राजनीति एवं राजनीतिज्ञ -
कल आज और कल
- राजेश माहेश्वरी
संपादक एवं संकलक
आमुख
राजनीति और राजनीतिज्ञों का विश्लेषण बहुत कठिन है। आजादी से पहले हमारे देश में राजतंत्र था आजादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू हुई। हमारा देश 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ और सभी देशवासियों के मन में अत्यंत उत्साह, आनंद, नई दिशा की नई उडान, सुखद एवं संपन्न भारत की अभिलाषा मन में हिलोरे मार रही थी। राजतंत्र से लोकतंत्र में कदम रखता हमारा देश अनेक परिवर्तनों के दौर से गुजर रहा था। महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, जवाहरलाल नेहरू जैसे सशक्त व्यक्तित्व एवं बहुआयामी प्रतिभा के धनी उस समय की राजनीति के आधार स्तंभ थे। परिवर्तनों के इस दौर में राजनीति भी कब तक अछूती रहती। जैसे जैसे समय बदलता गया, लोग बदलते गये और राजनीति में भी परिवर्तनों का सिलसिला शुरू हुआ। सामान्य परिप्रेक्ष्य में पुराने समय में राजनीति का उद्देश्य जनसेवा और जन कल्याण था परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में किसी भी तरह से सत्ता प्राप्त कर शासन करने की नीति ही राजनीति है। राजसत्ता का उपभोग, ऐसा कोई भी राजनीतिज्ञ नही होगा जो इसकी लालसा ना रखता हो। राजनीति के नैतिक मूल्यों पर चिंतन पुरातन समय से चला आ रहा है और निष्कर्ष अभी तक स्पष्ट नही है।
पहले था राजतंत्र
अब है लोकतंत्र।
पहले राजा शोषण कर रहा था
अब नेता शोषण कर रहा है।
जनता पहले भी गरीब थी
आज भी गरीब है।
कोई ईमान बेचकर,
कोई खून बेचकर
और कोई बेचकर तन
कमा रहा है धन।
तब कर पा रहा है
परिवार का भरण पोषण।
कोई नहीं है
गरीब के साथ,
गरीबी करवा रही है
प्रतिदिन नए-नए अपराध।
खोजना पड़ेगा कोई ऐसा मंत्र
जिससे आ पाये सच्चा लोकतंत्र।
मिटे गरीब और अमीर की खाई।
क्या तुम्हारे पास है कोई
ऐसा इलाज मेरे भाई।
समय के साथ साथ राजनीति का उद्देश्य एवं कार्यप्रणाली भी बदल रही है। आज राजनीति में अपराधियों का वर्चस्व बढता जा रहा है जो कि लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है और लोकतांत्रिक मूल्यांे एवं सिद्धांतों के सर्वथा विपरीत है। हमारे पूर्ववर्ती नेताओं द्वारा बनाये गये संविधान का स्वरूप भी बदलता जा रहा है। जनमानस के मन में ऐसी धारणा बनती जा रही है कि -
सरकार तेजी से चल रही है।
जनता नाहक डर रही है।
सर के ऊपर से कार निकल रही है।
सर को कार का पता नही
कार को सर का पता नही
पर सरकार चल रही है।
हर पाँच साल में जनता
सर को बदल देती है।
कार जैसी थी
वैसी ही रहती है।
सर बदल गया है
कार भी बदल गई है
आ गई है नई मुसीबत
सर और कार में
नही हो पा रहा है ताल मेल
लेकिन सरकार
फिर भी चल रही है।
जनता जहाँ थी वही है
परिवर्तन की चाहत में
सर धुन रही है।
आज ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा, समर्पण का भाव कम होता जा रहा है और इसका स्थान स्वार्थ, भाई भतीजावाद व धन लोलुपता ने ले लिया है। गरीबी और अशिक्षा की वजह से बहुत से लोगों के लिए दो वक्त का भोजन जुटाना ही अत्यंत कठिन कार्य है, उनके लिए राजनीति और राजनेता जैसी बातें कोई मायने नही रखती है। उनके लिए दो वक्त की रोटी और तन ढकने के लिये कपड़ा ही महत्वपूर्ण है। जब नेताओं से यह प्रश्न किया जाता है कि देश की प्रगति अन्य विकसित देशों की तुलना में उनके समकक्ष क्यों नहीं नजर आती है तो वे इसका स्पष्ट जवाब देते है कि जनसंख्या वृद्धि इसका प्रमुख कारण है जो हमारे सारे विकास की दर को धीमा कर देता है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति का आधार स्तंभ उसकी शिक्षा प्रणाली है। हमारे यहाँ शासकीय स्कूलों की स्थिति आज भी बहुत अच्छी नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाकर सबके लिए निशुल्क आधारभूत शिक्षा जैसी कार्य योजना लागू करनी चाहिए परंतु जब तक राजनेता ही शिक्षित नहीं होंगे तब तक यह कार्य कैसे होगा ?
आज सुबह नाश्ते में
लड्डू, जलेबी और बादाम का हलुआ देखकर
मन बाग बाग हो गया।
इतना बढ़िया नाश्ता देखकर
मैं पत्नी के प्यार में खो गया
मेरी वाणी और मेरे स्वर में
उनके लिये बेहद प्यार आ गया
परंतु उनका जवाब सुनकर
मैं तो चक्कर ही खा गया
पड़ोसी का लड़का
कॉलेज के अंतिम वर्ष में
प्रथम श्रेणी में प्रथम आया था
इसी खुशी में मैंने अपनी प्लेट में
यह लडडू पाया था
यह तो तय था कि उसे
कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी
और फिर जिंदगी भर
उससे चापूलसी करवायेगी।
दूसरा पड़ोसी था एक नेता का लड़का
पढ़ने लिखने में था एकदम कड़का
बड़ी मुश्किल से पास हो पाया था
परीक्षा में केवल पासिंग मार्क्स लाया था
नेता जी खुशी जता रहे थे
लोगांे को बता रहे थे
थर्ड डिवीजन में आया है
बडा उजला भविष्य लाया है
बहुत किस्मत वाला है
मुझसे ऊँचा जाएगा
मैं तो केवल नेता हूँ
यह मंत्री बन जाएगा
ईश्वर से मांग रहे थे दुआ
सबको खिला रहे थे
बादाम का हलुआ
मैं अपने ही ख्यालों में खो गया
पहले जनता का बोझ ढोता था गधा
अब गधे का बोझा ढोयेगी जनता
लोकतंत्र का नया रूप नजर आएगा
लोक अब तंत्र का बोझा उठाएगा।
हमें राजनीति के सिर्फ नकारात्मक पक्ष को नही देखना चाहिए बल्कि इसके सकारात्मक पक्ष की तरफ ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हमने बीते हुए कल और आज में जो भी प्रगति की है उसे नजरअंदाज नही किया जा सकता है। कृषि के क्षेत्र जो हरित क्रांति हुई उस पर हमें गर्व होना चाहिये, कभी हम अनाज आयात करते थे आज हम अनाज निर्यात कर रहे हैं। अनेक क्षेत्रों में हम स्वावलंबी हो चुके हैं। विश्व के मानचित्र में आज हमारा बहुत विशेष स्थान है और हमें गर्व है कि हम भारतीय हैं। रक्षा के क्षेत्र में भी हम काफी आगे है। आधुनिक हथियारों एवं अनेक उपकरणों के माध्यम से अपनी सीमाओं की रक्षा हेतु सक्षम है। हमें भारत का यह उन्नत स्वरूप लोकतंत्र एवं सकारात्मक राजनीति के माध्यम से ही प्राप्त हुआ है। क्रीड़ा के क्षेत्र में भी हमारी प्रगति उल्लेखनीय है। ओलंपिक खेलों में हमारे देश के खिलाड़ियों ने बहुत ही शानदार प्रदर्शन कर गोल्ड मेडल हासिल कर कीर्तिमान स्थापित किया है। हमने महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में भी काफी प्रगति की है। महिलाओं को पुरूषों के समकक्ष या कई क्षेत्रों में वे पुरूषों से भी आगे बढकर देशसेवा एवं विकास में अपना योगदान दे रही है। वर्तमान में हमारी वित्तमंत्री भी एक महिला माननीया श्रीमती निर्मला सीतारमण है।
राजनीतिक विचाराधारा में सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष सदैव से रहे हैं और शायद आगे भी रहेंगे परंतु प्रगति केवल सकारात्मक दृष्टिकोण से ही प्राप्त होती है। राजनीति के संबंध में मैंने अनेक लोगों से चर्चा की, जिनमें आम आदमी से लेकर उच्च पदों पर आसीन व्यक्तित्व एवं राजनीतिज्ञ भी थे। हमने इस संबंध में एक प्रश्नावली बनायी जिसके आधार पर सम्माननीय जनों द्वारा उनके विचारों का संकलन प्रस्तुत कर रहे है जिसके लिए हम उनके हृदय से आभारी है। हमारा उद््देश्य है कि राजनीति में पदार्पण करने की इच्छुक युवा पीढी सकारात्मक दृष्टिकोण एवं राष्ट्रवादी भावना से कार्यरत रहे और देश को एक नयी दिशा प्रदान करे। इस विषय पर आपके विचार एवं सुझााव सादर आमंत्रित है।
- आपका
राजेश माहेश्वरी
106, नयागांव, रामपुर, जबलपुर।
संपर्क:- 9425152345
ईमेल - authorrajeshmahehswari@gmail.com
प्रश्नावली
प्रश्न 1 राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी का कितना महत्व है आपके विचारों में यह कहाँ तक तर्कसंगत है। कृपया अपने विचारों से अवगत कराने की कृपा करें।
प्रश्न 2 बीते हुए कल आज के वर्तमान और आने वाले कल में हमारी महत्वकांक्षाएं हमें किस दिशा में ले जाऐंगी या ले जा रही हैं कृपया इसकी स्पष्ट दिशा प्रस्तुत करने की कृपा करें। राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या एक दूसरे के पर्याय हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर कितनी निर्भर करती है ?
प्रश्न 3 राजनैतिक परिवार होने के कारण आपका राजनीति के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा अनेक वर्षों से रही है और इसमें सदैव आपको एवं आपके द्वारा जनमानस को एक नयी दिशा, एक नया मार्गदर्शन, एक नयी शिक्षा और राजनीति में पारंगतता प्राप्त हुयी है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
प्रश्न 4 वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता क्या उचित है ? यदि है तो किस सीमा तक है? अवसरवादिता के कारण राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं। अवसरवादिता से तात्पर्य पार्टी बदलना, पार्टी का साथ ना देना, स्वयं के लाभ के लिए पार्टी को हानि पहुँचाना आदि।
प्रश्न 5 वर्तमान राजनीति और देश की आजादी के समय की राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं और यह बदलाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक ? आप इन्हें वर्तमान दृष्टिकोण से किस रूप में देखते है।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में देश की अधिकांश आबादी साक्षर है एवं निम्न श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है। तो राजनीति में भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
प्रश्न 7 देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने पर भी राजनीति में सांप्रदायिकता को इतना महत्व क्यों दिया जाता है ?
प्रश्न 8 राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म सर्वोपरि होना चाहिए या निजधर्म ?
प्रश्न 9 वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को राजनीति में किस सीमा तक मानना चाहिए।
प्रश्न 10 राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना क्या उचित है ?
