उत्सुक सतसई 4
(काव्य संकलन)
नरेन्द्र उत्सुक
सम्पादकीय
नरेन्द्र उत्सुक जी के दोहों में सभी भाव समाहित हैं लेकिन अर्चना के दोहे अधिक प्रभावी हैं। नरेन्द्र उत्सुक जी द्वारा रचित हजारों दोहे उपलब्ध है लेकिन पाठकों के समक्ष मात्र लगभग सात सौ दोहे ही प्रस्तुत कर रहे हैं। जो आपके चित्त को भी प्रभावित करेंगे इन्हीं आशाओं के साथ सादर।
दिनांक.14-9-21
रामगोपाल भावुक
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
सम्पादक
समर्पण
परम पूज्य
परम हंस मस्तराम श्री गौरीशंकर बाबा के श्री चरणों में सादर।
नरेन्द्र उत्सुक
थरथर कांपी यह धरा, धरा शायी लखशेष।
लाये द्रोणागिरि उठा, चकित रहो लंकेश।।301।।
मां मेरी अनुनय सुनो, मांगू यह वरदान।
घट घट जानन हार तुम, उत्सुक है अनजान।।302।।
नंद लाल कपटी बड़े, उर को छीनो चैन।
मन में ऐसे बस गये, भये बाबरे नैन।।303।।
दो अक्षर शबरी रटे, कृपा कीन रघुनाथ।
गीद्ध राज ने उर लगा, तज दये अपने प्राण।।304।।
कब से ठाड़ो, द्वार पे, मैया खोल किवाड़।
शरण पड़े को देत तुम, आन पड़े पे आड़।।305।।
गुरू चरणन उत्सुक पड़ो, विहन करत तुम दूर।
ज्ञान दयो कल्याण हित, कृपा करी भरपूर।।306।।
रमा बिराजो हृदय में, खाली उर को मंच।
उत्सुक ने सब हृदय से, त्याग दये प्रपंच।।307।।
एक दिना देखी बहुत, सीता के उर पीर।
भये ओरछा में बहुत, राजा राम अधीर।। 308।।
चिन्तन नित करते रहो, हृदय मथे नवनीत।
सतत प्रयास करते रहो, उमड़ उठेगी प्रीत।।309।।
सर्व नित्य जो, स्वयं सब, रहता है सब ओर।
परम पिता को कीजिये, नमस्कार नित भोर।।310।।
निहित अग्नि जल में रहे, औषधियों में देव।
नमस्केार उस बृह्म को, मुक्ति देत अद्वैत।।311।।
सूर्य चन्द्र नक्षत्र सब, रचने वाला मौन।
फंसे रहे संसार में जान न पाये कौन।।312।।
श्रेष्ठ पुरूष वह जानिये, जाके उर में शील।
वाणी से निकलें नहीं, बोल कभी अश्लील।।313।।
प्रीत न दावा करते है, लेत नहीं है द्वेत।
या में है गंभीरता, सब कुछ यह सहलेत।।314।।
उत्तम औषधि जगत में, हृदय रहे अनुराग।
लगन लगाओ राम से, छोड़ जगत के राग।।315।।
कितनी किसकी उमर है, जान न पाये कोय।
है मनुष्य मूरख बहुत, हिलकी भर भर रोय।।316।।
हाथ पांव जब तक चलें, कुटुम कबीला साथ।
जर्जर तन जब हो गया, लड़का आंख दिखात।317।। ।
सांस चले तक मीत हैं, पूछन मंगल आत।
बन्द सांस के होत ही, छोड़ चले हैं प्रात।।318।।
शब्दाबलियां चुग उठे, मानस रूपी हंस।
छन्द गायें गुण शारदा, राग अलापें कंठ।।319।।
खेत मगन झूमें फसल, आया फागुन रंग।
सुबह गुलाल सी लग रही, गली गली हुड़दंग।।320।।
मन पे छींटे रंग के, हो जिव्हा पर नाम।
बिसराये बिसरे नहीं, उर से सीताराम।।321।।
होली आय उमंग जब, मन हो जाय गुलाल।
सहज गुद गुदी सी उठे, होय सफेदी लाल।।322।।
रंग बिरंगा गगन है, सुर्ख हुआ है रूप।
धूप छांव में मगन है, भानु विभोर अनूप।।323।।
सुध्या आई कित गये, उर करके रंगीन।
मुंह फेरा तुम चल दिये, सजा दई संगीन।। 324।।
कसक रही है हृदय में, राधे के मन आस।
छोड़ गये मोहन कहां, लेती मुझे उसांस।।325।।
शबरी के उर आस थी, चख चख रक्खे बेर।
खाये राम ने मगन हो, करी न तनिक अबेर।।326।।
द्रोपदि को निश्चय हुआ, कुटुम न आवे काम।
तुरत बढ़ाया चीर को, मुख से निकला नाम।।327।।
ग्राह खींच कर ले गया, गज को जब मझधार।
नटवर नागर आये थे, सुनकर तुरत पुकार।।328।।
मन होता है जब मगन, तब आता आनंद।
मदन मुरारी को लखे, आवे परमानंद।। 329।।
