दस बाय दस की खोली में रह रही अधेड़ उम्र की विमला, बहुत ही सुलझी हुई समझदार महिला थी। उसकी तीन बेटियाँ थीं, मेहनत और लगन से घरों में काम करने वाली विमला सभी को बेहद पसंद थी। वह बहुत ही ईमानदारी से काम करती थी। थोड़ा-थोड़ा पैसा जोड़कर, विमला ने अपनी तीनों बेटियों को थोड़ा पढ़ा लिखा दिया था। तीनों की शादी करके अब वह अपनी जवाबदारियों से मुक्त हो गई थी। किंतु विमला के पति नारायण, उम्र में उससे काफ़ी बड़े थे और अक्सर वह बीमार ही रहते थे। अब विमला की कमाई का अधिकांश हिस्सा नारायण की दवा में ही ख़र्च होता था।
विमला के पड़ोस में शांता बाई नाम की महिला रहती थी, दोनों की आपस में अच्छी दोस्ती थी। एक दूसरे के सुख-दुख में दोनों एक दूसरे का साथ देती थीं। लेकिन शांता बाई की ज़िंदगी में विमला की तरह सुकून नहीं था। उसका पति शंकर हमेशा ही शराब के नशे में धुत्त रहता था। शराब पीने के पैसे भी वह शांता बाई से ही वसूल करता था और पैसे ना मिलने पर मार पिटाई भी करता रहता था। उन दोनों के आपस के झगड़े, हमेशा विमला आकर रुकवाती थी। शांता बाई भी दिन में 5-6 घंटे लोगों के घर पर काम करती थी, तब जाकर छः हज़ार रुपये उसके हाथ में आते थे। उसका एक छोटा बेटा भी था, तकरीबन 6 साल की उसकी उम्र थी। शांता बाई, विमला से उम्र में काफ़ी छोटी थी और हमेशा विमला की कही बातों को याद रखती थी और मानती भी थी।
विमला ने सुबह जल्दी उठकर रसोई बनाई ज्वार की रोटी और बैंगन की सब्जी बनाकर उसने अपना डब्बा भर लिया और नारायण से कहा, "अजी सुनते हो, तुम्हारा खाना बनाकर रख दिया है। दवाई भी सिरहाने रखी है, याद से खा लेना मैं काम पर जा रही हूँ।"
तभी नारायण ने कहा, "अरे विमला, आज कुछ खाने का मन नहीं। तुम लौटते वक़्त मेरे लिए पाँच रुपये के केले लेती आना।"
अपने बीमार पति की इच्छा का स्वागत करते हुए विमला ने नारायण को हाँ में जवाब दिया और वह चली गई।
शांता बाई भी काम के लिए निकल ही रही थी, उसने विमला को आवाज़ देकर बोला "विमला माई रुको मैं भी आ रही हूँ।"
विमला ने पीछे पलट कर देखा और रुक गई।
शांता बाई को उदास देख विमला पूछ बैठी, "क्या हुआ शांता बहुत उदास लग रही हो?"
शांता ने जवाब में उसे बताया, "कल पगार मिली थी, रात को शंकर ने मुझे मार-मार कर पूरी पगार मुझसे छीन ली, फिर दारू की उधारी चुका कर अपने लिए और दारू लेकर तथा पीकर आ गया। विमला माई, अब मेरे पास कुछ भी नहीं, राशन भी घर पर नहीं है। पूरा महीना घर का ख़र्च कैसे चलेगा? रामा की स्कूल की फीस के रुपये भी भरने हैं," इतना कहते हुए शांता रो पड़ी।
विमला ने उसका हाथ पकड़ कर उसे बहुत समझाया, "शांता मत रो सब ठीक हो जाएगा। आज मैं अपनी पगार लाऊँगी तो तुम्हें उसमें से घर ख़र्च के लिए थोड़ा दे दूँगी, तुम धीरे-धीरे लौटा देना।"
बातें करते हुए दोनों अपने-अपने काम पर चली गईं। विमला ने अपनी एक मैडम से कुछ रुपए एडवांस के तौर पर मांग लिए। उसके काम से मिसेस कपूर बेहद खुश थीं, इसलिए उन्होंने आसानी से विमला को पाँच हज़ार रुपये उधार दे दिए।
शाम को थकी हारी विमला अपने घर लौटी तो अँधेरा पसर गया था। खोली में आते ही उसने अपने पति से पूछा "दवाई खाई? खाना खाया या नहीं? देखो मैं केले लेकर आई हूँ, उठो खा लो।"
नारायण सुबह से भूखा था, उसने बड़े ही शौक से केले खा लिए। फिर वह विमला को बोला "विमला मुझे बहुत बुरा लगता है, तुम्हें अकेले ही मेहनत करनी पड़ती है। काश, मैं भी तुम्हारा हाथ बंटा पाता"
विमला ने अपनी उंगली नारायण के मुँह पर रख कर, उसे चुप कर दिया बोली, "कोई बात नहीं तुम जान बूझकर बीमार थोड़ी हुए हो।"
उधर शांता बाई भी अपने घर आ गई थी आते ही शंकर ने अपनी गलती छुपाने के लिए उस पर चिल्लाना शुरू कर दिया, "कहाँ थी अब तक? इतनी देर तक क्या करती रहती है?"