प्रश्न 11 राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों पर एक व्यापक दृष्टिकोण डालिए। आपके मतानुसार इसमें से कौन सा तंत्र ज्यादा सफल रहा है।
प्रश्न 12 वंशवादी राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है।
1 माननीय न्यायमूर्ति दीपक वर्मा जी -
पूर्व न्यायाधीश, उच्चतम न्यायालय, भारत।
प्रश्न 1 राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी का कितना महत्व है आपके विचारों में यह कहाँ तक तर्कसंगत है। कृपया अपने विचारों से अवगत कराने की कृपा करें।
उत्तर -
1 शासन, राज्य और समाज के लक्ष्यों व उद्देश्यों का आधार राजनीतिक सिद्धांत होना चाहिए।
2 राजनीतिक सिद्धांत सरकार के कार्यों की व्याख्या के साथ साथ सरकार के उद्देश्यों का भी व्यवस्थित चिंतन है।
3 राजनीतिक नैतिकता का उपयोग राजनीतिज्ञ / प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन को परिभाषित करने में मदद करने के लिए किया जाना चाहिए ताकि वे उच्चतम आदर्शों के अनुसार रहें। नैतिकता और उनके आदर्शों का पालन, वे दिशा निर्देश है जिनका उपयोग लोग अपने कार्य करने के लिए करें।
4 राजनीतिज्ञ दूसरे की सबसे अधिक आलोचना जिस मुद्दे पर करते है, वह है भ्रष्टाचार। लेकिन चुनाव जीतते ही अधिकांश लोग उसी काम में लग जाते है, जिसकी आलोचना कर वे चुनाव जीतते है।
5 राजनीतिज्ञ ये कहते है कि या तो वे ईमानदारी छोड दे या फिर राजनीति छोड, अगर इसमें रहना है तो फिर सौ प्रतिशत ईमानदारी से काम नही चलता। हम चाहें या नही, पर सिस्टम ऐसा बना हुआ है कि भ्रष्टाचार हो ही जाता है।
6 ईमानदारी से काम हो इसके लिए सिस्टम और राजनीतिज्ञों को बदलना होगा, यह एक लक्ष्य होना चाहिए।
प्रश्न 2 बीते हुए कल, आज के वर्तमान और आने वाले कल में हमारी महत्वकांक्षाएं हमें किस दिशा में ले जाऐंगी या ले जा रही हैं कृपया इसकी स्पष्ट दिशा प्रस्तुत करने की कृपा करें। राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या एक दूसरे के पर्याय हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर कितनी निर्भर करती है ?
उत्तर -
1. महत्वाकांक्षाए हमारी प्रगति का आधार थी, है और रहेंगी। इसे ईमानदारी से प्राप्त करें।
2. राजनीति और राजनीतिज्ञ एक दूसरे के पर्याय नही होने चाहिए। राजनीति स्थिर, अटल व एक आदर्श है और राजनीतिज्ञ परिवर्तनीय/परिवर्तनशील है।
प्रश्न 3 राजनैतिक परिवार होने के कारण आपका राजनीति के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा अनेक वर्षों से रही है और इसमें सदैव आपको एवं आपके द्वारा जनमानस को एक नयी दिशा, एक नया मार्गदर्शन, एक नयी शिक्षा और राजनीति में पारंगतता प्राप्त हुयी है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
उत्तर - राजनैतिक परिवार के होने के कारण, पारिवारिक अनुभव कुशलता के लाभ से जनता भी लाभान्वित होगी।
प्रश्न 4 वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता क्या उचित है ? यदि है तो किस सीमा तक है? अवसरवादिता के कारण राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं। अवसरवादिता से तात्पर्य पार्टी बदलना, पार्टी का साथ ना देना, स्वयं के लाभ के लिए पार्टी को हानि पहुँचाना आदि।
उत्तर - राजनीति में अवसरवादिता नही होनी चाहिए। राजनीतिज्ञ को जनता व संगठन/पार्टी के प्रति ईमानदार होना चाहिए। अवसरवादिता के कारण संगठन में ईमानदार नेता बचे रह जाते हैं और अवसरवादी चले जाते है पार्टी से।
प्रश्न 5 वर्तमान राजनीति और देश की आजादी के समय की राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं और यह बदलाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक ? आप इन्हें वर्तमान दृष्टिकोण से किस रूप में देखते है।
उत्तर - आजादी के बाद से राजनीति में मेरे अनुसार सकारात्मक बदलाव हुए है। राजतंत्र से लोकतंत्र देश बना। आज राजनीति में सभी के लिए अवसर है।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में देश की अधिकांश आबादी साक्षर है एवं निम्न श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है। तो राजनीति में भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर - हमारे विशाल देश में न्यूनतम योग्यता होने से कुछ लोग राजनीति में भाग नही ले पायेंगे। अभी सभी को समान अवसर है।
प्रश्न 7 देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने पर भी राजनीति में सांप्रदायिकता को इतना महत्व क्यों दिया जाता है ?
उत्तर - कुछ लोगों के अनुसार देश का विभाजन धर्म के अनुसार हुआ है इसलिये साम्प्रदायिकता इस देश में है।
प्रश्न 8 राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म सर्वोपरि होना चाहिए या निजधर्म ?
उत्तर - राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म ही सर्वाेच्च धर्म होना चाहिए।
प्रश्न 9 वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को राजनीति में किस सीमा तक मानना चाहिए।
उत्तर - वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना द्वारा पडोसी देश व अन्य देश से मित्रता संबंध स्थापित होते है।
प्रश्न 10 राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना क्या उचित है ?
उत्तर - राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल नही देना चाहिए, परंतु राजनेता जननायक होते है। जनता उनका अनुसरण करती है।
प्रश्न 11 राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों पर एक व्यापक दृष्टिकोण डालिए। आपके मतानुसार इसमें से कौन सा तंत्र ज्यादा सफल रहा है।
उत्तर - राजतंत्र से लोकतंत्र में आजादी की शुरूआत में देश अनुभवहीन था परंतु आज देश लोकतंत्र के अनुसार चल रहा है। वर्तमान में लोकतंत्र सफल है।
प्रश्न 12 वंशवादी राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है ?
उत्तर - वंशवादी राजनीति अनुभव, कुशलता प्रदान करती है, वंशवाद को जनादेश प्रजा देती है इसलिए यह जारी है।
2 माननीय रविनंदन सिंह जी -
पूर्व सासंद एवं पूर्व महाधिवक्ता, म.प्र.।
प्रश्न 1 राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी का कितना महत्व है आपके विचारों में यह कहाँ तक तर्कसंगत है। कृपया अपने विचारों से अवगत कराने की कृपा करें।
उत्तर - माना कि आज की राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता और ईमानदारी का सिर्फ दिखावा होता है, किंतु वास्तविकता इससे भिन्न है। ऐसा नही है कि पूरे सौ प्रतिशत बेईमानी से ही काम चल रहा है क्योंकि यदि ऐसा होगा तो पूरा राजनैतिक ढांचा धराशायी हो जाएगा। सृष्टि संतुलन से चलती है, अच्छाई और बुराई ये दोनो समानान्तर क्रियाएँ है। हाँ कुछ समय के लिए बुराई का पलडा भले ही भारी हो जाए किंतु यह स्थिति हमेशा के लिए नही होती और यही सिद्धांत राजनीति में भी लागू होता है।
भले ही हमें ऊपरी तौर पर दिखाई देता है कि राजनीति में सौ प्रतिशत ईमानदारी से काम नही चलेगा, कोई चाहे अथवा नही पर आज का सिस्टम ऐसा बना हुआ है कि भ्रष्टाचार हो ही जाता है। लेकिन ऐसा नही है, बहुत छोटे स्तर पर ही सही किंतु हर दशक में कुछ एक ऐसे राजनेता भी हुए है जिन्होंने अपनी ईमानदारी के बल पर बडा मुकाम हासिल किया और एक अलग पहचान कायम की फिर चाहे वे किसी भी पार्टी से संबंध रखते हो, उन्हें हर किसी ने स्वीकार किया और अपना समर्थन दिया। कम से कम हम अपनी आने वाली पीढी को तो यही सिखाना और विश्वास दिलाना चाहेंगे कि ईमानदारी से काम करना चाहिए। हर राजनैतिक पार्टी के बडे राजनेताओं को तो ईमानदारी की प्रथा स्थापित करना ही चाहिए जिससे उनके कनिष्ठ नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहन हासिल होगा। आखिरकार देशहित ही सर्वोपरि है, देश रहेगा तो ही राजनीति और राजनैतिक पार्टिया रहेंगी।
प्रश्न 2 बीते हुए कल आज के वर्तमान और आने वाले कल में हमारी महत्वकांक्षाएं हमें किस दिशा मंे ले जाऐंगी या ले जा रही हैं कृपया इसकी स्पष्ट दिशा प्रस्तुत करने की कृपा करें। राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या एक दूसरे के पर्याय हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर कितनी निर्भर करती है ?
