भाग 5
"एक और पंथ है हमारे समाज में अघोरियों का पंथ। क्या आप उनके बारे में जानती हैं ?"पुरोहित जी ने पूछा।
"हाँ मैंने सुना है लेकिन मैं उनके बारे में नहीं जानती। अगर आप कुछ बताएंगे तो मेरे ज्ञान में वृद्धि होगी। "
उनके बारे में तो आपको अष्टकौशल गिरी अच्छे से बता सकेंगे। " नरोत्तम गिरी ने मुस्कुराते हुए अष्टकौशल गिरी की ओर देखा।
"हाँ हाँ क्यों नहीं, हम पहले अघोरी ही थे। " अष्टकौशल गिरी ने चेहरे पर गंभीरता लाते हुए कहा-" सुन सकेंगी माता अघोरियों के जीवन के बारे में। बहुत कठिन और जुगुप्सा भरा जीवन है उनका। "
"फिर भी मैं सुनूंगी। लेकिन पहले यह जानना चाहूँगी कि आप पहले अघोरी साधु थे। फिर उस पंथ को क्यों छोड़ दिया?"
"13 वर्ष का था जब अपनी सौतेली माँ के अत्याचार से पीड़ित होकर मैंने घर त्याग दिया था और अघोरियों की सँगत में पड़ गया था। "
"सच में सौतेली माताएं बिल्कुल कैकेयी होती हैं। "पुरोहित जी ने कहा।
"लेकिन हमारी माता बुरी नहीं थी। जैसे केकैयी राम को प्यार करती थी और मंथरा के भड़काने में आकर उन्हें बनवास दे दिया था। वैसे ही हमारी माता नानी के भड़कावे में आकर हम पर अत्याचार करती थी। भरपेट खाना भी नहीं मिलता था। छह रोटी की भूख और दो रोटी मिलती थी खाने को। पिता से चुगली कर देतीं तो उनकी मार अलग पड़ती। हम भी कब तक सहते। एक दिन घर से भाग निकले और श्मशान पहुँच गए और अघोरियों से मुलाकात हुई। "
कैथरीन गंभीर हो गई -"सच में इस सँसार में कोई भी सुखी नहीं है। सब अपने अपने दुखों का युद्ध लड़ रहे हैं। "
"अघोरियों के बारे में बताइए देवी कैथरीन को अष्टकौशल गिरी महंत। " नरोत्तम गिरी ने बात का रुख मोड़ते हुए कहा।
"पहले अघोरी शब्द का अर्थ जान लें माता कैथरीन। अघोरी शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है 'उजाले की ओर'. साथ ही इस शब्द को पवित्रता और सभी बुराइयों से मुक्त भी समझा जाता है। एक और अर्थ है अघोर का
अ+घोर, अर्थात जो घोर न हो, कठिन या जटिल न हो ! मतलब साफ़ है कि अघोर वह है जो अत्यंत सरल है, सुगम्य है, मधुर एवं सुपाथ्य है तथा सभी के लिए सहज योग्य है ! वास्तव में यह एक स्थिति है, अवस्था है, एक मानसिक स्तर है, एक पद है ! यह आध्यात्मिक क्षेत्र का ऐसा सर्वोत्कृष्ट मानसिक स्तर है जो किसी धर्म, सम्प्रदाय, या पँथ तक ही सीमित नहीं है ! जानकारी के अभाव में बहुधा लोग इसे हिन्दू धर्म से जोड़ कर देखते हैं ! यह सभी के मध्य से गुज़रने वाला सरल पथ है ! इसे धर्म, सम्प्रदाय या पँथ की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता ! यह शाश्वत सत्य का परिचय है ! हिन्दू, मुसलमान, सिख, यहूदी, शैव, शाक्त, वैष्णव सब में है ! इसी से भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न भाषाओं में इस पद पर विराजमान प्राणी को अनेक नामों से संबोधित किया जाता है ! जैसे- औघड़, अवधर, कापालिक, सांकल्य, विदेह, परमहंस, औलिया, अवधूत, मलंग, इत्यादि ! यह परम अभेद की स्थिति होती है ! अभेद, आत्म-बुद्धि जनित होती है ! भेद, देह-बुद्धि जन्य होती है ! अभेद ज्ञान का मूल होता है जबकि भेद अज्ञानता की जड़ ! खान-पान, वेश-भूषा, रहन-सहन, जाति-धर्म, रंग-रूप, साकार-निराकार से विरत होना अभेद के पथ पर अग्रसर होने सरीखा है ! यही है अघोर की सर्वोच्च स्थिति ! उस पराशक्ति सदाशिव का रूप ! इस बात पर सभी एकमत हैं कि एक ही शक्ति है, जिसने इस समस्त ब्रह्माण्ड की रचना की ! सदाशिव ! इनके मुख्य पाँच कार्य माने गए हैं- सृजन, पालन, संहार, अष्टांग-धर्म में वृद्धि स्थित करना और मोक्ष ! कालान्तर में इन्हीं पाँचों कार्यों को पँचमुख के रूप में स्थापित कर पाँच नाम रखे गए, जिसमें से अष्टांग धर्म-बुद्धि में स्थित होने वाले मुख को भेद-विहीन घोर मुख संबोधित किया गया ! इसमें औघड़-दानी शिव से लेकर भगवान् बुद्ध परम अवधूत वेषधारी शुकदेवजी, परशुराम जी के गुरू खंगुनाथ, भगवान् श्रीकृष्ण, १६ वीं शताब्दी के अघोराचार्य महाराज श्री कीनाराम जी, बीसवीं शताब्दी के अघोरेश्वर भगवान् राम जी एवं वर्तमान में (क्रीं-कुण्ड के पीठाधीश्वर) अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी को उसी परम अघोरी सदाशिव के रूप में जाना जाता है ! "
"श्री कृष्ण ने भी तो अघोर पथ के बारे में कुछ कहा है ऐसा मैंने पढ़ा है सुख सागर में। "
पुरोहित जी ने बीच में ही अपनी बात रखी।
"सही बता रहे हैं आप पुरोहित जी
उन्होंने अपने जीवन के अंतिम काल-खंड में अघोर की इस सर्वोच्च स्थिति में अवस्थित होकर जो कुछ कहा, उसे "सुख-सागर" नामक अमरकृति के तीन अध्याय में "अवधूतो-प्राख्यन" के शीर्षक से अलंकृत किया गया है ! अघोर परम्परा का सम्बन्ध सृष्टि के उदय से ही है ! इसके मूल में "अभेद" सूत्र के रूप में स्थित है ! अतः इसका विविध निषेध से परे होना अति-स्वाभाविक है ! यह स्वान्तः-सुखाय है ! स्वात्माराम की उपासना है ! परिणामतः हर तरह के आडम्बर और प्रपंच से यह परे है ! इसमें गुरू की सत्ता सर्वोपरी है ! गुरू ही प्राणी-मात्र की प्राण-वायु है ! गुरू का अवलंब ले, अनवरत अन्दर जाप करना अर्थात "अजपा जाप" करना ही इसकी साधना है ! लिंग और जिव्हा पर नियंत्रण रखना ही इसका मूल आधार है ! अभेद इसका ज्ञान है ! अघोर न तो कोई नया है और न ही कुछ भिन्न ! यह तो शुद्ध रूप से प्रेम का मार्ग है ! यह न तो राजसी भक्ति के तहत है और न ही तामसी ! यह तो सर्वोत्कृष्ट पराभक्ति का पथ है ! प्रेम का पथ है ! प्रेम मतलब हाड-माँस के पुतले अथवा अन्य भौतिक सामग्री में न स्थापित कर, उस परम सत्य में स्थापित करना और उसी में मगन हो हँसना-रोना-गाना-नाचना ही पराभक्ति है और यही अघोर पथ की साधना भी है ! प्रायः लोग अघोर पथ को तांत्रिक परम्परा से जोड़ देते हैं ! तंत्र एक विद्या है और इस तपस्या द्वारा भी अघोर पद में स्थित हो सकते हैं, पर चमत्कार आदि के बंधन से इस पथ के पथिक भटक जाते हैं ! अघोर पद हेतु इन सब की आवश्यकता नहीं होती है ! यह अत्यंत निराली प्रेम और भक्ति की विधा है ! अघोर पथ की दूरी तय करने के लिए अडिग संकल्प, निश्चय और दृढ़ इच्छाशक्ति आवश्यक है !"
