जीवन ऐसा हो
आत्मकथ्य
मैं कौन हूँ , क्यों हूँ , किसलिए हूँ , क्या कर सकता हूँ , जैसे प्रश्न जब मन में उमडते घुमडते है। इन प्रश्नो पर विचार करता हूँ और उन विचारों की अभिव्यक्त करता हूँ तो वे विचार स्वमेव ही कविता, कथा या कल्पना का रूप ले लेते है। किसी भी व्यक्ति की रचनाषीलता का आधार उसका बचपन, उसके माता पिता के और समाज के दिए हुए संस्कार होते है तो उनका वर्तमान स्वरूप उसके परिवार, उसके मित्र और उसके जीवन का वर्तमान पर्यावरण होता है। मैं अनुभव करता हूँ कि मेरे साथ भी ऐसा ही है। मेरी पत्नी, बच्चे और वे स्नेहीजन ही मेरी अभिव्यक्तियों की प्रेरणा है जो अभिन्नता के साथ मुझसे जुडे हुए है और जीवन के हर पल में मेरे साथ है। आसपास, समाज, देश और विश्व में हो रही प्रत्येक हलचल अपनी ओर किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह मुझे भी प्रभावित करती है और फिर अभिव्यक्तियों मं विविध रूपों में आ जाती है। प्रथम काव्य संग्रह क्षितिज के बाद अब यह दूसरा रचना संग्रह आपके हाथों में है। आशा है, आपकी कसौटियों पर खरा उतरेगा।
- राजेश माहेश्वरी
अनुक्रम
01. प्रेरणा 45. राहें
02. युद्ध नही शांति 47. दृढता
03. मानसरोवर 48. राधा के नैन
04. राम और विभीशण 49. महँगाई
05. तर्पण 50. प्रेम
06. मृत्यु का अहसास 51. प्यार और खुदा
07. बचपन 52. चिलमन और धुआँ
08. कुलदीपक 53. मदिरा का प्रेम
09. माँग का सिंदूर 54. स्टेपनी
10. भक्त और भगवान 55. आस्था के पुष्प
11. परिवर्तन 56. तुम्हारा प्रतिबिम्ब
12. पत्थर 57. काम
13. संत 58. माँ
14. चिराग 59. जीवन की सदी
15. सृष्टि का अनवरत नियम 60. रूदन
16. हमारा देश और भ्रष्टाचार 61. आभार
17. ईमानदार बेइमानी 62. दोस्ती
18. वाद और विवाद 63. सोने की चिड़िया
19. मताधिकार और हम 64. भीष्म
20. नेताजी 65. सच्चा लोकतंत्र
21. मेरा गाँव 66. अर्थ
22. दूधवाला 67. श्री गणेश
23. भू्रण हत्या 68. बँटवारा
24. दूध और पानी 69. मसीहा
25. धनवान 70. संस्काधानी
26. भाग्योदय 71. शहर और सड़क
27. जीवन दर्शन 72. एकता और सम्मान
28. अंतिम प्रणाम 73. अधूरा सफर
29. हसरतें 74. नव वर्षाभिनंदन
30. तकदीर और तमन्ना 75. आनंद
31. जीवन कैसा हो 76. अंधकार
32. जीवन का क्रम 77. सच्ची सफलता
33. सलाह 78. कल्पना और हकीकत
34. प्रेम की गंगा 79. चिंता
35. वाणी 80. जीवन की नियति
36. जीवन ऐसा हो 81. असफलताएँ
37. जीवन का विकास 82. जीवन पथ
38. मानवीय संवेदना
39. जीवन की गति
40. मझधार
41. विष्वास
42. सफलता की कुंजी
43. अनुभव और निर्णय
01. प्रेरणा
आपकी मुस्कुराहट
अंतःकरण में जगाती थी चेतना,
आपके आने की आहट
बन जाती थी प्रेरणा,
आपकी वह स्नेह सिक्त अभिव्यक्ति
दीपक के समान
अंतरमन को
प्रकाशित करती थी।
आप विलीन हो गए
अनंत में,
संभव नही है जहाँ पहुँचना।
अब आपके आने की
अपेक्षा और प्रतीक्षा भी नही।
दिन-रात, सूर्योदय ओर सूर्यास्त
वैसा ही होता है,
किेंतु आपका ना होना
हमें अहसास कराता है
विरह और वेदना का।
अब आपकी यादों का सहारा ही
जीवन की राह दिखलाता है
और देता है प्रेरणा
सदाचार, सहृदयता से
जीवन को जीने की।
02. युद्ध नही शांति
विश्व में
युद्ध नही शांति चाहिए।
मृत्यु नही
स्नेह व प्यार चाहिए।
सुख, शांति व सौहाद्र चाहिए।
सृष्टि में सकारात्मक सृजन हेतु
ईष्वर ने मानव की रचना की
धरती को स्वर्ग बनाने को,
पर मानव ने किये धरती के टुकडे
नये नये देश बनाने को और
अपनी सत्ता स्थापित करने को,
बाँटा अपने आप को
जाति, संप्रदाय और धर्म में।
विध्वंसक शस्त्रों का किया निर्माण
मानवता को ही मिटाने को।
जब सब धर्मा का मूल एक है
तो विश्व में क्यों नही है एक ही धर्म,
मानवीयता को बचाने का।
पर यह संभव नही
मानव का स्वार्थ मिट नही सकता,
यही कराएगा
विध्वंसक शस्त्रों का दुरूपयोग।
खत्म होगा मानव और मानवीयता
धरती पर बचेगा
रूदन और पष्चाताप
आँसू बहाने को।
अभी समय है
स्वयं को पहचानने का
हथियारों का मिटाकर
धरती को बचाने का।
तुम स्वयं बनो
शांति के मसीहा।
हमें विनाश नही
सृजन चाहिए।
हमें युद्ध नही
शांति चाहिए।
03. मानसरोवर
मानसरोवर के राजहंस,
तुम कैसे हो गए एकाकी
तुम्हारी छत्रछाया की मानवीयता
कहाँ खो गई ?
गंगा सी पवित्रता,
नर्मदा सी निर्मलता
और अनुसूइया के समान
सतीत्व को धारण करने वाली
नारी के देश में
परमहंस तिरस्कृत है।
वह सबको ईमानदारी, त्याग,
तपस्या, सदाचार और श्रम की
राह दिखलाता था।
सभी करते थे उसका अनुसरण
सभी करते थे उसका सम्मान।
उसे हटाकर बलपूर्वक
कर लिया है कब्जा
महँगाई और भ्रष्टाचार ने।
सोने की चिडिया कहलाने वाले
महान देश को
नेताओं ने खोखला कर दिया।
नेता और उद्योगपति
विकसित होकर अरबपति हो गए।
जनता बेचारी जहाँ थी
वही की वही रह गई ।
अभी भी वह विकास
की राह देख रही है
उसे प्रतीक्षा है गांधी, नेहरू, सुभाष
सरदार पटेल और भगतसिंह जैसे
परमहंसों की ,
जो बनेंगें देश के प्रेरणास्त्रोत
और युवाशक्ति को देंगें सही मार्गदर्शन ।
कुरीतियों का होगा अंत
जनता का होगा उद्धार
विकसित होगी हमारी सभ्यता
उन्नत होगी हमारी संस्कृति
नारी को मिलेगा देवी का स्वरूप
सुरक्षा और सम्मान
देश में होगा नये सूर्य का उदय
सब मिलकर लायेंगें नया परिवर्तन
सभी के दिलों में होगा
देश के प्रति प्रेम और सर्मण।
04. राम और विभीषण
राम थे भगवान तो
विभीषण भी थे महान।
मृत्यु भेद बतलाया उनने,
रावण वध हुआ आसान।
विजयी होकर राम
‘जय श्री राम’ कहलाये
और विभीषण संसार में कहलाये
‘घर का भेदी लंका ढाये‘।
युद्ध की विभीषिका में
सोने की लंका हो गई बर्बाद।
हर ओर थी लाशो की सडांध
और था नारियों आर्तनाद।
रोती सिसकती जली हुई
लंका में हुआ
विभीषण का राजतिलक।
हो चुकी थी
सोने की लंका की महादुर्गति
ऐसी राजगद्दी पाकर
विभीषण कहलाये लंकाधिपति।
राम ने किया अयोध्या प्रस्थान।
हर दिशा में गूँज रहा था
राम का यशगान,
सुख, समृद्धि और वैभव से
परिपूर्ण थी अयोध्या।
आनंदमग्न व हर्षित थे
अयोध्या के वासी।
हर चेहरे पर थी प्रसन्नता और
खुशी का अहसास,
सबके सपने हो गये थे साकार
सभी के दिलों में था
हर्ष और उत्साह अपार।
मंत्रोच्चार के साथ सिंहासन पर बैठे श्री राम।
अवध में ऐसी सुबह हुई
जिसकी नही थी कोई शाम।
राम के बने मंदिर
घर घर होती है उनकी पूजा।
विभीषण को सबने भुला दिया
उसे किसी ने नही पूछा।
राम अमर हो गये इतिहास में
और विभीषण चले गए
विस्मृति के गर्त में।
विभीषण के जीवन का यथार्थ
भा्रतृ द्रोह का परिणाम बतलाता है
देश द्रोह की परिणिति समझाता है
05. तर्पण
माता पिता का
कर रहा था तर्पण।
कर्मों का ही तो
होता है निर्गमन।
फिर क्यों नही होता
कर्मों से तर्पण,
भक्ति, प्रेम और समर्पण
कहाँ होते हैं अर्पण ?
कर्म और भक्ति से
होता नही है तर्पण।
चंद श्लोको के उच्चारण से
चंद भौतिक क्रियाओं से
कैसे हो जाता है तर्पण ?
भक्ति, पूजा और सत्कर्म
कहाँ ब्रम्हलीन हो गए।
हम इसका चिन्तन छोड
तर्पण में लीन हो गए।
विधि विधान संपन्न कर भी
शांत नही हो पाया मन,
तभी आँखों से छलक उठे
उनकी स्मृतियों के देा अश्रु
आँखों ढुलक कर
गंगा को अर्पण हो गए।
मेरे मन का
सच्चा तर्पण हो गए।
06. मृत्यु का अहसास
जीवन और मृत्यु में
फासला है सिर्फ दो कदमों का,
लेकिन यह फासला
होता है बहुत भयानक।
क्या कभी किया है यह अहसास
मृत्यु आई और छूकर निकल गई।
यह अहसास एक कर्ज है,
किसी का किया हुआ अहसान है,
जिसने दिया है नया जीवन।
मृत्यु के अहसास ने बोध कराया है,
ईष्वर के अस्तित्व का।
वह कर्मफल का प्रताप था
या कोई शक्ति थी
जो मृत्यु को पीछे ढकेल गई।
इस अहसास ने बदल दी
जीवन की दिषा
भीतर से निकल गया मृत्यु का भय।
अब जब भी कभी
नकारात्मक सोच में उलझता हूँ,
यह अहसास
सकारात्मक सोच का प्रादुर्भाव कराता है
और जीवन को जीने की दिशा दिखलाता है।
07. बचपन
नन्हें मुन्नों का अपना
होता है सपनों का संसार।
उनकी खुली और बंद आँखों में
झाँकता है प्यार।
सपनों में होती है
परियों की कथाएँ और
नानी की कहानियाँ।
उनसे उनका
बचपन मत छीनो,
टेलीविजन की स्क्रीन तथा
सिनेमा के पर्दों से
उन्हें मत उलझाओे,
उन्हें उनके खिलौनो और
कहानियों मे ही जीने दो
बचपन की यादों को
दिल में संजोने दो।
बचपन फिर वापिस नही आएगा
इसे समझो
उन्हें बचपन के अमृत को
जी भर कर पीने दो।
08. कुलदीपक
कुलदीपक
एक सपना होता है
और यह सपना
अपना होता है।
उसका जीवन हो
उज्जवल किसी प्रकाश पुंज सा,
ईश्वर के प्रति उसमें हो भाव
भक्ति, श्रद्धा और समर्पण का,
स्ंगीतमय हो उसका जीवन
जिसमें लय और ताल हो,
उसके चिंतन में हो
शांति, प्रेम और सद्भाव।
उसका धर्म हो सेवा,
उसके आचरण में हो
सदाचार और सहृदयता,
उसे मिले यश और मान
और उसे कभी न छू सके अभिमान,
उसमें दूर दृष्टि हो,
अवरोंधों और कंटकों में भी
उसकी राहें हो आसान
और उसके होंठों पर
सदा रहे मुस्कान,
दुख की छाया भी
उससे दूर रहे
और वह
लोक कल्याण में मशगूल रहे,
उसकी कर्मठता में हो ऐसी सार्थकता
कि वह लगे
किसी फलों से आच्छादित वृक्ष सा
राग द्वेश और दुर्भावना का
मद और मदिरा का
उसके जीवन में नही हो स्थान।
प्रबल हो उसका भाग्य और
उसे हो अपने लक्ष्य की पहचान
जिसे पाने में वह सदा सफल हो।
वाणी और कर्म से वह अटल हो।
वह हो सबका सहारा
ऐसा हो कुलदीपक हमारा।
09. माँग का सिंदूर
माँग का सिंदूर
सिर्फ सुहाग का प्रतीक नही है,
वह है
अधिकार, कर्तव्य और आदर्श का दर्पण,
वह है
संकल्प और वचनबद्धता
सप्तवचनों की,
वह पति और पत्नी को
याद दिलाता है
उनकी प्रतिज्ञा की,
पति और पत्नी के बीच का
सद्भाव, समर्पण और स्नेह
परिवार को देता है
सुख, शांति और प्रगति।
यदि नही रहे सामंजस्य
अधिकार और कर्तव्य में
तो दूभर हो जाता है जीवन।
सिंदूर का रंग होता है लाल
वह देता है संदेश
सावधान रहकर
संकल्पनों को निभाने का
और अपने जीवन को
संकल्पनों की ज्योति से
जगमग बनाने का।
10. भक्त और भगवान
उसका जीवन
प्रभु को समर्पित था।
वह अपनी संपूर्ण सृजनात्मकता
और रचनात्मकता के साथ
तल्लीन रहता था।
प्रभु की भक्ति में।
एक दिन
उसके दरवाजे पर
आयी उसकी मृत्यु,
करने लगी उसे अपने साथ
ले जाने का प्रयास,
लेकिन वह था भक्ति में लीन,
हृदय और मस्तिष्क में
धारण किये था प्रभु को।
मृत्यु नही छुडा पाई
उसका और प्रभु का साथ।
मृत्यु का क्षण बीत गया
उसे लौटना पडा खाली हाथ।
यमदूतों की हुई हार
कुछ समय बाद
जब उसकी आँख खुली
तब उसे यह बात पता चली,
वह हुआ लज्जित,
उसने जोडे प्रभु को हाथ
नम आँखों से प्रभु से बोला-
क्षमा करें नाथ
मेरे कारण आपको
यम को करना पडा परास्त।
कहते कहते वह हो गया गमगीन
और पुनः हो गया
प्रभु की भक्ति में लीन।
11. परिवर्तन
सब कुछ परिवर्तनशील है,
अपरिवर्तनीय है तो केवल
माँ का प्यार और
प्रभु का प्रेम।
इनके स्नेह की गहराई
अकल्पनीय है।
परिवर्तन जनहित और परोपकार में हेा तो
प्रशंसनीय है।
राग-द्वेश और बैर को मिटाये तो
वंदनीय है।
देश की एकता और अखंडता को मजबूत करे तो
अभिनंदनीय है।
गरीबी, महँगाई और भ्रष्टाचार को समाप्त करे तो
मौलिक अधिकार है।
रोटी, कपडा और मकान उपलब्ध कराये तो
जीवन की आवश्यकता है।
परिवर्तन ऐसा हो जिससे
जन-जन में जागे
बलिदान और समर्पण का भाव,
गर्वोन्नत हो शीश
और बढे
भारतमाता का मान और सम्मान।
12. पत्थर
पत्थर को तराषों तो
कभी वह हीरा,
और कभी प्रतिमा बन जाता है।
इसे काटो तो
फूटता है झरना और
प्यास बुझाता है।
जल ही जीवन है
बोध कराता है।
पत्थर फेंकने पर पहुँचाता है आघात
और पिसता है तो
मिट्टी बन जाता है।
वह अपना अस्तित्व मिटाकर भी
कितने काम आता है।
हम सजीव होकर भी
जीवन में
देश, समाज तथा मानव कल्याण के लिये
क्या कर पा रहे है ?
यह चिंतन
जीवन को दिशा और
जीने की कला सिखलाता है
अपने कर्तव्यों की पूर्ति का
रास्ता दिखलाता है।
13. संत
संत और महात्मा की खोज में
हम भटक रहे है।
काम, क्रोध, लोभ और मोह की
दुनिया में रहकर भी
जो इनसे अप्रभावित है
वह संत हैं।
जो इनको त्याग कर भी
लोक-कल्याण में समर्पित है,
वह महात्मा है।
इतनी सी बात
हम समझ नही पा रहे है
और इनकी खोज में
व्यर्थ चक्कर खा रहे है।
हम खुद भी तो
महात्मा का नही तो
संत का जीवन तो बिता ही सकते है।
हम अपने कर्तव्यों को पूरा करें,
परिवार, समाज और देश के प्रति
निष्ठावान रहें,
और इन परिभाषाओं को समझने में
समय को
व्यर्थ नष्ट ना करें।
14. चिराग
चिराग के रोशन होने से
क्यों डरते हो ?
कही चिराग जला ना दे
अपने ही आशियाने को
चिराग ऐसे भी होते है
रोशन कर देते है जमाने को।
ऐसे चिराग
धरती पर होते है
आँखों का नूर
और अनंत में विलीन होने पर भी
करते है खुदा के दरबार को रोशन,
वहाँ भी बन जाते है
आँखों के चश्मेनूर।
15. सृष्टि का अनवरत नियम
कल वह जो बीत गया,
आज है वर्तमान
और जिसकी प्रतीक्षा है
वह है भविष्य।
तीनों का सामन्जस्य है
जीवन में आषाओं का सृजन।
यदि मानव रखता है
सकारात्मक और रचनात्मक दृष्टि
तो सृजन बन जाता है
जीवन का आधार।
नकारात्मक व्यक्तित्व के लिये
यह है विध्वंस का प्रारंभ।
यह मानव पर निर्भर है
वह किसे चुनता है
सृजन या विध्वंस।
सृजन और विध्वंस है
निरन्तर चलने वाली क्रिया।
कल भी थी
आज भी है
और कल भी रहेगी।
जीवन में विध्वंस का विध्वंस करने के लिये
होता है महान आत्माओं का अवतरण,
जो अपने पुण्य प्रताप से
विध्वंस को समाप्त करके
करते है निराशाओं का अंत
और प्रशस्त करते है
नये सृजन का मार्ग।
इससे जन्म होता है
नयी सभ्यता और नयी संस्कृति का।
यही है सृष्टि का अनवरत नियम।
16. हमारा देश और भ्रष्टाचार
तेजी से बढ रही है महँगाई।
उससे भी दुगुनी तेजी से
भ्रष्टाचार बढ रहा है मेरे भाई।
जेल की कोठरी मे
भेजे जा रहे है भ्रष्ट नेता,
यहाँ भी वे
कोठरी का उद्घाटन करके
प्रसन्न हो रहे है।
अरबों, खरबों के खाद्य पदार्थ
हो रहे है आयात और निर्यात।
करोडों की दलाली की खाकर
खुश है दलालों की जमात।
यही भ्रष्ट भोजन
कर रहा है भ्रमित
हमारे दिमागों को।
हो गया है ऐसा आचार
जिससे बिगड गया है
जीवन का स्वाद।
वर्तमान सभ्यता और संस्कृति का
एक प्रमुख घटक
बन चुका है भ्रष्टाचार।
हमसे अच्छे तो पशु है
जो ना तो भ्रष्ट है
और ना ही है उनमें भ्रष्टाचार।
हम भ्रष्टाचार को समाप्त कर सकते है
यदि हम दृढ संकल्पित हो
अपने ईमानदारी के सिद्धांतों पर
कभी ना करे इनसे समझौता।
तब भ्रष्टाचार मिटेगा
और हम इंसान कहलायेंगे।
हमारा देश होगा
भ्रष्टाचार और महँगाई की कैद से आजाद
हमारा भविष्य होगा स्वर्णिम
और हम होंगे
सुख व समृद्धि से आबाद।
17. ईमानदार बेईमानी
ईमानदारी अपनी राह पर
चुपचाप जा रही थी।
बेईमानी भी उसके पीछे-पीछे
चली आ रही थी।
ईमानदारी के पास पहुँचकर वह बोली-
तू मेरी बहिना है,
देास्त है या
दुश्मन है ?
