भाग 8
नरोत्तम गिरी साधना में रत हो गया। हिमालय पर्वत श्रृंखला की चोटियों पर लगातार शून्य से भी कम तापमान में तप करता रहा। कई कई बार तो बर्फ से ढंक जाता। जैसे ठंड के निवारण के लिए प्रकृति ने उसे बर्फ की चादर उढ़ा दी हो। प्रकृति के पास भी उस समय वही तो उपलब्ध थी। मौसम बदलते रहे, बर्फ से जमी नदियाँ बहार आने पर कल -कल करती बहने लगीं। वादियों में खुशनुमा फूल खिले। नीलकमल खिला, ब्रम्हकमल खिला। पत्थर सी देह लिये नरोत्तम गिरी ने हरिद्वार की ओर प्रस्थान किया।
आश्रम चहल-पहल से भरा था। कुछ नए नागा दिखाई दे रहे थे जो अभी पूर्णतया नागा रूप में नहीं थे। आश्रम की बगिया में नरोत्तम गिरी द्वारा लगाए पौधे वृक्ष बन गए थे। जिनकी डालियों पर हवन का धुँआ अटका था। वह सात्विक अनुभूति से भर गया। विशाल आसमान तले वह बूँद भर लेकिन जब इस अनुभूति को लेकर अंगड़ाई लेता है तो बाहें आसमान छूने लगती हैं। तप, ध्यान यही तो सिखाता है। एक ऐसी एकाग्रता जिसमें शीशे को पिघलाने की ताकत है। पत्थर को मोम करने की ताकत है। लेकिन स्वयं को अहंकार रहित रखकर ही।
इतने वर्षों के तप के बाद नरोत्तम गिरी अद्वितीय ऊर्जा को लेकर आश्रम में प्रवेश कर रहा था। उसके द्वार के भीतर आते ही दो कम उम्र के नागा तेजी से उसके पास आए।
" प्रणाम आदरणीय नरोत्तम गिरि महंत, दैनिक कार्यों, भोजन आदि के उपरांत आपको मीटिंग कक्ष में आना है, गुरुजी आप को संबोधित करेंगे। समय पर उपस्थिति प्रार्थनीय है। "
आश्चर्य हुआ नरोत्तम गिरी को। ये दोनों उसका नाम कैसे जानते हैं? नागा पंथ सचमुच विलक्षण है। स्नान, श्रंगार, ध्यान, तप .......और फिर पश्चिम दिशा को लालिमा सौंपते अस्ताचलगामी सूर्य की वंदना कर नरोत्तम गिरी भोजन कक्ष में आया। उसके मित्रों का कहीं अता-पता नहीं था। भोजन समाप्त कर वह सीधा गुरु जी की आज्ञा अनुसार निर्देशित कक्ष में पहुँचा तो देखा कई नागा वहाँ विराजमान थे। किंतु गुरु जी उसी से साक्षात्कार करने को उत्सुक थे-
"आओ नरोत्तम, इतने वर्षों के तप, साधना ने तुम्हें निखार दिया है। तप से जो ऊर्जा तुम्हें मिली है हम उसका उपयोग करना चाहते हैं। "
" जी, आज्ञा दे गुरुदेव। "
" तुम्हें प्रशिक्षण केंद्र जाना होगा। नए नागाओं को प्रशिक्षित करना होगा। हालांकि वे 2 वर्ष तक यहाँ ट्रेनिंग ले चुके हैं। यह उनका सन्यास काल का आखिरी तीसरा वर्ष है। फिर वे प्रयागराज महाकुंभ में दीक्षित किए जाएंगे। जैसे तुम सर्दी, गर्मी, बरसात में खुद को ढाल चुके हो। उसी तरह नागा योद्धा तैयार करो। धर्म के कमांडो बनाओ उन्हें। जैसे तुम भरी दोपहर में तपती हुई धरती पर नंगे बदन लेटे। बारिश बर्फ और आग की लपटों के सामने घंटों खड़े रहे। उन्हें भी अपने जैसा बनाओ। विषम से विषम परिस्थितियों को भी मुस्कुराते हुए झेलने में पूरी तरह परिपक्व बनाओ। उन्हें तंत्र, मंत्र, योग और साधना के साथ वेदों की भी शिक्षा दो। राष्ट्र और धर्म के रक्षकों की फौज तैयार करो। देश को कभी भी हमारी जरुरत पड़ सकती है। "
नरोत्तम गिरी गुरु जी के वचनों को अंगीकार करता रहा।
" कहाँ जाना होगा ?"
