता को अपनी कालजयी कृति राग दरबारी में उद्घाटित किया है।
सबसे बेहतरीन बात यह है कि श्रीलाल जी स्वयं एक सरकारी ऑफिसर थे और बतौर सिस्टम के अंदर रह कर उसकी कमियों को लोगों को सामने रखना यह एक साहसिक कार्य है इसलिए श्रीलाल जी के बारे में यह कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे एक निर्भीक लेखक थे। उत्तर प्रदेश में 31 दिसंबर 1925 को जन्मे श्रीलाल जी अपने कथा-साहित्य में व्यंग्य लेखन के लिए विख्यात थे। उन्होंने 1949 में उत्तर प्रदेश में बतौर पीसीएस ऑफिसर पद संभाला था और उसके बाद वे 1983 में आईएएस ऑफिसर के पद से सेवानिवृत्त हुए। उनके लेखन पर एक नज़र डाले तो सामने आता है कि उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू हुआ। उनके लेखन के साथ ही एक युग आकार लेना शुरू कर देता है। वे अपनी हर बात बिना किसी लाग-लपेटे के स्पष्ट बोलना पसंद करते थे इसलिए उन्होंने ऐसी अनेक बातें लिखी हैं, जो सीधे तौर पर पाठकों तक पहुंचती है। जैसे- गालियों का मौलिक महत्व आवाज़ की ऊंचाई में है।
वर्तमान शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी एक कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है। यह बोल राग दरबारी से लिए गए हैं, जिसमें श्रीलाल जी ने बड़े ही सटीक तरीके से सिस्टम में बसे सड़ांध को सामने रख दिया है, इसलिए ही उनकी कृतियों में राग दरबारी एक कालजयी उपन्यास बनकर सामने आया, जिसकी 50वीं सालगिरह तक बनाई गई। राग दरबारी का एक किस्सा है कि जब श्रीलाल जी ने इसे लिखकर पूरा किया था, उस वक्त वे एक प्रशासनिक अधिकारी थे इसलिए सिस्टम में रहकर सिस्टम के बारे में लिखे उपन्यास को प्रकाशित करने के लिए उन्होंने अनुमति मांगी मगर उन्हें अनुमति नहीं मिली। जिसके बाद उन्होंने नौकरी छोड़ने का मन बना लिया और उत्तर प्रदेश की सरकार को एक व्यंगात्मक पत्र लिखा। जिसके बाद उनके उपन्यास को प्रकाशित करने की अनुमति मिल गई। शायद इसे ही कहते हैं, एक दरबारी का दरबार में रह कर उसकी पोल खोलना।
1957 में उनका पहला उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' प्रकाशित हुआ था तथा पहला प्रकाशित व्यंग्य 'अंगद का पांव' 1958 में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने कुल 25 किताबें लिखीं, जिसमें आदमी का ज़हर (1972)
सीमाएं टूटती हैं (1973) , मकान (1976) , यह घर मेरी नहीं (1979) , सुरक्षा और अन्य कहानियां (1991) , इस उम्र में (2003) , दस प्रतिनिधि कहानियां (2003) आदि शामिल है। व्यंग्य की बात करें तो उसमें यहां से वहां (1970) , मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं (1979) , उमरावनगर में कुछ दिन (1986) , कुछ ज़़मीन में कुछ हवा में (1990) , आओ बैठ लें कुछ देरे (1995) , अगली शताब्दी का शहर (1996) , जहालत के पचास साल (2003), खबरों की जुगाली (2005) शामिल है।
साहित्य जगत को अपनी कृतियों से अलंकृत करने वाले श्रीलाल शुक्ल जी का निधन 28 अक्टूबर 2011 को उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्हें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले लेकिन जो जगह श्रीलाल जी ने पाठकों के दिलों में बनाई है, वह किसी पुरस्कार से कहीं ऊपर है।