Gyarah Amavas - 41 in Hindi Thriller by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | ग्यारह अमावस - 41

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ग्यारह अमावस - 41



(41)

गोल छेद में लगी ग्रिल से रौशनी अंदर आ रही थी। शिवराम हेगड़े उस आती हुई रौशनी को ध्यान से देख रहा था। इस रौशनी को देखकर वह रोज़ सुबह खुद को इस कैद में आशावान रखने की कोशिश करता था। लेकिन आज अंदर आती हुई रौशनी उसके मन को अशांत कर रही थी। उसे इस कैद में बहुत समय हो गया था। लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ था। उसे तो लगता था कि उसके और सब इंस्पेक्टर रंजन सिंह के गायब होने का शक सीधा दीपांकर दास पर जाएगा। एसपी गुरुनूर कौर उसे और शुबेंदु को गिरफ्तार कर उनके ज़रिए उस तक पहुँच जाएगी। जो उसने सोचा था वह हुआ नहीं। अब उसे लग रहा था कि दीपांकर दास और शुबेंदु स्तिति को समझ कर शांति कुटीर छोड़कर कहीं और चले गए होंगे।
दिनभर इस कमरे में बंद वह बहुत सी बातें सोचता रहता था। अगर पुलिस को दीपांकर दास और शुबेंदु शांति कुटीर में नहीं मिले तो क्या पुलिस ने आगे कोई कार्यवाही नहीं की। उसे पूरा यकीन था कि एसपी गुरुनूर कौर शांत नहीं बैठी होगी। वह कुछ ना कुछ कर अवश्य रही होगी। पर अभी तक कामयाबी नहीं मिली। यह बात मन में आते ही वह और अधिक परेशान हो जाता था। इस बात का सीधा मतलब यह था कि दीपांकर दास और शुबेंदु बहुत शातिर हैं। दोनों कोई बहुत खतरनाक खेल खेल रहे हैं।
वह उठकर कमरे में टहलने लगा। अधिक जगह नहीं थी फिर भी वह उस छोटी सी जगह में दिन में कई बार टहलता था। इस तरह वह अपने शरीर और मन को मज़बूत बनाता था। टहलते हुए उसके मन में एकबार फिर कुछ प्रश्न उठे। वह सोच रहा था कि आखिर उसे इस तरह जीवित रखने की मंशा क्या है ? क्यों नहीं उसे मार दिया गया ? ऐसा करना तो आसान होता। उसकी जगह उसे यहाँ कैद करके रखा गया है। दिन में दो बार उसके लिए खाने की थाली आती है। उसके बाद कोई नहीं आता है। इस सवाल के साथ उसके मन में सब इंस्पेक्टर रंजन सिंह का खयाल आया। वह कहाँ और किस हाल में होगा ? क्या उसे भी इसी तरह कहीं और कैद करके रखा गया होगा ?
उसके ‌मन में यह सारे सवाल अक्सर सर उठाते रहते थे। लेकिन उनके जवाब उसके पास नहीं थे। ना ही इस समय उनके ‌जवाब खोज सकने की स्थिति में था। कुछ ना कर पाने की मजबूरी उसे ‌और परेशान कर रही थी। पर वह जल्दबाज़ी में ऐसा कुछ नहीं करना चाहता था जो उसे और अधिक मुसीबत में डाल दे। वह जानता था कि अगर उसे इस तरह कैद करके रखा गया है तो इसका कोई विशेष कारण होगा। उसके लिए यहाँ से निकल पाना आसान नहीं होगा। हालांकि अब बार बार उसका मन उसे कुछ करने के लिए प्रेरित करने लगा था। इसलिए आज सुबह से ही वह परेशान था।