उत्तर - राजनीति और राजनीतिज्ञ अथवा राजनेता एक दूसरे के पर्याय है। राजनीतिज्ञ के द्वारा की जाने वाली क्रिया को राजनीति कहा जा सकता है। किसी भी देश को चलाने के लिए जो व्यवस्था स्थापित की जाती है वह राजनीति है और राजनीति के बल पर देश हित में व्यवस्था चलाने वाले राजनीतिज्ञ अथवा राजनेता। राजनीतिज्ञ अथवा राजनेता को राज कार्य में निपुण होना चाहिए जो कभी भी नीतिगत सिद्धांतांे से समझौता ना करे और यही फर्क है पूर्व की राजनीति और आज की राजनीति में।
पूर्व की राजनीति में सुदृढ मानसिकता और स्पष्टवादिता वाले राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने राजनीति में कभी भी विकल्प का सहारा नही लिया जो भी किया दृढ इच्छाशक्ति और देश हित में किया। उदाहरण के तौर पर सरदार वल्लभ भाई पटेल का नाम सबसे ऊपर आता है और यही मुख्य अंतर है आजादी के बाद की राजनीति और आज की राजनीति में। आज की राजनीति में राजनेताओं द्वारा व्यक्तिगत स्वार्थ को अधिक महत्व दिया जा रहा है। इस चलन को तोडने की अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि इससे हमारी भविष्य की राजनीति प्रभावित होगी। काफी हद तक वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा देशहित में लिए गए अपने सख्त निर्णयों से कार्य करके कुछ उम्मीद जगायी है।
प्रश्न 3 राजनैतिक परिवार होने के कारण आपका राजनीति के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा अनेक वर्षों से रही है और इसमें सदैव आपको एवं आपके द्वारा जनमानस को एक नयी दिशा, एक नया मार्गदर्शन, एक नयी शिक्षा और राजनीति में पारंगतता प्राप्त हुयी है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
उत्तर - राजनीतिक परिवार की पृष्ठभूमि होने के कारण मुझे राजनीति में आने में तो मदद मिली किंतु स्थापित होना एक अलग बात है। जिस प्रकार एक वृक्ष अपने साये में पनप रहे पौधों को बढने में कभी कोई मदद नही कर सकता, ठीक उसी प्रकार नए कार्यकर्ताओं अथवा नेताओं को अपनी कडी मेहनत और संघर्ष से अपना मुकाम हासिल करना पडता है और मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।
चूंकि मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि राजनीति से रही है अतः बचपन से ही मेरे मन में राजनीति के प्रति जिज्ञासा और इस क्षेत्र में कार्य करने की इच्छाशक्ति पैदा हुई हालांकि युवा होते होते मैंने वकालत का पेशा चुना किंतु राजनीति में रूचि बनाए रखी। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में अपने आप को स्थापित करते हुए संसद सदस्य लोकसभा एवं राज्य के महाधिवक्ता के पद पर कार्य किया। मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि मैंने अपने सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नही किया।
प्रश्न 4 वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता क्या उचित है ? यदि है तो किस सीमा तक है? अवसरवादिता के कारण राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं। अवसरवादिता से तात्पर्य पार्टी बदलना, पार्टी का साथ ना देना, स्वयं के लाभ के लिए पार्टी को हानि पहुँचाना आदि।
उत्तर - अवसरवादिता राजनीति के लिए अभिश्राप की भांति है क्योंकि फिर राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता और ईमानदारी के कोई मायने नही रह जाते। किसी एक आद मौके को छोडकर यदि अवसरवादिका को अनंत अवसर की भांति लिया जाएगा तो राजनीति का हृास होना तय है। जो भी नेता अथवा कार्यकर्ता ऐसा करते है, वे निजस्वार्थ और लालच के वशीभूत होकर सिर्फ अपने फायदे के लिए राजनैतिक पार्टी से जुडते है और जब किसी पार्टी से हितसाध्य नही होता तो उसे छोडकर अन्य पार्टी से जुड जाते है। अवसरवादी लोगों में राष्ट्रहित की भावना ना के बराबर होती है। समाज में ऐसे लोगो को बहुत दिनों तक सफलता नही मिलती है। ऐसे लोगों को जनमानस ठुकरा देता है।
प्रश्न 5 वर्तमान राजनीति और देश की आजादी के समय की राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं और यह बदलाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक ? आप इन्हें वर्तमान दृष्टिकोण से किस रूप में देखते है।
उत्तर - आजादी के बाद से अभी तक देश में लगभग 200 से अधिक राजनैतिक पार्टियाँ बनी और उनमें से अधिकतर सक्रिय है। आजादी के वक्त की राजनीति में सही मायने में सिद्धांतवाद और देश प्रेम की भावना झलकती थी, हाँलाकि वह समय भारतीय राजनीति में काफी उथल पुथल का रहा। देश को अस्थिर बनाने में कई विरोधी विचारधारा के लोग प्रयासरत थे और इसके साथ ही हमारे देश ने विस्तारवादी और आतंकवादी सोच रखने वाले पडोसी देशों से युद्ध जैसी त्रासदी झेली। अनेक बार साम्प्रदायिक हिंसा का जहर घोला गया। इन परिस्थितियों का सीधा असर भारतीय राजनीति में भी पडा। वर्तमान राजनीति थोडा स्वार्थपूर्ण हो गई है। हम यह कह सकते है कि आज की राजनीति में अवसरवाद को बढावा मिला है। राजनैतिक पार्टियाँ येन केन प्रकारेण राजसत्ता का भोग भोगने में लगी हुई है। राष्ट्रवादी और निष्ठावान पार्टी सदस्यों की संख्या घटती जा रही है। खरीद फरोख्त बढी है इस स्वार्थपूर्ण माहौल में सरकारें अस्थिर होती जा रही है। इसका मुख्य कारण है राजनीति में आपराधिक प्रवृत्तियों के लोगों का प्रवेश या समावेश है। इन आपराधिक प्रवृत्ति के राजनेताओं द्वारा पूरी भारतीय राजनीति को प्रभावित किया जा रहा है जो दीमक की तरह भारतीय लोकतंत्र को खोखला करने में लगे हुए है।
किंतु एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि पहले की अपेक्षा आज का नागरिक साक्षर और समझदार होता जा रहा है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि भारतीय राजनीति का भविष्य उज्जवल रहेगा। भारतीय राजनीति में जो स्वार्थ रूपी दीमक लगी है उसे आज की युवा पीढी ही हटा सकती है और हर क्षेत्र में देश के युवाओं ने अपने आप को सिद्ध करके दिखाया है।
आजादी से आज तक अधिकांश एक ही पार्टी का वर्चस्व, केन्द्रीय और राज्य सरकारों में रहा है जिस कारण देश की उन्नति में गति होना चाहिए थी वह अपेक्षाकृत कम रही। किंतु वर्ष 2014 से केन्द्रीय सत्ता में माननीय नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में जो स्थिर सरकार काम कर रही है उनसे देश की जनता को अनेंकों उम्मीदें है। दृढइच्छा शक्ति और सख्त निर्णय लेने की जो क्षमता और सामर्थ वर्तमान प्रधानमंत्री जी द्वारा दिखाया गया है, वह भारतीय राजनीति में मील का पत्थर साबित होगा मजबूत लोकतांत्रिक विशेषताओं के साथ देश की सफलता पर हम गर्व कर सकते है।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में देश की अधिकांश आबादी साक्षर है एवं निम्न श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है। तो राजनीति में भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर - राजनीति में न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू करना अथवा नही करना इस संबंध में देश की राजनैतिक पाटियाँ और राजनैतिक विश्लेषक एकमत नही है। एक धडा इसकी वकालत करता है तो दूसरा धडा विरोध में है। मैं समझता हूँ, विरोध करने वालों के तर्क भी अपनी जगह अकाट्य है, क्योंकि आज भी इस देश की अधिकांश जनसंख्या शिक्षा से कोसो दूर है, जो ग्रामीण क्षेत्रों में अभाव का जीवन जीने के लिए मजबूर है। उनके पास जीवन जीने की की मूलभूत सुविधाएँ भी नही है। अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में नागरिकों को दो वक्त का खाना जुटाना भी एक चुनौती है, फिर साक्षरता की बात तो दूर की कौडी है, इन्हें देश के नागरिक होने की दृष्टि से वोट करने का अधिकार और चुनाव लडने का अधिकार प्राप्त है। तो क्या न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू होने से ये नागरिक चुनाव लडने का अधिकार नही खो देंगे? प्रश्न तर्कसंगत है और इसका समाधान सर्वशिक्षा अभियान के तहत देश की शत प्रतिशत जनसंख्या को साक्षर करने में ही है। इसके बावजूद भविष्य की संभावनाओं और देश के उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से सोचा जाए तो प्रत्येक नेता और राजनेता को न्यूनतम शिक्षित होना ही चाहिए, क्योंकि आखिरकार उन्हे देशहित में कार्य करना है। यदि राजनेता शिक्षित नही होंगे तो राष्ट्र उन्नति की दिशा में आम नागरिकों के हक अधिकारों के लिए बनाई जाने वाली योजनाओं की सेाच और समझ हासिल नही कर सकेंगे, तब वे सिर्फ ब्यूरोक्रेट्स के लिए एक स्टाम्प की तरह कार्य करेंगे।
प्रश्न 7 देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने पर भी राजनीति में सांप्रदायिकता को इतना महत्व क्यों दिया जाता है ?
उत्तर - भारतीय संविधान के अनुसार हमारा देश धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। बाबा साहेब बी.आर. अम्बेडकर जी ने जब संविधान की रचना की थी, तब उनकी मुख्य सोच रही होगी कि जाति, धर्म, सम्प्रदाय के हिसाब से किसी को बांटा ना जाए और ना ही भेदभाव किया जाए, सभी के साथ एक समान व्यवहार हो और यही संविधान की मूल भावना है किंतु आजादी से अब तक 73 वर्षों के व्यतीत होन के बाद भी हमारा देश उन्ही रूढीवादी सेाच का गुलाम बना हुआ है। भले ही ऊपरी तौर पर शहरों में हमें भेदभाव नजर ना आता हो किंतु वास्तविकता इसके अलग है। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में तो जाति, धर्म और सम्प्रदाय ही मायने रखता है। यह कहा जा सकता है कि आज भी जाति, धर्म और सम्प्रदाय का भाव लोगों के मन में गहरा बसा हुआ है। खासकर जब बात राजनीति की हो तो जाति, धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर वोट बैंक को देखा जाता है और समय समय पर इस विभेद नीति का उपयोग करते हुए चुनाव लडे जाते है। आज भी देश की अधिकांश जनसंख्या या तो निरक्षर है या अल्प शिक्षित है और इन्ही परिस्थितियेां का फायदा उठाकर राजनेता निजी स्वार्थ की पूर्ति हेतु अपनी राजनीति को चमकाने में लगे रहे है। चूंकि जाति, धर्म और सम्प्रदाय आज की राजनीति का मुख्य आधार है इसलिए भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता को इतना महत्व दिया जाता है। अतः इस सोच या व्यवस्था को बदलने में अभी शायद और 50 साल लगेंगे।
प्रश्न 8 राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म सर्वोपरि होना चाहिए या निजधर्म ?
उत्तर - राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्रधर्म सर्वोपरि होना चाहिए अथवा निज धर्म? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसका उत्त्तर निर्विरोध रूप से एक ही है कि राजनेताओं के लिए राष्ट्रधर्म ही सर्वोपरि होना चाहिए क्योंकि जब हम एक वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते है तो उस वर्ग के विकास और उत्थान के लिए कार्य कर रहे होते है, यहाँ यदि निजस्वार्थ शामिल कर लिया जाता है, तो उस वर्ग का पतन होना निश्चित होता है और यही बात देश स्तर पर भी लागू होती है। राजनेता चाहे वे किसी भी धर्म, जाति, सम्प्रदाय अथवा राजनैतिक पार्टी से संबंध रखते होें, उन्हें सिर्फ देशहित के बारे में ही सोचना चाहिए और निर्णय लेना चाहिए। देश तभी सुरक्षि रह सकता है, जब राजनेता निजीस्वार्थ का त्याग करंेगें। हमें यह नही भूलना चाहिए कि राजनेता एक ईकाई नही बल्कि समूह का प्रतिनिधित्व करने वाला मुख्य पात्र है और जब देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनेताओं की बात हो तो उनकी जिम्मेवारियाँ और भी बढ जाती है। कम से कम उन्हें तो निजधर्म त्यागकर सिर्फ राजधर्म ही निभाना चाहिए। आखिरकार राष्ट्र बचेगा तो हम बचेंगे।
प्रश्न 9 वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को राजनीति में किस सीमा तक मानना चाहिए ?
उत्तर - भारतीय सनातन संस्कृति का मूल भाव है - वसुधैव कुटुम्बकम्। जिसका अर्थ है, सम्पूर्ण धरती ही हमारा परिवार है। इस सुंदर विचारधारा को हमारे पूर्वजों ने आत्मसात् कर अपने जीवन में ढाला जो भारतीय संस्कृति का स्वरूप बना। इस विचारधारा को सीमा में नही बांधा जा सकता क्यांेकि जब हम यह कहते है कि संपूर्ण धरती ही हमारा परिवार है तो फिर सभी हमारे अपने है कोई पराया नही है और इस विचार को धारण करने वाला स्वार्थी नही हो सकता। यदि राजनेता वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना रखते है तो वे सच्चे राष्ट्रधर्म के पालक है और वे जो भी कार्य करेंगे सभी के हित को विचार में रखकर ही करेंगे। राजनेता को स्वयं के लिए नही वरन् संपूर्ण मानव समाज के हित के लिए कार्य करना चाहिए, अतः राजनीति में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को सीमा में बांधना उचित नही है।
प्रश्न 10 राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना क्या उचित है ?
उत्तर - राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना उचित नही है और ऐसा तभी संभव है, जब राजनीतिज्ञ निस्वार्थ भाव से राष्ट्रवादी सेाच और सामर्थ्य रखते हों क्योंकि राजनेता स्वयं के लिए नही पूरे समाज और देशहित के लिए चुना जाता है। यदि राजनेता कमजोर इच्छाशक्ति का स्वार्थी व्यक्ति है, तो वह सिर्फ अपने व्यक्तिगत जीवन और अपने परिवार के बारे में ही सोचेगा और उन्हीं के लिए कार्य करेगा किंतु राष्ट्रहित की भावना रखने वाला राजनेता व्यक्तिगत जीवन से जुडी घटनाओं से विचलित हुए बिना पूरे मानव समाज और देश के लिए कार्य करता है। एक विकसित मानव सभ्यता का यह गुण है कि प्रत्येक व्यकित अपनी जिम्मेवारी को समझते हुए पूरी ईमानदारी से समाज और देशहित में कार्य करें और एक आदर्श स्थापित करें।
प्रश्न 11 राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों पर एक व्यापक दृष्टिकोण डालिए। आपके मतानुसार इसमें से कौन सा तंत्र ज्यादा सफल रहा है ?
