Basanti ki Basant panchmi - 6 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बसंती की बसंत पंचमी - 6

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बसंती की बसंत पंचमी - 6

लेकिन एक बात थी। रोग का ख़तरा कितना भी बड़ा हो, अब फ़ोन पर बात करने का सिलसिला पहले से कहीं ज्यादा रसभरा हो गया।
अब ऐसी कोई कुंठा तो थी नहीं कि किसी के पास नौकर है, किसी के पास महरी, किसी के पास अर्दली तो किसी के पास बाई। अब तो सब अपने - अपने घर में कैद थे, और सबका एक ही मूलमंत्र- "अपना हाथ जगन्नाथ"!
अब ये जलन भी बाक़ी नहीं रही कि आपके तो बेटियां हैं, काम में हाथ बंटाती होंगी... यहां तो निखट्टू बेटे हैं और ऑफिस जाने के लिए हड़बड़ी मचाते पतिदेव, सब अपने ही हाथ से करना पड़ रहा है, सब की फरमाइश सुनो और चकरी की तरह पूरी करने के लिए घूमते फिरो...!
अब तो चाहें डॉक्टर साहब हों, या इंजीनियर साहब, वकील साहब हों या प्रोफ़ेसर साहब। कोई घर में पौंछा लगाता तो कोई घास को पानी देता हुआ मिलता। सबके दफ़्तर - दुकानों पर ताले।
इस मौज ने श्रीमती कुनकुनवाला का बाई न मिल पाने का दुःख कहीं दूर भगा छोड़ा।
बल्कि सवेरे के सूरज की तरह अब घर का फर्श भी हर समय चमचमाता और बर्तन भी चमकते। सड़कों पर गाड़ी - घोड़ों की रेलमपेल न होने से पेड़- पौधे भी कार्बन डाइऑक्साइड कम छोड़ते, ऑक्सीजन ज़्यादा।
ऐसा लगता था मानो पूरी दुनिया को उठा कर किसी ने सर्विसिंग के लिए वर्कशॉप में डाल दिया है और अब वह वहां से ओवरहॉलिंग करवा कर ही निकलेगी।
ये घरेलू महारानियां तो मन ही मन मनाती थीं कि अभी लॉकडाउन कुछ दिन और न खुले। बच्चे भी चौबीस घंटे नज़रों के सामने रहें और बच्चों के बाप भी कंट्रोल में।
लॉकडाउन खुलते ही तो सब आज़ाद पंछियों की तरह अपनी - अपनी परवाज़ ले लेने वाले थे।
पतियों का "वर्क फ्रॉम होम" तो जैसे गृहिणियों के लिए लाइफटाइम गिफ्ट था। काश, चलता रहे चलता रहे।

इस सारी हड़बड़ी और काम के भारी दबाव के बीच में भी श्रीमती कुनकुनवाला को ये देख कर बहुत हैरानी हुई कि कॉलेज बंद हो जाने पर भी उनका बेटा जॉन अपनी पढ़ाई से बेपरवाह नहीं हुआ है। उनकी तमाम सहेलियां जहां उन्हें बताती रहती थीं कि स्कूल, कॉलेज बंद हो जाने से बच्चों ने लिखाई - पढ़ाई को तो पूरी तरह तिलांजलि दे दी है और सारा दिन या तो खेलकूद में लगे रहते हैं या फ़िर कोरोना के भय से घर में सहमे से छिपे रहते हैं।
पर जॉन अक्सर अपने कमरे में पढ़ता पाया जाता था। शायद कॉलेज की लाइब्रेरी से ढेर सारी किताबें ले आया था इसीलिए उन्हीं में चिपका रहता।
जॉन का एक शगल और था। घण्टों फ़ोन पर चिपके रहना। न जाने कितनी बातें थीं जो कभी ख़त्म होने में ही नहीं आती थीं।
श्रीमती कुनकुनवाला से ही शायद ये आदत लग लगी होगी उसको। वो तो अभी कुछ महीनों से ही उनके पास कोई काम वाली बाई न होने के कारण उनका फ़ोन प्रेम ज़रा कम हुआ था वरना तो वो भी अपनी सहेलियों से घंटों नॉन- स्टॉप बोलती ही पाई जाती थीं। श्रीमती वीर, श्रीमती धन्नाधोरे, श्रीमती बिजली, सभी का एक सा हाल था।
अरे लेकिन लड़के भला इतनी देर देर तक क्या बात करेंगे? बहुत हुआ तो पढ़ाई- लिखाई की बात कर ली या फ़िर दोस्तों की। पर आजकल तो दोनों ही बंद हैं क्योंकि कॉलेज ही बंद हैं।
श्रीमती कुनकुनवाला के दिमाग में खटका हुआ। ये जॉन इतनी इतनी देर क्या बात करता है। लड़के आपस में इतना क्या बोलेंगे? ऐसा कौन दोस्त आ गया इसका, जो एक- एक घंटा फ़ोन ही नहीं रखता।
आखिर वो नहीं मानीं। दोपहर को खाने के काम से फ़्री हुईं तो चुपचाप जॉन के कमरे के बंद दरवाज़े के बाहर कान लगा कर खड़ी हो गईं। थोड़ी देर सुना...