kokh ka karobar - (lekh) in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | कोख का कारोबार - (लेख)

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कोख का कारोबार - (लेख)

कोख स्त्री को प्रकृति द्वारा दिया गया अनुपम उपहार है पर सदियों से इस पर पुरूष का अधिकार रहा है |अपनी ही कोख के बारे में स्त्री निर्णय नहीं ले सकती थी |उसकी कोख में क्या पले ,कितना पले क्यों पले,सब निर्णय पुरूष लेता रहा है। आज भी अधिकांश स्त्रियों की कोख उनके पतियों की जागीर है पर अब कुछ स्त्रियों ने उसके बारे में स्वयं निर्णय लेने शुरू कर दिए हैं ,यहाँ तक कि वे अपनी कोख किराए पर देने लगी हैं |यह बहुत बड़े ही हंगामे की बात हो गयी है |किराए पर कोख देने वाली को सरोगेट माँ कहते हैं ।


"सरोगेट" शब्द लैटिन शब्द "सबरोगेट" से आया है ,जिसका अर्थ है-किसी और की जगह काम करने के लिए नियुक्त |हिन्दी में इसे किराए की कोख का नाम दिया गया |
यह कोई नयी परम्परा नहीं है।पहले भी ऐसा होता रहा है।बस तरीका बदला है।पारंपरिक तरीका था-खुद बच्चे के पिता से संबंध बनाकर या किसी और से संबंध बनाकर बच्चे को जन्म देना, जिसे बाद में पिता को सौंप दिया जाता था |अब शारीरिक संबंध बनाने की जरूरत नहीं पड़ती |

सरोगेसी अब एक उद्योग का रूप लेता जा रहा है |भारत सहित विश्व के कई देशों में अपनाया गया है |पर भारत में इसके लिए कोई कानून या कानूनी प्रक्रिया नहीं बनी है |भारत में उच्च श्रेणी की मेडिकल सुविधाएं कम पैसों पर उपलब्ध हैं |साथ ही यहाँ अत्यंत गरीब स्त्रियाँ भी हैं ,जो पैसे के लिए ऐसा काम करने को तैयार हो जाती हैं |जापान में यह उद्योग पूरी तरह प्रतिबंधित है |१९८२ में सरोगेसी कानून बन जाने के बाद किराए की कोख क इस धंधे में भारत सारी दुनिया में सबसे आगे जा चुका है।

यह सच है कि कोई स्त्री ऐसा अपनी खुशी के लिए नहीं करती |आर्थिक मजबूरी ही उसे ऐसा करने पर मजबूर करती है |अपने पति के निकम्मेपन या रोजगार न मिल पाने के कारण कुछ स्त्रियों पर अपने बच्चों और परिवार का दायित्व आन पड़ता है |वे मेहनत-मजूरी से लेकर अन्य छोटे-मोटे कार्य करती हैं ,फिर भी परिवार का पेट नहीं भरता तो वे अपनी कोख किराए पर दे देती हैं |यह निर्णय आसान नहीं होता ,क्योंकि किसी बच्चे को कोख में रखने से उससे जो भावनात्मक रिश्ता बन जाता है ,उसका मोह आसानी से नहीं छूटता ,पर उन्हें हृदय पर पत्थर रखकर उस बच्चे को उनके असली माता-पिता को सौंपना पड़ता है |

बंध्य-जोड़े के लिए संतान पाने के कई बढ़िया विकल्प हैं जैसे --एग डोनेशन,स्पर्म डोनेशन,ट्रेडिशनल सरोगेसी तथा जेसटेशनल सरोगेसी तथा एडाप्शन|सरोगेसी इसमें ज्यादातर की पसंद होती है क्योंकि इसमें बच्चे के साथ जेनेटिक संबंध बना रहता है | सरोगेसी के लिए आदर्श उम्र अट्ठारह से पैंतीस मानी जाती है |सरोगेसी माँ को कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है |उसे ओरल पिल्स डालकर अंडाणु-विहीन चक्र बनाना पड़ता है ,जिससे उसका अपना अंडा न बन सके |इस बीच उसे इंटरकोर्स की भी इजाजत नहीं होती ,क्योंकि ऐसे में उसका अपना गर्भधारण भी हो सकता है |