ईमानदारी मौन रही
अपने पथ पर चुपचाप बढती रही
बेईमानी ने आगे बढकर
उसे जकड लिया।
ईमानदारी ने उसके हठ को देखते हुए
एक सौ रूपये का नोट निकालकर
उसे दे दिया।
बेईमानी ने अट्टहास लगाया
और रास्ता दे दिया।
देश में यही तो हो रहा है
ईमानदारी को भी
अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिये
बेईमानी का सहारा
लेना पड रहा है।
18. वाद और विवाद
क्रांतिकारी सोच हो
पर कैसी
और किसके लिये ?
नई सेाच लाओ
पर क्यों ?
पहले समाजवाद
फिर साम्यवाद
इन दोनो के बीच
चुपचाप आया पूँजीवाद,
सभी वाद और विवाद
वादों में उलझ गए।
देश की प्रगति भी
उलझ गई इस उलझन में
समाज के सीमित वर्ग को
मिला आर्थिक लाभ।
गरीब और शोषित जहाँ था
वही रहकर
आज भी पोषित है
और क्रांति की प्रतीक्षा में
प्रतिदिन ढह रहा है।
19. मताधिकार और हम
सत्य और अहिंसा परमो धर्मः जैसी
संस्कृति की छाया,
धन और वैभव की पिपासा,
काम, क्रोध, लोभ, मोह की माया का
मन में बसेरा।
देश की हो रही है दुर्दशा,
पर नये सूर्योदय की आशा।
नेता इसका फायदा उठा रहे है।
पक्ष और विपक्ष दोनो ही मिलकर
अपना वेतन बढा रहे है।
जनता का धन
अपनी जेबों में भरकर
जनता को अँगूठा दिखा रहे है।
महँगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार और
करों की मार
दे रहे हैं जनता को उपहार।
झूठे आश्वासनों और प्रलोभनों से
जनता का पेट भर रहे है,
जनता की ऐसी सेवा कर रहे है।
अपनी जेब में भर रहे है मेवे
हमें दे रहे है छांछ और छिलके।
हमारे मताधिकार से
सत्ता पर अधिकार कर
मना रहे है मौज।
ये दो चार या दस नही है
इनकी है पूरी एक बडी फौज।
गलत हम है या वे
इसका निर्णय हम स्वयं करें।
बंद करें इनकी प्रशंसा और नमन।
पहचाने अपने मताधिकार की कीमत,
तभी सुधर पाएगी
हमारी और हमारे देश की किस्मत।
20. नेताजी
लोकतंत्र में
जनता ही सर्वोपरि है।
जिसे जनसमर्थन हो
वह नेताजी है।
इतिहास के पृष्ठों पर वह समय
कितना स्वर्णिम था,
जब नेता शब्द
सम्मान का प्रतीक था।
जनता के बीच वह
लोकप्रिय व वंदनीय था।
नेता के कहने पर
जनक्रांति का नेतृत्व करने वाले
सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद,
जवाहर लाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल का
आभास होता था।
आज नीतिविहीन राज करने की कला
राजनीति हो गई है।
जनता
महँगाई, भुखमरी, मिलावट और भ्रष्टाचार के
मकडजाल में दिग्भ्रमित हो
उसी में उलझ गई है।
नेता जनसमर्थन और
विश्वास खो चुका है।
अरे नेताओं !
अपना इतना अवमूल्यन तो मत करो
कम से कम अपना
इतना तो मूल्य रहने दो कि
जनता तुम्हें इंसान तो समझे,
देश और जनता पर
कुछ तो रहम करो !
कुछ तो शर्म करो,
और सकारात्मक सृजन करो
या चुल्लू भर पानी में डूब मरो
और देश को
पतन के गर्त में जाने से बचा लो।
21. मेरा गाँव
नदी किनारे मेरा गाँव
सीधा, सरल, सच्चा
कहलाता है आदर्श गाँव।
नगाडे बजने लगे,
आ गया चुनाव।
राजनीति के रंग में रँग गया गाँव।
गाँव भी हो गया राजनैतिक
घर परिवार में आ गए मतभेद
टुकडों-टुकडों में बँट गया गाँव।
हो गया चुनाव
पर मिटी नही आपसी रंजिश
राजनैतिक हत्याओं ने
आदर्श गाँव को
कर दिया मटियामेट।
आपसी भाईचारा और प्रेम
हो गया राजनीति को भेंट।
लोकतंत्र के दोषों को दूर किये बिना
उसे अपनाने का है यह परिणाम।
मानवता को रक्तरंजित कर
राजनीति की रोटियाँ सिंक गई।
लेकिन मेरे गाँव में
मतभेदों की दीवारें खिंच गई।
22. दूधवाला
हमारा दूधवाला
दूसरों से अधिक दाम लेता है।
दूध में ही पानी भी मिला देता है।
ईमानदारी से बतलाता है कि
वह यह कृत्य करता है।
अधिक दाम लेने का
कारण भी बतलाता है।
वह नगर निगम का पानी नही
मिनरल वाटर मिलाता है।
जब भी बढता है
मिनरल वाटर का दाम
उसके दूध का दाम भी बढ जाता है।
वह कहता है कि-
मिनरल वाटर का दाम कम कराइये,
दूध भी कम कीमत में पाइये।
वह अपने ईमान पर गर्व करता है।
कहता है-
‘ पाप-पुण्य का विचार कीजिये आप
और मुझे कीजिये माफ।
मैं दूध में पानी मिलाता हूँ,
पानी में दूध नही मिलाता।‘
हम उसके विचार सुनकर अवाक् थे
दूध वह जैसा भी दे
पर उसके विचार तेा पाक थे।
23. भू्रण हत्या
नारी है देवी का स्वरूप।
माँ, बहिन और पत्नी का
बनती है रूप।
वही निर्मित करती है
पुरूष का व्यक्तित्व,
उसके ही दम पर है
समाज का अस्तित्व।
धरती पर कन्या का जन्म है
लक्ष्मी का अवतार।
भ्रूण में ही कन्या की हत्या करके
कर रहे हो घनघोर पापाचार।
ऐसा करके फैला रहे हो
वर्तमान और भविष्य में अंधकार।
मानवता का गला घोंट कर,
कर रहे हो महापाप।
यमराज सहित देवी और देवता विचारमग्न है
दें तुम्हें कौन सा श्राप।
तुम्हारा सिर कलम करना भी
कठारेतम दण्ड में नही आता।
ऐसा करने वालों को
बीच चौराहे पर फाँसी पर चढा देनी चाहिये।
सबके सामने
कन्या भू्रण हत्या की सजा देनी चाहिये।
संविधान के अनुसार
यदि ऐसा संभव नही है
तो परिवर्तन कीजिये।
ऐसे नर पिशाचों को
कठोरतम दण्ड दीजिये।
एक नन्ही सी जान के साथ
इंसाफ कीजिये।
24. दूध और पानी
प्रभु ने पूछा-
नारद! भारत की संस्कारधानी
जबलपुर की ओर क्या देख रहे हो ?
नारद बोले-
प्रभु! देख रहा हूँ
गौमाता को नसीब नही है
चारा, भूसा या सानी,
और बेखौफ मिलाया जा रहा है
दूध में पानी।
स्वर्ग में देखने नही मिलता
ऐसा बुद्धिमानी का हुनर,
मैं भी इसे सीखने
जा रहा हूँ धरती पर।
प्रभु बोले-
पहले अपना बीमा करवा लो
अपने हाथ-पैरों को मजबूत बना लो।
ग्वाला तो गाय को लेकर भाग जाएगा।
अनियंत्रित यातायात में
कोई कार या डम्पर वाला
तुम्हें टक्कर मारकर
यमलोक पहुँचाएगा।
दूध को छोडो
और अपनी सोचो।
यही पर रह रहे हो
यही पर सुरक्षित रहो।
25. धनवान
धनवान
धन में भी
धन को खोजता है,
उसे सहेजता है।
उसे धन के संचय में ही
धन का सार नजर आता है।
उसे आता है
धन से धन कमाना।
उसे अपनी परछाई में भी
धन का ही मुख दिखता है।
उसे नही मिल पाती
शांति, तृप्ति और संतुष्टि।
वह धन में ही जीता है
और फिर एक दिन
सब कुछ यही छोडकर
विदा हो जाता है।
26. भाग्योदय
कर्म और भाग्य में
कौन है महान ?