उत्तर -
राजतंत्र - एक राजा अथवा राज परिवार द्वारा देश का संचालन। आज पूरे विश्व में लगभग 44 देश ऐसे है जो राजशाही से अपने देश की राजसत्ता चला रहे है। जापान, न्यूजीलैंड, कनाडा, सऊदी अरब आदि। राजतंत्र में एक ही राजा देश पर राज करता है और वही देश का सर्वेसर्वा होता है। वंशानुगत रूप से राजसत्ता पीढी दर पीढी एक ही परिवार के हाथों में चली आती है। राजसत्ता में राजा जनता द्वारा नही चुना होता बल्कि वंशगत होता है। राजतंत्र विश्व की सबसे पुरानी प्रणाली है, इसके अनुसार राजघराने का वारिस ही राजगद्दी में बैठने का हकदार होता है, फिर चाहे उसमें कितनी ही कमियाँ हों। राजतंत्र में जनता के हितों की अनदेखी होती है। विरासत में मिली राजसत्ता को चलाने वाले राजा के द्वारा जनता पर अत्याचार करते हुए सिर्फ परंपरावादी सोच रखते हुए शासन किया जाता है। राजतंत्र में जनकल्याणकारी बातों का समावेश विरले ही होता है।
लोकतंत्र - जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की व्यवस्था को लोकतंत्र कहा जाता है। इसका तात्पर्य है लोगो का शासन। शाब्दिक रूप से ही स्पष्ट है कि लोकतंत्र में सत्ता किसे सौंपना है यह अधिकार उस देश की आम जनता को होता है। आम जनता अपनी स्वेच्छा से चुनाव के माध्यम से किसी भी उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि अथवा नेता चुनती है। इस प्रणाली की विशेषता है कि जनादेश के हिसाब से नीतिगत निर्णय लिए जाते है तथा इस प्रणाली में नियमित अंतराल पर सत्ता की वैधता हेतु चुनाव अनिवार्य होता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में निष्पक्ष चुनाव अनिवार्य है। चुनी हुई सरकार जनकल्याणकारी योजनाओं को लागू कर नागरिकों के हितों की रक्षा एवं देेशहित में कार्य करती है। लोकतंत्र एक ऐसी प्रणाली है जिसमें राजनेताओं को बदल देने के नियमित संवैधानिक अवसर प्रदान करती है। कोई सरकार यदि ठीक तरह से कार्य नही करती है तो उसे जनता द्वारा हटाया जा सकता है और यही इस प्रणाली की विशेषता है। वृहद् रूप में नागरिक ही स्वयं देश का संचालक होता है, जो देश चलाने के लिए स्वयं किसी प्रतिनिधि अथवा राजनेता को चुनता है और यही इस प्रणाली को श्रेष्ठ बनाती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सफलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अधिकांश राजतंत्र में आज लोकतंत्र स्थापित किए जाने हेतु आवाज उठने लगी है।
प्रश्न 12 वंशवादी राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है ?
उत्तर - वंशवादी राजनीति- वंशवाद अथवा परिवारवाद राजनीति में एक ही परिवार के सदस्य चुनाव जीतकर निरंतर शासक बनते रहते है। लोकतंत्र में वंशवाद का कोई स्थान नही है किंतु फिर भी कई देशों में लोकतंत्र होने के बावजूद अप्रत्यक्ष रूप से वंशवाद हावी है। वंशवाद से लोकतंत्र केा बहुत नुकसान होता है। वंशवाद से नए लोग राजनैतिक शासन में नही आ पाते। वंशवाद के कारण अयोग्य व्यक्ति भी शासक बन जाता है, जिससे दूरगामी दुष्परिणाम देश को झेलने पडते है। लोकतंत्र में परिवारवाद या वंशवाद का उभरना लोकतंत्र की हत्या के समान है।
3 माननीय बालेंदु शुक्ल जी -
पूर्व मंत्री, म.प्र.।
आप मेरे निकट के मित्र है तथा बरसों से अपनी पहचान है इसलिए मैं आपको काफी भली भांति समझता हूँ तथा आपकी कई कविता एवं कहानी संग्रह पढ चुका हूँ। कवि तथा कथाकार की सोच अनंत होती है इसलिए बरसों से लोग कविता तथा कथा लिखते आ रहे है तथा आगे भी लिखते रहेंगे। दुनिया वही है मानव भी वही है लेकिन परिस्थितियाँ समयानुसार बदलती रहती है, सोच भी बदलती रहती है इसलिये कविता, कहानियाँ भी बदलती रहती है या नये रूप में सामने आती रहती है तथा हमेशा रोचक रहती है। तमाम लेख मनोरंजन के लिये होते है परंतु तमाम लेख मनुष्य की विचारधारा को बदलने वाले भी होते है तथा नई सोच प्रसारित करते है। आप भी उसी दिशा में काम कर रहे है, खुशी की बात है।
प्रश्न 1 राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी का कितना महत्व है आपके विचारों में यह कहाँ तक तर्कसंगत है,कृपया अपने विचारों से अवगत कराने की कृपा करें ?
उत्तर - हमारे देश में लोकतंत्र स्वतंत्रता के बाद से राजनीति का स्वरूप रहा है। सिद्धांतवाद एक पक्ष है तथा ईमानदारी, नैतिकता का एक अंग है। सिद्धांत किसी एक राजनैतिक दल के कुछ तथा दूसरों के कुछ और हो सकते हैं। दिखाने के लिए हर सिद्धांत आम जनता को लाभ पहुँचाने के लिए ही होते है पर हम देख है कि सिद्धांतो की आड में दल या व्यक्ति के स्वार्थ अधिक प्रभावी होते है। जब प्रतिद्वंदता होती है तो सिद्धांत पीछे रह जाते है क्योंकि हमें चुनाव जीतना है, जैसे हो तैसे। कहा जाता है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है। आज के समय स्वतंत्रता के बाद से समय तथा समाज की सोच में जो परिवर्तन आया है उसी का विकृत रूप हमें राजनीति में दिखाई दे रहा है इसके लिए न राजनीति दोषी है न राजनीतिज्ञ। भविष्य ही इसका स्वरूप तय करेगा।
प्रश्न 2 बीते हुए कल आज के वर्तमान और आने वाले कल में हमारी महत्वकांक्षाएं हमें किस दिशा मंे ले जाऐंगी या ले जा रही हैं कृपया इसकी स्पष्ट दिशा प्रस्तुत करने की कृपा करें। राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या एक दूसरे के पर्याय हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर कितनी निर्भर करती है ?
उत्तर - राजनीति तथा राजनीतिज्ञ एक दूसरे के पर्याय है जैसे रात और दिन। एक होगा तभी दूसरा होगा। व्यक्ति में महत्वाकांक्षा होती है और होना चाहिए तभी व्यक्ति लक्ष्य निर्धारित करता है और उसे पाने के लिये प्रयास करता है और तभी आगे बढता है। कल आज और कल में निरंतर परिवर्तन हो रहा है और इसलिये हमारी कार्य पद्धति भी बदलती रहती है अर्थात समय बदलता रहता है, समाज बदलता रहता है इसलिये महत्वाकांक्षाओं का रूप भी बदलता रहता है। लेकिन मोटे तौर पर हमें अपने राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पाने के लिए दूसरों को दुख न हो इसका ध्यान रखना चाहिये- यथासंभव।
प्रश्न 3 राजनैतिक परिवार होने के कारण आपका राजनीति के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा अनेक वर्षों से रही है और इसमें सदैव आपको एवं आपके द्वारा जनमानस को एक नयी दिशा, एक नया मार्गदर्शन, एक नयी शिक्षा और राजनीति में पारंगतता प्राप्त हुयी है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें ?
उत्तर - मेरा परिवार राजनीति में कभी नही रहा था। मैं भी परिस्थिति विशेष में राजनीति में आ गया। मैं समझता हूँ कि आज की परिस्थिति में समाज की सोच बदलने वाला कोई भी व्यक्ति नजर नही आता। लोग भले है पर गांधी जैसा कोई नही। समाज का सोच अनन्य कारणों से शनै शनै बदलता रहता है और उसी अनुसार हर चीज भी-राजनीति भी।
प्रश्न 4 वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता क्या उचित है ? यदि है तो किस सीमा तक है? अवसरवादिता के कारण राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं। अवसरवादिता से तात्पर्य पार्टी बदलना, पार्टी का साथ ना देना, स्वयं के लाभ के लिए पार्टी को हानि पहुँचाना आदि ?
उत्तर - राजनीति में अवसरवादिता का अर्थ ज्यादातर लोग वही लगाते है जो आपने कहा। लेकिन हम गहराई से सोचे तो मतलब यह भी होता है कि यदि किसी व्यक्ति को कोई अवसर मिले तो उसका लाभ क्या नही लेना चाहिए ? आदमी की जिंदगी में अवसर अक्सर नही आते है और उसका लाभ न उठाए तो उसे नासमझ कहा जाता है। हम लाभ उठाए पर यथासंभव दूसरे का नुकसान न हो। स्वतंत्रता के बाद जितने भी राजनैतिक दल है उनमें सब भारतीय है। हर दल कहता है देश को तरक्की करना चाहिए, सडक बने, पाठशाला बने, बिजली बने, अस्पताल बने, किसान आगे बढे, गरीबों को लाभ हो, मजदूरों का अहित न हो और ऐसे अनन्य विषय। फिर इनमें अंतर क्या है ? अंतर कार्यपद्धति में है तथा कथनी और करनी में है। हम अपने हर कार्य तथा निर्णय को जनहित में बताते है पर वास्तव में स्वयं का स्वार्थ पहले होता है।
प्रश्न 5 वर्तमान राजनीति और देश की आजादी के समय की राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं और यह बदलाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक ? आप इन्हें वर्तमान दृष्टिकोण से किस रूप में देखते है ?
उत्तर - आजादी के बाद तथा आज की राजनीति में अंतर तो आना ही था। हम चाहे तो भी अंतर रोक नही सकते। समय के साथ समाज का हर पहलू बदल रहा है तो राजनीति क्यों नही ? लेकिन समय के साथ जो बदलाव आया है वो है भौतिकवाद। देश, समाज तथा व्यक्ति आगे बढ रहा है यह हम कैसे नापते है? मौलिक चीजों से, सडक बन रही है, बिजली बन रही है, शिक्षा बढ रही है, विज्ञान दुनिया को बदलता जा रहा है, नए नए अविष्कार- कार, हवाई जहाज,पानी के जहाज अंतरिक्ष में प्रवेश, युद्ध सामग्री और जाने क्या क्या। पर हम सोचते है कि प्यार, सद्भाव, शांतिष् सुकून, निश्छलता बढ रही है क्या? राजनीति में भी समाज के साथ बदलाव आया है। हमें समाज और राजनीति को अलग से नही देखना है। लोकतंत्र में राजनीतिज्ञ समाज का ही तो प्रतिनिधित्व करता है और इसलिये कहते है कि आपको वो सरकार मिलती है जिसके आप लायक है।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में देश की अधिकांश आबादी साक्षर है एवं निम्न श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है। तो राजनीति में भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर - आजादी के 70 वर्ष के बाद हमें राजनीति में भी शैक्षणिक योग्यता लागू करना चाहिए। विभिन्न स्तर पर विभिन्न प्रकार की।
प्रश्न 7 देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने पर भी राजनीति में सांप्रदायिकता को इतना महत्व क्यों दिया जाता है ?
