उजाले की ओर --संस्मरण
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नमस्कार स्नेही मित्रों
ज़िंदगी झौंका हवा का प्यार का संगीत है
ज़िंदगी खुशियों की महफ़िल,गा सकें तो गीत है |
हर रोज़ बदलती हुई ज़िंदगी को किस कोण से देखा जाए ,यह तय नहीं किया जा सकता |
हर रोज़ ही क्या ,हर पल ही बदलाव होता है ज़िंदगी में !
क्या कभी हममें से ही कुछ मित्र महसूस नहीं करते कि ज़िंदगी एक दौड़ है ,एक ऐसी दौड़ जिसमें हम सब ही आगे निकलना चाहते हैं |
जो पीछे रह गया ,वो गया काम से !
लेकिन ऐसा तो नहीं है न दोस्तों ! ज़िंदगी का हरेक पल एक-दूसरे से अलग है ,जुदा है लेकिन दूसरी ओर से देखा जाए तो वह एक-दूसरे से जुड़ा भी है |
जैसे एक ज़ंजीर होती है वह एक दूसरी सांकल में जुड़ती चली जाती है या फिर जैसे साँस एक-दूसरे के बाद आती रहती है |
वह उठती-गिरती है ,चलती ही तो रहती है |
रुकी तो सब समाप्त -----
एक दिन एक अध्यापक अपनी कक्षा ले रहे थे |
किशोर बच्चे थे | अध्यापक जी ने पूछा --
"तुम कैसे अपनी पढ़ाई करते हो ?"
"पढ़ाई जैसे की जाती है सर --वैसे ही ---" एक लड़का जो अपने आपको बहुत चतुर समझता था ,उसने उत्तर दिया |
"यानि---मैं समझा नहीं ---"अध्यापक चाहते थे कि छात्र खुलकर बताए जो कुछ भी कहना चाहता है |
"सर--किताब खोलकर रटते हैं --और क्या ?" छात्र ने उत्तर दिया |
"बेटा ! कुछ समझ भी पाते हो या रटते ही रहते हो ?"
"सर --समझने को क्या है ,पास ही तो होना है ---" लड़के ने रुडली फिर से उत्तर दिया |
अध्यापक चुप थे | अचानक उन्हें अपने एक अध्यापक की स्मृति हो आई जिन्होंने उन्हें स्वामी विवेकानन्द जी से व उनके विचारों से परिचित करवाया था |
उन्होंने कहा था कि सबको अपनी पहचान बनाकर रखनी चाहिए | अगर रट लिया तो तुमने समझा क्या ? पहचान चाहे छोटी हो किन्तु अपनी होनी चाहिए |
हम दूसरों,अपने बड़ों को पढ़ें ,उनका अनुकरण करें किन्तु पहले समझें कि उन्होंने क्यों और किस प्रयोजन से बात की होगी |
"लेकिन सर,हमें तो रटना ही पड़ता है ,बिना रटे तो कुछ समझ में नहीं आता --" एक और छात्र ने भी कहा |
"तुम निर्बल नहीं हो ,सबल हो --हर काम करने की शक्ति तुम्हारे भीतर है | यदि तुम अपने को ऐसा मानोगे तो वैसा ही होगा ,यदि यह मानोगे कि तुम कर सकते हो तो ज़रूर कर सकोगे |"
"जी,सर ,स्वामी विवेकानन्द ने भी तो यही शिक्षा दी है कि किसी भी क्षेत्र में हमें अपने आपको निर्बल नहीं समझना है |"
"बिल्कुल ठीक ! " अध्यापक ने कहा |
अब उनके छात्रों कि समझ में आ गया था कि उन्हें सबल बनने की आवश्यकता है |
गुरु जी अब संतुष्ट हो चले थे |
ज़िंदगी की अथवा ज़िंदगी से जुड़ी किसी भी चीज़ की शिकायत न करके उसे प्यार से,सहजता से ,सरलता से ,तरलता से समझकर गुज़ारने में ही सबकी भलाई है |
तभी ज़िंदगी प्यार का संगीत बनकर जीवन में उतरती है अन्यथा कठिन व उलझी हुई लगती है |
सस्नेह
आपकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती