उत्सुक सतसई 7
(काव्य संकलन)
नरेन्द्र उत्सुक
सम्पादकीय
नरेन्द्र उत्सुक जी के दोहों में सभी भाव समाहित हैं लेकिन अर्चना के दोहे अधिक प्रभावी हैं। नरेन्द्र उत्सुक जी द्वारा रचित हजारों दोहे उपलब्ध है लेकिन पाठकों के समक्ष मात्र लगभग सात सौ दोहे ही प्रस्तुत कर रहे हैं। जो आपके चित्त को भी प्रभावित करेंगे इन्हीं आशाओं के साथ सादर।
दिनांक.14-9-21
रामगोपाल भावुक
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
सम्पादक
समर्पण
परम पूज्य
परम हंस मस्तराम श्री गौरीशंकर बाबा के श्री चरणों में सादर।
नरेन्द्र उत्सुक
शंकर ने कीला इसे, समझो सिद्ध स्त्रोत।
पाठ करो निष्ठा सहित, जो चाहो सो होत।। 601।।
सिद्ध मनुज हो जात है, वही पार्षद होय।
बाल न बांका कर सके, बाको जग में कोय।।602।।
बिचरे सब संसार में, हृदय न हो भयभीत।
काम असंभव वह करे, होय सदा ही जीत।।603।।
अप मृत्यु होती नहीं, वह पाता है मोक्ष।
उस समान जग में नहीं, कोई मिले परोक्षा।। 604।।
कीलक को पहिले समझ, सप्तशती फिर पाठ।
जो ऐसा करता नहीं, होता बारा बाट।।605।।
मन्द मन्द उच्चार जो, इसका करते पाठ।
अल्प लाभ उनको मिले, रहता हृदय उचाट।।606।।
ऊँचे स्वर में पाठकर, यह निर्दोष स्त्रोत।
पीढ़ी दर पीढ़ी सुखी, रहे आपका गोत्र।। 607।।
सुख संपति ऐश्वर्य का, पावोगे परसाद।
उत्सुक कोई भी कभी, कर न पाय बरबाद।। 608।।
जगदम्बा की शरण जा, दर्शन हों तत्काल।
चरणों में उत्सुक झुका, जाकर के तू भाल।।609।।
दुर्गा रक्षा तुम करो, होय जगत कल्याण।
सपतशती उत्सुक पढ़ो, सर्व सिद्ध हो काम।।610।।
मधु कैटम बध पढ़त ही, उपजे उर में ज्ञान।
मनवांछित फल भगवती, तुझको करें प्रदान।। 611।।
स्वारोचिष मन्वन्तर, चैत्र वंश का राज।
भय प्रसिद्ध उस वंश में, सुरथनाम महराज।।612।।
भू मण्डल पर राज था, थे नीतिज्ञ महान।
पुत्र समान समझी प्रजा, इतने थे विद्वान।।613।।
राज सुखी सब भांति था, चहुं दिशि हो गुणगान।
एक घाट पर करत थे, सिंह गाय जलपान।। 614।।
कौल विध्वंसी रिपु भये, शांति कीन आ भंग।
और सुरथ रण क्षेत्र में, हार गये थे जंग।।615।।
डटकर लूटा नगर को, रिक्त कर दिया कोष।
छोड़ नगर भागे सुरथ, सह न सके रिपु रोष।।616।।
दुर्दिन ऐसे आ गये, मिले धूल में ठाठ।
मारे मारे वे फिरें, हो गये बारा बांट।। 617।।
समय एक सा कब रहे, बदले रंग हजार।
रहे कहीं के थे नहीं, करते फिरें शिकार।।618।।
सुरथ मलीन मन में भय, झेले कष्ट अपार।
पर्णकुटी दिखलाई दी, राजन रहे निहार।। 619।।
मेघ ऋषी की वह कुटी, आश्रम पहुंचे जाय।
शीष चरण में नवा कर, परिचय दिया बताय।।620।।
समयोचित आदर किया, ज्ञात कुशलता कीन।
पा विश्राम राजन भये, चिन्तन में तब लीन।। 621।।
चित्र लिखे से रह गये, कर जनता का सोच।
हा वैभव सब लुट गया। हुआ हृदय संकोच।।622।।
बे लगाम मंत्री हुये, ठाकुर सुहाती कीन।
चापलूस चारों तरफ, राजा भये अधीन।।623।।