"वैसे तो प्रत्येक पँथ में दृढ़ इच्छाशक्ति ही आवश्यक है। अब जैसे देवी कैथरीन है उन्हें हम पर लिखना है अर्थात लिखना है। इसके लिए वे इतनी दूर से हमारे देश में पधारी भी हैं। "
"और इत्तफाक देखिए नरोत्तम गिरी कि इस तरह आप लोग मिल गए और ढेरों जानकारियां मुझे उपलब्ध हो गईं। "
कैथरीन ने हर्ष मिश्रित स्वर में कहा।
हाँ देवी कैथरीन, यह यात्री के विवेक पर निर्भर है कि वह हर स्टेशन पर उतरे या अपने अंतिम लक्ष्य "अघोर पद " पर पहुँचकर ही अपनी यात्रा समाप्त करे ! अब कोई यात्री, "यात्रा" के दौरान बीच-बीच में स्टेशन पर उतरता जाएगा तो निश्चित है कि गंतव्य यानि अपने लक्ष्य (अघोर पद) तक पहुँचने में उसे विलम्ब होगा ! यह भी संभव है कि किसी एक स्टेशन के "आकर्षण" में उलझ कर यात्री उसके क्षणिक आनंद में भटक जाए ! और अगर ऐसा होता है तो यात्री उस सीमित दूरी के स्टेशनों से ही अवगत हो पाता है ! परिणामतः अन्य जिज्ञासाओं या अनुभवों से अधिक जान नहीं पाता ! हालांकि वह यात्री अघोर पथ का ही यात्री है, भले ही भटक गया हो और अघोर पद पर अवस्थति न हो सका हो ! बावजूद इसके वह यात्री भी खुद को अघोर पद पर अवस्थित जान कर, मानकर भ्रमित रहता है ! अन्यथा अघोर की यात्रा तो बड़ी निराली है ! जिस किसी ने भी अपनी यात्रा के बीच के सभी स्टेशनों के आकर्षणों को जानते-बूझते-समझते हुए भी छोड़ दिया और आगे बढ़ गया और अन्ततः अघोर पद रूपी अंतिम स्टेशन पर पहुँचकर ही यात्रा समाप्त की, उसे परम-सत्य सच्चिदानंद स्वरुप की चरम स्थिति की उपलब्धि तो हो ही जाती है, साथ ही यात्रा के दौरान पड़ने वाले विभिन्न स्टेशनों का आकर्षण जो सच्चिदानंद का ही छोटा-बड़ा हिस्सा होता है, वह रश्मियों के रूप में उसके चारों तरफ सेवा के लिए हर पल तत्पर रहता है ! प्रकृति उसकी दासी होती है ! इसी को किताबी भाषा में ऋद्धि-सिद्धि या चमत्कार आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है। "
"यात्री और स्टेशन की अच्छी उपमा देकर आपने बहुत विस्तार से अघोर पथ को समझाया नरोत्तम गिरी। अब इसकी बारीक स्थितियों को मैं अष्टकौशल गिरी से जानना चाहूँगी। "
"जी माता, आपकी जिज्ञासा हमें कहने के लिए प्रेरित कर रही है।
अघोरी अपने तंत्र-मंत्र के कारण प्रसिद्ध हैं। अघोरी भारत के साधुओं और संन्यासियों का एक विशेष कबीला है। इनका अस्तित्व कई हजार सालों से हैं। सबसे पहले अघोरी साधु कीनाराम थे। वे वाराणसी (बनारस) में गंगा नदी के किनारे रहते थे जहाँ काशी विश्वनाथ मंदिर है। मोक्ष की तलाश में ये साधु भैरव के रूप में भगवान शिव की पूजा करते हैं। इनका मानना है कि भगवान शिव का एक रुप अघोरी भी है। यह स्वतंत्रता उन्हें उस परम तत्व के साथ अपनी पहचान का अहसास कराती है। जिस मौत का भय लेकर हम जीते हैं ये उसी मौत का आनंद लेते हुए उसका सम्मान करते हैं।