"कर्णप्रयाग के जंगलों में 100 नौजवान नागा साधु बनने का प्रशिक्षण लेंगे। तुम्हें 20 नौजवानों की टीम को प्रशिक्षित करना है। तुम्हारे साथ चार प्रशिक्षणकर्ता और होंगे लेकिन वे पूर्णतया दिगंबर नहीं हैं। "
"मुझे भी एक वस्त्र धारण करने की अनुमति दें। "
नरोत्तम गिरि महंत ने झिझकते हुए कहा।
" क्या! तुम श्री दिगंबर से एक वस्त्रधारी होना यानी लंगोट पहनना चाहते हो !उल्टी गंगा बहा रहे हो! सोलह वर्षों से तुम तप साधना में लीन अब शरीर की चिंता करते हो?"
" क्षमा गुरुदेव, सभी प्रशिक्षक एक वस्त्र धारी रहेंगे इसीलिए कहा, क्षमा। " नरोत्तम गिरि महंत ने कानों पर हाथ लगाया और गुरुजी के अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा।
किंतु गुरु जी नरोत्तम गिरी के अभी-अभी कहे वाक्य से विचलित थे। तो क्या नरोत्तम को अपने नग्न स्वरूप से लज्जा आती है ! क्या वह नागाओं से इतर समाज में स्वयं को अनुपयुक्त पाता है! कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे नागा पंथ में दीक्षित होने का पश्चाताप हो। गुरुजी देर तक विचारों की आँधी से गुजरते रहे, मंथन करते रहे। नरोत्तम गिरी उनके सम्मुख अविचलित खड़ा रहा। सहसा गुरुजी चेते-
" किन विपरीत परिस्थितियों ने तुम्हें विचलित किया बताओ नरोत्तम। "
नरोत्तम गिरी ने सिर झुका लिया। ह्रदय के भाव आँखों में छुप जाने दिए। वह गुरु जी के भव्य ललाट की चमक में खड़े रहने की हिम्मत जुटाने लगा।
" स्वयं को संभालो नरोत्तम। मोह, माया, सम्मोहन, प्रेम से परे है नागा पंथ। तुमने चलना शुरू कर दिया है इसलिए सँभलना भी तुम्हें ही होगा। जाओ सौंपे हुए कार्य को क्रियान्वित करने की दिशा में कदम बढ़ा दो। हम तुमसे सुबह इसी कक्ष में मिलेंगे। " और गुरु जी उठ कर चले गए।
अपनी विचलित हुई अवस्था से स्वयं को निकालने का प्रयास करने लगा नरोत्तम गिरी। कैसे बताए गुरुजी को कैथरीन से हुई भेंट और फिर उसके संग बिताए उन दिनों के विषय में। थके कदमों से वह कक्ष की ओर लौट रहा था कि सामने गीतानंद गिरी आता दिखा। साढ़े तीन वर्षों बाद अपने मित्र को सामने पा वह सुखद अनुभूति से भर गया।
"गुरुजी ने बताया तुम आ रहे हो और प्रशिक्षण केंद्र में हम साथ ही चलेंगे। बीस रंगरूट मेरे भी जिम्मे हैं। यह तो कहो .....इतने वर्षों कहाँ थे तुम ?"
गीतानन्द गिरि के साथ चलते हुए नरोत्तम गिरी अपने कक्ष में आ गया। गला सूख रहा था। कमंडल में रखे शीतल जल को पीते हुए उसे तरावट का अनुभव हुआ।
गीतानंद गिरि ने भी पानी पीकर बताया कि वह कंचनजंघा की चोटियों पर तप करते हुए मानो भोले भंडारी से साक्षात्कार की अनुभूति से लबालब रहा। तप के वे दिन उसके जीवन के सबसे खुशनुमा दिन थे। "और तुम नरोत्तम?"
