unknown connection - 91 in Hindi Love Stories by Heena katariya books and stories PDF | अनजान रीश्ता - 91

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अनजान रीश्ता - 91

पारुल बाथरूम से फर्स्ट एड बॉक्स लेकर आती है तो देखती है अविनाश बेड पर नहीं था। वह दरवाजे की ओर देखती है तो दरवाजा बंद था मतलब वह बाहर नहीं गया था। वह सामने सोफ़ास के एरिया में देखती है लेकिन अविनाश वहां पर भी नहीं था। फिर जब गार्डन वाले एरिया में देखती है तो अविनाश बालकनी में खड़ा था। वह सिगरेट पीते हुए..... बस आसमान की ओर देखे जा रहा था। पारुल जब आसमान की ओर देखती है तो आज चांद पूरा खिला हुआ था । पारुल बालकनी का दरवाजा खटखटाते हुए अविनाश का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश करती है। अविनाश सिर घुमाते हुए पारुल की ओर देखता है लेकिन फिर से सिगरेट पीते हुए! आगे की ओर मुड़ते हुए आसमान की ओर देखने लगता है। पारुल को समझ नहीं आ रहा था की यह इंसान क्या पागल हो गया है जो सिर्फ एक टी शर्ट पहने हुए! इतनी ठंडी हवाओं में बालकनी में खड़ा है। पारुल फर्स्ट एड बॉक्स को टेबल पर रखते हुए! फिर से रुम चली जाती है की शायद कुछ मिल जाए। जब वह कबर्ट खोलती है तो उसे शॉल मिल ही जाती है। वह खुद ओढ़ते हुए.. बाहर जा ही रही थी की उसे अविनाश का ख्याल आता है की उसे भी ठंड लग रही होगी। तभी पारुल खुद ही कहती है, फॉर गॉड सेक पारुल व्यास क्या कर रही हो!? पहले फर्स्ट एड बॉक्स... और अब उसके लिए....तुम क्या चाहती हो!? और तुम्हे क्या लगता है वह तुम्हे पसंद करने लगेगा! अगर तुम अपनी अच्छाई दिखाओगी उसे तो!?। पारुल गुस्से में फिर से सोचती है, किसने कहां मैं यह सब उसके लिए कर रही हूं! यह सब मैं एक इंसान के नाते कर रही हूं!। पारुल का दिमाग उसे दुत्कारते हुए... अच्छा! और यह इंसानियत जिसे तुम दिखा रही हो! क्या वह तुम्हारे लायक है!?। कहीं ऐसा तो नहीं की तुम खुद को भटका रही हो!? संभलकर कहीं दिल की बात सुनते सुनते दिमाग से सोचना बंद करोगी तो बुरी फसोगी!। पारुल,ऐसा कुछ मैं होने नहीं दूंगी! जो था वह सब अतीत में था! अब ना ही कुछ है और ना ही कुछ होगा! मुझे खुद को संभालना आता है। आई हॉप सो यहीं सच हो! । यही सच है! पारुल खुद यह बात दोहराते हुए! अविनाश के लिए जैकेट निकालकर बालकनी की ओर आगे बढ़ती है तो!अविनाश अभी भी वही खड़ा था । पारुल दरवाजा खोलते हुए अविनाश से थोड़ी दूरी पर खड़े होते हुए जैकेट लेके खड़ी थी। उसने शॉल को लपेटा हुआ था लेकिन फिर भी..... हवाओ के रुख कुछ ज्यादा ही तेज था जिस वजह से उसे ठंड लग रही थी। पारुल अविनाश की ओर फिर से देखती है की कहीं उसने सच में टी शर्ट ही पहना है ना। पारुल सोचती है! यह आदमी सच में क्या इंसान है या पत्थर!? क्योंकी बिना किसी भी रिएक्शन के ऐसे कैसे खड़ा रह सकता है। तभी अविनाश कहता है।

अविनाश: ऐसे क्या देख रही हो!? और तुम यहां क्या कर रही हो!? ।
पारुल: ( आंखे झपकाते हुए समझने की कोशिश करती है की उसने क्या कहां!?) वो.... मैं जेकेट देने आई थी! ( जैकेट देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते हुए )  ।