उनका भगवान को प्राप्त करने का बिलकुल अलग तरीका है। एक ओर जहाँ हम पवित्रता और शुद्धि में भगवान को तलाशते हैं वहीं उनका मानना है कि गंदगी में पवित्रता को ढूँढना ही ईश्वर प्राप्ति है। संभवतः यही कारण है कि कुत्तों और गायों के साथ अपना भोजन बाँटने में इन्हें कोई घृणा नहीं होती है। ये जब भी खाना खाते हैं उनके साथ रहने वाले जानवर भी एक ही प्याले में साथ खाते हैं। उनका मानना है कि यदि वे पशुओं के खाना गंदा करने जैसी तुच्छ चीजों पर गौर करेंगे तो वे भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए ध्यान केंद्रित नहीं कर पाएंगे।
अघोरी साधु दिल में किसी के प्रति नाराजी नहीं रखते। इनका मानना है कि जो लोग नफरत करते हैं, वे ध्यान नहीं कर सकते। "
"इस बात से तो मैं भी सहमत हूं। नफरत करने वाले कभी भी ईश्वर का ध्यान नहीं कर सकते क्योंकि उनके मन में सिवा नफरत के कुछ होता ही नहीं है। ध्यान के लिए विकार रहित हृदय चाहिए। " कैथरीन ने सहमति प्रगट की।
"इनके काफी सँस्कार नागाओं से मिलते जुलते हैं। जैसे ये भी भस्म को शरीर का वस्त्र मानते हैं।
जिसे भगवान शिव ने भी धारण किया था। बचपन से ही वे इसका इस्तेमाल करते हैं। पाँच सामग्रियों से बनी यह भस्म उन्हें अनेक बीमारियों और मच्छरों से बचाती है। अघोरी अपने शरीर पर सिर्फ जूट का एक छोटा कपड़ा लपेटे नग्न ही घूमते हैं। उनके लिए नग्न होने का मतलब है साँसारिक चीजों से लगाव न रखना। अधिकतर वे अपनी नग्नता मिटाने के लिए शरीर पर मानव शवों की भस्म भी रगड़ लेते हैं। मानव खोपड़ी को सिर में आभूषण की भांति धारण करते हैं।
"ओह, अमेजिंग। " कैथरीन ने सिहर कर कहा।
"आप तो सुनते जाइए देवी। अभी तो अघोरियों के कई रूपों से आपका परिचय कराएंगे अष्ट कौशल गिरी। "
नरोत्तम गिरी ने होठों पर चिलम रखकर भरपूर साँस खींची।
"अरे, बड़ा विकट है इनका जीवन।
रात में लोग भूतों और राक्षसों के डर से जिस शमशान में जाने से डरते हैं ये लोग वहाँ बैठकर ध्यान करते हैं। साफ-दूषित, पवित्र-अपवित्र के अंतर को मिटाकर वे उन जादुई शक्तियों को हर चीज का इलाज करने के लिए मन्त्रों से सिद्ध करते हैं।
घनी आबादी वाला शहर होने के बावजूद अघोरी वाराणसी में बिना किसी रोकटोक के नर माँस खाते हैं। वे अपनी जरूरत के लिए लोगों को मारते नहीं हैं, केवल श्मशान से शव लेकर खाते हैं। इन शवों को ये कच्चा ही खाते हैं। कभी-कभी इन्हें खुले में आग जलाकर भी पकाते हैं। माँस की एक निश्चित मात्रा खाने के बाद वे शव के ऊपर बैठकर साधना करते हैं जो पूरी रात चलती है।
"डेड बॉडी को खाते हैं?" रोंगटे खड़े हो गए कैथरीन के। अष्टकौशल गिरी ये किस लोक की सैर करा रहे हैं। क्या ऐसा सब इस धरती पर होना सँभव है? विश्वास नहीं हो रहा था कैथरीन को। गुफा में एक सन्नाटा सा खिंच गया था। केवल धूनी में जलती, चिटखती हुई लकड़ियों की आवाज थी जो माहौल को और भयभीत किए थी। अष्टकौशल गिरी अपने अतीत को चलचित्र सा खींच रहे थे-