" हम तो भोजवासा में थे। भोजवासा की गुफा में हमारी मुलाकात ऑस्ट्रेलियन महिला कैथरीन बिलिंग से हुई जो नागाओं पर जानकारी इकट्ठी करने भारत आई थी। वह मुझे नायक के रूप में लेकर नागाओं पर उपन्यास लिख रही है। उसने मेरे नागा रूप को चुनौती दी है, ललकारा है। " "अच्छा वैसे है तो ये खुशखबरी।
हम नागाओं पर कोई विदेशी महिला लिख रही है यह बड़ी बात है। ये सब विदेशी महाकुंभ में देखने मिल जाते हैं। यह भी इनका दीवानापन है। "
"नहीं वह दीवानगी नहीं थी उसकी। वह महाविदुषी और अपनी सोच में ठहरी हुई महिला है। मैं उसके सामने स्वयं को बौना महसूस कर रहा था। ऐसे ऐसे तर्क थे उसके जिनका कोई काट न था। मैंने ऐसी महिला अपने जीवन में पहली बार देखी। "
यह कहते हुए नरोत्तम गिरी स्वर्गिक आनंद से भर उठा।
गीतानंद गिरीने उसके मुख मंडल पर पूरे विश्व बल्कि पूरे ब्रह्मांड के लिए एक अद्भुत तेज देखा जिसे पाने के लिए शायद वह 3 वर्षों तक हिमालय की चोटियों पर संधान करता रहा।
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अब वह पहले जैसा नरोत्तम नहीं रहा। कैथरीन से प्रथम मिलन की अब तक की उसकी यात्रा मानो पहाड़ों, जंगलों, नदियों, समंदरों, झरनों यहाँ तक की क्षितिज की मिलन रेखा तक को स्पर्श करती अभी भी अधूरी सी लग रही है। नरोत्तम गिरी अब प्रौढ़ हो चुका है। तप, साधना से उसका गौर वर्ण, उन्नत ललाट और भी अधिक देदीप्यमान हो चुका है। गीतानंद गिरि कैथरीन के बारे में विस्तार से जानना चाहता था लेकिन उस रात वे दोनों प्रशिक्षण के नियमों, प्रक्रियाओं आदि पर विचार विमर्श करते रहे। गुरुजी ने उन पर भरोसा किया है। प्रशिक्षण केंद्र भी नया खुला है। नागाओं की संख्या भी तेजी से बढ़ती जा रही है और रुझान अधिक है। हालांकि अब वो प्राचीन समय नहीं रहा जब नागाओं का युद्ध कौशल देश की राजनीति पर कमान रखता था। वह अत्यंत स्वर्णिम समय था। अब तो अखाड़े ही इतने बढ़ गए। पहले सात हुआ करते थे अब तेरह हो गए। अब तो नागा साधु राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाते हैं। लैपटॉप, मोबाइल भी रखने लगे हैं। गुरुजी भी उन्हें कल मोबाइल, लैपटॉप देंगे। पल-पल प्रशिक्षण केंद्र की जानकारी होनी चाहिए। जिन कठिन प्रक्रियाओं से गुजर कर नरोत्तम गिरी और गीतानंद गिरी नागा हुए हैं उनमें भी इजाफा हुआ है। अब तो उन्हें करतब भी सिखाए जाएंगे। अपनी इंद्री पर छड़ी बांधकर तलवार साधना, चलती गाड़ी इंद्री में बंधी रस्सी से रोकना आदि।
सुबह गुरुजी ने सभी प्रशिक्षकों को मोबाइल और लैपटॉप देते हुए महत्वपूर्ण आदेश दिए। प्रशिक्षण केंद्र से प्रतिदिन की सूचनाएं गुरुजी ने नियम पूर्वक भेजने कहा-
" आप सब ईश्वर की ओर अग्रसर होने की चाह रखने वाले मानव मात्र के सेवक समझें स्वयं को। यह समझें कि ईश्वर एक गुरुतर कार्य आपके हाथों कराने जा रहा है। यह सनातन धर्म की रक्षार्थ ही नहीं बल्कि देश की रक्षा के लिए भी आवश्यक है। स्वयं पर नियंत्रण रखते हुए अपने शिष्यों को भी नियंत्रण रखना सिखाएं। आप जो पौध तैयार करेंगे वह भविष्य का वटवृक्ष होगा जिसकी छाया में और भी सैंकड़ों नई पौध तैयार होंगी। सावधान रहें। बम बम भोले। "