एक गंभीर प्रश्न है
माँगता है गहन मनन,
चिंतन व ध्यान।
धर्म से किये गये कर्म का
फल मिलना तय है।
भाग्य कितना साथ देगा
प्रश्न चिन्ह यह है।
मेहनतकश करता है
पूरा परिश्रम,
बदले में पाता है
बस थोडा सा धन।
भाग्य साथ होने पर
बिना किसी श्रम के भी
मिल जाता है धन-वैभव।
लेकिन यह रहे याद
धर्म और कर्म अगर
जीवन में रहे साथ
स्वयं जाग जाता है
तब सोया हुआ भाग्य।
जीवन में होता है
धर्म-कर्म का संचय
तब निश्चित होता है
मानव का भाग्योदय।
27. जीवन दर्शन
अपराधी को सजा
उसे अपराध का बोध कराना है।
सजा का उद्देश्य
जीवन में परिवर्तन लाना है।
यह परिवर्तन
बनता है दूसरों के लिये शिक्षा।
लक्ष्य है
कम हो अपराध और अपराधी।
अपराधी स्वयं सोचे,
समझे अपने अपराध को
यही है उद्देश्य।
अपराधी स्वीकार करे अपना अपराध
यह है सुधार की प्रक्रिया का प्रारंभ।
वह अपने अपराध पर द्रवित हो
यह है उसका पश्चाताप,
यही है उसके लिये पर्याप्त सजा।
यही है उसका हृदय परिवर्तन।
समाज करे उसे स्वीकार
यही है सच्चा जीवन दर्शन।
28. अंतिम प्रणाम
हम प्रतिदिन
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
रहते है व्यस्त,
पर मत करना इस पर अभियान,
हमारा जीवन है
पथिक के समान।
हमारी नियति है
साँसों के चलने तक चलते ही जाना है।
साँसे ही तो अपनी गति का पैमाना है।
जीवन में लक्ष्य नही है फिर भी
चलते ही जाते है।
जैसे यह जीवन बस
लक्ष्यहीन भटकन है।
खुद में ही खोज रहे खुद को हम।
कर रहे समन्वय हम
अपने ही धर्म कर्म।
राहें अब खत्म हुई
साँस हो रही मद्धम।
आया अंतिम पडाव,
अब अनन्त की यात्रा,
अलविदा मेरे साथी
स्वीकारो ! मेरा अंतिम प्रणाम।
29. हसरतें
जिंदगी में सभी हसरतें
पूरी नही होती
और नही बनती है
भविष्य का आधार।
उसूलों पर चलने वाले
हसरतों से नही डरते।
हम नही समझ पाते,
हसरतें है हमारे जीवन का दर्पण।
हम क्यों नही करते
हसरतों को पूरा करने के लिये
कठिन परिश्रम।
धन, ज्ञान और भाग्य के साथ
कर्म का समन्वय बनता है
सफलता का आधार।
यदि हममें विद्यमान है
धर्मवीर, कर्मवीर और
दानवीर के गुण
तो हमारी सभी हसरतें
स्वमेव ही होंगी पूरी।
30. तकदीर और तमन्ना
तमन्नाएँ दास्ताँ नही बनती।
जीवन में
धर्म से कर्म, धैर्य से प्रतीक्षा,
मन में दृढ विश्वास,
आचरण में सदाचार,
विचारों में परिपक्वता
लक्ष्य के लिये कृत संकल्प
और भाग्य भी दे रहा हो साथ
तब तमन्नाएँ
तकदीर में होती है तब्दील।
तकदीर पाकर
अहम और घमंड में
मत खो जाना।
सुहाने समय को पाकर
पुराने समय को
भूल मत जाना।
याद रखना
तकदीर को पलटने में
वक्त नही लगता।
जीवन में समन्वय रखना
सुख-समृद्धि और वैभव से आच्छादित जीवन को
सादगी और विनम्रता से जीना।
31. जीवन कैसा हो
ईश्वर ने रची सृष्टि
और फिर उसे दी
खुशी व वैभव की सौगात।
सूर्य को दिया निर्देश
प्रतिदिन प्रातः उदय
और शाम को अस्त होने का।
मानव है कितना
अलमस्त, मदमस्त या सृजनशील
अथवा परहित में समर्पित और सदाचारी
मुझे बताते रहना।
ऋतुओं का परिवर्तन
देता है मानव को
समय का ज्ञान
और यह संदेश
कि सभी दिन नही होते है एक समान।
मानव ने सर्वप्रथम
सूर्य की आराधना को छेाडा।
काम, क्रोध, लोभ, मोह और माया की ओर
स्वयं को मोडा।
निर्मित किये विशाल मंदिर
अपने धन का करने प्रदर्शन।
वह भूल गया
ईश्वर तो दिल में रहता है।
वह उसे देखना चाहता है
अपने सामने
अपनी आँखों से।
वह यह नही समझता
जल और वायु का
कोई रूप नही होता
लेकिन बहुत ही सरल
और बहुत ही कठिन
होता है उनका स्वभाव।
उनका किया जा सकता है
केवल और केवल अहसास।
उनको देखा नही जा सकता,
लेकिन करना पडता है उनक विश्वास।
जो ईश्वर पर विश्वास नही करता
वह रहता है परेशान।
धन की प्राप्ति से अनजान
जीवन से असन्तुष्ट और अतृप्त।
ऐसा व्यक्ति
जीवन का उपभोग किए बिना ही
अनन्त में समा जाता है
जीवन के स्वरूप में अनभिज्ञ
प्यासा चला जाता है।
32. जीवन का क्रम
इंसान प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति है
बनाइये इसे अमृतमय।
मन को तप व कर्मो से
बनाइये तपोवन।
तन का समर्पित कीजिये जनहित में
और बनाइये सेवामय।
परपीडा को हरने हेतु
प्रयासरत रहिए
और बनाइये अपने आप को
सच्चा इंसान।
गुरू का आदर करके पाइये आशीर्वाद।
माता-पिता के प्रति श्रद्धा रखकर
लीजिये उनसे प्रेम का वरदान।
मनसा-वाचा-कर्मणा
सत्यमेव जयते
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
का जीवन में कीजिये समागम।
तब पाएँगे आप सफलता,
मान-सम्मान और आदर
ऐसा हो हमारा जीवन क्रम।
33. सलाह
असमंजस हो जब जीवन में
आत्ममंथन धूमिल हो,
लडखडा रही हो
निर्णय लेने की क्षमता,
तब मन के धैर्य को
तराजू समझकर
उसमें कर्म और चातुर्य के बाँट रखो।
अन्तरआत्मा की आवाज को
प्रारब्ध मानकर
जीवन में सही निर्णय लो।
असमंजस को समाप्त कर
अंगीकार करो
प्रगति का पथ
सफलता अवश्य मिलेगी,
धैर्य व प्रतीक्षा के पथ को
स्वीकार करो।
34. प्रेम की गंगा
आशा के दीपक जल रहे है,
निराशा से संघर्ष कर रहे है।
आशा का प्रकाश
मिटा रहा है निराशा का अँधेरा।
सूर्य के समान
किरणें बिखराकर
कर रहे है जीवन में उत्साह का संचार
और यह उत्साह
कर रहा है सृजन।
सृजन हमें देगा नया आधार
जीवन में करेगा संचार
सुख, शांति व प्रसन्नता का।
आशा का दीपक जलने दो
विपरीत परिस्थितियाँ भी
उसे बुझा ना सकें
प्रयासरत् रहो।
दीपक से दीपक जलने दो
प्रेम की गंगा
अनवरत् बहने दो।
35. वाणी
वाणी ऐसी बोलिये
क्रोध भस्म हो जाए।
मन को शीतलता मिले,
जग प्रसन्न हो जाये।
कठिन उलझनें राह की,
धैर्य सहित सुलझाय।
मानवता के गुणों से,
मानव को महकाय।
वाणी मीठी बोलिये,
सत्य का कर श्रृंगार।
सच्चाई के रूप में,
कर लो अंगीकार।
वाणी ऐसी हो सदा,
मन को षांत कराय।
सब को सुख दे आपको,
यश अरू मान दिलाय।
36. जीवन ऐसा हो
गंगा, यमुना, सरस्वती से पवित्र हों
हमारे आचार और विचार।
हिम्मत हो
हमसफर और हमराज़।
सागर से गहरी हो
प्रेम व त्याग की प्यास।
श्रम व कर्म के प्रति
हो हमारा समर्पण।
यह इतना आसान नही
पर असम्भव भी नहीं।
सत्य और ईमानदारी की राह पर
रहो संघर्षशील
इसे समझो अपना कर्तव्य,
मन में हो धैर्य,
सफलता की चाह
तो राहें भी होंगी आसान
तुम्हें मिलेगा
जीवन में असीम उत्साह का भाव
और प्राप्त करोगे
सुखद परिणाम
जल की लहरों के समान
सुख और दुख का ज्वार - भाटा
जीवन में आता रहेगा
पर विजय श्री प्राप्त कर
आत्म संतोश का होगा दिव्य दर्शन।
ऐसा शान्तिप्रिय को हमारा जीवन।
37. जीवन का विकास
नदी बिना जल के
नैया बिना नाविक के
जीवन बिना प्राण के
औचित्यहीन है।
जीवन बिना संघर्ष के
बिना किसी सृजन के बेकार है।
धन, संपदा और वैभव
बिना दान के
कर्म बिना धर्म के
चिंतन बिना निष्कर्ष के निस्सार है।
भक्ति बिना समर्पण के
म्ंदिर बिना पूजा के निरर्थक है।
सुमन बिना सुगंध के
वृक्ष बिना छाया के
वायु बिना गति के व्यर्थ है।
हमारा जीवन
इन सब का
दर्पण है।
सकारात्मक और नकारात्मक चिंतन
पैण्डुलम के समान है
एक जाता है
तो दूसरा आ जाता है।
नकारात्मक सोच हो तो
जीवन एक बोझ है
सकारात्मक चिंतन हो तो
वसुधा का विकास है।
38. मानवीय संवेदना
परोपकार सदैव कृतार्थ करता है,
सामने वाला उसे माने या ना माने,
यह उस पर निर्भर करता है।
यह सदा दाता से बढाता है अभिलाषा।
यदि अभिलाषा पूरी ना हो तो
अभिलाषी को होती है निराशा,
हमारी भी हो सकती है मजबूरी
पर याचक इसे नही समझता।
उसकी नजरों में हम स्वार्थी है