उत्तर - मैं समझता हूँ कि धर्म निरपेक्ष- साम्प्रदायिक तथा जाति को आप एक ही दृष्टि से देख रहे है। कोई भी जाति का व्यक्ति किसी भी धर्म या सम्प्रदाय का अनुयायी हो सकता है पर उसकी जाति वही रहती है। ( कुछ समुदायों को छोडकर जहां जाति बदल दी जाती है। ) एक ही जाति के लोगों में शादी होती है, राीति रिवाज होते है, धार्मिक कार्यक्रमों में मिलना जुलना होता है, रिश्तेदारी होती है इसलिये एक दूसरे के प्रति स्नेह, अपनत्व तथा संवेदनाएं अधिक होती है। राजनीति में मत प्राप्त करने के लिए हम इन भावनाओं का लाभ उठाते है जो नैतिक नही पर होता है क्योंकि हमें जीतना है।
प्रश्न 8 राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म सर्वोपरि होना चाहिए या निजधर्म ?
उत्तर - राजनीतिज्ञ क्यों, राष्ट्र के हर व्यक्ति के लिए राष्ट्रधर्म पहले होना चाहिए पर पहले होता है निज धर्म। वसुधैव कुटुम्बकम् की भी यही स्थिति है।
प्रश्न 9 वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को राजनीति में किस सीमा तक मानना चाहिए।
उत्तर - उपरोक्त प्रश्न क्रमांक 8 का उत्तर।
प्रश्न 10 राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना क्या उचित है ?
उत्तर - संसार के विभिन्न देशों में रीति रिवाज, शैक्षणिक योग्यता, समाज के विचार अलग अलग होते है। जिन देशों में कई चीजों को गलत या बहुत गलत नही माना जाता यदि वहाँ का राजनीतिज्ञ वैसा आचरण करें तो उसे तूल नही दिया जाता है लेकिन भारत में जिस आचरण को सामान्य तौर से गलत माना जाता है और जनप्रतिनिधि वैसा आचरण करें तो उसे तूल दिया जाता है चाहे वो कार्य उसके निजी जीवन का भी हो। भारत में राजनीतिज्ञ को ऊँचा माना जाता है, वह समाज का मुखिया होता है, हरेक की निगाहें उसके आचरण पर होती है चाहे वो सामाजिक हो या निजी हो इसलिये इन बातों पर तूल दिया जाना स्वभाविक है।
प्रश्न 11 राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों पर एक व्यापक दृष्टिकोण डालिए। आपके मतानुसार इसमें से कौन सा तंत्र ज्यादा सफल रहा है।
उत्तर - राजतंत्र में यदि राजा या मुखिया उदार या दयाशील या परोपकारी हो तो सबसे उपयुक्त होता है परंतु देखने में यह पाया जाता है कि एक व्यक्ति असीमित सत्ता पाने के बाद अपने निर्णय को ही हमेशा सही मानता है और दुष्परिणाम आने लगते है। इसलिये लोकतंत्र बेहतर है परंतु लोकतंत्र में मतदाता भी उसी लायक होना चाहिये जो सही व्यक्ति तथा दल को सत्ता सौंपे। दुर्भाग्य से हमारे देश में वह स्थिति अभी नही आयी है।
प्रश्न 12 वंशवादी राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है।
उत्तर - वंशवाद स्वभाविक चीज है। हम नही देखते कि कलाकार, डॉक्टर, वकील, अधिकारी, इंजीनियर, उद्योगपति, व्यापारी के बच्चे जिस वातावरण पलते बढते है उसका रूझाान उसी दिशा होने लगता है और वे सफल भी होते है। लेकिन यह भी सत्य है कि राजनीति में खासकर वही वंशज सफल हो जाता है जिसे जनता स्वीकार करें। इसलिये राजनीति में वंशवाद होना अस्वाभाविक नही है।
4 माननीय नरेन्द्र नाहटा जी -
पूर्व मंत्री म.प्र.।
प्रश्न 1 राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी का कितना महत्व है आपके विचारों में यह कहाँ तक तर्कसंगत है। कृपया अपने विचारों से अवगत कराने की कृपा करें।
उत्तर - जिन मूल्यों का उल्लेख आपने किया है वे तो शाश्वत है। केवल राजनीति नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में उनका सम्मान है। यदि किसी प्रजातांत्रिक प्रणाली में राजनीति में गिरावट है तो मान कर चलिए कि उस समाज के नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है। भारत इसका स्पष्ट उदाहरण है।
प्रश्न 2 बीते हुए कल आज के वर्तमान और आने वाले कल में हमारी महत्वकांक्षाएं हमें किस दिशा मंे ले जाऐंगी या ले जा रही हैं कृपया इसकी स्पष्ट दिशा प्रस्तुत करने की कृपा करें। राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या एक दूसरे के पर्याय हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर कितनी निर्भर करती है ?
उत्तर - समाज की महत्वाकांक्षाएं भी उसकी सोच, और चरित्र पर निर्भर करती है। आज़ादी के ठीक बाद हम ऐसे समाज थे जिसके पास खोने को कुछ नहीं था। लेकिन उसके पास आदर्श थे , संस्कृति थी , संघर्ष करने की क्षमता थी। और वह आशावादी था। तब उसकी महत्वाकांक्षा भी उन्ही आदर्श पर चलते हुए देश को बनाने की थी। पंडित नेहरू ने भाखड़ा नांगल बाँध का उदघाटन करते हुए कहा ये बाँध और कारखाने हमारे नए तीर्थ है। समाज ने माना था । हम नए तीर्थ बनाने में लग गए। अब सोच बदली है तो महत्वाकांक्षाएं भी बदली है। तब वे यथार्थ के धरातल पर थी आज भावुकता से उत्प्रेरित है। निश्चित ही राजनीति और राजनीतिज्ञ एक दूसरे के पर्याय है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। जैसी राजनीति होगी वैसे है राजनेता होंगे। या उल्टा कह लीजिये। दोनों सामान बात ही है।
प्रश्न 3 राजनैतिक परिवार होने के कारण आपका राजनीति के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा अनेक वर्षों से रही है और इसमें सदैव आपको एवं आपके द्वारा जनमानस को एक नयी दिशा, एक नया मार्गदर्शन, एक नयी शिक्षा और राजनीति में पारंगतता प्राप्त हुयी है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
उत्तर - पारिवारिक पृष्ठभूमि का प्रभाव केवल राजनीति नहीं, हर उस क्षेत्र में होता है जिसमें आप कार्यरत है। परिवार की परम्पराओं का असर निश्चित ही आपकी कार्य शैली पर होता है। जब तक आप उन संस्कारों और परम्पराओ का निर्वाह करते है, समाज में आपका सम्मान बना रहता है। भले ही आप पद पर नहीं रहे। मैंने भी प्रयास किया है। कितना सफल रहा, इसे तो समय ही बताएगा।
प्रश्न 4 वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता क्या उचित है ? यदि है तो किस सीमा तक है? अवसरवादिता के कारण राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं। अवसरवादिता से तात्पर्य पार्टी बदलना, पार्टी का साथ ना देना, स्वयं के लाभ के लिए पार्टी को हानि पहुँचाना आदि। उत्तर - शायद ही कोई कहेगा कि अवसरवादिता उचित है। इसे तो मेकियावेली के ज्ञान से हो जोड़ कर देखा जाएगा। हमारी संस्कृति के तो माप दंड इतने कड़े रहे है कि हमने तो विभीषण को भी, जिसने कि प्रभु राम का साथ दिया था, कभी हनुमान के बराबर स्थान नहीं दिया। जयचंद और मीर जाफ़र का नाम ही हम ऐसी वृत्तियों की आलोचना में लेते है। हाल में राजनीति में बहुत बदलाव हुए है। जैसा कि मैंने ऊपर कहा राजनीति और सामाजिक मूल्यों में गहरा गठबंधन है। यदि आज यह समस्या हमारे सामने है तो उसका बड़ा कारण सामाजिक मूल्यों का क्षरण ही है।
प्रश्न 5 वर्तमान राजनीति और देश की आजादी के समय की राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं और यह बदलाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक ? आप इन्हें वर्तमान दृष्टिकोण से किस रूप में देखते है।
उत्तर - जैसा कि मैंने ऊपर कहा, दोनों समय के समाज में बड़ी भिन्नता है। महात्मा गांधी ने न केवल अंग्रेजो से लड़ने के लिए हमें तैयार किया, एक जुट किया, हमारे सामाजिक मूल्य भी गढ़े, हमें आदर्शों पर चलना सिखाया। हमें साधन और साध्य, दोनों की पवित्रता बताई। चौरी चौरा की घटना कौन नहीं जानता। जब असहयोग आंदोलन से अंग्रेज हिल चुके थे तभी थाने को जलाने की यह घटना हुई। शायद यह बात गांधी ही कह सकते थे हिंसा के आधार पर अर्जित आज़ादी मुझे नहीं चाहिए। तमाम बड़े नेताओं ने असहमति के बावजूद उनके निर्णय को स्वीकार किया। समाज ने स्वीकार किया। क्या यह आज संभव है ? हम नही देखते कि हमारे राजनेताओ और समाज,दोनों के लिए साध्य महत्वपूर्ण हो गया है, साधन नहीं। क्या वर्तमान परिस्थितियों में चोरी चौरा के निर्णय को हम स्वीकारते? यही बताता है कि दोनों समाजों में बड़ी भिन्नता है।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में देश की अधिकांश आबादी साक्षर है एवं निम्न श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है। तो राजनीति में भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर - यह भ्रम कि राजनेता अनपढ़ होते है। इसे मीडिया ने फैलाया है और हमारा कथित शिक्षित समाज बगैर आंकड़ों को जाने उसे स्वीकार करता है। वह खुद ऐसे व्यक्ति को चुनता भी है और फिर आलोचना भी करता है। दुर्भाग्य यह है कि हमारे प्रजातंत्र और शासन प्रणाली में कही उत्तर दायित्व नहीं है। न राज नेताओ के लिए, न प्रशासकों के लिये और न समाज के लिए। जो जनता चुने और वही आलोचना करे, तो उत्तरदायी कौन? जरा आंकड़े देखे ।
1952 में कक्षा 10 से कम पढ़े 23 प्रतिशत थे वही 2009 में मात्र 3 प्रतिशत
1952 में स्नातक शिक्षा धारी 58 प्रतिशत थे वही 2009 में 79 प्रतिशत
1952 में पोस्ट ग्रेजुएट 18 प्रतिशत थे वहीँ 2009 में 29 प्रतिशत
सच तो यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से प्रारंभिक वर्षों की कम शिक्षित लोक सभा का कार्य और उसकी बहस का स्तर वर्तमान लोक सभा या इसके ठीक पहले की लोक सभाओ से बहुत बेहतर था। तब वैसे दृश्य नहीं देखने को मिलते थे जैसे आज देखने को मिलते है। फिर हम केवल डिग्री क्यों देख रहे है। शैक्षणिक योग्यता के अतिरिक्त ज्ञान,आचरण और चरित्र भी एक और माप दंड है जिस पर हमारे पूर्वज हमसे बहुत बेहतर थे। समाज जितना जल्दी हो सके अपना भ्रम तोड़े, जन प्रतिनिधि चुनने के अपने माप दंड बदले, अपना उत्तरदायित्व समझे उतना ही जल्दी समाज का और प्रजातंत्र और देश का भला होगा।
प्रश्न 7 देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने पर भी राजनीति में सांप्रदायिकता को इतना महत्व क्यों दिया जाता है ?
उत्तर - तात्कालिक सफलता के लिए। उन्हें मालूम है कि जनता को यह माल बेचा जा सकता है। बिक रहा है। दुष्परिणाम भी दिखने लगे है। शायद समय ही हमें सिखाएं और सही रास्ते पर लेकर आये।
प्रश्न 8 राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म सर्वोपरि होना चाहिए या निजधर्म ?
उत्तर - दोनों में क्या फर्क है? राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र ही निज धर्म होना चाहिए।
प्रश्न 9 वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को राजनीति में किस सीमा तक मानना चाहिए।
उत्तर - अंतिम सीमा तक। हमारे सांसदों को याद रखना चाहिए की लोक सभा के जिस द्वार से वे लोक सभा में प्रवेश करते है उसके ऊपर ही उपनिषद का वह श्लोक लिखा है जो हमें वसुधैव कुटुंबकम की याद दिलाता है।
प्रश्न 10 राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना क्या उचित है ?
