"दीदी, पहचाना ?"
कुछ क्षण लगे, पर उन ऊपर को मुड़ी रेशमी पलकों ने परिचय सूत्र स्वयं ही थमा दिया।
"धृति हो ना? इधर कैसे? " मेरे स्वर में सामान्य शिष्टाचार ही था, पर धृति , वो तो पन्द्रह वर्ष पूर्व की दित्तू बनी टहुकने लगी।
" हां दीदी, धृति ही हैं, इधर लॉ कॉलेज में एलएलबी कर रहे, थर्ड ईयर। हर्षिता दीदी भी वहीं है, फिफ्थ ईयर में। शिवाजी नगर में पी जी में रहते हैं। पर आप इधर कैसे? "
अपने जन्मस्थान के बाजारों का मोह बचपन के घर से कम किधर होता है। मां तो कहती थी " इस लड़की ने एफ सी सिर्फ स्ट्रीट शॉपिंग के लिए चुना ।"
कितना रही थी एफ सी में? जूनियर कॉलेज के दो साल । वोही बेफिक्री खोजने आई थी । और इस से टकरा गई ।
और ये लॉ कॉलेज में है । मां की लाडली ने मां के मन का व्यवसाय चुना । सुन लेंगी तो शुरू हो जाएंगी, " कितना मन था दोनो मां बेटी साथ में लॉ पढ़ते। स्त्री सशक्तिकरण के लिए कुछ करते । " फिर एक गहरी सांस, जबकि पाला छोड़ा पहले उन्होंने ही । स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अपने पहले प्रेम ,लेखनी को चुना, तो आज तक नियमवत हर दिन लिखती हैं ।
तब भी , दित्तू लॉ पढ़ रही है, सुन कर खिल जाएंगी, और मैं फिर भस्म हो जाऊंगी ईर्ष्या से । पापा को बच्चे सदा से प्रिय थे , पर मेरी अनुशासन प्रिय मां, जिनकी भृकुटि तन जाती तो प्रतिवेशी बाल वृंद क्या, उनके अभिभावक भी सहम जाते , वो मां दित्तू पर जान छिड़कती थीं । और इसी कारण से मैं उस से सदा चिढ़ती थी ।
फिर तो धृति ने न सिर्फ मुझ से मां का नम्बर ले उन से बात की, अपितु शनिवार को स्वयं को हर्षिता के साथ निमंत्रित भी कर लिया । हर्षिता पर मेरा स्नेह था , और मुझे सोमवार सुबह की फ्लाइट लेनी थी, सो शनिवार की प्रतीक्षा मैं भी करने लगी ।
जब डोरबेल बजी और द्वार खुला तो ऐसा लगा कि सामने दो देवकन्या ही हैं । मंझोला सा कद, तनवंगी देह, गुलाबी रंग, पतली सी नाक के नीचे भरें अधर , पर सबसे मोहक तो आज भी उनकी रसभरी आंखें थी। पलकों की यवनिका गिरती तो देखने वाले के मन को मुट्ठी में कस लेती । मां कहती थीं इतना सुन्दर परिवार उन्होंने नही देखा था कभी । २१ और २३ की आयु में जो लावण्य होता है, वो मैं ३१ तक आते आते गंवा चुकी थी । पर इतनी सुन्दर लड़कियों को इनकी मां ने अकेले कैसे भेज दिया? वो तो इनको बचपन में डे केयर में छोड़ने को भी सहमत नही थी ।
घर दोनो के बचपन का परिचित था, तो हर्षिता तो मेरे कमरे में घुस कर अपनी पुरानी आदत के अनुरूप समेटने में लग गई । पलंगपोश सही किया, कुशन जमाए , बिखरे कपड़े तह लगाए। मुझे याद आया, एक बार मेरा पेंटिंग ब्रश ले कर उसने कोने कोने की धूल साफ की थी। उस की इस सफाई की आदत का मुझे बहुत लाभ मिला है, पर दो दिन बाद जब कमरा यथावत मिला , तो इस पिद्दी की डांट भी।
तब तक धृति मां की सगी बिटिया की तरह रसोई से चाय नाश्ते की ट्रे सजाए आ गई। फिर तो जो गप गोष्ठी जमी तो शाम कब हो आई, पता ही नही चला। जब दोनो ने जाने की अनुमति मांगी तो जाने किस झोंक में मैं पूछ बैठी " हर्षी, दित्तू, अपना पुराना घर देखने चलोगी ? "
मां ने आंखें तरेरीं, पर हर्षिता ने बहुत सौम्यता से कहा, " नही दीदी। अपरिचित लोग होंगे उधर । क्यों नाहक कष्ट दे उनको ?"
पापा कार निकाल कर दोनो को छोड़ने गए तो मैंने दांतों से जीभ काट ली। क्या मूढ़ता कर ब