मदद नही करने के लिये
आदतन बहाना बनाने वाले।
उसके मन में कहीं ना कही
हमारे प्रति आ जाती है दुर्भावना।
यही दुर्भावना कष्ट देती हे आत्मा को।
जीवन में सेवा कर सकते हो तो अवश्य करो।
इससे बडा धर्म और कर्म दूसरा नही है।
लेकिन यदि संभव ना हो तो प्रेमपूर्वक समझाओ
कठोर वचनों या घमंडपूर्ण वाणी का
प्रयोग मत करो।
यदि कुछ नही दे सकते तो
प्रेम की वाणी से सांत्वना अवश्य दो।
उसकी पीडा में
यथासंभव सहभागिता करो।
उसके कष्ट को कम करने का प्रयास करो।
यह देगा तुम्हें
जीवन में परम आनंद की अनुभूति
और परोपकार की राहों पर चलने की शक्ति।
39. जीवन की गति
संसार नदी
भाग्य नैया
जीवन नाविक और
कर्म पतवार है।
पवन सुख और
भँवर दुख है।
सज्जन व्यक्ति
जीवन में सुख से विचरण करता है
दुर्जन भँवर में फँसकर
रो-रो कर मरता है
प्रभु की भक्ति हो तो
हर प्राणी का जीवन तरता है।
40. मझधार
ना जाने क्यों आपने मुझे
मझधार में छोडा।
हमने तो कभी आपका
साया भी ना छोडा।
अब हम किसके लिये
और कैसे जी पाएँगे।
सीने में याद सँजोकर
दुनिया से चले जाएँगें।
41. विष्वास
विश्वसनीयता
विश्वास की जननी है।
इसको जाने पहचाने बिना
जिंदगी अधूरी है।
संदिग्ध विश्वसनीयता
करती है विश्वास का अंत।
स्वविवेक, आत्ममंथन और चिंतन
अन्तर्मन को कराता है
इसकी पहचान।
हम विश्वसनीयता को परखे बिना
करते है विश्वास
और खाते है धोखा
होते है परेशान
और तब समझ पाते है
विश्वसनीयता और विष्वास के
अर्थ और महत्व को।
42. सफलता की कुंजी
वाणी से प्रेम
प्रेम से भक्ति,
कर्म से प्रारब्ध
प्रारब्ध से सुख,
लेखनी से चरित्र
चरित्र से निर्मलता
व्यवहार से बुद्धि
और बुद्धि से
ज्ञान की प्राप्ति हेाती है।
इन्हें हृदय में
आत्मसात् करना
जीवन में है
सफलता की कुंजी।
43. अनुभव और निर्णय
अनुभव से
वक्त की पहचान
सफलता का आधार है।
यह हर युग में
धनुष और बाण है।
अनुभव को आधार बनाना
धनुष है।
सही वक्त पर निर्णय लेना
बाण है।
ऐसे ब्रह्मस्त्र का प्रयोग
असफल नही होता।
सफलता प्राप्त होना ही
इसका परिणाम है।
इन दोनो का जीवन में समावेश
समुद्र मंथन के समान है
और इनसे प्राप्त सफलता
जीवन का अमृतपान है।
44. सत्यप्रकाश
जब तक सत्य है
प्रकाश भी रहेगा।
सत्य के अभाव में
धूमिल हो जाता है प्रकाश।
सत्य से प्रकाश है
प्रकाश से सत्य नही।
सत्य है अटल,
कोई भी अंधेरा
उसे नही मिटा सकता
सच्चाई से भरा जीवन ही है
सत्यप्रकाश।
45. राहें
जीवन को राह मिली
तब मंजिल नसीब हुई।
रहनुमा है वे राहें
जो तुम्हें नसीब हुई।
राहें नही होती तो
तुम्हारा वजूद ना था।
इन्ही से सफलता पा
मंजिल तेरे करीब हुई।
46. अलविदा
हो रहा है सूर्योदय
छा रही है लालिमा।
हो रहा है सूर्यास्त
छा रही है कालिमा।
रोशनी कम हो रही है
धीरे धीरे दिन ढल रहा है।
जीवन का पता नही
आज है
कल रहेगा या नही।
इसलिये ढलता हुआ सूरज
कह रहा है तुमसे
अलविदा।
47. दृढता
मानवीयता सिद्धान्तों पर जो अटल है
वह सच्चा मार्गदर्षक है।
ऐसा मार्गदर्षक पाना
आज कितना कठिन है।
सद्चरित्रता और सद्व्यवहार
आज कितना दुर्लभ है।
धन-सम्पदा का निस्वार्थ दान
आज लगभग असम्भव है।
त्याग और तपस्या भरा जीवन
मानो एक कल्पना है।
इसलिये हो रहा है
सामाजिक चरित्र का अवमूल्यन
जीवन का हो रहा है
निरन्तर पतन।
इसे रोकना नही है असम्भव,
यदि हम हों
मानवीय सिद्धान्तों पर दृढ
तो यह परिवर्तन भी
हो सकता है सम्भव।
48. राधा के नैन
चित्त प्रफुल्लित करत तेरे नैन,
गोपियाँ देखत हैं
होकर बेचैन,
विधि ने बनाए तेरे
नील-झील-नैन,
काजल की रेखा से
कजरारे नैन,
राधा के नैन देख
कन्हैया बेचैन,
इस कारण फूटी मटकी
दोषी तेरे नैन,
कृष्ण की बजी बंसी
चपल हुए नैन,
इन्हें देख बाँसुरी भी,
होत है बेचैन,
राधा बोली मैं कृष्ण-पुजारिन,
काहे छुपाऊँ नैन,
उन्हीं की चितवन से घायल
हुए हैं ये नैन,
तेरे नैेनों से बृज की
गोपियाँ है बेचैन,
कृष्ण मेरे मैं कृष्ण की,
नैनों से मिले नैन,
कृष्ण के प्रेम में
सब कुछ अर्पण,
अब तो हो चुके है
उन्ही के ये नैन।
49. महँगाई
सवेरे-सवेरे कौए ने की काँव-काँव,
हम समझ गए
आज आ रहा है कोई मेहमान।
तभी पत्नी ने किया टीवी ऑन।
उसे देखते ही हम सकपका गए,
बिस्तर से गिरे और
धरती पर आ गए।
पेट्रोल, डीजल, कैरोसीन और
गैस की टंकी के बढ गए
अनाप-शनाप दाम।
नेताजी से दूरभाष पर पूछ बैठे
यह आपने क्या कर दिया काम ?
नेताजी ने फरमाया -
यह हमारा नही है काम
हम तो लेाकसभा, राज्यसभा और विधानसभा में
जितने पहले थे उतने ही अभी भी है,
हमारी संख्या स्थिर है।
पर तुम्हारे घर की जनसंख्या
बढती ही जा रही है।
हम जितना उत्पादन बढाते है
तुम उससे चार गुना अधिक
जनसंख्या बढाते हो
ऐसे में कैसे कम होंगे दाम ?
तुम इसे कम करो तेा दाम
अपने आप कम हो जायेंगें।
तुमको भी मिलेगी राहत और
हम भी चैन की बंसी बजाएँगें।
50. प्रेम
मन भटक रहा है
मंथन कर रहा है।
प्रेम तथा वासना में
समझ रहा है।
पत्नी की मांग में सिंदूर
उसे सप्त वचनों की
याद दिला रहा है।
प्रेम व प्यार बाजार में
उपलब्ध नही,
यह है भावनात्मकता का आधार।
धन से वासना मिल सकती है
पर प्रेम सुख नही।
जीवन में पत्नी का हो सच्चा साथ
तो यहीं पर है सच्चा प्रेम व प्यार
तब यही बनता है
तृप्ति से जीने का आधार।
पर यदि यह उपलब्ध नही
तब जीवन में
तनावग्रस्त रहना ही
है तुम्हारा दुर्भाग्य।
51. प्यार और खुदा
ये मोहब्बत के मारे भी
कैसे मोहब्बत करते है।
मरते हैं माशूका पर
याद खुदा को करते है।
खुदा से माँगते हैं
धन-दौलत,
फिर उसे लुटाते है
अपनी महबूबा पर।
हर समय रहते हैं बेचैन
देखने माशूका की सूरत।
उस समय इन्हें नही रहती
खुदा की जरूरत।
जब आती है जिन्दगी में मुसीबत
बस तभी करते है खुदा की इबादत।
मतलबी तासीर होती है जिनकी,
उनकी होती है ऐसी ही आदत।
तन माशूका को और मन खुदा को
समर्पित करके तो देखो।
चाँद तारों से जगमगाओगे
खुदा की रहमत भी पाओगे।
हर खुशी होगी तुम्हारे करीब
मृत्यु के बाद जन्नत भी होगी नसीब।
52. चिलमन और धुआँ
चिलमन में बैठे हो
हुक्के का धुआँ उडा रहे हो।
हुक्के के उडते हुए धुएँ में
अपने गमों को
उडा रहे हो।
दिल किसी ने तोडा है
गुस्सा किसी और पर निकाल रहे हो।
प्रेमिका को हुक्का समझकर
गुडगुडा रहे हो
और दाम्पत्य जीवन को
धुएँ में धुंधला रहे हो।
प्रीति की रीति को भूलकर
दोश तकदीर पर लगा रहे हो।
प्रेम के मद में डूबे हुए तुम
धन को पानी में बहा रहे हो
वो देखो !
आ गई तुम्हारी प्रियतमा।
बुझ गया हुक्का
उड गया धुआँ।
ऐसा सच्चा प्रेम
सदा-सदा बना रहे।
हुक्का हमेशा कोने में ही पडा रहे।
53. मदिरा का प्रेम
मदिरालय में
साकी तेरे हुस्न ने
गजब कर दिया।
असम्भव को सम्भव कर दिया।
तेरे रूप ने आज
मदिरा को ही नशे में डुबो दिया।
वह मदहोश हेाकर
पैमाने में ही छलक रही है।
मदिरा
प्रेमी के गिलास में न जाकर
पैमाने से नही निकल रही है।
वह उसी में बेहेाश हो गई है।
रात ढल रही है
मदिरा प्रेमी
बिना मदिरा सेवन के
बाहर जा रहे है
यह करिश्मा देख-देख
चक्कर खा रहे है।
रात बीत रही है
मदिरा बोतल में बंद हेा गई है।
साकी भी चुपचाप चली गई है,
मदिरालय भी बंद हो चुका है,
पर मदिरा यह सोच का गमगीन है
कल उसे किसी
मदिरा प्रेमी के हलक में जाना पडेगा।
साकी के जुदाई का गम
उठाना पडेगा।
54. स्टेपनी
नर और नारी मिलकर
बनती है जीवन की गाडी।
इनके बिना मानो
जीवन बिना चके की गाडी।
फिर स्टेपनी क्यों रखी जाती है ?
जब पंचर होता है
तो स्टेपनी काम आती है,
जीवन रूकता नही है
चलता ही जाता है।
कार पुरानी होती है
तो नयी आ जाती है
स्टेपनी बेचारी
जहाँ थी
वही रह जाती है।
55. आस्था के पुष्प
तुम्हारे प्रति मेरी आस्था के पुष्प
अहसान का आभास क्यों दे रहे है ?
ये हैं हमारे
प्रेम, प्यार व आस्था के प्रतीक।
हमने इन्हें सँवारा और साँचा है
तन, मन, आत्मा एवं आँसुओं से।
आज ये
जमी से आसमाँ तक
सितारे बनकर नजर आ रहे है।
56. तुम्हारा प्रतिबिम्ब
जीवन में किसी असहाय को
बेचारा मत समझो।
उसकी मदद करके
स्वयं को
दाता या दयावान मत समझो।
गरीब वह नही जिसके पास
धन नही है।
गरीब वह है
जिसके पास किसी की
मदद का मन नही है।
भाग्य ही बनाता है गरीब या अमीर
कभी-कभी अमीर को गरीब और
गरीब को अमीर।
लक्ष्मी का प्रवास
कब, कहाँ, कैसे और कब तक हो
मानव नही जानता।
प्रतिदिन पूजा और
दीप प्रज्जवलित करने की अपेक्षा
किसी गरीब के कुलदीपक को
शिक्षा के व्यवस्था करके
उसे स्वावलम्बी बना दो।
इससे तुम्हारे अन्तरमन में होगी
शांति और संतुष्टि।
समाज के लिये तुम बन जाओगे
मानवीयता का दर्पण।
तुम्हारे अनन्त में विलीन होने के बाद भी
सदा-सदा रहेगा।
तुम्हारा प्रतिबिम्ब
इस दर्पण में सजीव।
57. काम
काम
वासना नही है
कामुकता वासना हो सकती है।
काम है प्यार के पौधे के लिये
उर्वरा मृदा।
काम है सृष्टि में
सृजन का आधार।
इससे हमें प्राप्त होता है
हमारे अस्तित्व का आधार।
काम के प्रति समर्पित रहो
यह भौतिक सुख और
जीवन का सत्य है।
कामुकता से दूर रहो,
यह बनता है विध्वंस का आधार
और व्यक्तित्व को
करता है दिग्भ्रमित
और अवरूद्ध होता है
हमारा विकास।
58. माँ
माँ का स्नेह
देता था स्वर्ग की अनुभूति।
उसका आषीश
भरता था जीवन में स्फूर्ति।
एक दिन
उसकी साँसों में हो रहा था सूर्यास्त
हम थे स्तब्ध और विवेक शून्य
देख रहे थे जीवन का यथार्थ
हम थे बेबस और लाचार
उसे रोक पाने में असमर्थ
और वह चली गई
अनन्त की ओर
मुझे याद है
जब मैं रोता था
वह परेशान हो जाती थी।
जब मैं हँसता था
वह खुशी से फूल जाती थी।
वह हमेशा
सदाचार, सद्व्यवहार, सद्कर्म,
पीड़ित मानवता की सेवा,
राष्ट्र के प्रति समर्पण,
सेवा और त्याग की
देती थी शिक्षा।
शिक्षा देते-देते ही
आशीष लुटाते-लुटाते ही
ममता बरसाते-बरसाते ही
हमारे देखते-देखते ही
एक दिन वह
हो गई पंच तत्वों में विलीन।
लेकिन अभी भी
जब कभी होता हूँ परेशान
बंद करता हूँ आंखें
वह सामने आ जाती है।
जब कभी होता हूँ व्यथित
बदल रहा होता हूँ करवटें
वह आती है
लोरी सुनाती है
और सुला जाती है।
समझ नहीं पाता हूँ
यह प्रारम्भ से अन्त है
या अन्त से प्रारम्भ।
59. जीवन की सदी
बह रही सरिता
जैसे चल रहा जीवन।
तैरती वह नाव जैसे डोलती काया
दे रहा गति नाव को
वह नाव में बैठा हुआ नाविक,
कि जैसे आत्मा इस देह को
करती है संचालित
और पतवारें निरन्तर चल रही है
कर्म हैं ये
जो दिशा देती है जीवन को
कि यह जाए किधर को।
जन्म है उद्गम नदी का
और सागर में समाकर है समापन
षोर करती नदी पर्वत पर
उछलती जा रही है
और समतल में लहराती
शांत बहती जा रही है।
दुख कि जैसे करूण क्रन्दन
और सुख में मधुर स्वर में गा रही है।
बुद्धि-कौशल और अनुभव के सहारे
भँवर में, मँझधार में, ऊँची लहर में
नाव बढती जा रही है।
दुखों से, कठिनाईयों से
जूझकर भी साँस चलती जा रही है।
स्वयं पर विश्वास जिसमें
जो परिश्रमरत रहा है
लक्ष्य पर थी दृष्टि जिसकी
और संघर्षों में जो अविचल रहा है
वह सफल है
और जिसका डिग गया विश्वास
वह निश्चित मरा है।
उदय होगा सफलता का सूर्य
समाज दुहराएगा
आपकी सफलता की कथा
आप बन जाएँगें
प्रेरणा के स्त्रोत।
60. रूदन
कभी भी, कही भी, किसी का भी रूदन
देता है उसकी मजबूरी का आभास
बतलाता है उसके भीतर की कमजोर बुनियाद।
हमें समझना है
उसके रूदन का कारण
और करना है
उसके निराकरण का प्रयास
समाप्त करना है उसका रूदन।
हमारा यह प्रयास
हमारा उपकार नही
हमारा कर्तव्य है
हमारा यह कृत्य
हमारा पुण्य है
ऐसे अवसर पर चुप नही बैठना है
इससे किसी को मिलता है नया जीवन
और हमारे जीवन में आता है आनंद।
किसी को नये जीवन का इंतजार है
आगे बढ़ो। दुखिया यह संसार है।
61. आभार
शिशु का जन्म हुआ
मन में प्रश्न उठा
हम किसके प्रति आभारी हों ?
माता-पिता के प्रति
जिनके कारण यह जीवन मिला।
वसुधा के प्रति
जो करती है शिशु का लालन-पालन।
ईश्वर के प्रति जिसकी कृपा के बिना
संभव ही नही है
जन्म भी और लालन पालन भी।
विज्ञान तो कहता है
किसी के भी प्रति
आभार की कोई आवश्यकता नही है।
यह संस्कार तो बस
क्रिया की प्रतिक्रिया है।
संतो का कहना
गुरू आपकी बलिहारी है।
इसलिये हम आभारी है
जन्मदाता माता-पिता के
पोषणकर्ता आकाश और धरा के
मार्गदर्शक गुरू के
और कृपा बरसाने वाले प्रभु के।
62. दोस्ती
न तख्त है, न ताज है
बस दोस्तों का साथ है।
कोमल-सुमन है दोस्ती,
शीतल पवन है दोस्ती,
है तरल सरिता दोस्ती,
पूजा की थाली दोस्ती।
बिछुडे़ अगर हम दोस्त से
तो दोस्ती कायम रहे।
होंठो पे हो मुस्कान
अपनी आँख चाहे नम रहे।
है क्या पता किस मोड पर
शायद कभी मिल जाएँ हम।
तब काम शायद आ सकें
कठिनाई हो या कोई गम।
63. सोने की चिड़िया
पक्षी सूर्योदय के साथ
अपने दलों में निकलते हैं
सूर्यास्त पर
दलों में वापिस लौटते है
एक साथ रहकर जीते है
सुखी और प्रेमपूर्ण जीवन।
लेकिन हम अहं में ही जीते है
और अहं में ही मरते हैं
यदि हमारे मैं की जगह
हम का भाव आ जाए
समाज में क्रांति हो जाए
यह क्रांति धन संपदा,
वैभव व प्रगति से
व्यक्ति को ही नही
लाभांवित करेगी पूरे समाज को।
समाज होगा
सुख व प्रेम से आप्लावित
होगा सुदृढ राष्ट्र का निर्माण
देश पुनः बनकर चहकेगा
सोने की चिड़िया।
64. भीष्म
जीवन की राहों में
फूल है कम काँटें हैं ज्यादा।
हम जीवन में जिन्हें फूल समझते हैं।
वे ही एक दिन शूल बनकर चुभते हैं।
काँटे तो काँटें हैं हम उनसे सावधान रहते हैं।
पर धोखा वहीं खाते हैं जहाँ फूल नजर आते हैं।
भीष्म पितामह का मन कृष्ण के साथ था,
लेकिन तन से वे जीवन भर काँटों के साथ रहे
और काँटों की सेज पर ही मरे।
जब मरे तो अपने साथ
ले गए धरती के ढेर से काँटें
और अपनी इस जन्मभूमि पर
छोड़ गए श्रीकृष्ण को
और पांडवों सहित उन वीरों को
जिनका चरित्र था फूलों सा
वे स्वयं अधर्म के काँटों पर सोये
और जनता को दिये धर्म के फूल।
आज के नेता
सो रहें हैं फूलों की सेज पर
और जनता को दे रहें हैं
महँगाई और भ्रष्टाचार के काँटें।
जनता का दुख दर्द उन्हें
नजर नही आता।
इसलिये उनमें कोई भी
भीष्म पितामह नही बन पाता।
65. सच्चा लोकतंत्र
पहले था राजतंत्र
अब आ गया है लोकतंत्र
पहले राजा शोषण करता था
अब नेता शोषण कर रहा है।
जनता पहले भी गरीब थी
आज भी गरीब है।
कोई ईमान बेचकर,
कोई खून बेचकर
और कोई तन बेचकर
कमा रहा है धन।
तब भर पा रहा है
अपना और अपने परिवार का पेट।
कोई नही है
गरीब के साथ
गरीबी करवा रही है
प्रतिदिन नए नए अपराध ।
खोजना पडे़गा कोई ऐसा मंत्र
जिससे आ पाये सच्चा लोकतंत्र।
मिटे गरीब और अमीर की खाई।
क्या तुम्हारे पास है कोई
ऐसा इलाज मेरे भाई।
66. अर्थ
ईष्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है
यह सृष्टि और सृष्टि में
सर्वश्रेष्ठ कृति है मानव
मानव जिसमें क्षमता है
सृजन और विकास की,
अविष्कार की और
समस्याओं के समाधान की
वस्तु विनिमय का समाधान था
मुद्रा का जन्म।
मुद्रा अर्थात् अर्थ
अर्थ में छुपी हुई थी क्रय-शक्ति
इसी क्रय-शक्ति ने
बाँट दिया मानव को
अमीर और गरीब में
अर्थ की धुरी पर
घूमती हुई अर्थव्यवस्था ने
निर्मित कर दी
अमीर और गरीब के बीच
एक गहरी खाई।
अमीर होता जा रहा है और अमीर
गरीब होता जा रहा है और गरीब
डगमगा रहा है सामाजिक संतुलन
असंतुलन से बढ रहा है असंतोष
असंतोष जिस दिन पार कर जाएगा अपनी सीमा
फैल जाएगी अराजकता और करेगी विध्वंस
हमारे सृजन और विकास का।
यदि कायम रखनी है अपनी प्रगति
जारी रखना है अपना सृजन
तो जगानी पडेगी सामाजिक चेतना
पाटना पडेगी अमीर और गरीब के बीच की खाई
देना होगा सबको आर्थिक विकास का लाभ।
पूरी करनी होगी सबकी भौतिक आवष्यकताएँ।
हर अमीर दे किसी गरीब को सहारा
बनाए उसे स्वावलंबी
कम होगी बेकारी तो कम होगा
समाज का अपराधीकरण
और बढेगी राष्ट्रीय आय।
इस संकल्प की पूर्णता के लिये
सबको करना होगा प्रयत्न
तभी सच्चा होगा
सशक्त भारत निर्माण का स्वप्न।
67. श्री गणेश
साधु और संत को करना परेशान
और करना उनका अपमान
तुम्हारी दिग्विजय नही
तुम्हारी पराजय है।
ये साधु और संत
हमारी सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक है।
इनके तप, त्याग और तपस्या का
मत करो उपहास।
ये हैं प्रेम के पुजारी
अहिंसा के मेरूदंड
और नौजवानों के पथ प्रदर्शक।
ये समर्पित हैं
भारत माता के लिये
राष्ट्र इनसे गौरवान्वित है
इनका अपमान
जनता नही करेगी स्वीकार
होगा क्रांति का शंखनाद
चूर चूर हो जाएगा
सत्ता का मद
और तुम्हें होना पडे़गा
सड़कों पर नतमस्तक ।
क्रांति की मशाल
दूर करके रहेगी
भ्रष्टाचार का अंधकार
और तब होगा
नये भारत के निर्माण का श्री गणेश।
68. बँटवारा
बढ़ती ही जा रही है जीवन में जटिलता।
बढ़ती जा रही है आदमी की व्यस्तता।
दूभर हो रहा है संयुक्त परिवार का संचालन।
हो रहा है विघटन अर्थात्
परिवारों का संक्षिप्तीकरण।
जब होता है बँटवारा।
तब जन्म लेते हैं मतभेद
बढ़ते हैं मतभेद
आपस में हल नहीं होते विवाद।
न्यायालयों में होता है
बेहिसाब कीमती समय बर्बाद।
परिवारिक उद्योग हो जाते हैं चौपट
बढ़ती है खटपट।
राष्ट्र की आर्थिक क्षति के बचाव के लिये
सामाजिक शांति और सद्भाव के लिये
बहुत आवश्यक है
एक तटस्थ न्यायालयीन निकाय।
जहाँ समस्या समय सीमा में सुलझा ली जाए।
ऐसा होने पर रूकेगी आर्थिक क्षति
नही पनप सकेगा पारिवारिक विवाद
खंडित नही होगी पारिवारिक एकता
सुदृढ़ बनेगा हमारा समाज।
तब हर घर में चमकेगा
प्रेम और साहचर्य का ऐसा सूरज
जिसका सूर्यास्त कभी नही होगा।
69. मसीहा
जिसने उसे जन्म दिया
उसने जन्मभूमि पर ही
उसे एकाकी छोड दिया
धरती की गोद में पड़ा
वह आकाश को पुकार रहा
उसके रूदन में
तार तार हो रहा था मातृत्व
और तड़प रही थी मानवता
तभी बढ़े
किसी मसीहा के दो हाथ
और ले गए उसे अपने साथ
अनजाने मन्तव्य ओर।
मसीहा
बरसाता रहा उस पर
अपना प्यार और दुलार
ऋतृएँ आती रहीं
और जाती रही
वह नन्हा
अब हो गया था युवा
एक दिन मसीहा
उसे छोड़कर चला गया
और हो गया
उस अनंत में विलीन
जीवन पथ पर चलते चलते
इतिहास ने अपने को दुहराया
उसने भी एक अबोध को
कचरे के ढ़ेर पर रोता हुआ पाया।
बढ़ गए उसके हाथ
और उसने लगा लिया उसे अपने सीने से।
अब वह उसका पालन करने लगा।
दुनिया उसे मसीहा कहती है।
जहाँ दानवता रहती है
वहाँ मानवता भी रहती है।
70. संस्काधानी
आँखों में झूमते हैं वे दिन
हमारे शहर में गली-गली में थे
साहित्य के सृजनकर्ता, संगीत के साधक,
तरह-तरह के रंगों से,
जीवन की विविधताओं को
उभारते हुये चित्रकार,
राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत
देश और समाज के उत्थान का
पोशण करने वाले पत्रकार
साहित्य, कला, संस्कृति और समाज के
सकारात्मक स्वरूप को
प्रकाषित करने वाले अखबार
और थे इन सब को वातावरण
और संरक्षण देने वाले जन-प्रतिनिधि।
जिनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन में
नई पीढ़ी का होता था निर्माण
पूरा नगर था एक परिवार
और पूरा देश जिसे कहता था संस्कारधानी।
सृजन की वह परंपरा
वह आत्मीयता और
वह भाई-चारा
कहाँ खो गया ?
साहित्य, कला, संगीत और संस्कार
जन-प्रतिनिधि, पत्रकार और अखबार
सब कुछ जैसे
ठेकेदारों का कमीशन हो गया।
हर तरफ डीÛजेÛ और धमालों की
कान फोडू आवाजों पर
भौंडेपन और अश्लीलता के साथ
कमर मटका रही है नई पीढ़ी।
आम आदमी
रोजमर्रा की जिन्दगी, मंहगाई
और परेशानियों में खो गया है
सुबह से शाम तक
लगा रहता है काम में
कोल्हू का बैल हो गया है।
साहित्य-कला-संगीत की वह सृजनात्मकता
उपेक्षित जरूर है पर लुप्त नहीं है
आवश्यकता है उसके
प्रोत्साहन और उत्साहवर्धन की।
काश कि यह हो पाए
तो फिर से हमारा नगर
कलाधानी, साहित्यधानी और
संस्कारधानी हो जाए।
71. शहर और सड़क
शहर की सड़क पर
उड़ते हुए धूल के गुबार ने
अट्टहास करते हुए मुझसे कहा -
मैं तुम्हारी ही भूल का परिणाम हूँ।
पहले मैं दबी रहती थी
तुम्हारे पैरों के नीचे सड़को पर।
पर आज मैं मुस्कुरा रही हूँ
तुम्हारे माथे पर बैठकर।
पहले तुम चला करते थे
निश्चिन्तता के साथ
शहर की प्यारी-प्यारी
सुन्दर व स्वच्छ सड़को पर।
पर आज तुम चल रहे हो
गड्ढों में सड़कों को खोजते हुए
कदम-कदम पर संभल-संभल कर।
तुमने भूतकाल में
किया है मेरा बहुत तिरस्कार,
मुझ पर किए हैं अत्याचार,
अब मैं उनका बदला लूंगी,
और तुम्हारी सांसों के साथ
तुम्हारे फेफडों में जाकर बैठूंगी।
तुम्हें उपहार में दूंगी
टीÛबीÛ, दमा और श्वांस रोग।
तुम सारा जीवन रहोगे परेशान
और खोजते रहोगे संस्कारधानी की पुरानी
स्वच्छ, सुन्दर और साफ सड़कों को।
72. एकता और सम्मान
ताल के किनारे
मंदिर और मस्जिद।
सूर्योदय पर
मंदिर की छाया मस्जिद,
सूर्यास्त पर
मस्जिद की छाया में मंदिर,
सुबह एक के पहलू में दूसरा,
शाम को दूसरे के पहलू में पहला।
पूजा और इबादत, आरती और अजान
प्रार्थना और नमाज, सभी थे साथ साथ
एक दिन कहीं से आई
अफवाह की एक चिंगारी,
धधका गई आग
भडका गई दंगा और फसाद
रक्त बहा मानव का
सिसक उठी मानवता।
मंदिर में भी ’म‘ और ’द‘
मस्जिद में भी ’म‘ और ’द‘
’म‘ और ’द‘ के मद ने
दोनो को भडकाया।
’द‘ और ’म‘ के दम ने
देानो को लडवाया।
मद और दम में फँसकर
एकता हुई खंडित टूट गया भ्रातृ प्रेम
खोया सद्भाव और पनपे कटुता और क्लेश।
किसी ने किसी का घर जलाया
किसी ने किसी का खून बहाया
किसी ने पति खोया
और कोई बेटे को खोकर
फूट फूट कर रोया।
अगर मद में आकर आदम
मदहोश नही हुआ होता
और झूठे दंभ में आकर
दम दिखलाने के लिये न निकला होता
तो कोई बेघर नही होता
कोई अपना बेटा, पति या पिता नही खोता।
कायम रहता है भाईचारा,
कायम रहती साम्प्रदायिक एकता
और कायम रहता सद्भाव।
नही रूकती बस्ती की तरक्की
और नही झुकती सभ्यता की नजरे।
हम क्यों भूल जाते है कि-
हमारी एकता में ही छुपी है देश की एकता।
हमारी प्रगति में ही छुपी है देश की प्रगति और
हमारे सम्मान में ही छुपा है देश का सम्मान।
73. अधूरा सफर
वह पथिक था, जा रहा था
रास्ता सुनसान था,
इसलिये घबरा रहा था
तभी उसके कान में
जैसे कि कोई फुसफुसाया
और उसने यह बताया
यह तो वह रास्ता है
जिस पर जाते हैं नेता
जिस राह पर नेता जाते है
उससे भाग जाते है
चोर, उचक्के और डाकू।
छोटा हमेशा बडों का सम्मान है करता
यही है हमारी संस्कृति
यही है हमारी सभ्यता।
पथिक को मिली राहत
चली गई उसकी सारी घबराहट।
चलते चलते आ गया चौराहा
वह घबराया अब कहाँ जाऊँ ?