उत्तर - यह राजनीति में आई गिरावट के कारण है।
प्रश्न 11 राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों पर एक व्यापक दृष्टिकोण डालिए। आपके मतानुसार इसमें से कौन सा तंत्र ज्यादा सफल रहा है।
उत्तर - इसमें तो कोई विवाद हो ही नहीं सकता है। लोकतंत्र ने ही दुनिया को सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली दी है। यदि भारत इन वर्षों अपनी तमाम विविधताओं के बावजूद भी एक रहा है तो उसके श्रेय लोकतांत्रिक प्रणाली ही को है जिस ने हर वर्ग और हर क्षेत्र को अवसर दिया है।
प्रश्न 12 वंशवादी राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है ?
उत्तर - यह राजनैतिक जुमला है। प्रजातंत्र में तब तक आप नहीं चल सकते जब तक कि आपके पास योग्यता और जन समर्थन न हो। राजनीति ही क्यों यह बात फिल्म और अन्य क्षेत्रों में भी कही जाने लगी है। क्या कोई व्यक्ति इसलिए फिल्मो में सफल हो सकता है की वह किसी बड़े व्यक्ति या अभिनेता का बेटा या बेटी है। यही राजनीति पर भी लागू होती है। प्रजातंत्र में तो हर राजनेता को हर 5 वर्ष परीक्षा देनी होती है। जनता की परीक्षा में पास होने पर ही वह आगे बढ़ता है इसलिए इस जुमले का कोई मतलब नहीं है।
5 माननीय श्रवण पटेल जी -
पूर्व सांसद एवं पूर्व मंत्री, म.प्र.।
प्रश्न 1 राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी का कितना महत्व है आपके विचारों में यह कहाँ तक तर्कसंगत है। कृपया अपने विचारों से अवगत कराने की कृपा करें।
उत्तर - समाज हित मे ंकार्य करने के लिए सदैव आदर्श की आवश्यकता होती है । राजनीति सत्ता को चलाने का एक कौशल है । एक राजनेता में सिद्धांतवादिता, नैतिकता और ईमानदारी का होना अत्यन्त आवश्यक है। सिद्धांतहीन राजनीति से तात्कालिक सफलता यदि प्राप्त भी हो जाए पर वह दीर्घ कालिक या स्थाई नही ं हो सकती । हमें अपनें सिद्धांत के माध्यम से, अपनी नैतिकता के माध्यम से तथा ईमानदारी से समाज हित में और राष्ट्र हित में ऐसे कार्य करने चाहिए जो आगामी पीढ़ी के लिए आदर्श हों। साथ ही वे आदर्श उनके लिए प्रेरणादायक हो। हमेशा आदर्शांे के साथ ही राजनीति की जानी चाहिए । जिस प्रकार स्वतंत्रता के पूर्व राजनीति देशभक्ति से जुड़ी थी उसी प्रकार उन नीतियों को अपनाना चाहिए जिससे राजनीति नैतिकता से विलग न हो । राजनेताओ ं को नैतिकता का संबल लेकर आगे बढ़ना चाहिए । नैतिकता के अभाव मे ं राजनीति की दिशा उचित न होकर भ्रमित हो जाती है । इसलिए राजनेता को सत्यचरित्र, नैतिक मूल्यो का अनुसरण करने वाला होना चाहिए । मेरा मानना है कि सिद्धांतवादिता, नैतिकता और ईमानदारी किसी राजनेता को चिर कालिक बना देती है, जिससे वे हमेशा प्रासंागिक रहते हैं । तथा इतिहास में सम्मान का स्थान प्राप्त करते हैं ।
प्रश्न 2 बीते हुए कल आज के वर्तमान और आने वाले कल में हमारी महत्वकांक्षाएं हमें किस दिशा मंे ले जाऐंगी या ले जा रही हैं कृपया इसकी स्पष्ट दिशा प्रस्तुत करने की कृपा करें। राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या एक दूसरे के पर्याय हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर कितनी निर्भर करती है ?
उत्तर - महत्वकांक्षाएँ हमेशा भविष्य की उम्मीदो से जुडी हुई होती है । महत्वाकांक्षाएँ होना बुरा नही है किंतु किस दिशा में हमारी विचारधारा, सोच जा रही है यह अति महत्वपूर्ण है। आज हर व्यक्ति को अपने साथ वाले से आगे बढ़नें की चाह है ओर इसके लिए वह हर सीमा को पार कर लेता है फिर चाहे उसके दूरगामी परिणाम कुछ भी हों उसको इससे कोई सरोकार नही ं है । यदि व्यक्ति अपनी सामाजिक, राष्ट्रीय और नैतिक मर्यादाओ को ध्यान में रखते हुए स्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मक महत्वाकांक्षाएँ रखे तो यह न केवल उचित है बल्कि जरूरी भी है। अतः मैं तो यही कहँूगा कि हमारी महत्वाकांक्षाएँ राष्ट्रहित अनुसार होनी चाहिए जिसकी एक निश्चित सकारात्मक दिशा हो। बिल्कुल राजनीति और राजनीतिज्ञ आपस में उसी प्रकार जुडे हैं जैसे देश और देशभक्त ।
एक राष्ट्र में नागरिक अपने कर्तव्यों, राष्ट्रहित राष्ट्रसेवा के प्रति जितना सजग और जागरूक होगा उतना ही वह देश सम्पन्न और खुशहाल होगा, उसी प्रकार यदि एक राजनीतिज्ञ राजनीतिक उसूलों का पालन करते हुए ईमानदारी से राष्ट्रहित मे राजनीति करेगा तो निश्चित ही उसकी राजनीतिक यात्रा अति प्रभावशाली एवं राष्ट्रहित मे होगी अर्थात् राजनीति और राजनीतिज्ञ एक दूसरे पर पूर्णतः निर्भर है। अतः मैं कहँूगा कि नैतिकता, सिद्धांतवादिता और ईमानदारी के साथ यदि राष्ट्र सेवा और समाज सेवा की आकांक्षा किसी व्यक्ति के अंदर निहित है तो वह स्वागत योग्य है ।
प्रश्न 3 राजनैतिक परिवार होने के कारण आपका राजनीति के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा अनेक वर्षों से रही है और इसमें सदैव आपको एवं आपके द्वारा जनमानस को एक नयी दिशा, एक नया मार्गदर्शन, एक नयी शिक्षा और राजनीति में पारंगतता प्राप्त हुयी है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
उत्तर - स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान क्या किसी को यह पता था कि अंत्तोगत्वा हमारे देश को आजादी मिलेगी ? उस जमाने मे सभी भारतवासियों का एक ही लक्ष्य था और वह था देश के लिए मर मिटना। हर प्रकार की चुनौतियाँ झेलने के लिए और हर प्रकार का त्याग देने के लिए हमारा जनमानस उत्साहित था ।
महात्मा गांधी का मार्गदर्शन भी अपने आप में अद्योत है । पूरे विश्व में यह पहला संकल्प था जहाँ अहिंसा के माध्यम से महात्मा गांधी ने भारत की आजादी का लक्ष्य प्राप्त करने का बीड़ा उठाया था । सारे विश्व के इतिहास में यह दृष्टांत अद्वितीय है और सारा विश्व आज भी महात्मा गांधी के आदर्शों का अनुसरण करता है।
अंग्रेज हुकूमत के दौरान, पूरे समाज के समक्ष दो ही विकल्प थे या तो अंग्रेजों के प्रति वफादारी और समर्पण और या महात्मा गांधी के बताए हुए रास्तों पर चलना और आजादी प्राप्त करने के लिए हर प्रकार का बलिदान और त्याग स्वीकार करना ।
1942 में जब जबलपुर में त्रिपुरी कांग्रेस के नाम से विख्यात आन्दोलन हुआ था तब मेरे पूर्वजों ने महात्मा गांधी का बढ़ चढ़कर साथ दिया और हर प्रकार का सहयोग दिया। तत्पश्चात जब मेरे पूज्य पिता जी स्व. श्री परमानंदभाई पटेल वयस्क हुए तो उन्होने अपने आप को कांग्रेस की विचारधारा एवं नीतियों के साथ जोड़ा और निरंतर महात्मा गांधी एवं पं. जवाहरलाल नेहरू के मार्गदर्शन के अंतर्गत वह चलते रहे। 1947 में हमें आजादी मिली और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनाव की प्रक्रिया प्रारंभ हुई । तब से लगातार 1975 तक मेरे पूज्य पिता जी म.प्र. विधानसभा में प्रदेश की जनता की भलाई हेतु अपनी सेवाएँ निरंतर अर्पित करते गए और 1975 मे श्री जिद्दू कृष्णमूर्ति के विचारो से प्रभावित होकर उन्होने अपना लक्ष्य बदला और अज्ञात की ओर अग्रसर हुए एवं मुझे समाज एवं राजनीति से जुड़ी जिम्मेदारियों को पूर्ण करनें का उत्तरदायित्व सौंपा जिसे मैनें सन् 1980 से लेकर 2004 तक अपनी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के माध्यम से पूरा करनें की कोशिश की। यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि जहाँ पर लालच, ईर्ष्या, राग, द्वेष, अहंकार इत्यादि विद्यमान है वहाँ पर सच्चे अर्थों में जनता की सेवा करना बहुत कठिन हो जाता है। राजनीति हो या अन्य क्षेत्र हो जो व्यक्ति निस्वार्थ भाव से सेवा करेगा वही लोकप्रियता और सफलता प्राप्त करेगा।
प्रश्न 4 वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता क्या उचित है ? यदि है तो किस सीमा तक है? अवसरवादिता के कारण राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं। अवसरवादिता से तात्पर्य पार्टी बदलना, पार्टी का साथ ना देना, स्वयं के लाभ के लिए पार्टी को हानि पहुँचाना आदि।
उत्तर - वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता का कोई स्थान नहीं होना चाहिए हाँ यदि परिस्थितिवश या विचारों में मतभेद हो जिसका प्रभाव राष्ट्र के विकास में या राष्ट्रहित, राष्ट्रसेवा भक्ति पर पडने की संभावना हो तो निश्चित ही ऐसे दल, समुदाय या पार्टी से अलग हो कर अन्य वैचारिक पार्टी से जुड़ना उचित है । लेकिन शर्त यह होनी चाहिए कि जिस पद में व्यक्ति विद्यमान है उससे विरक्त होकर पुनः जनता का आर्शिवाद और समर्थन उसे प्राप्त करना चाहिए ।
अवसरवादिता के नकारात्मक और सकारात्मक दोनो बदलाव राजनीति में परिलक्षित हैं, मौकापरस्त विचारधारा रखने वाले व्यक्ति एवं राजनैतिक दल अपने स्वार्थ के लिए रष्ट्र को हानि पहुँचा कर एक राजनीतिक दल से दूसरे में चले जाते हैं और लाभ प्राप्त कर पुनः वैचारिक मतभेद कर किसी अन्य पार्टी से जुड़ने का प्रयास करते हैं इस प्रकार अवसरवादिता समाज में मानव मूल्यों का हनन करती है । भारतीय राजनीति मे ं वर्तमान में जितनी कमियाँ दिखाई देती हैं उनका मुख्य कारण यह अवसरवादिता ही है ।
प्रश्न 5 वर्तमान राजनीति और देश की आजादी के समय की राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं और यह बदलाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक ? आप इन्हें वर्तमान दृष्टिकोण से किस रूप में देखते है।
उत्तर - देश की आजादी के सात दशक गुजर चुके हैं, और हमें यह कहते हुए अति गर्व महसूस होता है कि हमें विश्व में सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का सम्मान प्राप्त है जिसका अपना लिखित और गौरवशाली संविधान है। इसमें नागरिको के अधिकारों एवं कर्तव्यों का विस्त्रृत विवरण है। देश की आजादी के समय की राजनीति ने देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत थी कि उस समय देश में व्याप्त समस्याओं का निदान और नागरिकों को न्याय और समाज में अपनी दिनचर्या हेतु कुछ अधिकार दिए जाएं जिसके लिए संविधान की व्यवस्था की गई ।
देश में वर्तमान समय की बात की जाए, तो लोग अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक हो गए, लेकिन कर्तव्यों के प्रति आज भी सचेत नहीं हैं जिसकी आज सबसे अधिक जरूरत है। वर्तमान समय मे जो सामाजिक दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं उसका केन्द्र बिन्दु मात्र ‘‘मै‘‘ मे परिलक्षित होता है। इस हिसाब से 73 वर्ष पहले जब आजादी का संग्राम चल रहा था उस समय की जनमानस की मानसिकता और वर्तमान मानसिकता में अंतर देखने को मिलता है ।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में देश की अधिकांश आबादी साक्षर है एवं निम्न श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है। तो राजनीति में भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर - प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा एक जरूरी अंग है, जो समाज जितना शिक्षित होता चला जाएगा उतना ही विकसित होता चला जाएगा, शिक्षा जहाँ ज्ञान को बढ़ावा देती है वहीं उन्नतिकारक भी होती है इसलिए प्रत्येक कर्मचारी के लिए चाहे वह किसी भी स्तर का हो निर्धारित शैक्षणिक योग्यता का मापदण्ड रखा जाता है जिससे वह जिस सेवा के लिये चयनित होता है उस दिशा मे ं अपनी सेवाएँ सुचारू रूप से अर्पित कर पाता है । एक राजनेता का शिक्षित होना और उच्च शिक्षित होना आवश्यक है इससे वह अधिक कुशलता से कार्य कर सकता है और अपनीं सेवाएँ राष्ट्र तथा समाज को प्रदान कर सकता है लेकिन एक राजनैतिज्ञ के लिए शिक्षा का आवश्यक होना तो सही माना जा सकता है लेकिन पूर्णतः अनिवार्य कर देना उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि ऐसा करने से लोकतंत्र की मर्यादा को कम किये जाने की आशंका प्रतीत होती है जबकि सेवा कार्य या राजनीति व्यक्ति का एक प्राकृतिक गुण भी होता है ऐसे बहुत से उदाहरण सामने आए हैं जबकि कोई अल्पशिक्षित या अशिक्षित राजनेता किसी उच्च शिक्षित राजनेता से कहीं अधिक श्रेष्ठ कार्य कर जाता है। कभी-कभी कोई व्यक्ति किन्ही कारणें से अकादमिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता पर उसका बौद्धिक स्तर एवं अनुभव कहीं उपयोगी होता है ।
प्रश्न 7 देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने पर भी राजनीति में सांप्रदायिकता को इतना महत्व क्यों दिया जाता है ?