इस व्यापार में होस्ट का मन बदलने या बच्चे के विकलांग पैदा होने पर कई समस्याएँ पैदा हो जाती हैं |मन बदल जाने पर माँ अपने बच्चे को नही देना चाहती दूसरी अवस्था में जेनेटिक अभिभावके बच्चे को अपनाने से मना कर देते हैं |इन दोनों ही स्थिति के बारे में पहले से ही स्पष्ट कानूनी कार्यवाही जरूरी है |
सरोगेट माँ डाक्टर की सहायता से या फिर अखबारों के विज्ञापन के जरिए मिल जाती है |अभी जो व्यवस्था है वह कुछ अति सक्षम जैसे एन जी ओ ,कोख खरीदार अमीर ,बेचने वाले गरीब सहित सभी वयस्क हैं ,पर उस मासूम बच्चे के लिए क्या है,जिसे बाद में मन बदलने पर मारा जा सकता है,जिसे भूख,गरीबी,अशिक्षा का सामना करना पड़ सकता है |यदि वे उसे नहीं अपनाते |क्या सिर्फ माँ की ममता से इसे दूर किया जा सकता है |
सवाल यह है कि गरीबी से ग्रस्त सरोगेट माँ वैसे ही शारीरिक रूप से कम स्वस्थ ,अशिक्षित लाचार होती है |ऐसे में ,यदि संस्था कुछ रूपए थमाकर अपना हित देखती है ,तो इसके लिए क्या कोई कानून है?गर्भाधान के बीच शारीरिक-मानसिक परेशानियाँ आएँ तो उसकी देखभाल कौन करे?,बच्चे के पैदा को जाने के बाद यदि बच्चे को न ले गए तो बच्चे का क्या होगा?सरोगेट मदर को कम पैसे मिलें तो वह कहाँ जाए?
|पश्चिम में भी सरोगेसी कानून है पर वहाँ इसका लाभ उठाने वालों को तरह-तरह के सवालों का सामना भी करना पड़ता है |अमेरिका में अपनी कोख को किराए पर प्रस्तुत करने वाली पहली स्त्री एलिज़ाबेथ केन आजकल ‘सरोगेट मदरहुद’का विरोध करने वाले संगठन ‘नेशनल कोआलीशन अगेंस्ट सरोगेसी’ में सक्रिय हैं |
वे कहती हैं कि-अपनी कोख में किसी दूसरे के लिए बच्चा जनते हुए स्त्री एक ऐसी परखनली बन जाती है ,जिसके ऊपर इंसानी मांस की परत चढ़ी हुई है |जैसे-जैसे भ्रूण विकसित होता जाता है ,वैसे-वैसे उसे धारण करने वाली औरत अपनी निजता खोती जाती है और विखंडन होने की प्रक्रिया में उसका पूरी तरह निर्वैक्तिकरण हो जाता है |
स्पष्ट है कि स्त्री की शख्शियत पर सरोगेसी के प्रभाव की व्याख्या करते हुए एलिज़ाबेथ नारीवादी विचारों से प्रभावित रही होंगी |
स्त्री को व्यक्ति के रूप में देखना अलग बात है पर सरोगेसी के दूसरे प्रभाव भी हैं |माँ का बच्चे के साथ गर्भनाल का रिश्ता होता है,जो आसानी से नहीं टूटता।|बच्चा भी बड़े हो जाने पर जन्मदात्री और पालन करने वाली माँ के बीच खुद को बंटा हुआ महसूस करता है।उसकी निष्ठा और उसके कारण समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता |

सरोगेसी ने मातृत्व की पारंपरिक अवधारणाओं को बदल दिया है |माँ-बच्चे का गर्भ-नाल से लेकर पालन तक का अभिन्न रिश्ता टूट -सा गया है |इसका कारण है कि


सरोगेसी माँ के साथ मनोवैज्ञानिक चालाकी बरती जाती है |गर्भधारण करते ही उसके दिमाग में यह भरा जाने लगता है कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं है |जेनेटिक माँ हर पल उसके साथ बनी रहती है |उससे बहनापा जोड़ लेती है और मानसिक धरातल पर उसे अपने गर्भ से विरक्त करने की हर मुमकिन कोशिश करती रहती है ।इसका परिणाम यह होता है कि अधिकतर सरोगेट माँ बच्चे से किसी तरह का लगाव महसूस नहीं करतीं |
किसी स्त्री की कोख को किराए पर लेने की प्रक्रिया में साधन-संपन्नता और साधन-हीनता का सामाजिक –आर्थिक द्वंद्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं |कोई भी आर्थिक रूप से खुशहाल स्त्री अपनी कोख किराए पर नहीं दे सकती |
खतरा यह है कि यह प्रक्रिया एक परफेक्ट बेबी पाने की दिशा में न आगे बढ़ जाए |
माँ के पेट में ही बच्चे का संस्कार पड़ जाता है,दूध का कर्ज ,दूध बख्शवाने की रश्म ,मातृभाषा,माँ की गोद ,बच्चे के संकट के समय माँ के पेट में मरोड़ उठना ,बच्चा कहीं दूर बीमार पड़ा हो तो माँ के सीने में खुजली होना ,
ये सारी सूचनाए माँ के अहसास से जुड़ी थीं |क्या इन बारीक संवेदनाओं का अब कोई मूल्य नहीं ?सच है कि आदमी बहुत ही व्यस्त हो गया है ,उसकी संवेदनाएँ शुष्क हो चली हैं और उन्हें बाजार में उपलब्ध दवा व क्रीम से तरल किया जा रहा|यह भी सच कि बच्चे तोताचश्म होते जा रहे।वे अपने माँ-बाप के सारे अहसान भूलकर उनसे दूर होते जा रहे हैं |ऐसी बहुत -सी दलीलें दी जा सकती हैं ,जिसके कारण माँ भी बदल सकती है ।पुरानी मान्यताओं को रद्द करने के लिए ऐसे कई बहाने गढे जा सकते हैं |अब तो बच्चे प्राकृतिक तरीके से कम ही पैदा होते हैं |अपने सुविधा के हिसाब से सब काम होने लगा है |बस पैसा फेंको तमाशा देखो ।विज्ञान और चिकित्सा बहुत आगे जा चुकी है ,बस इस विकास और सुविधा की कीमत दो और उसका लाभ उठाओ |
भूख और मजबूरी ने वेश्यावृति को जन्म दिया था|बाद में यह मजबूरी बाजार की रौनक बन गयी |कुछ रिश्ते रक्त और संवेदना पर आधारित हैं |कुछ कार्य,क्षेत्र और पैसा कमाने के चलते बनते हैं |इन सबमें माँ-बच्चे का रिश्ता सबसे नायाब होता था |साहित्य और इंसान दोनों के लिए यह महत्वपूर्ण था,पर आज वह रिश्ता भी खतरे में है |