मुरदों की भस्मी चढ़ी, हार गले का नाग।
भूत प्रेत हैं साथ में, भोले खेलें फाग।।330।।
नंदी पे शिव बैठ के, चले खेलने रंग।
सुबह अबीर सी लग रही, मचा खूब हुड़दंग।331।।
नृत्य मगन शंकर भये, फागुन मले गुलाल।
केसर महके पवन में, पार्वती मुख लाल।।332।।
शिव ने फागुन में क्रिया, कैसा रूप अनुप।
पारवती का रख लिया, आधा अपना रूप।।333।।
फागुन डूबो रंग में, मगन भये खलिहान।
गले मिल रहे परस्पर, मलें गुलाल किसान।।334।।
मन दर्पण लगने लगे, तन हो जाये निहाल।
उत्सुक यह संसार है, सचमुच एक बवाल।।335।।
कृष्ण बजावें बांसुरी, नाचें राधे संग।
डाली गल बहियां जभी एक भये दो अंग।।336।।
मां कौशल्या राम बिन, हुईं बहुत गमगीन।
गये राम बनवास को, शांति हृदय की छीन।।337।।
धन्य उर्मिला हो गई, अडिग रहा विश्वास।
हृदय लखन के पास था, काया में थी सांस।।338।।
कैकेई ने जगत हित, माथे लिया कलंक।
राम आसरे उदधि को, लांघ गये हनुमंत।339।।
लात मार लंकेश ने, घर से दिया निकाल।
गया विभीषण शरण में, कैसा हुआ निहाल।।340।।
समय सदा रहता नहीं, कभी किसी का एक।
शक्ति क्षीण तब तब भई, जब जब हुये अनेक।। 341।।
कोख मद में चूर थे, उर पांडव के शील।
धर्म युद्ध होके रहा, कौख हुये जलील।।342।।
अर्जुन के उर में दिखा, कान्हां को अज्ञान।
गीता का उपदेश दे, उपजाया तब ज्ञान।।343।।
शरणागत त्यागे नहीं, है साक्षी इतिहास।
होत असंभव काम भी, जिनके उर विश्वास।।344।।
भानु गये पश्चिम दिशा, लगन लगे अंगार।
रंग सुनहरे गये बिखर, प्रकृति करे श्रृंगार।।345।।
पूरणमासी चन्द्रमा, गाय चांदनी गीत।
प्राणी चहकें धरा पे, उमड़ उठे उर प्रीत।। 346।।
कपट द्वेष और शत्रुता, हृदय न कबहुं लखाय।
हर उर से कर संकलित, होली दई जलाय।।347।।
सबके उर निर्मल भये, मिलें परस्पर लोग।
मौसम हुआ अबीर सा, सिन्दूरी संयोग।।348।।
गालन मलो गुलाल है, मोहन बड़ो शरीर।
राधा शरमाये ठड़ी, खेंच रहो है चीर।।349।।
मसलें कृष्ण अबीर मुख, राधे ओठ दवाय।
वृज में होली होर ही, गलियां गईं मुस्काय।।350।।
सखियन के संग राधिका, गाय रही हैं राग।
टेसू मोहन को बना, खेल रहीं है फाग।। 351।।
कजरा डारो आंख में, कर मोहन श्रृंगार।
चन्द्रावलि के संग में, पलका भये सवार।।352।।
कृष्ण बजाई बांसुरी, जमुना तट पे रास।
भईं बाबरी गोपियां, राधा के उर आस।।353।।
सीते उर धड़कन बसें, राम नाम मम सांस।
होय कीर्तन मन मगन, नाम आ गया रास।।354।।
नाम सहारे बे रहे, रखा हृदय में धीर।
जली होलिका अग्नि में, भय प्रहलाद अबीर।।355।।
पारवती फागुन लगें, भोला लगें अनंग।
मौसम दोऊ को लखे, बरसे केसर रंग।।356।।
हुरियारे ठाड़े नचें, लांगुर भये गुलाल।
द्वार शीतला के पहुंच, झुका रहे सब भाल।।357।।
ज्ञान गुलाल गुरूवर दिया, चरण झुकाऊं शीष।
उत्सुक का सम्बल बने, जनम जनम आशीष।।358।।
गुरू शान्तानंद को, नित्य झुकाउं शीष।
दिया विवेक वरदान में, माथे पर आशीष।359।।
केसर कुंकुम फाग में, लाया तेरे द्वार।
सन्तोषी चरणन पड़ो, रही उमंग निहार।।360।।
मुट्ठी बांधे आये थे, चल दय हाथ पसार।
कथनी करनी जीव की, याद करे संसार।।361।।
राम कृष्ण दो नाम ही हैं, जीवन का सार।
यदि चाहे कल्याण नर, इनको नाम पुकार।।362।।
संत होत कल्याण हित, जग को पंथ बतात।
दर्पण वे संसार के, सांचो रूप दिखात।।363।।
करनी पर चिन्तर करो, निश्चित होय सुधार।
पहिले अपने हृदय में, मानव तनिक निहार।।364।।
करूं एक सो आठ में, परिकृमा गिरराज।