तभी उसे घेर लिया पक्ष और
विपक्ष के कार्यकर्ताओं ने
उसकी सारी पूँजी छीन ली
चुनाव में प्रचार के लिये।
वे गए तो आ गए किन्नर
धन नही मिला तो
उतार ले गए उसके सारे कपडे।
सामने जो दिखा रास्ता
वह उसकी पर भागा
और टकरा गया लुटेरों से
उसे देख वे पहले गरजे
फिर उस पर बरसे
कैसे की तुमने हिमाकत
चड्डी बनियान पर निकलने की
यह है हमारे गिरोह का निशान
इसे पहनकर तुमने किया है
हमारे गिरोह का अपमान।
वह गिडगिडा रहा था
मुझे भी अपने गिरोह में शामिल कर लो
वे फिर चिल्लाए तुम हो पिटे पिटाये
इसलिये चडडी बनियान में यहाँ तक हेा आये।
चुपचाप भाग जाओ
पहले बनो ताकतवर फिर हमारे पास आओ।
तभी खुल गई नींद
उसका सपना बिखर गया था।
वह बिस्तर के नीचे पडा था।
74. नववर्षाभिनंदन
आ रहा है नव वर्ष
आओ हम सब मिलकर
नयी आशाओं और अपेक्षाओं के साथ
करें इसका अभिनन्दन।
राष्ट्र को दें नई दिशा
और लायें
नये सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन।
देश में किसानों, व्यापारियों, श्रमिकों और
उद्योगपतियों को मिले उचित सम्मान
रिश्वत, मिलावट, भाई-भतीजावाद
और मंहगाई से मुक्त
राष्ट्र का हो निर्माण।
कर्म की हो पूजा
और परिश्रम को मिले
उचित स्थान
जब राष्ट्र-प्रथम की भावना को
सभी देशवासी
वास्तव में कर लेंगे स्वीकार
नूतन परिवर्तन
नूतन प्रकाश का सपना
तभी होगा साकार
सूर्योदय के साथ हम जागें
लेकर मन में
विकास का संकल्प
तभी पूरी होगी जनता की अभिलाषाए
तब सब मिलकर
राष्ट्र की प्रगति के बनेंगे भागीदार
तभी सच्चा होगा
नूतन वर्ष का अभिनन्दन।
75. आनंद
आनन्द क्या है
एक आध्यात्मिक पहेली।
दुख में भी हो सकती है
आनन्द की अनुभूति।
सुख में भी हो सकता है
आनन्द का अभाव।
इस पहेली को बूझने के लिये
देखने पड़ेंगे जीवन के चित्र-
कठिनाइयों और परेशानियों से
घबराकर भागने वाला
जीवन को बना लेता है बोझ
डूबता-उतराता है
निराशा के सागर में,
समझता है संसार को
अवसादों का घनघोर घना जंगल।
जिसमें होता है साहस
जिसमें होती है कर्मठता
जिसमें होती है सकारात्मक सोच
और जिसमें होता है
संघर्ष का उत्साह
वह जूझता है परेशानियों से
हल करता है कठिनाइयों को
और ऐसा करते हुए
सफलता की हर सीढ़ी पर
अनुभव करता है वह
एक अलौकिक संतुष्टि
एक अलौकिक प्रसन्नता
स्वयं पर भरोसा
और एक अलौकिक सौन्दर्य युक्त संसार
यही आनन्द है।
धन, संपदा और वैभव
देते हैं केवल भौतिक सुख
आदमी आनन्द की तलाश में
जीवन भर भागता रहता है
भौतिक सुखों के पीछे।
सुख भौतिक हैं वे बाह्य है।
आनन्द आध्यात्मिक है
वह आन्तरिक है।
सुख की अनुभूति होती है शरीर को
आनन्द की अनुभूति होती है
हृदय को और हमारी आत्मा को।
आनन्द का उद्गम हैं हमारे विचार,
हमारे सद्कर्म,और हमारी कर्मठता।
76. अंधकार
सुबह हुई और
जाने कहाँ चला गया अंधकार।
चारों ओर फैल गया प्रकाश।
अंधेरे को हराकर
विजयी होकर उजाला
जगमगाने लगा चारों ओर।
लेकिन जब
उजाले में आ गया
विजय का अहंकार
तब फिर आ गया अंधेरा
और निगल गया सारे प्रकाश को।
क्योंकि प्रकाश के लिये
जलना पडता है सूरज को
बल्ब को , दिये को
या किसी और को।
लेकिन अंधकार के लिये
कोई नही जलता।
प्रकाश शाश्वत नही हैा
शाश्वत है अंधकार।
77. सच्ची सफलता
सच्ची सफलता के लिये आवश्यक है
मन में ईमानदारी
सच्चे मार्ग से धन कमाने की लालसा
क्रोध से बचाव
वाणी में मधुरता
औरों को पीड़ा न पहुँचाना
सोच समझकर निर्णय लेना
ईश्वर पर भरोसा करना
और उसे हमेशा याद रखना।
यदि हम इसे अपनाएँगे
तो जीवन में हर कदम पर सफलता पाएँगे।
और सफलताएँ हमें देंगी
सुख, समृ़द्धि और वैभव।
78. कल्पना और हकीकत
कल्पना और हकीकत में
कौन है महान् ?
दोनों हैं एक समान।
कल्पना ही साकार होकर
बनती है हकीकत।
कल्पना जन्म लेती है मस्तिष्क में
फिर मेहनत, लगन और प्रयास
उसे बदलते हैं हकीकत में।
हकीकत में बदलते ही
समाप्त हो जाता है
कल्पना का अस्तित्व।
मानव के प्रत्येक परिवर्तन का
उसके प्रत्येक सृजन का
आधार है उसकी कोई न कोई कल्पना।
हमारी संस्कृति और सभ्यता की भी
कल्पना ही है आधार
कल्पना ही है सृजन का सत्य
इसे करें स्वीकार।
79. चिंता
जीवन में आती ही हैं चिंताएँ
चिंतन हमें समझाता है
चिंता का कारण
और उसके निवारण का रास्ता।
सही समय पर सही निर्णय
और फिर उसका सही क्रियान्वयन
दूर कर देता है चिंता को।
चिंता, चिंतन और निवारण
जीवन की गतिशीलता के सतत अंग हैं।
वे आते रहें हैं
आते रहेंगे और
यह क्रम अनवरत् चलता रहेगा।
80. जीवन की नियति
संसार है नदी,
जीवन है नाव,
भाग्य है नाविक,
कर्म है पतवार,
पवन व लहर है सुख तथा
तूफान में भँवर है दुख।
पाल है भक्ति
जो नदी के बहाव
हवा के प्रवाह और
नाव की गति एवं दिशा में
बैठाती है सामंजस्य।
भाग्य, भक्ति और
कर्म के कारण
व्यक्ति को मिलता है
सुख और दुख।
यही है जीवन की
सद्गति और दुर्गति।
इसी में छुपी है
इस जीवन की नियति।
81. असफलताएँ
सफलताएँ दर्ज होती हैं
इतिहास के पृष्ठों पर।
उन्हें हर कोई दुहराता है
बार बार।
वे दिखलाती हैं
हमारी पीढ़ियों को रास्ता।
परंतु असफलताओं को
कोई याद नही करता
वे चली जाती हैं
विस्मृतियों के गर्भ में।
हमें अपनी असफलताओं को भी
ध्यान में रखना चाहिए
क्योंकि वे बताती हैं
हमारी गलतियों को
हमें याद रखना चाहिए
असफलता ही
सफलता की जननी होती हैं।
82. जीवन पथ
हम है उस पथिक के समान
जिसे कर्तव्य बोध है
पर नजर नही आता है सही रास्ता।
अनेक रास्तों के बीच
हो जाता है दिग्भ्रमित।
इस भ्रम को तोडकर
रात्रि की कालिमा की देखकर
स्वर्णिम प्रभात की ओर
गमन करने वाला ही
पाता है सुखद अनुभूति और
सफल जीवन की संज्ञा।
हमें संकल्पित होना चाहिए कि
कितनी भी बाधाएँ आएँ
कभी नही होंगे विचलित
और निरूत्साहित।
जब धरती पुत्र मेहनत, लगन और सच्चाई से
जीवन में करता है संघर्ष
तब वह कभी नही होता पराजित
ऐसी जीवन शैली ही
कहलाती है जीवन की कला
और प्रतिकूल समय में
मार्गदर्शन देकर दे जाती है जीवन-दान।