भानुप्रताप अभी बाहर से लौटा था। उसे भूख लग रही थी। उसने किचन में जाकर देखा तो खाने की कोई तैयारी नहीं हुई थी। गगन और संजीव अाराम से बैठे हुए थे। भानुप्रताप यह देखकर चिढ़ गया। उसने कहा,
"तुम लोग आराम से बैठे हो। इस बात का इंतज़ार कर रहे थे कि मैं आऊंँ तो सबके लिए खाना बनाऊँ। क्या इतनी भी मदद नहीं कर सकते हो तुम लोग ?"
गगन ने कहा,
"मैंने अभी संजीव से कहा ही था कि भानु को आने में देर हो गई है। कुछ बना लेते हैं। तब तक तुम आ गए।"
यह सुनकर भानुप्रताप और अधिक चिढ़ गया। उसने कहा,
"मेरे आने तक शायद शुभ मुहूर्त नहीं था। नहीं तो तुम खाना बनाकर रखते।"
वह बात बात पर गगन और संजीव को ताने मारता था। यह बात उन लोगों को अच्छी नहीं लगती थी। लेकिन दोनों कुछ कर नहीं सकते थे। चुपचाप यह सोचकर उसकी बात सुन लेते थे कि इस समय उनका कहीं और जाना खतरनाक हो सकता है। दोनों पुलिस की नज़र में आ चुके हैं। भानुप्रताप के साथ रहना सुरिक्षत है। हर बार की तरह इस बार भी दोनों गुस्से को दबाकर चुप हो गए। भानुप्रताप ने कहा,
"तुम लोगों की मदद करने के चक्कर में अच्छी मुसीबत में पड़ गया मैं। बैठे बिठाए की मुसीबत। मुझे बहुत ज़ोर की भूख लगी है। खाना बनने में तो समय लगेगा।"
संजीव ने कहा,
"इस समय बाहर से ले आओ। उसके बाद हम लोग समय से बना लिया करेंगे।"
भानुप्रताप ने घूरकर देखा। वह बोला,
"मैं बाहर खाना लेने जाऊँ। तुम दोनों यहांँ बैठकर आराम से खाओ। क्या बात है ?"
गगन ने कहा,
"हम दोनों में से कोई जा सकता था लेकिन तुम तो जानते हो कि पुलिस हमारे पीछे है। तभी तो हम तुम्हारे घर छुपकर रह रहे हैं। हमारा पकड़ा जाना तुम्हारे लिए भी तो मुश्किल पैदा करेगा।"
भानुप्रताप कुछ सोचकर बोला,
"ठीक है मैं जाकर ले आता हूंँ। लेकिन हर बार पैसे मैं नहीं लगाऊंँगा। तुम लोग खाने के पैसे दो।"
गगन और संजीव ने एक दूसरे की तरफ देखा। उनके पास बहुत कम पैसे थे। दोनों ने निकाल कर दे दिए। भानुप्रताप ने गिने। उसके बाद बड़बड़ाता हुआ चला गया। गगन और संजीव आपस में बातें करने लगे। गगन बोला,
"मुसीबत में भानु नहीं हम दोनों पड़ गए हैं। ना मैं अपने घर जा सकता हूँ और ना ही तुम। जो थोड़े बहुत पैसे थे उसे दे दिए। अब हमें जलीकटी सुनाता रहेगा।"
"बुरा तो बहुत लगता है। पर कर क्या सकते हैं ? रह तो भानु के घर में ही रहे हैं।"
यह कहते हुए संजीव ने गुस्से में अपनी जांघ पर हाथ मारा। उसने कहा,
"ना जाने कब ग्यारह अनुष्ठान पूरे होंगे। ज़ेबूल हमसे खुश होंगे। हम अपने हिसाब से ज़िंदगी जी पाएंगे।"
गगन भी अब अपने हालात से परेशान होने लगा था। वह बोला,
"मेरी फूटी किस्मत तो पीछा ही नहीं छोड़ रही है। कोई ना कोई मुसीबत खड़ी करती रहती है। बसरपुर में आराम से रह रहा था। सोचता था कि अनुष्ठान पूरा होगा। ज़ेबूल हमें शक्तियां प्रदान करेंगे। उस दिन अच्छा खासा यह सोचकर बसरपुर से चला था कि मीटिंग में शामिल होकर वापस आ जाऊँगा। ना जाने कब वह नज़ीर पीछे लग गया। सब गड़बड़ कर दी। सच कहूँ तो भानु के ताने सुनकर मन करता है कि बसरपुर चला जाऊँ। पर उस एसपी गुरुनूर कौर को अगवा करके और बड़ी गलती कर दी है।"
संजीव ने कहा,
"भूलकर भी ऐसा मत करना। उस दिन जब हमने नज़ीर को पुलिस जीप में जाते देख लिया था तो हमें भी चुपचाप निकल लेना चाहिए था। हम भानु की बातों में आ गए। पर फिलहाल उसकी बातें सुनकर चुप रहना ही ठीक है।"
दोनों बातें करते हुए भानुप्रताप का इंतज़ार करने लगे।