माया ठगनी मोह में, लेतीं नर को फांस।
कैसी विपदा में फंसे, ले न पा रहे सांस।।624।।
निराधार हैं भोग सब, जाय न कुछ भी साथ।
अन्त समय रह जात हैं, सभी मसलते हाथ।।625।।
चित्त सोच में लीन था, दिखा तभी नर एक।
वैश्य समाधी स्वयं को, कहता व्यक्ति विशेष।। 626।।
जन्म जहां मैंने लिया, वह कुल था धनवान।
वत्स लोभ ने ठग लिया, अपनी अपनी तान।। 627।।
अपमानित मुझको किया, राजन हुआ निढाल।
लालच पत्नी ने मुझे, घर से दिया निकाल।।628।।
साथी मेरा सा लगे, नृप ने किया विचार।
मद ने तोड़ा है मुझे, ये बाजी गये हार।। 629।।
तब नृप बोले तुम सुनो, छोड़ो ममता मीत।
स्वारथ से संसार में, करते हैं सब प्रीत।। 630।।
ज्ञान और उपदेश सब, हर लेता है मोह।
माया में प्राणी फंसा, लेता रहता टोह।। 631।।
मनि मेघा के पास में, मार्कन्ड मुनि देख।
प्रश्न चिन्ह दोनो बने, माथा अपनों टेक।। 632।।
बिनय करी मुनि से तभी, मोह किसलिये होय।
बिन कारण दुख होत है, बतलाओ मुनि मोय।।633।।
अपना जिसको हम कहें, वो कब अपना होय।
निश्चल समझें हम जिसे, वह जाता है खोय।।634।।
जान बूझकर फंसा है, माया में संसार।
और मोह को जगत का, समझ रहे हैं सार।।635।।
मेघा मुनि ने तब दिया, दोनों को यह ज्ञान।
विषयों का सब खेल है, आवागमन तमाम।।636।।
भिन्न भिन्न विचार हैं, चौरासी लाख जीव।
इस कारण ही यह जगत, लगता हमें अजीव।। 637।।
ममता घेरे जगत में, माया का है जाल।
पशु समान कर आचरण, जाय काल के गाल।।638।।
कथा योग माया सभी, कहिये मुनि महराज।
आय जगत में शक्ति ने, किये कौन से काज।।639।।
माया भ्रम की सहचरी, होता लुप्त विवेक।
जगत जननि की कीर्ति का चमत्कार तू देख।।640।।
महिमा गा पाये नहीं, शेष गये अलसाय।
महिमा तेरी लख गये, शिव बृह्मा सकुचाय।।641।।
कष्ट सुनायें देवता, उनके सन्मुख आय।
जिव्हा में शक्ति नहीं, जो महिमा गा पाय।।642।।
उत्सुक उर मन्तव्य यह, वाणी पावन होय।
तोतरि वाणी में करूं, भाव समर्पित तोय।।643।।
बुद्धिमान मेघा ऋर्षी, ज्ञानी चतुर सुजान।
योग माया के चरित का, उत्सुक किया बखान।।644।।
प्रलय काल में सृष्टि ये, जल से हुई भरपूर।
शेष नाग शैया बने, बिष्णु पड़े थे चूर।। 645।।
नाभि कमल बृह्मा दिखे, कथा प्रभु की गात।
योग भाय जगदीश को, देख रहीं अलसात।।646।।
हरि कानन के मैल से, असुर प्रगट भय दोय।
लगें विचित्र बलवान वे, गई शांति सब खोय।।647।।
मधु कैटम अति दुष्ट थे, योधा चतुर प्रवीण।
लख बृह्मा को हो गये, वे दोनों संगीन।।648।।
बृह्मा भयभीत से, उर में किया विचार।
कौन प्रकार बचाव हो, करूं कौन उपचार।। 649।।
तिरछी चितवन से लखा, प्रभु निद्रा में लीन।
योग माय का हृदय में, तब बृह्मा सुधि कीन।।650।।
दया दया निधि कीजिये, संकट में हैं प्राण।
असुरों ने घेरा मुझे, हो न जाय संग्राम।।651।।
जिसका होय न कोय भी, उसके तुम आधार।
नाव फंसी मझधार में, उत्सुक रहा पुकार।। 652।।
