complete in Hindi Short Stories by Pallavi Pandey books and stories PDF | मुकम्मल

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मुकम्मल

" कितना कुछ छोड़ के जाना पड़ रहा है, मेरी बार, मेरे प्लांट्स। पता है , फाइकस को कितनी प्रूनिंग लगती है.......और लंदन में ठंड कितनी पड़ती है। इधर के वूलेन तो उधर किसी काम के नही। सोच रहे हैं कि इधर बस एक दो सेट ले । बाकी उधर ही खरीदेंगे।,"

धीर गम्भीर अखिल का उत्साह फोन से छन छन कर आ रहा था, पर कली उस में भीग नही पा रही थी। उस का हृदय फटा पड़ रहा था।

बड़ी देर बाद अखिल को बोध हुआ कि दूसरी ओर शान्ति थी। करती थी कभी कभी कली ऐसा.... एकदम चुप हो जाती थी, नही तो कितना चहकती है । थोड़ी लाउड है, पर दिल की साफ है। पूछो तो धीमे से कहती " आप को बोलते सुन रहे थे।"

ये सुन के अखिल का मन होता कि उस को बाहों में कस ले । बाहर से इतनी कठोर दिखती है, पर उस के लिए कितनी कोमल, कितनी मृदु। कितनी मुश्किल से उस को नाम से पुकारना शुरू किया था, "आप " फिर भी नही छूटा। " आप बड़े हैं, तुम बोलना ठीक नही लगता हमको। " और अंतरंग होने पर जब नाम लेती , तो उस में कितना अनुराग, कितना स्नेह ।

अखिल :" अरे हो या फोन काट दिया? "
कली:" हैं ना "
अखिल : " तो कुछ बोलो भई, उतनी देर से हम ही बोल रहे हैं।"
कली: " क्या बोलें?"
अखिल: " कुछ भी......"
कली:" कुछ और भी छोड़ जा रहे हैं आप।"

अखिल कुछ कुछ समझ कर भी नासमझ बनता पूछ बैठा, "क्या?"

" हम को ", कली जो तरलता आंखों के रास्ते आना रोकना चाहती थी, वो बरबस उसके गले में उतर आई ।

" क्यों, लंडन में फोन नही चलते क्या? " अखिल ने छेड़ा।
" अलग अलग टाइम जोन में होंगे हम दोनों। कब बात करेंगे? "
" रोज़"
" मुश्किल होगा"
" तो नही जाते । बोल देंगे गर्लफ्रेंड ने मना किया है । "
" हां, जैसे बड़ी सुनते हैं हमारी ।"
" तो मान रही हो कि गर्लफ्रेंड हो ।"

कली एकदम सकपका गई । अखिल ऐसे ही उसे बातों में उलझा कर उस से सब उगलवा लेते थे। नही तो वो कभी इस सम्बन्ध के लिए न राजी होती ।

अखिल उस से बारह बरस बड़े थे। बॉस के बॉस के बॉस । किसी के पति, किसी के पिता ।

कली उन से बारह बरस छोटी थी। किसी की पत्नी। किसी की मां।


करीब तीन साल पहले

कली को मार्च से कोई प्यार नही था। पढ़ाई के दिनों में मार्च में परीक्षा होती थी । पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी लगी तो ऐसी कि मार्च में मरने की मोहलत न मिले। कली के विवाह की एक तिथि मार्च की निकली तो उस ने भावी पति को बोल दिया था, कलम भेज देंगे, उसके साथ फेरे ले लीजिएगा, हम न आ पाएंगे।

इस मार्च में भी कुछ खास अन्तर नहीं था। बेटी की परीक्षा और वार्षिक बंदी की आपाधापी में बसन्ती बयार को सांस भर खींचने की भी फुर्सत नहीं थी उसे। पति सहयोग करते थे, पर यूनिवर्सिटी प्रोफेसर के लिए भी मार्च उतना ही कठिन था। इतनी सहूलियत थी कि उनका घर आने का समय निश्चित था। फेमिनिस्ट का लेबल नही पहनती थी कली, पर मन में पूर्ण आदर भाव था equal pay for equal work के लिए। उसे अपने घर परिवार की जिम्मेदारियां गिना कर छोटा नही करना चाहती थी।