"मानव कंकाल और खोपड़ी उनकी पहचान है। नदी पर तैरती हुई लाशों से ये सब निकालना इनका पहला काम होता है। अपने गुरु से जादुई मंत्र हासिल करने के बाद ये अघोरी के रूप में जीवन बिताना शुरू करते हैं और मृत अवशेषों को खाते हैं और गंगा के ठंडे बर्फीले पानी में नहाते हैं। आग की धूनी उनका मंदिर होता है और भूतों और बुरी आत्माओं का निवास श्मशान उनका घर होता है।
उनका पूर्ण ध्यान भगवान शिव को प्राप्त करना होता है और इसके लिए वे बाहर कम ही निकलते हैं। उन्हें अपने ध्यान और आराधना में सच्चे सुख की प्राप्ति होती है।
अघोरी दावा करते हैं कि कई लाइलाज बीमारियों का इलाज उनके पास है। ये दवाइयां हैं मनुष्य की हड्डियों से निकला हुआ तेल जिसे ये जलती चिता से प्राप्त करते हैं। ये दावा करते हैं कि इस तेल में कई बीमारियों का इलाज है। इलाज करने की शक्ति उनमें काले जादू से आती है। वे कहते हैं कि वे अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कभी बुरे कार्यों के लिए नहीं करते। इसके बजाय वे लोगों के रोग को समझते हैं और उनके पास आए हुए लोगों का इलाज अपने काले जादू से करते हैं। काले जादू का ज्यादा इस्तेमाल करने वाले कुछ अघोरी साधुओं के अनुसार वे भगवान शिव और काली माँ को जितना प्रसन्न करेंगे उनकी शक्ति उतनी ही बढ़ेगी। "
"अघोरियों के भोज्य पदार्थ जब आप सुनेंगी माता तो चकरा जाएंगी। कल्पना से परे और मनुष्य मात्र के लिए त्याज्य। "
इतनी देर से चुप बैठे पुरोहित जी ने कहा।
कैथरीन मौन ही रही, वह एक ऐसी दुनिया से परिचित हो रही थी जिसकी कल्पना करना भी दूभर है।
अष्ट कौशल गिरी अपनी धुन में थे-
"अघोरी अपनी भयानक भूख के लिए जाने जाते हैं। वे ऐसी चीजें खाते हैं जो एक सभ्य व्यक्ति नहीं खा सकता। जैसे कचरा पात्र में डाला खाना, मल, मूत्र और सड़े हुए मानव शव। इस भयानक भूख के पीछे उनके अपने तर्क हैं। मल, मूत्र जैसी उत्सर्ग चीजों को खाने के पीछे उनका मानना है कि इससे अहंकार का नाश होता है और सुंदरता का मानवीय दृष्टिकोण हटता है जो कि अघोरी के रूप में जीवन जीने के लिए आवश्यक है। कोई भी अघोरी अपने आपको भांग और गांजे के सेवन से नहीं रोक सकता। उनका मानना है कि इससे उन्हें दैनिक क्रियाएं करने और धार्मिक, मंत्रों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है। "
इस तरह की दिनचर्या और साधना वाले प्राणी भी इस धरती पर बसते हैं सोचा कैथरीन ने। कुछ पल मौन रहकर उसने अष्टकौशल गिरी से आग्रह किया-
" आपने अपने वक्तव्य के आरंभ में में कहा था कि नागा और अघोरियों के बहुत सारे संस्कार मिलते जुलते हैं। कृपया बताइए कैसे?"