सभी ने एक स्वर में नारे लगाए "बम बम भोले "
गुरु जी ने आशीर्वाद दिया -"जाइए अपने लक्ष्य में सफल होकर लौटें। सामान जीप में लादा जा चुका था। आश्रम से विदा लेते हुए नरोत्तम नागा नए मार्ग की ओर प्रस्थान कर रहा था अपने सभी प्रशिक्षक साथियों सहित।
गुरूजी ने उन्हें कर्णप्रयाग तक मिनी बस से पहुँचवाया। वहाँ से जंगलों में स्थित प्रशिक्षण केंद्र तक उन्हें पैदल ही जाना था। जंगल बेहद घना था। प्रकृति ने अपने सौंदर्य का खजाना लुटाया है यहाँ। एक तरफ पहाड़ों से बहती नदियाँ हैं तो दूसरी तरफ घना जंगल। सघन दरख़्तों की डालियाँ आपस में लिपटी हुई। तनों पर फूलों से भरी नाजुक लताएं चढ़ी हुई। रंग बिरंगी चिड़ियों का कलरव जंगल को संगीतमय किये था। पहाड़ से उतराई पर घनी झाड़ियों के बीच से रास्ता प्रशिक्षण केंद्र की ओर ही जाता था। दूर से उन्हें आता देख उनसे कम उम्र के दिखते नागा उन तक आए -
"नरोत्तम गिरि महंत, गीतानंद गिरि महंत, सोमगिरी महंत, अखंडानंद गिरि महंत, प्रहलाद गिरि महंत आप सब गुरुओं का स्वागत है, प्रणाम स्वीकार करें। "
"अब महंत नहीं, आचार्य कहो। आचार्य महामंडलेश्वर। "
दूसरे नागा ने उन्हें प्रणाम करते हुए उनके लैपटॉप के बैग ले लिए और ढलान पर चलने लगा। जंगल की उतराई, चढ़ाई के बाद प्रशिक्षण केंद्र था। प्रशिक्षण केंद्र में बहुत छोटी आयु के लड़के भी थे। 2001 में भुज में आए भूकंप से अनाथ हुए इन लड़कों को महंत सोमगिरी के पास कोई व्यापारी 2 साल पहले आ कर छोड़ गया था। दान दक्षिणा भी दे गया कि आपकी देखरेख में इनका कल्याण होगा वरना भटकते क्या देर लगती है। महंत सोमगिरी उन्हें दो साल तक हरिद्वार में प्रशिक्षण देता रहा। और अब गुरुजी ने सबको यहाँ भेज दिया है। कई तो अपनी मर्जी से घर द्वार छोड़कर आए हैं। यहाँ से प्रशिक्षित कर अगले वर्ष महाकुंभ में इन्हें दीक्षा दी जाएगी।
कर्णप्रयाग की मनमोहक प्रकृति में स्थित प्रशिक्षण केंद्र में धीरे-धीरे सब का मन लगने लगा। पाँचों प्रशिक्षकों ने बीस-बीस लड़कों की अपनी टीम निर्धारित कर ली। प्रशिक्षकों की देखरेख में लड़के तलवारबाजी सीखते, लाठी चलाना सीखते, कठोर धरती पर बड़ी उमंग से सोते। वस्त्रों का त्याग अभी से करवा दिया गया था। ताकि ठंड का अभ्यस्त हो जाए शरीर। सिर्फ लंगोट पहनना पड़ता। नरोत्तम गिरी का ध्यान अपनी टीम के रंगरूटों पर था। सभी बालक सुबह चार बजे उठ जाते। नरोत्तम गिरी तीन बजे उठकर दैहिक, आध्यात्मिक आदि क्रियाओं से निवृत्त हो सभी बालकों को योगाभ्यास सिखाते। कई मंत्रों को कंठस्थ करना होता। दिन भर उनकी वेदों की शिक्षा चलती। फिर अखाड़े में दंड, बैठक, कसरत आदि से शरीर मजबूत बनाने की प्रक्रिया आरंभ होती। शाम को ईश भक्ति के पश्चात भोजन मिलता। बालक एक समय दिए जाने वाले भोजन को बड़ी प्रसन्नता से खाते। भोजन में सभी पौष्टिक पदार्थों का समावेश रहता था। घी, दूध, मक्खन, मेवा, फल, मिष्ठान्न। सभी कुछ मिलता पर 24 घंटों में बस एक बार।