उत्तर - हमारे देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष है, ऐसा संविधान जिसमें सभी धर्मो को समानता का अधिकार प्राप्त है वास्तव में धर्मनिरपेक्षता एक आधुनिक राजनैतिक एवं संवैधानिक सिद्धांत है जिसके अंतर्गत दो नियम 1. राष्ट्र के संचालन एवं नीति निर्धारण में धर्म का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए । 2. सभी धर्म के लोग कानून, संविधान एवं जननीति के आगे समान है वहीं यदि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में सांप्रदायिकता पर दृष्टिपात करे तो यह पाते हैं कि यह आधुनिक राजनीति के उद्भव का ही परिणाम है। वर्तमान समय में सांप्रदायिकता का मुद्दा न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व की राजनीति में अपनी भूमिका को उजागर कर रहा है । जो सम्पूर्ण विश्व के लिए चिंता का विषय बना हुआ है ।
सांप्रदायिकता को हम एक विचारधारा के रूप में समझ सकते हैं जो अन्य धर्म, समूहों से अलग एक विशेष धर्म अथवा समूह की पहचान को बढ़ावा देता है जिससे दूसरों के समुदाय, धार्मिक हितांे को नजर अंदाज कर अपनें स्वयं के हितों की पूर्ति की जाती है। वर्तमान परिदृश्य में सांप्रदायिकता द्वारा स्वयं अथवा पार्टी के लाभ के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है जबकि सांप्रदायिकता को राजनीति से परे रखा जाना चाहिए ।
प्रश्न 8 राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म सर्वोपरि होना चाहिए या निजधर्म ?
उत्तर - राष्ट्र हममे से प्रत्येक व्यक्ति के सम्मिलित अस्तित्व का नाम है। हमारे आसपास हमारा जीवनयापन चाहे कितना भी विस्तृत क्यों न हो राष्ट्र की व्यापकता में स्वयं ही समा जाती है। इसकी असीम व्यापकता में राष्ट्र की संपूर्ण धरती एवं इसमें पाये जाने वाले सभी प्राकृतिक संसाधन जैसे आकाश, पेड़-पौधे, जीव जंतु, नदियाँ, पर्वत, वन, पक्षी सभी समाहित है। प्रांत, शहर, जातियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ यहां तक कि रीति रिवाज, धर्म, मजहब, आस्थाएँ, परम्पराएँ राष्ट्र के ही अंग हैं ।
सामाजिक जीवन में राष्ट्र से बडा कुछ भी नही है, भारतवासियो की पहचान भारत देश है, यहाँ प्रत्येक व्यक्ति का परिचय राष्ट्रध्वज, तिरंगा है, इस तिरंगे की शान में ही हमारी शान, इसके गुणगान में ही अपने गुणों का गान हर व्यक्ति मानता है। हमारी अपनी निजी मान्यताएँ, आस्थाएँ, परम्पराएँ यहाँ तक कि धर्म, मजहब की बातें वहीं तक सार्थक और औचित्यपूर्ण हैं जहाँ तक कि इनसे राष्ट्रीय भावनाएँ पोषित होती हैं। राष्ट्रधर्म के पालन में राष्ट्र के उत्थान, एकता, अखंडता, एकजुटता एवं स्वाभिमान के लिए अपने निजता या निजधर्म को न्यौछावर कर देना प्रत्येक राष्ट्रवासी का कर्तव्य है ।
राष्ट्रधर्म का पालन प्रत्येक राष्ट्रवासी के लिए सर्वोपरि है । मै मानता हूँ कि हमारी धार्मिक मान्यताओं में भी इसे प्रभुखता मिलनी चाहिए ताकि हम सभी जातियों, भाषाओ और क्षेत्रीय सीमाओं से उपर उठकर राष्ट्र धर्म को महत्व दे सकें। राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु व परिस्थिति के लिए संवेदनशील होना, सजग होना, कर्तव्यनिष्ठ होना, राष्ट्रहितों के लिए सुरक्षा स्वाभिमान के लिए अपनी निजता का बलिदान करते रहना ही एक अच्छे राजनीतिज्ञ का निजधर्म है । जो उसके राष्ट्रधर्म में समाहित है ।
प्रश्न 9 वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को राजनीति में किस सीमा तक मानना चाहिए।
उत्तर - इस वाक्यांश का अर्थ है पृथ्वी पर रहने वाले संपूर्ण जीव तंतु एक परिवार स्वरूप हैं हमारे पूर्वजों की सोच काफी विकसित थी उस समय में ऐसी सोच दर्शाती है कि भारत मेें हमेशा से ही सभी का आदर एवं सम्मान किया गया है । वसुधैव कुटुम्बकम इस श्लोक से लिया गया है -
‘‘ अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।‘‘
स्पष्ट है विशाल हृदय वाले के लिए समस्त पृथ्वी एक परिवार की भाँति होती है । जिसमे ं आपस में विभेद नहीं होना चाहिए। राजनीति में भी विभेद आर्थात् भेदभाव को आश्रय नहीं देना चाहिए। राजनीति में सबको बराबर तथा परिवार के समरूप ही मानना चाहिए जब तक इसको व्यक्ति मानता है तब तक वह राजनीति के क्षेत्र में भी सफल होता चला जाता है इसलिए इस सूक्ति को पूर्ण रूप से आत्मसात करना चाहिए फिर वह कोई भी क्षेत्र हो चाहे राजनीति। व्यक्ति का हृदय जितना विशाल होगा वह उतना ही अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होगा। वसुधैव कुटुम्बकम की सूक्ति का भाव हृदय की विशालता से ही है । और यही भावना भारत जैसे राष्ट्र की आत्मा का स्वर है इसलिए चाहे साहित्यकार हो या अन्य भाव संप्रेषणकार वे इस भावना को सर्वोपरि रखकर ही सफल होते है इसलिए वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को राजनीति में भी पूर्णरूप से मानना चाहिए और भारत में इसे माना भी जाता है। विभेद की राजनीति क्षणिक सफल हो सकती है पर दीर्घकालिक सफलता का राज वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पर ही निहित है। यह मूल मंत्र भारतवर्ष के संस्कार का द्योतक है। महत्व के लिए कई कारण जैसे राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनैतिक लाभो की पूर्ति के लिए सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाना, विकास का असमान स्तर, असुरक्षा की भावना, समुदायो के बीच आपसी विश्वास की कमीं, मीडिया का कमजोर पक्ष आदि जिम्मेदार है। एक धर्मनिपेक्ष राष्ट्र की उन्नति में सहायक होगा, किंतु यह राजनीति से अलग होना आवश्यक है ऐसा मेरा मानना है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना हमारे देशवासियो मे विद्यमान है और यह परिलक्षित भी होती है और यही कारण है कि भारत का विश्व के समक्ष सम्मान ऊँचा है और यदि इतिहास के पन्नो को देखा जाए तो भारत ही एक ऐसी मिसाल है जिसने कभी भी किसी भी देश पर आक्रमण नही किया ।
प्रश्न 10 राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना क्या उचित है ?
उत्तर - राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल नहीं देना चाहिए । किसी का व्यक्तिगत जीवन उसकी अपनी सोच पर आधारित रहता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना निजी जीवन अपने अनुसार जीने की सवतंत्रता होनी चाहिए चाहे वह राजनेता ही क्यों न हो। लेकिन वर्तमान समय मेें लोग एवं मीडिया व्यक्ति के निजी जीवन को लेकर टीका-टिप्पणी करते है और निजी जीवन की घटनाओ ं को तूल देते हैं । यह मेरे अनुसार उचित नहीं है। लेकिन जब कोई व्यक्ति राजनीतिक जीवन में या सार्वजनिक जीवन में प्रविष्ट होता है तो उसकी चर्चा होना स्वाभाविक होता है। साथ ही राजनेता एक अनुकरणीय व्यक्तित्व होता है तथा जनता के लिए भी आदर्श होता है इसलिए निजी जीवन नैतिकता, सज्जनता और सुचिता से परिपूर्ण होना चाहिए। हमें इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि लोग हमसे शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को सजाते संवारते हैं। साथ ही साथ राजनेता समाज का नायक होता है। नायक जिस तरह का जीवन जीता है लोग उसे अपने जीवन का आदर्श बनाते हैं और उस राह में चलनें का प्रयत्न करते हैं इसलिए राजनेता को अपने जीवन को सदैव नैतिक मूल्यों से ओत-प्रोत रखना चाहिए ।
प्रश्न 11 राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों पर एक व्यापक दृष्टिकोण डालिए। आपके मतानुसार इसमें से कौन सा तंत्र ज्यादा सफल रहा है ?