शांता ने गुस्से में उसकी तरफ़ देखा तो शंकर को फिर मौका मिल गया, उसे वह फिर मारने लगा। शंकर पूरे पैसे ख़त्म करने के बाद जान बूझकर ऐसा कर रहा था। अभी भी वह बहुत ही ज़्यादा नशे की हालत में था। शांता को मारते-मारते शायद वह स्वयं ही थक गया और बिस्तर पर लुड़क कर बड़बड़ाने लगा।
तभी अचानक बाहर से बहुत ज़ोर की ब्रेक लगाने की आवाज़ आई साथ ही उसके बेटे की रोने की आवाज़ भी आई। शांता बाहर की तरफ़ भागी, अँधेरा था तभी उसने अपने बेटे को सड़क पर कराहता हुआ देखा। उसे किसी कार ने ज़ोर की टक्कर मारी थी। शांता बाई कुछ समझ पाती, उसके पहले वह कार वाला तेजी से कार दौड़ा कर वहाँ से भाग गया।
शांता के बेटे रामा के शरीर से खून बह रहा था। शांता ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी और अपने पति को आवाज़ देकर बुलाने लगी लेकिन शंकर तो नशे की दुनिया में मस्त पड़ा था।
उधर विमला अपना बाक़ी काम निपटा रही थी, तभी उसके कानों में ज़ोर से शांता के रोने की आवाज़ आई। विमला को लगा शंकर फिर शांता को मार रहा है। विमला जल्दी से बाहर निकली तो देखकर हैरान रह गई। शांता का बच्चा दुर्घटना ग्रस्त हो गया था और इसलिए शांता मदद के लिए चिल्ला रही थी।
विमला ने तुरंत ही शांता के पास जाकर पूछा "शांता क्या हुआ इसे?"
शांता रोते हुए बोली "माई देखो ना, किसी ने इसे अपनी गाड़ी से टक्कर मार दी है। शंकर नशे में धुत्त पड़ा है, मैं अब क्या करूँ? मेरे बेटे को बचा लो माई।"
विमला बोली "शांता फ़िक्र मत करो, हम जल्दी से इसे अस्पताल ले जाते हैं।"
विमला ने वहीं से नारायण को आवाज़ देकर कहा, "नारायण रामा दुर्घटना ग्रस्त हो गया है हम उसे अस्पताल ले जा रहे हैं।"
दोनों उसे लेकर अस्पताल की तरफ़ भागीं। इतने में एक रिक्शे वाला, उन्हें देख कर रुक गया और उन्हें रिक्शे में बिठा कर नज़दीकी अस्पताल में ले आया। वहाँ डॉक्टर ने दुर्घटना ग्रस्त बच्चे को देख कर मुँह फेर लिया, मिन्नतें करने पर डॉक्टर ने पहले पैसे जमा करने की मांग रख दी।
शांता बहुत गिड़गिड़ा रही थी, "डॉक्टर साहब, देखो ना मेरे बच्चे का कितना खून बह रहा है उसे बचा लो, कृपा करके उसे बचा लो"
किंतु डॉक्टर के कानों में मानो जूँ तक नहीं रेंगी, क्योंकि उसकी नज़र में इंसानियत से ज़्यादा पैसा बड़ा था। सरकारी अस्पताल बहुत दूर था और कोई रास्ता भी नहीं था, शांता बाई के पास गिड़गिड़ाने के सिवाय।
विमला ने थोड़ा-थोड़ा करके कुछ पैसा बचा रखा था और आज तो पाँच हज़ार का एडवांस भी लेकर आई थी। विमला ने शांता को धीरज बँधाते हुए कहा, "शांता मेरे पास पैसे हैं लेकिन घर पर। जल्दी-जल्दी में हमें ध्यान ही नहीं रहा कि डॉक्टर पैसे के बिना तो रामा को हाथ भी नहीं लगायेंगे।"
विमला ने डॉक्टर से कहा, "डॉक्टर साहब आप इलाज़ शुरू कीजिए मैं पैसे लेकर आती हूं"
इतना कहकर विमला ने शांता के कंधे पर हाथ रख उसे दिलासा बंधाई और घर की तरफ़ का रुख किया।
शांता बाई की खस्ता हालत देखकर डॉक्टर को विश्वास ही नहीं हुआ कि वह इलाज़ के पूरे पैसे दे पाएगी। पैसे लाने तक डॉक्टर इंतज़ार करता रहा, शांता गिड़गिड़ाती रही, फूट-फूट कर रोती रही। रामा का खून बहता रहा लेकिन डॉक्टर को दया नहीं आई उसने तो जैसे क़सम खा रखी थी कि पैसे मिलने के बाद ही रामा को हाथ लगायेंगे।
विमला के पास जितना भी पैसा था, स्वयं की चिंता छोड़ कर वह साथ ले आई। वह दौड़ रही थी, उसकी सांसे तेज गति से चल रही थीं। उसे विश्वास था कि उसके पहुँचने तक तो रामा का इलाज़ शुरु हो ही गया होगा, किंतु उसे नहीं मालूम था कि गरीब के बच्चे की जान की क़ीमत कुछ नहीं होती।
विमला जैसे ही अस्पताल के द्वार पर पहुँची शांता बाई अपनी बाँहों में बच्चे की लाश लेकर गुमसुम सी, सूखी पथराई आंखों के साथ अस्पताल से बाहर निकल रही थी।
विमला उसे देख कर स्तब्ध रह गई थी। अपनी बाँहों का सहारा देकर उसे थामा और उस नन्हे बच्चे की लाश देखकर अपनी ग़रीबी और डॉक्टर की नीयत को धिक्कारा। दोनों वहाँ से खाली हाथ अपने घर वापस आ गईं। पूरे रास्ते दोनों ही अपने भविष्य के अँधेरे को टटोल रही थीं और इस मतलबी स्वार्थी और लालची दुनिया में उनकी क्या औकात है सोच रही थीं। एक पढ़े-लिखे डॉक्टर की औकात क्या है, यह भी जान गई थीं।
-रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक