उत्सुक सतसई 6
(काव्य संकलन)
नरेन्द्र उत्सुक
सम्पादकीय
नरेन्द्र उत्सुक जी के दोहों में सभी भाव समाहित हैं लेकिन अर्चना के दोहे अधिक प्रभावी हैं। नरेन्द्र उत्सुक जी द्वारा रचित हजारों दोहे उपलब्ध है लेकिन पाठकों के समक्ष मात्र लगभग सात सौ दोहे ही प्रस्तुत कर रहे हैं। जो आपके चित्त को भी प्रभावित करेंगे इन्हीं आशाओं के साथ सादर।
दिनांक.14-9-21
रामगोपाल भावुक
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
सम्पादक
समर्पण
परम पूज्य
परम हंस मस्तराम श्री गौरीशंकर बाबा के श्री चरणों में सादर।
नरेन्द्र उत्सुक
उत्सुक आय न हृदय में तेरे कभी मलाल।
दीनों पर कर तू दया, तोपे दीन दयाल।।501।।
धीरज देते कृष्ण हैं, राधा देती शील।
झरना राजाराम हैं, जनक नंदिनी झील।।502।।
मिथला बाती जानिये, दीपक हैं रघुनाथ।
ज्योति देत संसार को, मिलावट दोनों साथ।।503।।
जगती तो जंजाल है, माया काल समान।
फंसे मोह में जीव के, देखो कैसे प्राण।।504।।
कहलाते तो राम हैं, रावण जैसे काम।
आदर गिरवी रख दिया, मुंह में नहीं लगाम।।505।।
सेंदुर भरके मांग में, पतिव्रता कहलात।
प्राण नाथ लादे लला, मैम बनी बे जात।।506।।
पड़ीं भांवरें हो गये, मात पिता से दूर।
तिरिया के पीछे फिरें, आंखिन चढ़ो शरूर।।507।।
कान आदमी के भरै, दो की चार लगाय।
चले बहु के कहे में, लड़का आंख दिखाय।।508।।
टी.बी. मम्मी मांगती पापा मांगे केश।
होय पचास हजार की शादी को संदेश।।509।।
बिटिया भई पहाड़ सी, चिन्ता जाती खाय।
वे दहेज के वास्ते, बैठे हैं, मुंह बाय।।510।।
पढ़ा लिखा बिटिया दर्द, बर को रहे तलाश।
चकित डिमांड सुनके भय, ठाड़े लेत उसांस।।511।।
देवर ननदें आदमी, घर घर रहे सताय।
अपराधी सासें भईं, बहुयें देत जलाय।।512।।
फूटी कोड़ी घर नहीं, मांगे खूब दहेज।
घर को नहीं मकान है, रहे दहेज सहेज।।513।।
आतिशबाजी बैन्ड का खरचा करें वसूल।
करके कुरकी चल दिये, उड़ा गये घर धूल।।514।।
भजन किराये पे करें, पूजा समझें रोग।
राहजनी करते फिरें, ये दुनियावी लोग।।515।।
जेबन को कतरन लगे, सरे आम बाजार।
चढ़ो मूलधन पे फिरे, ब्याज न माने हार।। 516।।
आये पूर्णिमा की तरह, वेतन तन को खाय।
रिश्वत ऐसो श्रोत है, दिन दूनो हरियाय।। 517।।
चालें तो उलटी चलें, औरन के सिर दोष।
चालाकी की जगत में, होती है जय घोष।। 518।।
पुलिस और बदमाश मिल, खाय जात ईमान।
बे हिसाब है मिट रहा, धरती पे इन्सान।।519।।
साधुन को रख भेष वे, भगा ले गये नार।
लई धरम की आड़ है, फैला अत्याचार।। 520।।
भल मनसाहत का रखे, फिरें जगत में रूप।
सेवक तो धनवान हैं, निर्धन जनता भूप।।521।।