"नागा और अघोरी दोनों ही पूरे तरीके से परिवार से दूर रहते हैं। इन दोनों को ही साधु बनने की प्रक्रिया में अपना श्राद्ध करना होता है और इस वक्त ये अपने परिवार को भी त्याग देने का प्रण लेते हैं। परिजनों और बाकी दुनिया के लिए भी ये मृत हो जाते हैं। अपनी तपस्या के लिए फिर कभी अपने परिवार वालों से नहीं मिलते।
दोनों ही प्रकार के साधु बनने की प्रक्रिया में करीब 12 वर्ष का समय लगता है। मगर इनकी प्रक्रिया काफी अलग होती है। नागा साधु बनने के लिए अखाड़ों में दीक्षा लेनी पड़ती है, जबकि अघोरी बनने के लिए श्मशान में जिंदगी के कई साल काफी कठिनता के साथ गुजारने पड़ते हैं।
नागा और अघोरी के पहनावे-ओढ़ावे में भी काफी अंतर होता है। नागा साधु बिना कपड़ों के रहते हैं। जबकि अघोरी ऐसे नहीं रहते। भगवान शिव के ये सच्चे भक्त उन्हीं की तरह ही जानवरों की खाल से अपने तन का निचला हिस्सा ढकते हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया में अखाडे़ के प्रमुख को अपना गुरु मानना पड़ता है और फिर उसकी शिक्षा-दीक्षा में नागा साधु बनने की प्रक्रिया सम्पन्न होती है। वहीं अघोरियों के गुरु स्वयं भगवान शिव होते हैं। अघोरियों को भगवान शिव का ही पाँचवां अवतार माना जाता है। अघोरी श्मशान में मुर्दे के पास बैठकर अपनी तपस्या करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उन्हें दैवीय शक्तियों की प्राप्ति होती है।
अघोरी तीन तरह की साधना करते हैं, शव साधना, जिसमें शव को माँस और मदिरा का भोग लगाया जाता है. शिव साधना, जिसमें शव पर एक पैर पर खड़े होकर शिव की साधना की जाती है और श्मशान साधना, जिसमें हवन किया जाता है।
नागा साधुओं के दर्शन अक्सर हो जाया करते हैं, मगर अघोरी कहीं भी नजर नहीं आते। ये केवल श्मशान में ही वास करते हैं। जबकि नागा साधु कुंभ जैसे धार्मिक समारोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं और उसके बाद यह वापस हिमालय की ओर चले जाते हैं। मान्यता है कि नागा साधु के दर्शन करने के बाद अघोरी के दर्शन करना भगवान शिव के दर्शन करने के बराबर होता है।
लेकिन अघोरी नागा साधुओं की तरह ब्रह्मचारी नहीं होते बल्कि मुर्दों के साथ अपने शारीरिक संबंध भी बनाते हैं कई अघोरी तो जीवित व्यक्तियों के साथ भी शारीरिक संबंध बना लेते हैं। "
"मुर्दों के साथ शारीरिक संबंध! ओ माय गॉड। कैथरीन के नेत्र विस्मय से फैल गए। उसने बारी-बारी से तीनों साधुओं और पुरोहित जी को देखा और नेत्र झुका लिए।
"लेकिन अघोरियों में भैरवी का बहुत महत्व है। "पुरोहित जी ने कहा।
"रूकिए भैरवी के बारे में भी बताएंगे। अभी तो बहुत कुछ बताना शेष है। माता, अघोर पंथ को घृणा की दृष्टि से न देखें। वे बहुत सहज सरल होते हैं लेकिन उनके पँथ के जो कठोर नियम और कायदे हैं उनका पालन करना तो आवश्यक होता है।
अघोरी को कुछ लोग ओघड़ भी कहते हैं जो कि इस मार्ग का प्रथम चरण है। अघोरियों को डरावना या खतरनाक साधु समझा जाता है लेकिन जैसा कि मैंने आपको बताया था माता अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। कहते हैं कि सरल बनना बड़ा ही कठिन होता है। सरल बनने के लिए ही अघोरी कठिन रास्ता अपनाते हैं। साधना पूर्ण होने के बाद अघोरी हमेशा- हमेशा के लिए हिमालय में लीन हो जाता है।
जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है। लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के माँस व कफन आदि से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।
अघोर विद्या सबसे कठिन लेकिन तत्काल फलित होने वाली विद्या है। साधना के पूर्व मोह-माया का त्याग जरूरी है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाएं।
"वाह, इतनी सुंदर और मनुष्यता से भरी भावनाएं!"
"हाँ देवी, अघोर पँथ हो या नागा पँथ हो या कोई भी इस तरह का पँथ। इसके अनुयायी अपने लिए नहीं जीते। बल्कि अपना सब कुछ त्याग कर मानवता के लिए जीते हैं। धर्म और देश के लिए जीते हैं। "
"इस पँथ में आने के लिए और पूरी तरह दीक्षित होने के लिए कितने कष्टों से गुजरते हैं वे, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। "
"जी महाकाल गिरी, नागा बनने की, नागा पँथ में दीक्षित होने की सभी तरह की ट्रेनिंग और प्रक्रिया से नरोत्तम गिरी ने परिचित कराया है और अब अघोर पँथ से परिचित करा रहे हैं अष्टकौशल गिरी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। "
कहते हुए कैथरीन ने हाथ जोड़े। वह कृतज्ञता से भरी हुई अष्टकौशल गिरी की बातें सुन रही थी। उनकी आवाज शंखघोष सी कानों में मिश्री घोल रही थी।
"सभी तरह के वैराग्य को प्राप्त करने के लिए ये साधु श्मशान में कुछ दिन गुजारने के बाद पुन: हिमालय या जंगल में चले जाते हैं।
अघोरी खाने-पीने में किसी तरह का कोई परहेज नहीं करता। रोटी मिले तो रोटी खा लें, खीर मिले खीर खा लें, बकरा मिले तो बकरा और मानव शव मिले तो उससे भी परहेज नहीं।
औघड़ों में यह सामान्य धारणा है कि उनके मत के प्रवर्तक गोरखनाथ थे। यह हिमाली घराना है। इन साधकों को हिमाली कहा गया है। नेपाल में गोरखनाथ का प्रभाव अत्यधिक था। कालांतर में इस मत वाले ही अघोर उपासना करते हुए मैदानों में आए। ये हिमालय प्रदेश से आ रहे थे, इसलिए हिमाली कहलाए।
अब पुरोहित जी की बात जो उन्होंने भैरवी के बारे में उठाई थी उसके बारे में सुनिए।
साधक के लिए भैरवी की गोद पृथ्वी की तरह है, क्योंकि वह साधक की साधना के रहस्यों का उत्पत्ति-स्थल है और वही उसका भविष्य भी बनाती है।
इतना माहात्म्य होने पर भी साधक को भैरवी का मानसिक चिंतन करना वर्जित हैं, क्योंकि मानसिक साधना करने से बहुत बड़ा अपराध होता है। उससे चित्त की एकाग्रता भंग होती है। "
"यह भैरवी कौन होती है?" प्रश्न कैथरीन का था।
"और अघोरियों के जीवन में इसका क्या महत्व है?"
"बहुत महत्व है माता, भैरवी का शक्ति स्वरूप अघोरियों के तंत्र साधना को सिद्ध करने के काम आता है। अगर किसी स्त्री में भैरवी शक्ति जागृत हो जाती है तो वह अघोरियों के बहुत काम आती है। वे उसके साथ शारीरिक संबंध भी बना लेते हैं। ऐसा करने से उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं। "
"बहुत विचित्र है अघोरी पँथ। विश्वास ही नहीं हो रहा। "कैथरीन ने कहा, उसकी जिज्ञासा लगातार बनी हुई थी।
"अघोर पँथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है। अघोरी जानना चाहता है कि मौत क्या होती है और वैराग्य क्या होता है। आत्मा मरने के बाद कहाँ चली जाती है? क्या आत्मा से बात की जा सकती है? ऐसे ढेर सारे प्रश्न है जिसके कारण अघोरी श्मशान में वास करना पसंद करते हैं। मान्यता है कि श्मशान में साधना करना शीघ्र ही फलदायक होता है। श्मशान में साधारण मानव जाता ही नहीं, इसीलिए साधना में विघ्न पड़ने का कोई प्रश्न नहीं।
अघोरियों के पास भूतों से बचने के लिए एक खास मंत्र रहता है। साधना के पूर्व अघोरी अगरबत्ती, धूप लगाकर दीपदान करता है और फिर उस मंत्र को जपते हुए वह चिता के और अपने चारों ओर लकीर खींच देता है। फिर तुतई बजाना शुरू करता है और साधना शुरू हो जाती है। ऐसा करके अघोरी अन्य प्रेत-पिशाचों को अपनी साधना में विघ्न डालने से रोकता है। "