अवसर दो करके दया, राखन हारे लाज।।365।।
वृन्दावन दर्शन मिलें, शीष लगाऊं धूल।
नटवर नागर को लखूं, चरण चढ़ाऊं फूल।।366।।
जैसो पीसो पीसनो, तैसो सन्मुख आय।
बोये बबूल, संसार में, आम कहां से खाय।।367।।
जैसी करनी करी थीं, लाय पुटरिया बांध।
लीप रहे जैसा यहां, ले जाओगे साथ।। 368।।
दुनियां एक सराय है, जहां मुसाफिर जीव।
चाहत दुख आवे नहीं, सुख की हिले न नींव।।369।।
पीड़ा अपनी सी नहीं, यहां समझता कोय।
इसीलिये संसार में, कटे जिन्दगी रोय।।370।।
आये रोते जगत में, हंसते जाना होय।
कर मुकाबला शूल का, फूल मिलेंगे तोय।।371।।
दुख में दुखी न हो कभी, संयम से ले काम।
सुख में कभी न भूलना, मूरख प्रभु का नाम।।372।।
मुखड़े पर हैं छलकतीं, आंसू बनकर पीर।
साहस विपदा में कभी, करे न हमें अधीर।।373।।
अपने हम ढूंढे नहीं, लखें पराये दोष।
इस कारण मिलता नहीं, हमें तनिक सन्तोष।।374।।
व्यर्थ परिश्रम जाय कब, लगन हृदय में होय।
पावत है नवनीत जब, दधि को लेत बिलोय।।375।।
आज्ञां का पालन करो, नित्य झुकाओ शीष।
सेवा से मेवा मिले, दें गुरूवर आशीष।।376।।
जिसने दिया शरीर है, देता वही विवेक।
अगणित प्राणी जगत में, पालन हारा एक।।377।।
नेकी कर जगत में, जब तक तन में सांस।
परम पिता सब की करे, जग में पूरी आस।।378।।
दाता केवल एक है, जगत पसारे हाथ।
भर भर मुट्ठी दे रहा, झुका उसी को माथ।।379।।
मन मंदिर के बाद हैं हर काहु के द्वार।
भटक रहा है इसलिये, उत्सुक यह संसार।।380।।
बहुत कीमती है समय, रहे किसलिये खोय।
चिन्तन कर रघुवीर का, वे सुख देंगे तोय।। 381।।
जिसकी जो आशा करे, वही बंधावे धीर।
टूटत ही आशा तुरत, वहें नेत्र से नीर।।382।।
कई मंजिले हैं, भवन, माया भरी अटूट।
काम न कुछ भी आयगा, प्राण जायेंगे छूट।।383।।
बोराया है किस कदर, चूस रहा है खून।
आस्तीन का सांप बन, रख देता है भून।।384।।
मूरखता तेरी सभी, देख रहा है राम।
करनी के अनुसार ही, मिलता है परिणाम।।385।।
मत गुमान तन पे करे, उमर ढले पछतात।
प्रात: को सूरज चढ़े, सांझ होय ढल जात।।386।।
राम नचाता सभी को, कठ पुतली का नाच।
देत झूठ दुख जगत को, सुख बांटत है सांच।।387।।
अपना हृदय टटोल तूं, झांक न घर घर जाय।
छांट स्वयं के दोष तूं, दिन दूनो सुख पाय।।388।।
भाव सहेजो हृदय में, चुभें न उर में शूल।
परहित होते जगत में, सदा समर्पित फूल।।389।।
आंखों का पानी गया, रहा न कुछ भी पास।
इस कारण है लग रही, हम को बोझिल सांस।।390।।
लगता है हम ढो रहे, कोई भारी बोझ।
तन्मय हों उत्सुक तभी, कुछ पायेंगे खोज।।391।।
चुभन होय, उर में सक्षम, मन तेरा प्रतिकूल।
मनमानी तू मत करे, हों कारज अनुकूल।।392।।
सावधान कांटे करें, फूल देत उत्साह।
नेकी कर उत्सुक सदा, मत कर तू परवाह।।393।।
दीपक नीचे तम रहे, जग को देत प्रकाश।
मानव कर कर्तव्य तू, मत कर फल की आस।। 394।।
सुबह शाम भगवान का, कर चिन्तन इन्सान।
सद विचार उत्पन्न हों, मिट जायें अज्ञान।।395।।
भूल जवानी में गये, समय त्रिया बरबाद।
कैसे अब पछता रहे, कर करतूतें याद।।396।।
आंखिन पे परदा चढ़ो, रखी न कुल की आन।
दिखा रहे हो जगत को, उत्सुक झूठी शान।।397।।
क्रोध हानि पहुंचात है, करे बुद्धि का नाश।
सदा शांति उर में रहे, ऐसा करो प्रयास।।398।।
राम नाम जिव्हा रटे, उर में रहे न द्वेष।
संकट मोचन हृदय को, करो प्रदान विवेक।। 399।।
कपट दूर हो हृदय से उर में उपजे प्रीत।
भेदभाव मन से तजें, करें न कभी अनीत।।400।।