सेरोगेसी एतिहासिक है |पहले राज और अमीर घरानों में धाय रखी जाती थी जो उनके बच्चों को पालती थी |उन्हें अपना दूध भी पिलाती थी |उसका भी अपना बच्चा उसी उम्र का होता था पर अमीरजादे से बचा दूध ही उसके हिस्से आता था |कभी माँ को दूध नहीं होता था कभी उनके सौंदर्य और यौवन को अक्षत रखने के लिए भी ऐसा किया जाता था |पन्ना धाय के त्याग की कहानी सब जानते हैं |वह सभी धायों के लिए आदर्श बनी |गाय-भैंस बकरी –सा जीवन धाय का था |
जब बाजार में वैज्ञानिक तरीके से बच्चे के लिए दूध और आहार मिलने लगे तो धाय- परंपरा समाप्त हो गयी |वह मुक्त हुई।आज धाय की पीढ़ियों से निकली औरतें ही सरोगेसी मदर बन रही हैं |धाएँ अमीरों के मैकडफल में फंसी रहती थीं पर ये औरतें आजाद दिखाई देती हैं |इनका नामकरण भी गरिमापूर्ण है पर ठीक उसी तरह जैसे वेश्या को 'बार -बाला' और 'काल-गर्ल्स ' कह दिया जाए |वहाँ भी उन्हें नचाने वाला कोई पुरूष ही है |सरोगेसी माँ भी किसी पुरूष के शुक्राणुओं से ही गर्भवती होती है |हो सकता है विज्ञान दूध के डिब्बों की तरह गर्भाशय भी निर्मित करके बाजार में उतार दे |अभी यह काम स्त्री की असली कोख ही कर रही है |हाँ ,इस गर्भाशय के बाजार में पसंद खरीदार ही की चलती है |जाति,रूप-रंग ,शिक्षा ,फीगर के आधार पर वह खरीदारी कर सकता है |हर तरह का माल है इस बाजार में बस समानता है तो बस यही कि सभी गरीब हैं |पुरुष इतना शातिर है कि अपनी पत्नी को भी इसमें शामिल कर लेता है |वह वंश-परंपरा की जकड़ में खुद को बांझ मानकर गर्भाशय के बाहरी अनुष्ठान पर शांत और संतुष्ट रहती है |उसे सामाजिक अपराध की अनुभूति नहीं होती।उसे अहसास भी नहीं होता कि वह पुरूष के कुंठाजनित अहंकार के लिए अपनी ही प्रजाति के अपमान में जुटी हुई है।
निश्चित ही सुख-सुविधा की आकांक्षा उसे पुरूष-सत्ता के आगे झुक देती है |धनवान पुरूष प्रजनन और संरक्षण में भी अपना वर्चस्व बनाए हुए है |एक दीन और दयनीय माता के उस गर्भ से ,जिसे वह नफरत से देखते आया है |उसके ही खून -पानी से सींचकर अपनी वंश-वेल को बढ़ाता है |
वह सोच नहीं पाता कि उसके बच्चे में उस गरीब माता का भी अंश है |स्त्री देह शोला भी है तो गर्भाशय के रूप में कच्ची मिट्टी भी |स्त्री की देह उनकी मौज का साधन भी है और वंश की फसल उगाने का बाजारू जरिया भी |इस रूप के सिवा और कोई रूप उन्हें स्वीकार्य नहीं |बौद्धिक उपलब्धियों और साहसिक कार्यों के लिए उसके पीठ थपथपाने वाले भी उसके दैहिक सौंदर्य और पीठ के लचीलेपन को ही टटोलने की जुगत में रहते हैं |