जगत जया तुम विश्व की, एक मात्र आधार।
निद्रा देवी तुम करो, अमृत की बोछार।। 653।।
त्रिगुण रूप धारण किये, महा, महा स्वरूप।
शक्ति सृष्टि की आप हो, सृष्टि आपका रूप।।654।।
शंख धारणी शक्ति तुम, ललिते लाले काल।
विश्व मोहनी सांच की, तुम ही तो हो ढाल।।655।।
खड़ग धारिणी मात तुम, करदो मिथ्या नाश।
जगत जननि करता जगत, केवल तुमसे आस।।656।।
महा योग माया रची, स्वामी निद्रा लीन।
कौन शक्ति प्रनि है, कहो तुमसे अधिक प्रवीण।।657।।
मां तुमने ही तो रचे पिंड, रूप हरि आय।
बिनती बृह्मा करत हैं, आकर करो सहाय।।658।।
कृपा दृष्टि अपनी करो, भगवन जावें जाग।
माता अपनी महर कर, मिट जावें ये राग।।659।।
आरत वाणी सुनत ही, निकसी ज्वाला एक।
प्रगटी विष्णू देह से, चकित भये यह देख।।660।।
आन खड़ी सन्मुख हुईं, बृह्मा के वे पास।
असुरों का तत्काल ही, करने सत्यानाश।। 661।।
उठ बैठे जगदीश तब, देख दुष्ट चालाक।
लाल नेत्र भये क्रोध में, हुमक उठे तत्काल।।662।।
अस्त्र शस्त्र से जब हुआ, जमकर के संग्राम।
पांच सहस्त्र बीते बरस, हुआ न कुछ परिणाम।।663।।
योग माय ने तब दिया, माया जाल बिछाय।
मोह पाश में, असुर सब, लीने तुरत फंसाय।।664।।
कोशल लख भगवान का, असुर भये उर मोद।
वर दीना हरि हाथ बध, रहा न कुछ भी बोध।।665।।
ऋषी राज बोले तभी, दानव दुष्ट उदंड।
चहुं ओर जल लख परे, बोले बैन प्रचंड।। 666।।
नारायण मारो वहां जहां न होवे नीर।
जांघ रखे मारे असुर, भये न हृदय अधीर।। 667।।
असुरन के मस्तक कटे, बृह्मा उर में मोद।
उत्सुक जय जय कह उठा, जग में हुआ प्रमोद।। 668।।
जयति सुधा रस जयति जय, भय भेजन भगवान।
हरे धरा के कष्ट सब, सत्य स्वरूप प्रमान।।669।।
बृह्मा स्तुति से हुआ, जग में प्रार्दुभावृ।
धन्य महा माया तुझे, तेरा अमित प्रभाव।।670।।
शंख चक्र धारण क्रिये, गदा लिये थे हाथ।
सुर नर मुनि जय जय करें, झुका रहे थे माथ।।671।।
आगे वर्णन भक्त जन, मां का होय प्रभाव।
गद गद उत्सुक होय उर ऐसा मधुर सुभाव।।672।।
शत वर्षों तक लरे थे, देव असुर संग्राम।
कथा होय प्रारम्भ अब, स्वीकारो प्रणाम।। 673।।
अधम कल्प की यह कथा, सुने लगाकर कान।
करो मनोरथ पूर्ण सब, उसके हैं भगवान।। 674।।
देव गणों के जनक थे, बीर पुरन्दर राज।
महिषासुर के हाथ थी, असुरगनों की लाज।।675।।
दोनों के ही मध्य तब, हुआ घोर संग्राम।
हार गये सुर समर में, ये निकला परिणाम।।676।।
भये देवता उर दुखी, पहुंचे बृह्मा पास।
लेकर उनको साथ में, प्रभु के गये निवास।। 677।।
शिव विष्णु से कर विनय, बीती दई सुनाय।
महिषासुर ने युद्ध में, हमको दिया हराय।678।।
दुष्ट दुराचारी बहुत, महिषासुर बलवंत।
उसका बध कर दीजिये, भय भंजन भगवंत।। 679।।
विष्णु शिव क्रोधित हुये, भृकुटी लईं तरेर।
हरि मुख से निकसो तभी, तेज चुकाने बैर।। 680।।
सभी देवता क्रोध में, भये तभी अंगार।
जोश उमड़ आया तभी, बन नंगी तलवार।।681।।