साल का अन्तिम दिन, कॉफी के कई कप खाली करने के बाद दिन पूरा होने की प्रतीक्षा में बैठी थी। लैपटॉप पे लूप पर मिर्जा गालिब की गजल के धीमे सुर थे। अचानक सामने अखिल को देख कर अचकचा गई । ये इतनी देर तक क्यों रुके हैं? इतने सीनियर हैं। घर जा के आराम करते। डे एंड पर उनको फोन कर दिया जाता कि सब सकुशल संपन्न हो गया।

परन्तु ये अखिल की नेतृत्व शैली नही थी। १३० अधीनस्थ सहकर्मियों को पहले दिन ही बता दिया गया था कि ऑफिस में निरर्थक बैठने से बेहतर घर जाना है। और जब आवश्यक हो तो वरिष्ठतम भी साथ रुकेगा, मनोबल ऊंचा रखने के लिए ।

" तो तुम को भी जगजीत सिंह पसन्द हैं?"

कली को कुछ समय लगा उत्तर देने में। बचपन से नीरस काम वो संगीत के साथ निपटाती थी , और आज चोरी पकड़ी गई, वो भी सुप्रीमो द्वारा। अपने हाथ से अप्रेजल और प्रमोशन फिसलते दिखा उसे।

" सर, सब काम पूरा हो चुका है , ऑलमोस्ट। हेड ऑफिस से ग्रीन सिग्नल का वेट कर रहे हैं बस । "

" घर जाने का ग्रीन सिग्नल?" , अखिल के होंठो के कोर पर मन्द स्मित था, और आंखों में बदमाशी की चमक

" येस सर, आई मीन, नो सर"। कली का सामान्य स्थित प्रज्ञा स्वभाव कही हवा हो गया था। सच कहे तो इंटर्नशिप के दिनों से एक नन्हा सा क्रश था उसको अखिल पर। इतने नीरस दफ्तर में भी उनके होने से एक चैतन्यता रहती थी।

" रिलैक्स, एंड कॉल मी अखिल ", बोल कर आगे बढ़ गए ।

रात के करीब ग्यारह बज गए निकलते निकलते। स्टेशन पास था,और पर्स में पास था। शहर कितना भी सुरक्षित हो, इतनी रात गए कैब के बनिस्बत उसको लोकल लेना ही उचित लगा।

" कैसे जाओगी? ", फिर बिग बॉस ।
" लोकल लेंगे, सर ।"
" इतनी रात गए? हम छोड़ देते हैं"
" आपको देर होगी, सर। एंड लोकल्स आर सेफ।"
" कोई देर नही होगी । कम, सिट। तुमको छोड़ के आगे निकल जाएंगे।"
"बबलू....?" ऑफिशियल ड्राइवर सबका चहेता था, पर आज तो ये खुद ड्राइव कर रहे हैं।
" उसको घर भेज दिया, क्या करता इतनी देर रुक कर। आ जाओ। पच्चीस साल से ड्राइव कर रहे हैं। कभी एक स्क्रैच नही आया कार पे। "

सकुचा कर बैठ तो गई, पर कली को ग्लानि बोध मार रहा था। इंजिन स्टार्ट होते ही स्पीकर पर बज उठा
" आज जाने की जिद न करो....."

कली अक्सर सोचती, उस रात साथ न आई होती, क्या तब भी उसकी जीवन धारा ऐसे ही मुड़ती?