अविनाश: ( थोड़ी देर तो ना ही पारुल की ओर देखता है और ना ही कुछ कहता है। ) तुम्हे ढोंग करने की जरूरत नहीं है। ( बिना देखे जैकेट लेते हुए रेलिंग पर रखने जाता है जिस वजह से उसका हाथ टकरा जाता है। जो की हाथ पर लगी पट्टी पहले से ही लथपथ थी। ) फ**क! ।
पारुल: ( अविनाश की ओर देखे जा रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था की इसका मुड़ अचानक कैसे बदल गया!?। अभी थोड़ी देर पहले तो बिल्कुल भी कुछ अजीब व्यवहार कर रहा था । और अभी भी!?। ) मैं... वो... तुम्हारे हाथ में चौंट लगी है तो! फर्स्ट एड बॉक्स टेबल पर रखा फिर पट्टी बदल लेना।
अविनाश: ( दर्द के साथ हंसते हुए ) हाहाहाहाहा..... जख्म देने वाले के मुंह से मरहम की बात अच्छी नहीं लगती! और तुम्हे ये ड्रामा करने की जरूरत नहीं है।
पारुल: ( चिढ़ते हुए ) तुम... क्या बात कर रहे हो... मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा!? ।
अविनाश: याद तो उन्हे रहता है! जिनका दिल टूटा हो! भला! दिल तोड़ने वाला कब से याद रखने लगा! उसने कितने दिल तोड़े!?। ( पारुल की ओर देखते हुए ) ।
पारुल: ( जैसे ही अविनाश उसकी ओर देखता है। मानो एक झटका लगा था उसे! ठंडी हवाएं जैसे गायब हो गई थी। उसके अचानक यहां पर मानो सख्त गर्मी लगने लगी थी। अविनाश की आंखे कुछ अजीब सी थी। लेकिन समझ नहीं आ रहा था क्या था। क्योंकि नफरत जो इतने दिन से देख रही वह तो थी नहीं । फिर ये कैसे भाव उमड़ रहे है। ) मैं... मैं... ।
अविनाश: ( हाथ पकड़ कर अपने सामने लाकर खड़ा करता है। तभी पारुल को शराब की बदबू आती है। जिससे उसे समझ आता है की अविनाश नशे में बोल रहा है।) क्यों! तुम्हे तो खुशी मनानी चाहिए ना! की तुमने ना ही तबाह कर दिया! बल्कि कहीं का नही छोड़ा!। क्या मिला! तुम्हे? बोलो ( चिल्लाते हुए ) ।
पारुल: ( आंखे बंध करते हुए ) अवि! मैं नहीं जानती तुम किस बारे में बात कर रहे हो!? ।
अविनाश: हाहाहाहाहा.... हाहाहाहा.... वाऊं! अब मैं गोलू से अवि! हो गया! क्या बात है! कितना  आसान है ना तुम्हारे लिए सारे रीश्ते तोड़कर तोहमत लगाना! और जब तुम्हारा जी नहीं भरा तो तुमने सारी दुनिया के सामने जलील करने का सोच लिया! क्यों! सही कहां ना मैने!? ।
पारुल: मैं... सच में समझ नहीं पा रही तुम क्या कह रहे हो! मुझे लगता है तुम्हे आराम की जरूरत है! सुबह तुम ठीक हो जाओगे! तब बात करेंगे। ( जाने के लिए आगे बढ़ती है। ) ।
अविनाश: ( पारुल को बाह से पकड़कर अपनी जगह रोकते हुए ) ठीक है! अगर तुम मेरे मुंह से सुनना चाहती हो! और। इस खेल को खेलना चाहती हो! ठीक हैं! तो सुनो!।
पारुल: ( नजरे उठाकर अविनाश की ओर देखती है। अविनाश उसकी ओर ही देख रहा था। ) ।
अविनाश: मैं एफ.आई.आर. की बात कर रहा हू।
पारुल: एफ.आई.आर.!? ( सवाल भरे लहजे में ) ।
अविनाश: हाहाहाहाहा.... क्या.. नाटक करती हो यार! तुम! आदमी कायल हो जाए! इस मासूमियत पर!। मैं उस एफ.आई.आर. के बारे में बात कर रहा हूं जो तुमने कल मेरे नाम पे दर्ज करवाई है की मैं... मैं... कातिल हूं.... हाहाहाहाहा...।
