व्यंग्य कथा
एम. एल. ए. साहब
यशवन्त कोठारी
जब भगवान देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है और मनोहर के साथ भी यही हुआ। गांव भानपुर का मनोहर शरीर से हट्टा-कट्टा कद्दावर लड़का था। एक दिन स्कूल मं मास्टरजी से झगड़ा हो गया और उसने स्कूल न जाने का तय किया बाप रामकिशोर स्टेशन पर कुलीगिरी करता था और बेटा गांव में मारा-मारा फिरता था। लेकिन जब दिन फिरते हैं तो ऐसे फिरते हैं। जैसे मनोहर के दिन फिरे, सभी के फिरे।
हुआ यूं कि मनोहर स्टेशन पर टहल रहा था कि देखा प्रथम श्रेणी के एक डिब्बे से एक खद्दरधारी व्यक्ति उसे आवाज दे रहा था। गाड़ी जाने में अभी देर थी। मनोहर उनके पास गया, खद्दरधारी सज्जन का सामान उतारा और वे स्टेशन के बाहर आये।
बाहर आकर उन्होने मनोहर से पूछा, गांव कोठारिया यहाँ से कितना दूर है ?
हुजूर यही कोई बारह कि.मी. होगा।
वहाँ जाने का कोई तरीका।
अभी तो कोई सवारी नहीं मिलेगी। आप कहे तो मैं साईकिल पर छोड़ आऊं।
अच्छा चलो। लेकिन हमें वापस भी जाना है।
कोई बात नहीं हुजूर हम वापस भी ले आयंगे।
रास्ते मनोहर ने उन्हे बताया कि इस गांव हुजूर अहीर बड़े बदमाश किस्म के लोग हैं लेकिन आप चिन्ता न करो मैं सब सम्भाल लूंगा, मेरे नाम से कांपते हैं साले। किसी साले की हिम्मत नहीं पड़ेगी जो हुजूर की ओर देखे भी। वैसे हुजूर वहाँ पर किसलिए पधार रहे हैं ?
अब क्या बताये भाई, ये राजनीति बड़ी गन्दी चीज है। वहां के एम.एल.ए. साहब हैं नानूलालजी वे राजधानी से रूठकर यहाँ आकर कोप भवन में बैठ गये हैं। हम उन्हे मनाने के लिए आये हैं।
अच्छा हुजूर वो सामने वाला मकान ही नानूलालजी का है।
- राम राम नानूभाई यों अचानक तुम राजधानी से भागकर क्यों आ गये। क्या नाराजगी है ?
- नाराजगी का क्या काम। मैं तो बापू का स्वयं सेवक हूं। बापू की आत्मा की आवाज पर जान दे सकता हूं। बापू की आत्मा ने कहा और मैं यहां आ गया।
नानूजी ने मन ही मन बापू की आत्मा को गालियां दी और मुंह से कहने लगे।
आप तो बेकार नाराज हो रहे हैं। चलिए राजधानी चलते हैं.। मुख्यमंत्री आपको बुला रहे हैं।
हम नहीं माने गे। जब तक हरिजन विकास संघ नहीं बन जाता हम नहीं आयंगे।
अरे वहीं तो हम कह रहे हैं। हरिजन विकास संघ बन गया है और मुख्यमंत्री तुम्हे ही उसका अध्यक्ष बनाना चाहते हैं।
लेकिन मैं अध्यक्ष बन कर क्या करुंगा ?
अरे करना क्या है भाई, पांच करोड़ का सालाना अनुदान है। खूब हरिजन उद्धार करो। कुएं खोदो, सड़के बनाओ, संगठन बनाओ। पार्टी को मजबूत करो। तुमसे कोई हिसाब नहीं मांगा जायेगा।
ठीक है लेकिन देखिये नेताजी, कोई धोखा नहीं होना चाहिये।
क्या बात करते हैं आप भी। आज तक मैंने ऐसा किया है क्या ?
तो आप कल तक राजधानी आ जायें और मुख्यमंत्री से मिलकर सब तय कर ले ।
देखिये नेताजी आपकी कुछ सेवा तो हम नहीं कर पाये।
चिंता न करे यह जो लड़का है न हम साथ ले जा रहे हैं राजधानी हमारी रोटी पानी का बन्दोबस्त यही करेगा अब।
क्यों चलना है राजधानी ?
क्यो नहीं हुजूर अवश्य चलूं गा - मनोहर ने तपाक से कहा।
सेवा करना तो हमारा धर्म है। हम तो हुजूर के साथ ही चल रहे हैं और मनोहर राजधानी आ गये। धीरे-धीरे वे राजधानीमय हो गये।
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चुनावी कुम्भ राजधानी में जोर शोर से चल रहा है। प्रदेश पार्टी कार्यालय में जबरदस्त भीड़ है और इस भीड़ को काबू में कर रखा है बाबू मनोहरलाल असीम याने एम एल ए साहब ने .