भानुप्रताप का मूड बहुत खराब था। गगन और संजीव दोनों ने मिलाकर जो पैसे दिए थे उनसे केवल एक आदमी भरपेट खा सकता था। वह सोच रहा था कि उसने बेवजह ही उन दोनों का बोझ अपने ऊपर ले लिया है। ना जाने कब तक उसे उन दोनों की ज़िम्मेदारी उठानी पड़ेगी। अभी तो अनुष्ठान पूरा होने के लिए कई अमावस बाकी हैं। वह तब तक उन दोनों को अपने साथ नहीं रख सकता है। आने वाली अमावस के बाद वह उन दोनों से कहेगा कि कहीं और इंतज़ाम कर लें। तब तक तो उन दोनों को साथ में ही रखना पड़ेगा।

उसने यह सोचकर एसपी गुरुनूर कौर को अगवा किया था कि इस बात से खुश होकर जांबूर उसे कुछ पैसे देगा। लेकिन जांबूर ने यह कहकर टाल दिया कि उसके इस काम से ज़ेबूल उन लोगों पर विशेष कृपा करेंगे। उसकी जांबूर से कुछ कहने की हिम्मत नहीं पड़ी थी। पर मन ही मन वह इस बात से नाखुश था। ऊपर से गगन और संजीव का उसके साथ रहना उसे और परेशान कर रहा था। वह अपने घर से कुछ दूर स्थित एक रेस्टोरेंट पर पहुंँचा। उसने तय कर लिया था कि पहले वह खुद पेट भरकर खाएगा। उसके बाद वह उन दोनों के लिए थोड़ा बहुत खाना बंधवा लेगा। टेबल पर बैठकर उसने अपने लिए ऑर्डर किया।
वह खाना खा रहा था तभी उसे अपने पास की टेबल पर बैठे लोगों की बातचीत सुनाई पड़ी। एक आदमी अपने साथी से कह रहा था,
"एक और मौका पुलिस के हाथ से फिसल गया। वो आदमी पुलिस की गिरफ्त में आ जाता तो बसरपुर के सरकटी लाशों के मिलने का केस सॉल्व हो जाता। पर वह आदमी भागते हुए गाड़ी से टकरा गया। अस्पताल में ऑपरेशन के दौरान मर गया। पर पुलिस ने बच्चे की किडनैपिंग नहीं होने दी।"
उस आदमी के साथी ने कहा,
"सुनने में आ रहा है कि बच्चों की बलि दी जाती है। यार यह तो बड़ी डराने वाली बात है। वो लोग तो बहुत खतरनाक हैं। हमारे बच्चों का क्या होगा ?"
"यार डरने की बात नहीं है। अब पुलिस भी पूरी तरह मुस्तैद हो चुकी है। खासकर केस से संबंधित प्रमुख अधिकारी एसपी गुरुनूर कौर का अपहरण होने के बाद से। तभी तो उस बच्चे को बचा लिया। आखिर अब पुलिस की इज्ज़त पर बन आई है। किसी को भी छोड़ा नहीं जाएगा।"

पहले आदमी ने अपने दोस्त को तसल्ली देते हुए कहा।
जो कुछ भानुप्रताप ने सुना वह उसके लिए परेशान करने वाला था। अब उसके लिए खाना खाना भी मुश्किल हो गया था। वह पूरा खाना खत्म किए बिना ही उठ गया। अपना बिल चुकाया और रेस्टोरेंट से चला गया।