अखिल फरीदा खानम के साथ गुनगुना रहे थे। स्वर दबा था, पर तब भी स्पष्ट था कि महाशय कान सेन हैं, तान सेन नही। जब उखड़े सुर असह्य हो गए तो अचानक कली पूछ बैठी , " कौन सा एल्बम है? "

अठारह किलोमीटर संगीत चर्चा में बीत गए। दोनो की रुचि एक सी थी, सो वार्तालाप में संकोच की दीवार ढहते देर नही लगी।

घर करीब आया तो अखिल ने पूछा " रोज लोकल लेती हो, ड्राइव नही करती? अपने व्हीकल से एक इंडिपेंडेंस की फीलिंग रहती है ।
"
" नही, सर। पहली बार स्कूटी चलाई तो एक्सिडेंट हो गया। मम्मी को किसी ने बोला कि ड्राइव करने से मृत्यु योग है। फिर विष की परीक्षा पी कर नही की ।" बोल तो गई, फिर सोचा कि अखिल उस को कितनी बौड़म, कितनी दकियानूस समझेंगे । पर उन्होंने हम्म बोल कर एकदम अप्रत्याशित पूछ लिया " सुबह हमारे साथ आ जाओ । ऑफिशियल कार रोज एक के लिए आती है। दो लोग आ जाएंगे। "

अब तक कली अपना प्रोफेशनल जिरह बख्तर चढ़ा चुकी थी, और हल्की सी मुस्कान के साथ " जी " बोल कर कार से उतर गई । इतनी रात गए औपचारिकता के लिए अखिल को घर बुलाना भी उचित नहीं लगा उसे ।

अखिल औपचारिक नही थे ।अगले दिन घर से निकलने के समय ही ड्राइवर ने दरवाज़ा खटका दिया तो कली चौंक गई। पति नवीन ने प्रश्नसूचक दृष्टि उठाई तो उसने रात की बात दोहरा दी ।

नवीन सुलझे थे , बोले " ठीक ही तो है। प्रैक्टिकल और सस्टेनेबल। पर तुम समय से तैयार रहना। अव्वल तो तुम को सीनियर को पिक करना चाहिए, और देर तो हरगिज़ नहीं होनी चाहिए। "

उस को आंख के इशारे से पीछे बैठने को बोल कर अखिल अपने लैपटॉप से मुखातिब हो गए।

उस दिन से यही दिनचर्या। सुबह शान्त, जैसा कली चाहती थी। शाम को अगर अखिल किसी मीटिंग में न उलझे होते तो साथ लौटते। नही तो लोकल जिन्दाबाद।

परिचय था, घनिष्ठता नही थी। ड्राइवर साथ होता था सो ऑफिस का कौतूहल ज्वार उठा भी तो स्वयमेव शान्त हो गया । दोनो की आयु और पद में अन्तर कई अटकलों को जन्म दे सकता था , पर दोनो की स्वाभाविक सौम्यता उस पर रोक लगाए रहती ।

उतनी ही जितनी आँच पर चढ़ी केतली का ढकना ।

अखिल और कली की पैदाइश एक शहर की थी, रुचियों में भी साम्य था । अखिल के लिए कली का आदर भाव तब और बढ़ गया जब उस ने जाना कि कैशोर्य में पिता को खोने के बाद कैसे अखिल ने अपनी शिक्षा पूरी की और इसी संस्था में इंटर्न से आरम्भ किया। जो इंटर्नशिप कली को ट्यूशन पढ़ कर मिली, वो अखिल ने ट्यूशन पढ़ा कर पाई थी ।

अखिल को कली की काम में दक्षता और परिवार के प्रति समर्पण, और दोनो में बिना शिकायत साम्य बिठाने के प्रयास देख कर उस के लिए एक रक्षात्मक भाव आ गया ।

" लगा , सो सगा "



" कल बर्थडे है हमारा। भूलिएगा नही।"

अखिल देर से फ़ोन स्क्रीन को देखे जा रहे थे। अजब लड़की है। बिना बताए निकल गई और इतनी रात गए मेसेज कर रही है, जब पूरा ऑफिस जानता है कि सन्डे को वो न किसी को फोन करते हैं न जवाब देते हैं। छोटा सा सन्देश आशा से लबालब था। क्यों? उन को क्यों घनिष्ठ मान बैठी है ? पर आज के सिवा तो कभी ऐसी आत्मीयता से नही कहा कुछ । पार्श्व में हो कर भी विलग । आँचल सम्भाले, घुंघराले बालों को पोनीटेल के अनुशासन में कसे ।