पोथी पढ़ते काग हैं, हंस काटते जेब।
घर जमाई आदत हुई, नहीं छोड़ती टेब।।522।।
चित्रशाला पे नर चढ़ो, सजकर आय बरात।
गाय बजाय के आत हैं, लूट हमें ले जात।। 523।।
राम करो मुझको क्षमा, होय न सत्यानाश।
भजन त्याग करने लगा, मैं कैसी बकवास।। 524।।
गागर में सागर भरो, दो हों में आनंद।
नित्य पढ़े, पावे मनुज, उर में परमानंद।।525।।
सकल सृष्टि को होय हित, दो शंकर आशीष।
कवच भगवती का लिखूं, झुका चरण में शीष।।526।।
मारकंड ऋषि ने कहा, जनहित दो बतलाय।
रक्षा हित महाराज तुम, दो रहस्य समझाय।।527।।
मंत्र गुप्त उनको बता, कृपा विधाता कीन।
कवच भगवती का तुरत, मगन होय कहदीन।। 528।।
जगती आराधन करे, भव बाधा मिट जाय।
तंत्र मंत्र का ताव कुछ, जरा न चलने पाय।।529।।
दावानल में जब घिरे, माता के गुण गाय।
कठिन समस्या से तुरत, छुटकारा पा जाय।।530।।
नवदुरगा जय भगवती, सब पर होत सहाय।
द्वारे उनके जाय जो, मन वांछित फल पाय।।531।।
प्रथम शैल जाई भईं, बृह्म आचरण कीन।
चन्द्रघन्ट, कुष्मांड पुनि, उर गद गद कर दीन।।532।।
पंच्चम मातु स्कंध हैं, कात्यायिनी ज्ञान।
काल निशा गाई भईं, अष्टम गौर सुजान।533।। ।
सिद्धि देत जननी सबे, मनवांछित फलदेत।
नवदुरगा के रूप को, विधि वर्णन कर देत।।534।।
प्रेत चढ़ीं चामुंड लख महिष बरा ही मात।
शची करी अगरठनी, सब जग में विख्यात।।535।।
गरूड़ासन धारण करे, विश्नु शक्ति बरदान बरदा बरदा।
कर त्रिशूल नंदी चढ़ीं शंकर प्रिया महान।।536।।
मातु कुमारी मोर पे, छवि उर गई समाय।
कमल विराजीं लख्मी, सब पे होत सहाय।।537।।
बैठ बैल पे ईसुरी, कर सुन्दर श्रृंगार।
बृह्म शक्ति विचरण करे, होकर हंस सवार।।538।।
शंख चक्र कर ले गदा, धनुष, फांस, हल हाथ।
प्रचंड शक्ति लख पड़त है, खेटक जिनके साथ।।539।।
देव मनुज रक्षार्थ ये, रचे विविध जंजाल।
माता कर ले शस्त्र ये, बन जाती हैं काल।।540।।
सुर नर मुनि करते भजन, विघ्न करें वे दूर।
शरण गहे को देन हैं, जगदम्बे भर पूर।। 541।।
प्राची दिशि रक्षा करत, सदा ऐंदरी मात।
अग्नि कोण में, अग्नि जूं, उत्सुक शीष झुकात।।542।।
मां बाराही सदा ही, दक्षिण राखें ओट।
रहन न दें नेत्रत्य में, खडग धारिणी खोट।।543।।
मृगवाहिन वायव्य में, पश्चिम वारूणि भार।
शूलघारि ईशान में, उत्तरदिशि कौमार।।544।।
ऊपर सदा सहाय हो, बृह्माणी तुम आय।
करें सुरक्षा बैष्णवी, धर धरातल घाय।।545।।
चामुण्डा मुर्दा चढ़ीं, दसों दिशायें राख।
अग्र भाग में हों जया, पीछें विजया साख।।546।।
दक्षिण भाग अपराजिला, अजिता बायें राज।
उद्योतिनी देखें शिखा, मस्तक उमा विराज।।547।।