बाबू मनोहरलाल असीम और कोई नहीं, नेताजी जो अब प्रदेश अध्यक्ष हैं के निजी सेवक मनोहर हैं। उत्साही, युवा, कर्मठ और लगनशील मनोहर ने नेताजी के दफ्तर में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है।
टिकटार्थियों का साक्षात्कार चल रहा है और बाबू मनोहर उनकी पत्रावलियों को मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और केन्द्र से आये पर्यवेक्षक को दे रहे थे। जिस तेजी से प्रदेश अध्यक्ष के सहयोगियों के नाम कट रहे थे, उसे देख कर नेताजी का मन खिन्न था। इसी बीच देलवाड़ा विधानसभा सीट हेतु उम्मीदवार के चयन का काम शुरू हुआ। यह सीट इब्राहीम के लिए तय थी, मगर अचानक इब्राहीम के निधन से किसी अन्य को खड़ा करने पर विचार करना पड़ रहा था।
नेताजी बोल उठे।
हमें कुछ युवा उत्साही लड़कों को आगे लाना चाहिये।
हां-हां, क्यों नहीं, मुख्यमंत्री ने कहा लेकिन युवा आगे आते कहां है ?
एक युवक तो अपन के सामने खड़ा है बाबू मनोहर लाल असीम लेखक, पत्रकार, युवा नेता और ईमानदार। कयों मनोहर चुनाव लड़ोगे ?
आप लोगों का आदेश सिर माथे और तय हुआ कि टिकट मनोहर को दे दिया जाये।
वक्त की बात, भगवान ने छप्पर फाड़ कर दिया और इतना दिया कि बाबू मनोहरलाल असीम एम.एल.ए. बने और जीतने के तुरन्त बाद मंत्री बने। मंत्री के रूप में उनको स्थानीय निकायों का काम मिला। और यहां पर उनका सामना स्व. इब्राहीमजी के पुत्र अब्बास से हुआ।
अब्बास को इस बात का रंज था कि उसके पिता का टिकट मनोहर बाबू ले उड़े और अब उनके पास उसे अपने स्कूल की भूमि के मामले में जाना पड़ेगा। अब्बास भी प्रभावशाली नेता था लेकिन इस चुनावी कुम्भ में मात खा गया था।
उनके पास शहर के पास पचास बीघा जमीन थी जिस पर स्कूल और खेत थे जिसे लेकर सरकार कॉलोनी बनाना चाहती थी और नाम मात्र का मुआवजा दे रही थी। इसी सिलसिले में एम.एल.ए. साहब के पास आये थे। मनोहर बाबू अपनी विनम्रता से उनको जीतना चाहते थे।
अब्बास भाई, पहले चाय पीजिए फिर बात होगी।
हां, तो साहब बतायं क्या किया जाये ?
करना क्या है, हमें उचित मुआवजा दिया जाये। आपके हिसाब से सरकार सौ रुपये मीटर खरीद कर पच्चीस सौ रुपये मीटर में बेच रही है। और पच्चीस गुना मुनाफा हद है साहब ।
लेकिन जमीन में बिजली की लाईन, पाइप, सड़क का खर्चा भी तो होगा।
हुआ करे साहब यह तो सरकार की जिम्मेदारी है कि रियाया को सहूलियत मिले। अंधेर है साहब यह तो।
अच्छा छोड़िये, ये बताइये आप रहते कहां है ?
कहां रहता हूं ? क्या मतलब ? सरकार की ओर से बंगला मिला है। मैं युवा लीडर हूँ ।
वो तो ठीक है हुजूर लेकिन यह बंगला तो सरकारी है, कभी भी खाली करना पड़ेगा। फिर क्या होगा।
यह तो कभी सोचा ही नहीं।
तो हुजूर ये तय रहा कि उस जमीन में से 500 मीटर के 10 प्लॉट आपको एक सौ रुपये मीटर पर मैं अलाट कर देता हूं और उनका डेवलपमंट सरकार मुफ्त करेगी . बोलो मन्जूर है।
जैसी हुजूर की इच्छा।
लेकिन अफसर नहीं माना - एम.एल.ए. साहब ने कहा।
अफसर जी, होगा वहीं जो हम कह रहे हैं। आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरा अफसर करेगा। हम फाइल पर लिखकर आपको भेज देगें । एम.एल.ए. साहब ने फाइल पर मार्क किया और फाइल भेज दी।
अब्बास साहब गद्गद होकर कह उठे-
हुजूर आप बड़े खानदानी और सज्जन हैं। लेकिन साला ये अफसर पक्का बेईमान है।
आप निश्ंचत रहिये और एम.एल.ए. साहब के चेहरे पर सफलता की कुटिल मुस्कान छा गई।
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यशवन्त कोठारी
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