एक बार बोला था, हां, जिस दिन ड्राइवर छुट्टी पर था और अखिल बता रहे थे कि कैसे छोटे मोटे काम कर के भी उन्होंने अर्थशास्त्र में विश्व विद्यालय में स्वर्ण पदक पाया था । " आप हमे बहुत अच्छे लगते है "। अखिल सिहर गए थे। ऐसी अनुभूति तो बीस वर्ष पहले पायल के साथ हुई थी।

पायल, पत्नी, मित्र, सम वयस्क । अपने पिता से विरोध कर उनसे विवाह किया था। उनकी प्रतिभा की पारखी। उनके बेटे की मां ।पति और पुत्र की महत्वाकांक्षा पोसते पोसते स्वयं अन्यमानस्क हो चली थी । परिचित उसे ट्रॉफी वाइफ बुलाते थे ।

और अब ये दस बारह वर्ष कनिष्ठ घनिष्ठ लग रही थी । बिरले कभी जब वो कोई मीठी चुहल करती, तो अखिल का मन अश्व ऐसे वर्ज्य रास्तों पर दौड़ पड़ता........

आज संयम की वल्गा शिथिल कर देना चाहते थे अखिल, और न चाहते भी, आधी रात टाइप कर बैठे " happy birthday, sweetheart "

रविवार, जन्मदिन की सुबह ये तीन शब्द कली को आकस्मिक लगे, अप्रिय नही । पूरा दिन शान्ति रही , पर रात फिर एक सन्देश " जो लिखा उस में कोई सन्देह नहीं है । तुम बहुत प्रिय हो । "

सोमवार सुबह कार में बगल में बैठी कली के हाथ पर जब अखिल ने काँपते हृदय से अपना हाथ रखा, और उस ने हाथ खींचने का कोई प्रयास नहीं किया तो अखिल की वय से अनायास बीस वर्ष घट गए।



विवाहेतर सम्बन्धों को एक शब्द में परिभाषित करना हो तो सर्वाधिक उपयुक्त है " प्रतीक्षा "

ऐसे सम्बन्ध कभी भी फोन घुमा कर " अरे, सुनो " कहने की सुविधा नहीं देते। परन्तु समाज की चौकन्नी नज़र और बढ़ती हृदयगति संभालते हुए एक मिनट बारह सेकंड के वार्तालाप में अलग ही माधुर्य होता है , अलग ही कोमलता । वर्जित फल का !

अपनी भावनाओं के सागर में डूबते उतराते अखिल और कली कोई अपवाद नहीं थे । मिलते रोज, बाते रोज, तब भी एक अव्यक्त शून्यता दोनो को घेरे रहती । इस संबंध की कोई सामाजिक वैधता नही थी । दोनो अपने अपने जीवन साथी से संतुष्ट ही थे । इस स्नेहबंध का लोभ छूटता न था । थोड़ा और ही मांगता था मन।

पंचगनी में सेमिनार के लिए कली ने जितनी मेहनत की उतनी अपनी प्रबन्धन की पदवी के लिए नहीं की थी । पदोन्नति के वर्ष में ये बहुत सहायक हो सकतीं थी । दो दिन के सेमिनार में उसके मेंटर अखिल थे, ये अलग विषय है ।

पंचगनी के बाद दोनों की अधीरता और बढ़ गई। वैसे भी विपरीत लिंग की मित्रता को कोई मात्र मित्रता मानता नहीं। उस पर कई सहकर्मियों का मानना था कि कली के अतिरिक , कई पुरुष इस अवसर के लिए बेहतर थे। कली का चुनाव मात्र स्त्रियों की बराबरी दर्शाने के लिए हुआ था ।

और दिनों में कली ऐसे आरोप शांति से सुन न लेती , उलट पर्याप्त तर्कों के साथ अपने चुनाव को उचित ठहरा कर ही मानती। अब ऐसे विवाद उसे व्यर्थ लगते थे । यदि स्त्री होने के कारण ही उसे दो दिन को स्वर्ग का सिंहासन मिला था, तो गर्व था उसे अपने नारी होने पर।