दुखद है कि स्त्री खुद भी एक माल रूप में तब्दील हो रही है |
ये काम स्वेच्छा से स्त्री कर रही है ,यह समाज के गले के नीचे नहीं गुजर रहा है |आश्चर्य की बात यह है कि समाज को स्त्री की देह को यौन-व्यापार में देखना मंजूर है ,पर अपनी कोख को किराए पर अपनी मर्जी से रखना अपराध है |जबकि इस व्यापार में उसकी देह का दोहन नहीं होता ,ना ही उसे किसी अन्य पुरूष से देह-संबंध बनाने पड़ते हैं |एक स्त्री-पुरूष के सम्मलित अंश को अपनी कोख में धारण करना पड़ता है ,शेष काम कुदरत स्वयं कर देती है |यह सच है कि उसके ही रक्त-मांस से शिशु का सिंचन होता है ,जिसका उसे मूल्य मिलता है |पारंपरिक दृष्टि से या स्त्रीत्व और मातृत्व की गरिमा के खिलाफ है |पर देह बेचकर पेट भरने से कहीं अच्छा है |देह बेचने वाली को समाज में कोई इज्जत नहीं मिलती,उसका शारीरिक ,मानसिक ,आर्थिक हर तरह से दोहन होता है ,वह खुद अपने –आप को गिरा हुआ महसूस करती है |कोख की उर्वरता का सौदा करना उस ज़लालत से तो बेहतर है |जब परिवार का पेट नहीं भरता तो गरीब अपना गुर्दा,खून तक बेच देते हैं ,तमाम निकृष्टतम काम कर गुजरते हैं |ऐसे में वे भी पत्नी की उर्वर कोख को गिरो रखने के पक्षधर हो गए हैं |
जहां तक नैतिकता का प्रश्न है |अनचाहे गर्भ को गिराती,ढोती और उन्हें नदी-नाले या सूनसान अँधेरों में फेंक देने वाली माताओं को क्या कहेंगे ?दहेज के लिए आज भी स्त्री को लोग जला ही रहे हैं |पति एकमात्र मनोरन्जन का साधन समझ बच्चों की संख्या बढ़ा ही रहे हैं ,फिर इस काम को ही पाप की संज्ञा क्यों दी जा रही है |क्या स्त्री-हिंसा,स्त्री-उत्पीड़न,दहेज-हत्या,देह-व्यापार,बलात्कार आदि में स्त्री की मर्जी होती है ?या इन सबसे उसका सम्मान बढ़ता है ?
किराए की कोख लेने वाले भी पुरूषवादी सोच से ग्रस्त जीव होते हैं |वे चाहे तो किसी बच्चे को गोद ले सकते हैं ,पर नहीं लेते |टेस्ट-ट्यूब बेबी’ उन्हें पसंद नहीं |उन्हें यह स्वीकार ही नहीं कि वे पिता बनाने के योग्य नहीं |इससे उनके पुरूष अहंकार को चोट लगती है |वे परिवार और समाज की नजरों से नजर नहीं मिला पाते ,इसलिए वे किराए की कोख का विकल्प चुनते हैं जो उन्हें हर तरह की ज़लालत से बचा लेती है|उन्हें यह आत्म -संतोष भी रहता है कि अपने वंश को चलाने में उनका भी अंश है साथ ही उनपर लगा नपुंसकता का ठप्पा भी हट जाता है जहां तक उनकी पत्नी की बात है ,उसे भी इस बात से एतराज नहीं होता |क्योंकि सूनी कोख उनके लिए गाली के समान ही होती है |इस प्रक्रिया में संतान में उसका भी अंश शामिल हो जाता है |पहले पति ऐसी दशा में कई शादियाँ तक कर गुजरते थे |बदलते समय के अनुसार एक से अधिक पत्नी रखना पारिवारिक,सामाजिक,आर्थिक ,मनोवैज्ञानिक व कानूनी किसी भी दृष्टि से मान्य नहीं है |पत्नी के अंडाणु और पति के शुक्राणु लेकर किसी स्त्री को कोख में बायोमेडिकल टेक्नॉलजी की मदद से रोप दिया जाता है |जो बच्चा होता है वह तकनीकी रूप से उनका ही होता है |
यहाँ सारा दर्द दो स्त्रियों के हिस्से आता है |पहली जो अपनी कोख में बच्चे को नहीं रख पाती,दूसरी वह ,जो रख तो पाती है ,पर उसको जन्म देने तक ही|उस दूसरी की मानसिक व्यथा का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है |वह शारीरिक और मानसिक प्रताड़णा सहकर जीवन भर बँटी है,पर जिसे जीवन दिया ,उसे जीवन-भर देख भी नहीं सकती |यही कोख के काँटरेक्ट में लिखा होता है |
सच है कि विकास और तकनीक की कीमत स्त्री ही चुका रही है |कहाँ-कहाँ उसका इस्तेमाल नहीं हो रहा |
यह तकनीक समलैंगिको,,लीव-इन-रिलेशन में रहने वाले ,कैरियररिस्ट स्त्रियाँ [जहां मातृत्व की इजाजत नहीं ]इसका लाभ ले सकते हैं समयाभाव,बीमारी,गर्भ-धारण में अक्षम स्त्रियाँ भी इसे आजमा सकती हैं ।


भावनात्मक रूप से है हर किसी को अपने बच्चे से लगाव होता है |खुद का स्पर्म या एग किसी कोख में शिशु रूप धारण करवाने में किसे खुशी नहीं होगी |


पर यह पैसे वालों के लिए ही संभव है |कहते हैं पैसा सब कुछ नहीं होता ,पर पैसा अपनी वंश-बेल को आगे बढ़ा तो सकता ही है