भौहें रहें यशस्विनी, माला धारि ललाट।
होत भृकुटि के मध्य में, त्रिनेत्र के ठाट।। 548।।
यम घंटा रख नासिका, शंखनि लोचन बीच।
द्वार वासिनी कर्ण पे, होठ चर्चिका सींच।।549।।
काली रहो कपोल पे, बसो सुगन्धा गंध।
अधर बसो अमृत कला, रहे सदा आनंद।।550।।
जिवहा पर तुम शारदा, चित्र घन्टा गलहार।
कौमारी दंतन बसो, सेवक देतीं तार।।551।।
महामाया तालू बसीं, देतीं सबै विवेक।
कामाक्षी ठोड़ी रहें, हैं, विधि को यह लेख।।552।।
वाणी की रक्षा करो, सर्व मंगल आय।
भद्रकाली ग्रीवा बसो, शोभा वरनि न जाय।। 553।।
नलिका नल कूवरि रहो, ग्रीवा बिच नलि ग्रीव।
मेरू धनुर्धरी, रहत हो, सुखी रहें जग जीव।।554।।
कंध खड़ग्नि बास है, बज्र धारिणी हाथ।
युगल करनि दंडनि रहो, अंगुरिन अम्ब सुहात।।555।।
नखन बीच शूलेश तुम, ललिता उर कर बास।
महादेवी स्तन रहो, अपना करो निवास।।556।।
महिष वाहिनी गुढ़ा में, कटि भगवती बिराज।
विन्ध्य वासिनी जांघ की, सदा राखती लाज।। 557।।
महा बला सबकी करो, पूरी इच्छा होय।
पग की राखो तेजसी, उपकारी यह दोय।।558।।
वागेश्वरि रक्षा करो, राखो मोर शरीर।
पार्वती तुम अस्थि की, सदा मेंटती पीर।।559।।
कालरात्रि आंते रखो, बंदा मनोबल आय।
मुकटेश्वरि रख पित्त को, मूलाधार सुहाय।।560।।
पद्म कोष में बसत हैं, पद्मावति मां आय।
चूड़ा मणि मेरी करें, कफ में आन सुहाय।।561।।
रक्षा नख ज्वाला करो, जोड़ अमेघा साथ।
बृहृमाणी मम वीर्य की, लाज तिहारे हाथ।।562।।
छत्रेश्वरि छाया करो, रहे न पीड़ा पास।
धर्मधारिणी अहं का, करदो परदा फास।।563।।
बज्रधरी मम प्राण की, रक्षा करिये आन।
नर पावे संसार में, युग युग तक सन्यास।। 564।।
दीर्घायु करतीं सदा, देतीं हैं आशीष।
मां कल्याणी में तुझे, झुका रहा हूं शीष।। 565।।
शब्द, गंध, रस, रूप की, योगिन माया गात।
करें कृपा नारायणी सत रज तम विख्यात।।566।।
वाराही आयू रखो, धर्म वैष्णवी आय।
सदा चक्रिणी जगत में, यश देतीं फेलाय।।567।।
इन्द्रानी मम गोत्र रख, पशु धन चन्डीराख।
राख लेओ सुत लक्ष्मी, भैरवी पत्नी साख।।568।।
सुपथा रस्ता राखतीं, क्षेम राखती पंथ।
महालक्ष्मी राज्य में, विजया रहें अनंत।। 569।।
अनुनय से जौ कवच में, बचे राखियो लाज।
विजय तिहारे हाथ है पूर्ण करो तुम काज।।570।।
मानव चाहे यदि भला, बिना कवच ना जाय।
पाठ कवच का कर चले, जो चाहे सो पाय।।571।।
धन धरती सत पायगो, नित्य कबच को बांच।
दुरगा को उर में सुमिर, राख हृदय में सांच।। 572।।
भूत प्रेत डाकिन नहीं, जिन्द न आते पास।
उत्सुक साहस कवच दें, उर ना होय उदास।।573।।
उत्सुक धारण कवच कर, सप्तशती का पाठ।
ऋद्धि सिद्धि नव निधि बढ़े, हों दिन दूने ठाठ।। 574।।
ज्ञानी सुत उनको मिलें, रहें सदा सानंद।
धन संपति जसकर मिलें, पावे परमानंद।।575।।
ऊँ जयन्ती मंगला, काली तेरे नाम।
भद्रकाली कपालनी, तुमको करूं प्रणाम।।576।।
क्षमा शिवा दुरगा कहें, धात्री स्वाहा कहात।
नमस्कार तुमको स्वधा, जन जन शीष झुकात।।577।।
जय जय चामुण्डे हरो, जीव मात्र के क्लेष।
काल रात्रि तुमको नमन, अनगिन तेरे भेष।।578।।
मधु कैटय कीने हनन, बृह्मा को बर दीन।
नमस्कार देवी तुम्हें, जग में आप प्रवीण।। 579।।
जय दो, यश दो, रूप दो, कर दुष्टन को नाश।
बध महिषासुर का किया, मां तेरा विश्वास।। 580।।
चण्ड मुण्ड का बध किया, रक्त बीज संहार।
जय, रूप, देतीं तुम्हीं, मां शत्रुन को मार।। 581।।
युगल चरण पूजे जगत, सौभाग्य दो ज्ञान।
शीष झुका तुमको नमन, करती है संतान।। 582।।
पाप हारिणी चंडिके, उत्सुक शीष झुकाय।
यश वैभव संसार को, करतीं अवध प्रदाय।।583।।
भक्त करें आराधना झुका चरण में शीष।
परम सुखी हमको करो, दो मैया आशीष।।584।।
रोग रहित काया करो, उर निर्भय मम होय।
सौभाग्य शाली बना, यश वैभव दो मोय।।585।।
देव असुर मां के चरण, झुका रहे हैं शीष।
जिस लायक समझे जिसे, वैसा दें आशीष।।586।।
मां दुष्टों की समर में, कश्तीं चूर घमंड।
हो जाती अन्याय लख, माता आप प्रचंड।।587।।
शरणागत को यश मिले, जगत करे सम्मान।
भव बाधा देतीं द्वार पे, झोली रहो पसार।।588।।
शत्रुन को करतीं तुम्हीं, मैया सत्यानाश।
सदा सदा तुमसे करें, भक्त हृदय में आस।।589।।
करें निरन्तर नित्य ही, याद कृष्ण भगवान।
परमेश्वरि जय, जयति जय, करता द्वन्द महान।।590।।
देत निरन्तर अम्बिके, भक्तन को आनंद।
चरणन में तेरे मिले, मैया परमानंद।। 591।।
उत्तम पत्नी दीजिये, सुख वैभव दो मोय।
शरण तिहारी मैं पड़ो कष्ट, कभी ना होय।।592।।
चामुन्डा देवी करें, उत्सुक सदा सहाय।
काल कालिका को समझ, लेंगी तुरत निभाय।।593।।
करे अर्गला पाठ फिर, सप्तशती को गाय।
धन वैभव सुख सम्पदा, जो चाहे जो सो पाय।594।। ।
अर्द्ध चन्द्रमा शीष पे, चक्षु तीन हैं बेद।
नमस्कार शिव को करूं, रहे न उर में खेद।। 595।।
अभि कीलक को जान तू, हो जावे कल्याण।
कर देवी को सिद्ध तू, शक्ति स्वयं प्रणाम।।596।।
सप्तशती सम्पूर्ण ही, है स्त्रोत महान।
सर्वश्रेष्ठ संसार में, करे परम कल्याण।।597।।
गुप्त रखा शिव ने इसे, पाठ करे फल पाय।
अक्षय पूण्य उसको मिले, अपना शीष झुकाय।। 598।।
चतुर्दशी या अष्टमी, कृष्ण पक्ष जब होय।
करे उपासना लगनसे, सुधि बुधि अपनी खोय।।599।।
फिर लेवे प्रसाद जो, देवी दें वरदान।
उत्सुक निश्चित जानले, दूर होय अज्ञान।।600।।