लैपटॉप से सारी सूचनाएं हरिद्वार स्थित आश्रम में गुरुजी के पास प्रत्येक प्रशिक्षक को भेजनी अनिवार्य थी। रोज ही गुरु जी सभी से फोन पर बात कर लेते।
लगभग प्रतिदिन उन्हें जंगल में बहती पहाड़ी नदियों में स्नान के लिए ले जाया जाता था जहाँ प्रशिक्षकों की देखभाल में वे डुबकियाँ लगाने का अभ्यास करते। नाड़ियाँ उतराई की ओर बह रही थीं। जल का बहाव भी तेज होता लेकिन उथली होने के कारण बालक तलहटी के सफेद गोल पत्थरों पर अपने शरीर को साध कर डुबकियाँ लगाते। स्नान के बाद उन्हें पेड़ों पर चढ़कर डालियों पर शयन की अवस्था में लेटने का अभ्यास कराया जाता। नागा परंपरा के अनुसार घने जंगलों में तप करते हुए नागा डालियों को ही अपना शयनकक्ष बनाते हैं। इस अभ्यास में लड़कों को बहुत आनन्द आता। वे गिलहरी की तरह फुर्ती से पेड़ पर चढ़ जाते और डाली पर लेट जाते। ऐसा करते हुए कुछ लड़के पेड़ से गिर भी जाते पर उन्हें अपनी चोट की परवाह नहीं थी। उन पर तो नागा बनने का जुनून चढ़ा था। यही जुनून तो नागा को संपूर्ण विश्व से परे हटा कर सनातन जगत में प्रवेश कराता है।
प्रशिक्षण केंद्र में लौटते हुए नरोत्तम गिरी उन्हें विभिन्न पेड़-पौधों, फलों- फूलों, जड़ी -बूटियों की जानकारी भी देता था। सभी प्रशिक्षकों को अपनी टीम के लड़कों के साथ ऐसा करना होता था। बालक उत्साहित होकर सुनते। कभी वह ईश वंदना के लिए फूल तोड़ने लगते तो कभी फल लेकिन जिव्हा पर पूरा नियंत्रण था। नरोत्तम गिरी की आज्ञा के बिना वे फलों को चखते भी नहीं।
रात को नरोत्तम गिरी उन्हें खुले आकाश तले ग्रह, नक्षत्र, तारों के विषय में भी बताता। आज वह ग्रहों की जानकारी दे रहा था।
जैसे वह विज्ञान कक्ष में अपने शिष्यों को संबोधित कर रहा हो, लेकिन यहाँ जब कि वह भविष्य के नागाओं का मार्गदर्शक है उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही नहीं सनातनी दृष्टिकोण से भी बताना होगा। सनातन धर्म की रक्षार्थ कटिबद्ध नागा पँथ का नरोत्तम गिरी नागा योद्धा अर्जुन की सी दृष्टि साध रहा है। वह नवग्रहों की जानकारी देते हुए असीम आनंद से भर उठा है -
"भविष्य के होनहार नागा बालको, जिस सूर्य की तुम सुबह उठकर उपासना करते हो। सूर्य नमस्कार करते हो। जानते हो सात घो़ड़े खींचते हैं सूर्य रथ को। सूर्य सभी ग्रहों का मुखिया है। सौर देवता, आदित्यों में से एक, कश्यप ऋषी और उनकी पत्नी अदिति के पुत्र हैं। उनके बाल और हाथ सोने के हैं। उनके रथ को जो सात घो़ड़े खींचते हैं, वे सात चक्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे रवि के रूप में रविवार या इतवार के स्वामी हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य की अधिक प्रसिद्ध संततियों में हैं शनि जिसे वैज्ञानिक भाषा में सैटर्न कहते हैं, यम जो मृत्यु के देवता हैं और कर्ण जो महाभारत काल में कुंती के गर्भ से कवच कुंडल लेकर पैदा हुए। सूर्यपुत्री यमी यमुना नदी के रूप में जानी जाती है।
आसमान में चंद्र देखते हो न!
चंद्र मन का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्र को सोम के रूप में भी जाना जाता है और उन्हें वैदिक चंद्र देवता सोम के साथ पहचाना जाता है। अग्नि पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि की रचना करने का मन बनाया तो सबसे पहले मानसिक संकल्प के द्वारा मानस पुत्रों को उत्पन्न किया। उनमें से एक मानस पुत्र ऋषि अत्रि का विवाह ऋषि कर्दम की कन्या अनुसुइया से हुआ जिससे दुर्वासा, दत्तात्रेय व सोम नाम के तीन पुत्र उत्पन्न हुये। सोम को भी चन्द्रमा कहा जाता है
चंद्र को युवा, सुंदर, गौर वर्ण का और द्विबाहु के रूप में वर्णित किया गया है और उनके हाथों में एक मुगदर और एक कमल रहता है। चंद्र हर रात पूरे आकाश में अपना रथ चलाते हैं, जिसे दस सफेद घो़ड़े या मृग द्वारा खींचा जाता है। सोम के रूप में वे सोम वार के स्वामी हैं। वे सत्व गुण वाले हैं।
चंद्रमा के पथ में पड़ने वाले कुछ विशेष तारों के विभिन्न समूह भी हैं जिनके नाम अलग-अलग हैं और जिनकी संख्या सत्ताइस है किंतु इन तारों को उनकी सत्ताइस पत्नियों के प्रतीक के रूप में माना गया है। उनके नाम हैं।
अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा, फाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद
चंद्रमा को नक्षत्रों का राजा यानि नक्षत्रराज कहा जाता है।
इन कर्णप्रिय नामों को सुनकर बालक चकित रह गए। उनके मन में नरोत्तम गिरी को लेकर अपार श्रद्धा की भावना जागृत हुई। उनके गुरु कितने विद्वान हैं। नरोत्तम गिरी ने वक्तव्य जारी रखा। अगला ग्रह उसके नाम का था यानी मंगल। पलभर मौन रहकर उसने खुद को संभाला। मंगल को तो वह कब का त्याग आया है। और त्यागी हुई वस्तु से मोह कैसा ! वह आगे बताने लगा-
"मंगल युद्ध के देवता हैं। मंगल ग्रह को संस्कृत में अंगारक जो लाल रंग का है या भौम अर्थात भूमि का पुत्र भी कहा जाता है। भगवान शिव के अंश हैं मंगल देव।
अंधकासुर दैत्य के साथ शिवजी का अत्यंत घमासान युद्ध हुआ, लड़ते-लड़ते भगवान शिव के मस्तक से पसीने की एक बूँद पृथ्वी पर गिरी, उससे अंगार के समान लाल अंग वाले भूमिपुत्र मंगल का जन्म हुआ।
वे ब्रह्मचारी हैं। उनकी प्रकृति तमस गुण वाली है और वे ऊर्जावान, आत्मविश्वास और अहंकार का प्रतिनिधित्व करते हैं।
बुध एक पँख वाले शेर की सवारी करते हैं। अथर्ववेद के अनुसार बुध के पिता का नाम चन्द्रमा और माता का नाम तारा है।
ब्रह्मा जी ने इनका नाम बुध रखा था क्योंकि इनकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। श्रीमद्भागवत के अनुसार वे सभी शास्त्रों में पारंगत तथा चन्द्रमा के समान ही कान्तिमान हैं। वे व्यापार के देवता भी हैं और व्यापारियों के रक्षक भी। वे रजो गुण वाले हैं और संवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें शांत, सुवक्ता और हरे रंग में प्रस्तुत किया जाता है। उनके हाथों में एक कृपाण, एक मुगदर और एक ढाल होती है और वे रामगर मंदिर में एक पंख वाले शेर की सवारी करते हैं।
बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं और दानवों के गुरु शुक्राचार्य के कट्टर विरोधी हैं। वे शील और धर्म के अवतार हैं, प्रार्थनाओं और बलिदानों के मुख्य प्रस्तावक हैं, जिन्हें देवताओं के पुरोहित के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। वे सत्व गुणी हैं और ज्ञान और शिक्षण का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे पीले या सुनहरे रंग के हैं और एक छड़ी, एक कमल और अपनी माला धारण करते हैं।
शुक्र दैत्यों के शिक्षक है। जो शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व करते हैं। शुक्र, महर्षी भृगु और उशान के पुत्र हैं।
शुक्राचार्य का जन्म शुक्रवार को हुआ था इसलिए महर्षि भृगु ने अपने इस पुत्र का नाम शुक्र रखा।
वे दैत्यों के शिक्षक और असुरों के गुरु हैं जिन्हें शुक्र ग्रह के साथ पहचाना जाता है। वे शुक्रवार के स्वामी हैं। प्रकृति से वे राजसी हैं और धन, खुशी और प्रजनन का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे सफेद रंग, मध्यम आयु वर्ग और मोहक चेहरे के हैं।
शनि काले कौए पर सवार रहते है। शनि हिन्दू ज्योतिष में नौ मुख्य खगोलीय ग्रहों में से एक है। शनि, शनिवार का स्वामी है। इसकी प्रकृति तमस है और कठिन मार्गीय शिक्षण, कॅरियर और दीर्घायु को दर्शाता है। शनि शब्द की व्युत्पत्ति शनये क्रमति सः से हुई, अर्थात वह जो धीरे-धीरे चलता है। शनि को सूर्य की परिक्रमा में 30 वर्ष लगते हैं। उनका चित्रण काले रंग में, एक तलवार, तीर और दो खंजर लिए हुए होता है और वे अक्सर एक काले कौए पर सवार होते हैं।
केतु को आम तौर पर एक छाया ग्रह के रूप में जाना जाता है। उसे राक्षस साँप की पूंछ के रूप में माना जाता है। माना जाता है कि मानव जीवन पर इसका एक जबरदस्त प्रभाव पड़ता है और पूरी सृष्टि पर भी। कुछ विशेष परिस्थितियों में यह किसी को प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचने में भी मदद करता है। वह प्रकृति में तमस है और पारलौकिक प्रभावों का प्रतिनिधित्व करता है।
और नवा ग्रह है राहु
राहु आरोही उत्तर चंद्र आसंधि के देवता हैं। राहु, राक्षसी साँप का मुखिया है जो हिन्दू शास्त्रों के अनुसार सूर्य या चँद्रमा को निगलते हुए ग्रहण को उत्पन्न करता है। चित्रकला में उन्हें एक ड्रैगन के रूप में दर्शाया गया है जिसका कोई सर नहीं है और जो आठ काले घो़ड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार हैं। वह तमस असुर है। हिन्दू ज्योतिष में राहु काल को अशुभ माना जाता है।
सभी बालक अपने अपने स्थान पर बैठे थे। मानो अंगूठी में जड़े नग हों। नरोत्तम गिरी के इतने प्रभावशाली वक्तव्य, ग्रहों की जानकारी और उससे जुड़ी कथाएं उनके मस्तिष्क में हलचल मचाए थीं। नरोत्तम गिरी आनंद के सागर में गोते लगाता अब ठोस धरती पर था।
"अब विश्राम करो बालको। "
सभी बालक नरोत्तम गिरी को प्रणाम कर अपने कक्ष में चले गए। कोई पँछी अपने साथी से संभवत बिछड़ गया था। वह प्रशिक्षण केंद्र के सामने बिल्ववृक्ष पर बैठा करुण पुकार कर रहा था। नरोत्तम गिरी उचाट मन से अपने कक्ष में आ गया।