पारुल: ( अचानक से समझ आता है की अविनाश अतीत की बात कर रहा है। जब पारुल ने ... तब वह देखती है की कहीं अविनाश ढोंग तो नहीं कर रहा या मजाक तो नहीं कर रहा। लेकिन उसके चेहरे पर दर्द दिख रहा था। मानो! जैसे यह बात अतीत की ना होकर आज की हो। ) वो... मैने... ।
अविनाश: शहहह! रहने दो! तुमसे मैं कुछ एक्सपेक्ट नहीं कर रहा! जो था वो तो परसों शाम को सब कुछ खत्म कर दिया तुमने! अब मैं तुम्हे किस हैसियत से बात कर रहा हूं! सॉरी! मिस. व्यास आप चाहे तो एक और केस करवा सकती है मुझ पर!। ( लड़खड़ाते हुए गिरने वाला था की पारुल बाह पकड़ते हुए थाम लेती है। ) ।
पारुल: मैं... ।
अविनाश: ( दुत्कार में पारुल का हाथ हटाते हुए ) हंअअ! मुझे गैरों के सहारे की जरूरत नहीं है। तो आप दूर ही रहे मुझ से । ( लड़खड़ाते हुए वह एक दो कदम आगे बढ़ाए ही थे की पारुल कहती है। ) ।
पारुल: तो तुम क्या चाहते थे उस दिन! मैं कातिल को ऐसे ही जाने देती! ( चिल्लाते हुए ) ।
अविनाश: ( अपनी जगह पर रुक जाता है। कुछ बोलता नहीं। फिर अविनाश दरवाजे पर...एक मुक्का मारता है। जिस वजह से कांच के फूटने की आवाज आती है। पीछे मुड़ते हुए ) कातिल.... अरे! तुमने तो मेरे उस हर पल हर जज़्बात को गाली दे दी जिसके कभी मैं यादों में पिरोया करता था। कितना... आसान है ना तुम्हारे लिए... मेरी हर बात... जो भरोसे था अरे! कम से कम उसका मान रख लेती। तुमने मुझे कहां होता! अरे! तुमने कहां होता मैं खुशी खुशी जान दे देता अपनी! अगर तुम्हे! लेकिन.... तुमने तो मुझे जिंदा छोड़कर भी मार दिया! कैसे! कैसे! कर सकती हो तुम!। ( पारुल के हाथों को अपने दोनो हाथ में लेते हुए। ) क्या... मेरी.... मोहब्बत.... इतनी.... कमजोर.... थी......! क्या मेरी कहीं हुई बात तुम्हारे लिए कोई मायने नहीं रखती!?..... क्यों... मैं अभी भी मेरा दिल कह रहा है की.... तुम्हारे दिल में अब भी मेरे लिए जगह है। क्यों... किया तुमने ऐसा.... तुम्हे पता है.... ( पारुल के खून से भरा हुआ हाथ अविनाश अपने सीने पर रखते हुए ) सुनो! ये अभी भी तुम्हारे नाम है! मैं कितना भी समझाऊं! ये... आज... भी... तुमसे.... तुमसे... मोहब्बत... करता है।

पारुल मानो! समझ नहीं पा रही थी क्या करे!? एक और अविनाश के हाथ से बह रहा खून और दूसरी ओर उसकी बातें दोनों ही उसके दिमाग को सोचने नहीं दे रही थी। वह सोच नहीं पा रही थी क्या करे!? । तभी पारुल को रोने की आवाज आती है। जब वह देखती है तो अविनाश... अविनाश खन्ना... रॉ रहा था। उसे अभी यकीन नहीं आ रहा था की क्या यह सच में सच है या कोई फरेब... । अविनाश रोते हुए कहता है। " क्यों!? किया तुमने ऐसा! कुछ तो बोलो! तुम इतना बड़ा जख्म देकर कैसे चुप रह सकती हो! जो दर्द मेरे सीने में है! सिर्फ में ही जानता हूं उसे लेकर कैसे जी रहा हूं! । अब क्या करूं मैं इस दिल का बोलो! एक काम करो! खंजर लो और निकाल दो! प्लीज! क्योंकि मुझ से यह दर्द नहीं सहा जा रहा। हर रोज में कैसे गुजारता हूं यह सिर्फ में ही जानता हूं! प्लीज इससे अच्छा तो मार डालो मुझे! । इतना कहते ही वह गिरने ही वाला था की पारुल उसे थाम लेती है। पारुल के बस की बात तो नहीं थी की वह अविनाश को संभाल सके लेकिन फिर भी वह जैसे तैसे करके रेलिंग के सहारे बिठा देती है।