भाग 3
नींद नहीं आई। करवटें बदलता रहा। बेचैनी बढ़ती गई। वह बाहर खुले आकाश के नीचे निकल आया। सारी पृथ्वी आकाश के नीचे ही नजर आती है। दूर सप्तर्षि मंडल प्रश्न चिन्ह सा आकाश में विराजमान था। इस प्रश्न चिन्ह में सात तारे यानी सात नक्षत्र के रूप में सात महान ऋषियों के नाम जगमगा रहे थे। मरीचि, वशिष्ठ, अंगीरसा, अत्री, पुलस्त्य, पुलहा और कृतु। इनके नीचे एक नन्हा सा तारा अरुंधति है। जहाँ सप्तर्षि मंडल है वहीं उत्तर दिशा में सदैव विराजमान रहने वाला ध्रुव नक्षत्र है। बेहद चमकीला और बड़ा। दोनों के बीच सतत बहने वाली आकाश गंगाएँ हैं। यह सप्तर्षि मंडल ध्रुव के चारों ओर विभिन्न ऋतुओं बसंत, शिशर, शरद और ग्रीष्म में अपना स्थान बदलते रहते हैं। कितना अद्भुत है कि इन चारों ऋतुओं में बदले हुए स्थानों को आपस में दो धन के चिन्ह की रेखाओं से जोड़ें तो स्वस्तिक बन जाता है।
दूरबीन बनी उसकी आँखें आकाश मंडल से हटने का नाम ही नहीं ले रही थीं। मानो इसरो के प्रांगण में खगोल शास्त्री डॉ मंगल सिंह खड़ा है। सपना राख हो गया पर चिंगारी तो अब भी दबी है न।
दिनचर्या का यही क्रम चलता रहा बरसों। अब वह गणना नहीं करता कि उसे नागा साधु हुए कितने वर्ष बीत गए। ध्यान, हवन, योग, तप जैसे आवां में तप कर वह दिन पर दिन निखर रहा है। ज्ञानकोष बढ़ता जा रहा है। तप उसकी स्मृति को तेज़ कर रहा है। देह उसे कभी नहीं सताती। आभास ही नहीं है देह का। विदेह हो गया है वह। पँचमुखी रुद्राक्ष पहन कर उसने पाँचों इंद्रियों पर विजय पा ली है। रुद्राक्ष पाँच इंद्रियों के दमन का प्रतीक है। शांति पाने का सहज मार्ग। महर्षि विश्वामित्र की तपस्या को स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने खंडित कर उनकी कामेच्छा जगा दी थी। न वे बच पाए इस इच्छा से, न इंद्रदेव। लेकिन उसने कामेच्छा पर विजय पा ली है। ब्रम्हचर्य ने उसके अंदर तेज का संचार कर दिया है।
घनघोर बरसते काले बादलों ने दोपहर को सुरमई अंधेरे में बदल दिया। तप की समाप्ति पर नरोत्तम उठा।
आश्रम में लौटते हुए वह लगातार धर्म के बारे में ही सोच रहा था। यहूदी, हिंदू, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम और सभी धर्मों का स्वरूप जीवन को सुंदर और नैतिक मूल्यों से संपन्न करने का रहा। लेकिन जिन बुराइयों की वजह से ( कुरीतियां, अन्याय, अराजकता, शोषण, जाति- पांती का भेदभाव ) धर्म का जन्म हुआ कालांतर में सभी धर्म उन्हीं बुराइयों के शिकार हुए। वह सनातन धर्म के निखरे स्वरूप को देखना चाहता है। भोजन के पश्चात गुरुजी धूनी के सामने चिलम पी रहे थे और वहाँ बैठे नागाओं से किसी मुद्दे पर विमर्श कर रहे थे। वह भी वहीं बैठ गया। गुरुजी ने पूछा -"कहो नरोत्तम सब ठीक-ठाक चल रहा है न?"