तेज पुंज लगने लगा, मानो एक पहाड़।
रख नारी का रूप वह, सहसा उठी दहाड़।। 682।।
शंकर ने निज तेज दे, देवी को मुखदीन।
दे प्रकाश यमराज ने, बाल अवतरित कीन।।683।।
भुजा दईं तब विष्णु ने, स्तन चन्द्रमा तेज।
मध्य भाग दे इन्द्र ने, किरणें दईं बिखेर।। 684।।
जंघा पिंडली वरूण ने, पृथ्वी दीन नितंब।
पग बृह्मा ने दे दिये, चूर करण हित दंभ।।685।।
बसु सूर्य अंगुली दईं, प्रजापती ने दांत।
दई कुबेर ने नासिका, सिर इसके उपरांत।।686।।
नेत्र अग्नि ने दे दिये, भोंहें संध्या दीन।
कान दिये तब वायु ने, यों रचना यह कीन।।687।।
मस्तक अम्बर से, अड़ा, पग पहुंचे पाताल।
देवी कल्याणी प्रगट भईं, तभी तत्काल।।688।।
देवी के दर्शन किये, भय प्रसन्न तब देव।
महिषासुर पीडि़त सभी, करने लगे विवेक।।689।।
चक्र विष्णु ने दे दिया, शिव शंकर ने शूल।
शक्ति अग्नि ने दी तभी, सोच समझ अनुकूल।।690।।
शंख भेंट में वरूण ने, दिया पवन धनु वाण।
और इन्द्र ने कर दिया, मां को बज्र प्रदान।।691।।
काल दण्ड यमराज ने, बृह्म कमण्डल दीन।
तेज भास्कर ने दिया, ढाल काल ने चीन।। 692।।
हार वस्त्र दे उदधि ने, शोभा दई बढ़ाय।
चूड़ामणी कुन्डल कड़े, गहने दय पहनाय।। 693।।
अस्त्र शस्त्र कवच दे, कमल समर्पित कीन।
विश्वकर्मा ने अरू भेंट में, सुन्दर फरसा दीन।।694।।
सिंह हिमालय ने दिया, रत्न विभिन्न प्रकार।
दिया शेष ने भी तभी, नाग हार उपहार।।695।।
भांति भांति के सभी ने, आभूषण दे दान।
देवी का इस तरह से, किया गया सम्मान।।696।।
हुई भयंकर गर्जना, गूंज उठा सिंहनाद।
कांप उठी सारी धरा, लगती थी, अपवाद।। 697।।
करी देवतन ने तभी, मां की जय जयकार।
लज्जा राखन हारिणी, कर अम्बे उपकार।।698।।
महिषासुर के साथ में, गईं भगवती जूझ।
चिक्षुर से होने लगा, तब जमकर के युद्ध।। 699।।
महा दैत्य उदग्र तब, साठ सहश्र रथ लाय।
चतुरंगिनी सैन संग, चामर जूझा आय।।700।।
एक करोड़ रथ के सहित, असुर महाहनु दीख।
पांच करोड़ सेना लिये, असलोमा की चीख।।701।।
साठ लाख के संग में, जमा युद्ध में आय।
कौशल अपने वासकल, सबको रहा दिखाय।।702।।
परिवारित नामक असुर, हाथी अश्व अनेक।
एक करोड़ रथओं सहित, दांव रहा है फेंक।।703।।
लोहा लेने आ गया, रण में असुर बिडाल।
पांच अरब सैना सहित, लगे युद्ध में काल।।704।।
आग हुईं देवी तभी, अस्त्र शस्त्र रिपु काट।
करें देवता बन्दना, मैया लगें विराट।। 705।।
क्रोधित वाहन सिंह जब, असुर अनेक चबाय।
बाल पकड़ रिपु रोंद दे, दावानल भड़काव।।706।।
युद्ध करत जब भगवती, छोड़ रही विश्वास।
प्रगट हजारों गण भये, करें युद्ध में नाश।। 707।।
जगदम्बा रण भूमि में, उगल रही थी आग।
अनगिन रिपु चोपट किये, काट अंग के भाग।। 708।।
योग भोग में रत रहे, उर पर वृह्म अनंत।
पावे परमानंद वह, मिलें उस भगवंत।।709।।
महादैत्य आय बहुत, होय युद्ध घन घोर।
जननी हारें कौन विधि, लगा रहे हैं जोर।।710।।
00000