"क्या आप भूत पिशाच पर विश्वास करते हैं नरोत्तम गिरी। "
"देवी, यह तो अपनी अपनी धारणा है। हमने भूत देखे नहीं इसलिए हम नहीं जानते कि वह होते भी हैं या नहीं। "
"मैंने भी नहीं देखे भूत। लेकिन पढ़ा खूब है इनके बारे में। "कैथरीन ने डिब्बे में से सिगरेट निकालकर जलाते हुए कहा। इतनी देर से वह केवल सुन रही थी। सिगरेट की तलब देर से लगी थी। नागा साधुओं की चिलम तो खत्म ही नहीं होती। नरोत्तम गिरी महाकाल गिरी कितनी देर से चिलम पी रहे हैं।
गुफा में बहुत ही रोचक, जिज्ञासा भरा और रोमाँचकारी वातावरण बनता जा रहा था। नरोत्तम गिरी ने चिलम अष्टकौशल गिरी की ओर बढ़ाते हुए कहा -"लीजिए एक सुट्टा लगा लीजिए। फिर आगे की कहानी कहना। "
अष्टकौशल गिरी ने मुस्कुराते हुए चिलम मुँह में रखी और गहरा दम भरा। धुँआ कलेजे में भीतर तक उतरता चला गया। अष्टकौशल गिरी पहुँच गए अघोरियों के लोक में।
"बहुत अलग हटकर बल्कि अद्भुत पहनावा और वेशभूषा रहती है अघोरियों की। कफन के काले या सफेद वस्त्रों में लिपटे अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी होती है। नरमुंड न हो तो वे प्रतीक रूप में उसी तरह की माला पहनते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध और पूरे शरीर पर राख लिपटी रहती है। ये अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
अघोरपंथ के लोग चार स्थानों पर ही श्मशान साधना करते हैं। चार स्थानों के अलावा वे शक्तिपीठों, बगलामुखी, काली और भैरव के मुख्य स्थानों के पास के श्मशान में साधना करते हैं। "
"आप शक्तिपीठ क्या है इस विषय में जानती हैं?"
"हाँ जानती हूँ और इससे संबंधित कथा भी मैंने पढ़ी है। "
पुरोहित जी कैथरीन से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कहा-" आपको हिंदू आध्यात्म का बहुत ज्ञान है और आपकी रुचि भी है उसमें। यह हमारे लिए गर्व का विषय है। "
"जी कोशिश यही है कि सभी ग्रंथों को, उपनिषदों को, वेदों को पढ़ सकूँ और ज्ञान अर्जित कर सकूँ। देखिए कितनी सफल होती हूँ। " कैथरीन ने भाव विभोर होकर कहा
"अवश्य सफल होंगी माता। आपमें गहरा लगाव है जो ज्ञान के लिए बहुत ज्यादा आवश्यक है। "
"जी...... अब रात बहुत हो गई है मैं सभी शक्तिपीठों के बारे में मालूम करने के लिए कल आपसे मुलाकात करूँगी। शक्तिपीठों की विस्तार से मुझे जानकारी नहीं है। यह तो पता है कि वे 51 है लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है उन्हें पुराणों में 52 बताया है। "
"सही कह रही हैं देवी कैथरीन। यह विषय विस्तृत और वृहद है। कल हम तप साधना से निवृत्त होकर इसी स्थान पर फिर मिलेंगे और इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। महाकाल गिरी शक्तिपीठों की अच्छी जानकारी रखते हैं। वे भी सहयोग करेंगे। "
नरोत्तम गिरी ने विदा लेते हुए विश्राम करने के लिए प्रस्थान किया। दोनों साधु भी विश्राम के लिए चले गए। कैथरीन को पुरोहित जी गुफा के द्वार तक ही नहीं बल्कि उसके तंबू तक छोड़ने आए।
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