"जी आदरणीय गुरुदेव, अगर आज्ञा हो तो मैं हिमालय जाकर तपस्या करना चाहता हूँ। "
"इतने वर्षों की कठोर साधना ने तुम्हें थानापति के पद से सुशोभित किया है। जाओ दिगंबर श्री का तप करो। बर्फीले पर्वतों पर विदेह होकर। हरिद्वार में दीक्षा के कारण तुम बर्फानी नागा हो। "
उसने गद्गद होकर साष्टांग दंडवत करते हुए हाथ जोड़े-" मैं धन्य हुआ, आपकी आज्ञा मिल गई।
इस एकादशी को मैं हिमालय की ओर प्रस्थान करूँगा। "
गुरुजी ने उसके सिर पर हाथ फेरा- "विद्वान हो तुम और भी ज्ञान प्राप्त करो और भी तेज प्राप्त करो। जाओ कल्याण हो तुम्हारा। "
गुरुजी का आशीर्वाद प्राप्त कर एकादशी के दिन उसने दंड, कमंडल, त्रिशूल, डमरू आदि लेकर हिमालय की ओर प्रस्थान किया। हफ्तों चलकर वह भोजबासा पहुँचा और भोजबासा की एक गुफा को अपने तप स्थल के रूप में चुना।
चारों ओर भोजपत्र के जंगल। भोजपत्र की सफेद छाल पर ही सारे आध्यात्मिक ग्रंथ लिखे गए हैं। यह जंगल समुद्र तल से साढ़े चार हज़ार मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। गोमुख ग्लेशियर जहाँ से माँ गंगा प्रगट हुई हैं देखने के लिए यहाँ गर्मियों में पर्यटकों का तांता लगा रहता है। उसे गोमुख भी जाना है। लेकिन अभी तो कुछ महीने भोजबासा और फिर हिमालय के अन्य शिखरों वादियों में तपस्या करनी है।
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डेढ़ वर्ष तक वह तपस्या में लीन रहा। पर्वतारोहियों से मुलाकात के बाद वह सीधा गोमुख ग्लेशियर के दुर्गम रास्ते पर चलने लगा। अठारह किलोमीटर की पदयात्रा के पश्चात गोमुख ग्लेशियर के दर्शन हुए। बर्फ से पटे हुए थे सारे स्थल। तापमान शून्य के नीचे। भागीरथी नदी के उद्गम स्थल के बर्फीले जल में स्नान कर उसे लगा जैसे उसने स्थिरता पा ली है..... अभी-अभी पर्वतारोहियों के प्रश्न पर वह जो अतीत में थोड़ा सा भटक गया था। वह भटकन भी बह गई पवित्र भागीरथी में।
गोमुख गंगोत्री का छोर तथा भागीरथी नदी के आसपास के भोजपत्र के जंगलों के कारण ही गंगोत्री भोजबासा कहलाता है। उसे ब्रह्मकमल भी खोजना है। यहीं कहीं ब्रह्मकमल होता है जिसके फूल पर ब्रह्मा जी विराजमान होते हैं।
जिज्ञासावश वह गोमुख से और भी अधिक ऊंचाई पर ट्रैकिंग करने लगा। दिन भर चला तब ढलते सूरज के उजास में उसे नंदनवन, तपोवन दिखाई दिया। थोड़ी देर तो वह चकित मोहित सा खड़ा रह गया। सामने की पर्वत चोटी बिल्कुल जैसे शिवलिंग..... ओह आराध्य शिव जी के दर्शन साक्षात! वह वहीं पद्मासन में बैठ गया और भक्ति के अतिरेक में ओम नमः शिवाय का जाप करने लगा। थोड़ी देर में बर्फबारी शुरू हो गई और वह बर्फ की परतों से ढकने लगा। तपस्या का चरम क्षण....क्षण तो क्या घड़ी दो घड़ी। पूरी रात.... दबे कदमों से रात ने आकर उसे आलिंगन में ले लिया। उसे तो पता ही नहीं चला कब रात चली गई और कब ब्राह्ममुहूर्त का धरती पर आगमन हुआ। आदतन उसकी आँखें खुलीं। सफेदी के उजास को धीरे धीरे उगते सूरज ने अपनी लालिमा में रंग दिया था। उसके सामने एक प्रौढ़ महिला खड़ी थी। हाथ में कंबल और कटोरे में जल लिये।
" कौन हो बच्चा ?"