पर सिंहासन छिनते देर नही लगी ।


अखिल का स्थानांतरण लंदन हो गया था। चर्चा थी कि उनकी पत्नी की इच्छा थी कि वे उधर ही बस जाएं। इंजीनियर बेटा जर्मनी में बसा था। कुछ तो उस के पास रहेंगे।

विदेश में पदभार पाने के लिए प्रतिभा और पहचान दोनो चाहिए । अखिल को भी काफी प्रयास के बाद यह सुयोग मिला था। और कली इन प्रयासों से पूर्णतया अनभिज्ञ थी। पूछने पर अखिल बोले " तुन्हारी आशाएं नही बढ़ाना चाहते थे । " कली निहाल हो गई ,कितनी चिन्ता करते हैं हमारी ।

जिस रात अखिल ने देश छोड़ा, कली ने रात के अन्धेरे में जॉन एलिया के शेर पर आठ आठ आँसू बहाए
ये मुझे चैन क्यूं नही पड़ता,
एक ही शख्स था जहान में क्या

पहले कुछ महीने तो दोनो जल विरहित मीन की तरह फोन के क्षीण सूत्र से बंधे रहे, फिर वही हुआ जो सुदूर सम्बन्धों की नियति है । अखिल का पाँच साल का प्रवास पूर्ण होने तक दोनो के सम्बन्ध पदोन्नति, त्योहार और जन्मदिन की शुभकामनाओं तक सीमित रह गए थे । वो तीनेक साल का सोने सा समय कली को सुखद स्वप्न सा लगता । अखिल के कार्यालय अनुभव को भी आत्मसात किया था उसने । उस की प्रगति का परोक्ष रूप से श्रेय वो अखिल को देती थी, इसीलिए बढ़ते बढ़ते जब वो अखिल की कुर्सी पे बैठी तो उसकी कार्यशैली में उसके अध्ययन और अखिल की व्यावहारिकता का मिश्रण था



उस शाम कली के फोन पर लंडन के अंक चमके तो कली का आश्चर्य स्वाभाविक था। इनको कैसे पता चला कि हम फोन करने वाले थे

" हे

" कैसी हो ?" बैरीटोन आज भी वैसा था जैसा आठ वर्ष पूर्व वार्षिक बंदी की रात। कली की प्रतिक्रिया भी वैसी ही थी। अपनी बाहों के रोम उठते लगे

" ठीक हूं। आप को फोन करने ही वाली थी।

" अरे वाह , फ्रीक्वेंसी मैच करती है अपनी ।

कली लजा सी गई

अखिल बोलते जा रहे थे " याद है न, पिछले साल बेटे की शादी हो गई

याद क्यों नहीं था, वैश्विक महामारी के बीच ऑफिस में आई सार्वजनिक पत्रिका के उत्तर में उसने चुन चुन कर उपहार भेजे थे। समय से पहुंचे इस लिए वितरक से देर रात तक निरंतर संपर्क रखा । सार्वजनिक औपचारिक धन्यवाद भी आया था

अखिल बोलते जा रहे थे " तो वो तो अपनी विदेशी पत्नी के साथ न्यू यॉर्क बसने जा रहा है। काफी कोशिश की हमने कि उधर ही पोस्टिंग मिल जाए , पर बात कुछ बनी नही। बोल रहे हैं यंग ब्लड चाहिए । इतने साल बाहर काम करने के बाद शायद वापस भारत के वर्क कल्चर में रच बस ना पाएंगे। तो वॉलंटरी रिटायरमेंट ले कर अगले महीने आ रहे हैं तुम्हारे पास। सच कहें, आई एम डाइंग टु सी यू। पर तुम क्यों फोन करने वाली थीं

" हम को अगले महीने न्यू यॉर्क ऑफिस का सी ई ओ चार्ज लेना है


इति।"