उत्तर 11 लोकतंत्र में जनता प्रत्यक्ष रूप से या अपनें प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन व्यवस्था के संचालन से है जबकि राजतंत्र में एक व्यक्ति विशेष का शासन होता है जिसे राजा आदि के माध्यम से संचालित किया जाता है। राजतंत्र पदद्धति में सदैव राजा का महत्व रहता है चाहे वह मनोनीत राजा हो या पैतृक सिद्धांत पर बना राजा हो। लोकतंत्र निर्णय व्यापक चर्चा के बाद लिया जाता है जिससे अनेक विचार प्राप्त हो जाते हैं और जनहित मे ंउन्हें लागू किया जा सकता है। प्राचीन काल मे जो समाज के मुखिया एवं सार्वाधिक सफल व्यक्ति को ही राजा बनने का अवसर मिलता था और तत्पश्चात परंपराओं के अंतर्गत उसके परिवार का सदस्य या वंशज उत्तरदायित्व प्राप्त करता था परन्तु यह व्यवस्था कालांतर में अधिक सफल नहीं हो पायी। हमारे सामने हिटलर, स्टॉलिन, मुसोलिनी जैसे डिक्टेटर हुए जिन्होने मानवता का बिलकुल ख्याल नहीं रखा और स्वयं की कीर्ति और यश मे ही ऐसे कृत्य किए जो कतई वांछनीय नही थे। एक समय ऐसा भी था कि जहाँ पर इस विश्व की जनता को मार्क्सवाद एवं लोकतंत्र के बीच चयन करने का अवसर आया और सारे विश्व की जनता ने लोकतंत्र का चयन किया । आज लोकतंत्र की व्यवस्था जानी और परखी व्यवस्था है जिसे समूचा विश्व स्वीकार करता है ।
प्रश्न 12 वंशवादी राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है।
उत्तर - वंशवाद तो किसी भी क्षेत्र में उचित नहीं है लेकिन वंशवाद का नाम लेकर किसी योग्य व्यक्ति को नकार देना कतई ठीक नही है। यदि कोई व्यक्ति किसी राजनैतिक परिवार से संबंध रखता है और योग्य भी हो तो उसके गुणो का लाभ समाज एवं राष्ट्र को मिलना चाहिए। कभी कभी वंशवाद का नाम देकर किसी योग्य व्यक्ति को नकार दिया जाता है जिससे समाज का नुकसान होता है। वंशवाद या परिवारवाद किसी अयोग्य व्यक्ति को जनता के उपर थोपा जाना किसी भी दृष्टि से उचित नही है। भारतीय राजनीति मे समस्त जनता, जनमानस को बराबर का मौका योग्यतानुसार प्रदान किया जाना चाहिए।
6 माननीय चंद्रमोहन दास जी -
पूर्व मंत्री, म.प्र.।
प्रश्न 1 राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी का कितना महत्व है आपके विचारों में यह कहाँ तक तर्कसंगत है। कृपया अपने विचारों से अवगत कराने की कृपा करें।
उत्तर - राजनीति में सिद्धांतवादिता, नैतिकता एवं ईमानदारी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इन्हें होना ही चाहिए किंतु सिद्धांतवादिता अब परिलक्षित नही होती, नैतिकता के दर्शन भी दुर्लभ है। ईमानदारी भी घटी है।
प्रश्न 2 बीते हुए कल आज के वर्तमान और आने वाले कल में हमारी महत्वकांक्षाएं हमें किस दिशा मंे ले जाऐंगी या ले जा रही हैं कृपया इसकी स्पष्ट दिशा प्रस्तुत करने की कृपा करें। राजनीति और राजनीतिज्ञ क्या एक दूसरे के पर्याय हैं, दोनों की निर्भरता एक दूसरे पर कितनी निर्भर करती है ?
उत्तर - बीता हुआ कल सिद्धांतों और लक्ष्येां पर आधारित था। वर्तमान, व्यक्ति की महत्वाकांक्षाओं पर आधारित हो गया है। निःसंदेह व्यक्ति की महत्वाकांक्षी राजनीति, सैद्धांतिक राजनीति से भटक जाएगी, ऐसा लगता है। राजनीति और राजनीतिज्ञ एक दूसरे पर निर्भर भी है, पर्याय भी है। बीते हुए कल में हमारी राजनीतिक महत्वाकांक्षा देश को स्वतंत्र कराना फिर देश और देश वासियों का चरित्र निर्माण, उनका आर्थिक, सामाजिक उन्नयन था। अब और उन्नयन कैसे हो, विकास के लिए क्या कैसे आधुनिक तरीके अपनाएं जाएं ? यह आज और आने वाले कल की महत्वाकांक्षा होना चाहिए किंतु भ्रष्टाचार के कारण स्वरूप बदलता जा रहा है। उपलब्धियों में विलम्ब हो रहा है।
प्रश्न 3 राजनैतिक परिवार होने के कारण आपका राजनीति के प्रति समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा अनेक वर्षों से रही है और इसमें सदैव आपको एवं आपके द्वारा जनमानस को एक नयी दिशा, एक नया मार्गदर्शन, एक नयी शिक्षा और राजनीति में पारंगतता प्राप्त हुयी है। इसे सविस्तार बताने की कृपा करें।
उत्तर - राजनैतिक परिवार होने के कारण सैद्धांतिक राजनीति और जनसेवा के प्रति समर्पण था और है। सिद्धांतवादियों का नाम उनके काम से होता है। जब कर्तव्य सामने होता है तब नाम और प्रतिष्ठा पीछे हो जाती है। कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति सिर्फ नाम के लिए राजनीति में नही आते। वे किसी भी क्षेत्र में हो अंततः उन्हें नाम और मान सम्मान मिलता ही है।
प्रश्न 4 वर्तमान राजनीति में अवसरवादिता क्या उचित है ? यदि है तो किस सीमा तक है? अवसरवादिता के कारण राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं। अवसरवादिता से तात्पर्य पार्टी बदलना, पार्टी का साथ ना देना, स्वयं के लाभ के लिए पार्टी को हानि पहुँचाना आदि।
उत्तर - सिर्फ राजनीति में ही नही प्रत्येक क्षेत्र में अवसरवादिता रही है और है। प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर को उठाने का अवसर चाहता है, अवसर से लाभ उठाना चाहता है। प्रतियोगिता में प्राप्त अवसर और उसमें स्वयं को श्रेष्ठ साबित करके अवसर का लाभ लेना अधिकार है किंतु जिस परिप्रेक्ष्य में अवसरवादिता पर आपने पूछा है वह सैद्धांतिक रूप से गलत-अनुचित है।
प्रश्न 5 वर्तमान राजनीति और देश की आजादी के समय की राजनीति में क्या बदलाव हुए हैं और यह बदलाव सकारात्मक हैं या नकारात्मक ? आप इन्हें वर्तमान दृष्टिकोण से किस रूप में देखते है।
उत्तर - आजादी के समय याने आजादी के तत्काल बाद की राजनीति का लक्ष्य देश का निर्माण था। संसाधन बढाना, प्रत्येक क्षेत्र में स्वावलंबी बनना। वर्तमान में राजनीति का लक्ष्य प्रत्येक क्षेत्र में जन सामान्य का स्तर ऊँचा उठाना है चाहे वह आर्थिक स्तर हो, स्वास्थ्य चिकित्सा हो या शैक्षणिक स्तर अथवा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर। बदलाव को सकारात्मक ही कहा जायेगा। इन कार्यों को रूकना नही है इन्हें निरंतर चलना है। हाँ भ्रष्टाचार के प्रवेश ने कार्यों की गति को प्रभावित अवश्य ही किया है किंतु यह भी सच है कि भ्रष्टाचार विकास को नही रोक पाया। जहाँ जहाँ भी विकास हो रहा है भ्रष्टाचार सभी जगह है, अन्य देशों में भी। इसकी मात्रा कम या ज्यादा हो सकती है।
प्रश्न 6 वर्तमान समय में देश की अधिकांश आबादी साक्षर है एवं निम्न श्रेणी के कर्मचारी की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है। तो राजनीति में भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का मापदंड लागू क्यों नहीं किया जाना चाहिए। इस विषय पर आपके क्या विचार हैं ?
उत्तर - निःसंदेह देश की अधिकांश आबादी साक्षर है और निम्न श्रेणी के कर्मचारियों की नियुक्ति भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के आधार पर होती है किंतु जब बात व्यापक दृष्टिकोण की आती है तब ज्ञान और अनुभव दोनो आवश्यक होते है। जरूरी नही कि साक्षर व्यक्ति ज्ञानी और अनुभव भी हो लेकिन इसके विपरीत कम पढा लिखा व्यक्ति भी अपने जीवन संघर्षों और विशिष्ट अनुभवों से साक्षर अथवा पढे लिखे व्यक्ति के मुकाबले अधिक अनुभवी और ज्ञानवान हो सकता है। चुनाव में जनता व्यक्ति का आंकलन करती है। चुनाव के अलावा बात करें को शैक्षणिक योग्यता जरूरी है।
प्रश्न 7 देश का संविधान धर्मनिरपेक्ष होने पर भी राजनीति में सांप्रदायिकता को इतना महत्व क्यों दिया जाता है ?
उत्तर - देश का संविधान धर्म निरपेक्ष है। संविधान बनने के पूर्व स्वतंत्रता संग्राम भी देशवासियों ने धर्म निरपेक्ष रहते हुए लडा। जहाँ लोकतंत्र, प्रजातंत्र, जनतंत्र और समानता के अधिकार होंगे वहाँ विभिन्न धर्माें के साथ साथ धर्मनिरपेक्षता भी होगी। सर्वधर्म समभाव की नीति होगी। राजनीति में साम्प्रदायिकता ने स्वार्थवश प्रवेश कर लिया है ऐसा नही होना चाहिए। धर्म के आधार पर विवाद या झगडे उचित नही है।
प्रश्न 8 राजनीतिज्ञ के लिए राष्ट्र धर्म सर्वोपरि होना चाहिए या निजधर्म ?
उत्तर -राजनीति में निजधर्म नही कर्तव्य और राष्ट्रधर्म ही महत्वपूर्ण सर्वोपरि होना चाहिए।
प्रश्न 9 वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को राजनीति में किस सीमा तक मानना चाहिए।
उत्तर - बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना है। यदि लोग यह भावना आत्मसात कर लें तो नस्ल, धर्म, जाति, सीमाओं के विवाद ही न रह जाएं। यह भावना होनी चाहिए किंतु इसका उल्लंघन करने अथवा इसे न मानने वालों के लिए राजनीति को सीमा में नही बांधा जा सकता।
प्रश्न 10 राजनीति में निजी जीवन से संबंधित घटनाओं को तूल देना क्या उचित है ?
उत्तर - राजनीति में ही नही प्रत्येक क्षेत्र में सिद्धांतवादिता, नैतिकता और ईमानदारी होना चाहिए। जब व्यक्ति में इन तीन गुणों का अभाव होगा तो उसके निजी जीवन की घटनाओं को तूल दिया जायेगा। सैद्धांतिक, कर्तव्यनिष्ठ, समर्पित व्यक्ति निजता से परे हो जाता है।
प्रश्न 11 राजतंत्र और लोकतंत्र दोनों पर एक व्यापक दृष्टिकोण डालिए। आपके मतानुसार इसमें से कौन सा तंत्र ज्यादा सफल रहा है।
उत्तर - राजतंत्र और लोकतंत्र दोनो ही व्यक्तियों पर आधारित है। इतिहास में अनेक राजा ऐसे हुए है जिनके राज्य में सर्वांगीण विकास हुआ, प्रजा सुखी और संतुष्ट रही। यह स्थिति लोकतंत्र में भी है।
प्रश्न 12 वंशवादी राजनीति पर आपका क्या दृष्टिकोण है ?
उत्तर - वंशवादी राजनीति हो अथवा कोई पेशा। प्रत्येक कार्य योग्यता पर आधारित है। यदि उत्तराधिकारी योग्य है तो समाज स्वीकार करता है यदि अयोग्य है तो उसे अस्वीकार कर दिया जाता है। अतः वंशवाद पर प्रश्न उठाना अनावश्यक है।