उसके शरीर में हरकत हुई -"साधु हूँ माता। "
"चलो, मेरी कुटिया में, आज वहीं विश्राम करो। "
प्रौढ़ महिला में जाने क्या बात थी, वह मंत्रमुग्ध सा उसके पीछे-पीछे चला। बर्फीले पर्वत पर वृद्धा की भोज पत्र से बनी कुटिया थी। अंदर एक बिस्तर बिछा हुआ, कुछ गद्दे एक के ऊपर एक तहा कर कोने में रखे थे। दूसरे कोने में चूल्हा, बर्तन यानी रसोई
"इस तपोवन में जो भी आता है यहीं विश्राम करता है, भोजन करता है। "
प्रौढ़ महिला जिसे अब वह माता कह रहा था ने उसे बैठने का संकेत करते हुए कहा-" तुम भी चाय पी लो। खिचड़ी बना रही हूँ। खाकर विश्राम कर लो। कंबल ओढ़ लो साधु बाबा। "
"हम तो साधू हैं माता .....भूमि ही ओढ़न भूमि बिछावन
न अभी हमारे खाने का समय है न विश्राम का। अभी हम स्नान, श्रृंगार करके आपकी कुटिया के बाहर ध्यान करेंगे। संध्या बेला आप जो देंगी खा लेंगे। आप के चरणों में विश्राम कर लेंगे माता। " "अरे कैसी मीठी मीठी बातें करता है तू, मन खुश हो गया। "
प्रौढ़ महिला ने चूल्हे में भोजपत्र की लकड़ियों से आग जलाई और पतीले में पानी चढ़ा दिया। वे अपने लिए चाय बना रही थीं।
" इतनी ऊँचाई पर इस एकाकी निर्जन स्थल पर यह सब सामग्री कैसे जुटाती हो माता ?"
प्रौढ़ा ने दूर दिखती शिवरूपा चोटी की तरफ देखकर हाथ जोड़े -"सब भोले भंडारी की कृपा है। उन्हीं का साम्राज्य है यहाँ। वे सबके रक्षक, सबके पालक। बद्रीनाथ में जानकी देवी चैरिटेबल ट्रस्ट है। वहीं से आता है सब। तीर्थ यात्रियों के लिए गद्दे, कंबल, रजाई, चाय, बिस्किट, राशन घी। जब वह सामग्री देने आते हैं तो लकड़ियाँ भी काट कर दे जाते हैं। "
"लेकिन आप तो कह रही हैं कि आप नीचे उतरती ही नहीं। बारहों मास यहीं रहती हैं। "
" तीर्थयात्री तो गर्मियों में ही आते हैं। "
प्रौढ़ा ने मुस्कुराते हुए नरोत्तम के शरीर पर एक विहंगम दृष्टि डाली। "तुम भी तो बिना कपड़ों के रहते हो साधु बाबा। "
पल भर रुक कर फिर बोलीं-" तुम्हें ध्यान करने जाना है न, जाओ संध्या को मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी। "
प्रौढा यानी जानकी देवी की चाय बन चुकी थी। चाय का गिलास लेकर वे कंबल ओढ़ कर चाय का आनंद लेने लगीं।
नरोत्तम सूरज की बिखरती किरणों के ताप में वादियों की ओर उतर गया।
ऊँचे ऊँचे बर्फीले पर्वतों पर..... वर्जिन अनछुई बर्फ कितनी मुलायम दिख रही थी। जैसे किसी ने मक्खन की परतें बिछा दी हों। वह एक उभरी हुई चट्टान पर बैठ गया। आश्चर्य चट्टान पर बर्फ का एक कण तक नहीं था। धुली धुली सी आबनूस सी काली। वह ध्यान की अवस्था में पहुँच गया। मन की आँखों से उसने कैलाश पर्वत देखा। जहाँ भोले बाबा तप में लीन दिखे। उसके मन में जैसे सैकड़ों झरने फूट पड़े। झरने की झर झर में अनोखा संगीत था जिसकी अनुगूंज में वह निमग्न होता चला गया। संगीत में मानो जीवन ही जीवन था। जीवन से मत भागो बर्फानी बाबा ......नरोत्तम गिरी...... जीवन से बड़ा कोई तप नहीं। चराचर जगत को एकमेव करता जीवन न जाने कितनी योनियों में जन्म लेने के बाद मिलता है। उसने हौले से पलकें खोलीं। संध्या अपने रंग रूप में पर्वत को सुनहला किए थी। जैसा उषा ने अपना रंग रूप प्रातः फैलाया था। जहाँ संध्या और उषा समान रुप में पधारती हैं वह योगीराज हिमालय कैलाश पर्वत को धारे हैं। कैलाश पर भोले बाबा हैं। हे पर्वतराज हिमालय तुझे शत-शत प्रणाम।
जानकी देवी की कुटिया में लौटकर नरोत्तम गिरी ने देखा, उन्होंने खिचड़ी की पतीली चूल्हे से अंगारे खींच कर उस पर रख दी थी ताकि खिचड़ी गरम रहे। वे गर्मागर्म खिचड़ी परोस लाईं। चम्मच भर घी डाल दिया। नरोत्तम गिरी ने खाना आरंभ करने के पहले पूछा-" माता आपने खाया?"
" तुमको खिलाए बिना कैसे खाती?"
वे अपना खाना भी परोस लाईं। दोनों खामोशी से खाते रहे। नरोत्तम ने अपनी और जानकी देवी की थाली धोकर रख दी और चिलम सुलगा ली।
" मैं जड़ी बूटी की चाय बना लाती हूं। गर्मी रहेगी, मौसम का असर नहीं होगा। "
चाय कड़वी और काली थी फिर भी आनंद आ रहा था पीने में।
जानकी देवी ने चाय सुड़कते हुए पूछा-" तुमने घर द्वार क्यों छोड़ा साधु बाबा ?"
"मेरा नाम नरोत्तम गिरी है माता। हम नागाओं में जो पर्वतों पर होते हैं उनके नाम के आगे गिरी लगाया जाता है। वैसे मैं ज्यादातर जंगलों में विचरण करता रहा तो मेरे नाम के आगे अरण्य होना था पर गुरु जी ने मुझे नरोत्तम गिरी नाम दिया। "
जानकी देवी को उसकी बातें बड़ी रोचक लग रही थीं। नरोत्तम पूरा का पूरा उन्हें रोचक लग रहा था। इतना खूबसूरत सांचे में ढला शरीर, गोरा चमकता रंग, भव्य ललाट, बड़ी-बड़ी आँखें, कमर तक भूरी जटाएं। मुखमंडल पर अद्भुत तेज। बैठने का तरीका कुछ ऐसा कि नग्न शरीर भी नग्न नज़र नहीं आता था।
जानकी देवी मोटे कम्बलों और चूल्हे के अंगारों की गर्मी में भी काँप रही थीं और नरोत्तम गिरी को ठंड छू भी नहीं रही थी। उन्होंने कंबल में से उठने का उपक्रम किया-" कुटिया का दरवाजा बंद कर देती हूं। तेज हवाएं हैं। "
नरोत्तम ने उठने न दिया। खुद जाकर दरवाजा बंद कर दिया।
"माता, कुछ नागा नगरों में भ्रमण करते हैं। उन्हें पुरी कहते हैं। बहुत विद्वान नागा सरस्वती और भारती उप नामों को ग्रहण करता है।
" तुम भी तो पढ़े-लिखे विद्वान नजर आते हो। "
"मैं तो वैज्ञानिक बनना चाहता था। खगोल शास्त्री। पर ईश्वर मुझसे कुछ और कराना चाहते थे तो बन गया नागा। धर्म और आध्यात्म से पहले खुद को जोड़ूंगा, रचूंगा, फिर अन्य लोगों को। चौदह वर्ष हो गए माता, फिर भी पूर्णता पाने में अभी समय शेष है। "
चिलम ठंडी पड़ चुकी थी। कुटिया अपेक्षाकृत गर्म थी। वह नींद के आगोश में धीरे-धीरे समा गया। थोड़ी देर में जानकी देवी भी कम्बलों में मुँह छुपा खर्राटे भरने लगीं