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कर्णप्रयाग का मौसम हमेशा ही खुशनुमा लगता। नरोत्तम गिरी का प्रयास रहता कि अगर सर्दियों में शून्य से नीचे पारा पहुँच जाए, कोहरे की घनी चादर छा जाए, पूरा जंगल भयंकर ठंड से काँप जाए, ठंडी हवाएँ शूल सी शरीर को चुभें लेकिन बालकों पर इसका असर न हो। घनघोर बरसात में कई कई दिन सूर्य के दर्शन न हों, नदियाँ उफान पर हों और बिजलियों की कड़कड़ाती आवाज प्रशिक्षण केंद्र को थर्रा दे लेकिन बालकों पर इसका असर न हो। लगभग निर्वस्त्र अवस्था में शरीर को मजबूत बनाने वाली क्रियाओं में जुटे रहें...... गीतानंद गिरी, सोमगिरी, अखंडानंद गिरी और प्रहलाद गिरी की टीम के बालक भी इन्हीं सब क्रियाओं से गुजर रहे थे। प्रशिक्षण केंद्र के सौ बालक सभी एक जैसी क्रियाओं में दक्ष हो रहे थे। कोई आगे पीछे नहीं था। धूनी की आग तेज़ लपटों में प्रज्ज्वलित कर सभी को कम से कम 4 घंटे उसके पास खड़े रहना पड़ता। अग्नि का तेज 34 डिग्री तापमान तक बढ़ाया जाता था। बर्फीली चट्टानों पर भी समाधि की अवस्था में बैठना या लेटना होता और आश्चर्य किसी का भी शरीर न तो जलता, न गलता, न फफोले पड़ते। उन्हें शरीर का मोह नहीं तो शरीर को भी उनका मोह नहीं। चीर फाड़ से पहले एनिस्थिशिया जैसी अवस्था हो जाती है। शरीर का भान भी नहीं रहता।
नरोत्तम गिरी को इस सब को सीखने में जितना वक्त लगा उससे कम वक्त में ये बालक प्रशिक्षित हो रहे हैं। ये जीवन के किसी भी ऐसे स्वप्न, ऐसी महत्वाकांक्षा से नहीं गुजरे जो इन की शिक्षा-दीक्षा में व्यवधान डाले। नरोत्तम गिरी गुजरा, प्रेम की पराकाष्ठा से गुजरा, अपने खगोल शास्त्री, इसरो के वैज्ञानिक होने की महत्वाकांक्षा से गुजरा। इन सब से उबरने और खुद को संन्यास पथ पर लाने में उसे समय लगा। कभी-कभी कैथरीन बिलिंग भी यादों में आ धमकती है। चार वर्ष होने आए पर उसके साथ का हर पल जैसे कल ही घटित हुआ हो।
रात को सर्द हवाओं के चलते जंगल साँय - साँय करता। नरोत्तम गिरी को लगता जैसे वह भोजवासा की गुफा में हो। सामने धूनी। धूनी के उस पार कैथरीन सिगरेट पीती हुई।
सोमगिरी कहता है-" ध्यान भटका कि नागा बनने में लगे 12 वर्ष गए गड्ढे में। तुम वहीं के वहीं। अब फिर दो जिंदगी के 12 वर्ष नागा बनने के लिए। जिंदगी न हुई गोया रबर का फीता हो गई। खींचते जाओ। "
बालकों के साथ मन रम गया था। प्रयागराज जाकर कुंभ देखने की इच्छा सभी में बलवती थी।
कुंभ में दीक्षा लेकर फिर यहीं आना है। आगे की इससे भी कठिन परीक्षाओं से गुजरना है। एक कमांडो की भी इतनी कठोर ट्रेनिंग नहीं होती जितनी नागाओं की। एक तरह से पुनर्जन्म होता है नागाओं का।
सभी प्रशिक्षक धूनी को घेरे बैठे थे। और चिलम पी रहे थे। बालक अपने तंबुओं में विश्राम कर रहे थे। "अखाड़ों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। " सोमगिरी ने जानकारी दी कि "इस वक्त हमारा जूना अखाड़ा ही सबसे बड़ा अखाड़ा है। "
"चार लाख नागा है जूना अखाड़े में। "प्रहलाद गिरी ने बताया।
"और सौ हम तैयार कर रहे हैं। "
"सौ ही क्यों और भी न जाने कितने प्रशिक्षण केंद्र हैं हमारी शाखाओं के। "
" गुरुजी की बड़ी योजना है। इस बार के महाकुंभ में कईयों को दीक्षा मिलेगी। इस बार का कुंभ देखने लायक होगा। पूरे 55 दिन का होगा। "
" 14 जनवरी से 10 मार्च तक का। हम लोगों को जनवरी के पहले हफ्ते में हरिद्वार पहुँच जाना है। " कहते हुए नरोत्तम गिरी ने आसमान की ओर दृष्टि डाली। जहाँ ध्रुव तारा चमकता हुआ हमेशा की तरह नरोत्तम को लुभा रहा था।
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