(38)
गुरुनूर की आँखों में पट्टी बांधकर उसे एक कमरे में ले जाया गया था। यहाँ लाकर उसे एक कुर्सी पर बैठा दिया गया था। उसके बाद उसकी आँखों से पट्टी हटा दी गई। उसकी आँखों के सामने के दृश्य को स्पष्ट होने में कुछ समय लगा। उसने देखा कि वह कमरे की बीच में एक कुर्सी पर बैठी है। उसके सामने एक खाली कुर्सी पड़ी हुई थी। उसे यहाँ लेकर आने वाले दोनों लोग कमरे से जा चुके थे। उसने इधर उधर निगाह दौड़ाई। कमरे में कोई खिड़की नहीं थी। दीवारों पर गहरा रंग था। जिसके कारण कमरे में बहुत कम रौशनी समझ आ रही थी। उसने ज़ोर से कहा,
"क्या खेल खेल रहे हो तुम लोग। मुझे यहाँ लेकर क्यों आए हो ?"
कमरे में उसकी बात का जवाब देने वाला कोई नहीं था। वह उठकर कमरे के दरवाज़े तक गई। उसे ज़ोर ज़ोर से खटखटाने लगी। अचानक उसे अपने पीछे से किसी चीज़ के खिसकने की आवाज़ आई। उसने पलट कर देखा। उसके पीछे जो दीवार थी उसका एक हिस्सा खुला हुआ था। एक आदमी उसमें से बाहर आया। वह हिस्सा फिर से बंद हो गया। उस मद्धम रौशनी में उसे अपने सामने काला चोंगा पहने एक आदमी खड़ा दिखाई पड़ा। उसने शैतान की आकृति वाला एक मुखौटा पहन रखा था। उस मुखौटे में बने छेद से उसकी दोनों आँखें बाहर झांक रही थीं। गुरुनूर उन आँखों को ध्यान से देख रही थी। वह जांबूर था। उसने कहा,,
"एसपी गुरुनूर कौर....दिलेर ऑफिसर....आज हमारे कब्ज़े में है। सर पर घाव है। दर्द कर रहा होगा।"
यह कहकर जांबूर हंस दिया। उसके बोलने पर गुरुनूर का ध्यान उसकी आवाज़ पर गया। वह आवाज़ अजीब सी थी। अलग लगती हुई भी पहचानी सी थी। गुरुनूर उस आदमी के बारे में जानने के लिए परेशान थी। उसने कहा,
"कौन हो तुम ? ये क्या खेल खेल रहे हो ?"
वह आदमी कुर्सी पर बैठकर बोला,
"यहाँ आकर बैठो। आमने सामने बैठकर बात करेंगे।"
गुरुनूर अपनी कुर्सी पर बैठ गई। कुछ देर तक उसकी आँखों की तरफ देखने के बाद बोली,
"क्यों अपनी सनक के लिए बच्चों की ज़िंदगी से खेलते हो। उनकी बलि चढ़ाकर कुछ हाथ नहीं लगेगा। कानून तुम्हें छोड़ेगा नहीं।"
यह सुनकर जांबूर एकबार फिर ज़ोर से हंसा। उसके बाद बोला,
"फिलहाल तो कानून मेरी गिरफ्त में है। सर पर पट्टी बंधी है। मेरे सामने बैठा यह सोचकर छटपटा रहा है कि मैं कौन हूँ। चलो तुम्हें अपने बारे में बता देता हूँ। मेरा नाम जांबूर है। शैतानी शक्तियों के स्वामी ज़ेबूल का साधक हूँ। उन्हें प्रसन्न करके उनसे शक्तियां प्राप्त करूँगा।"
गुरुनूर ने गुस्से में कहा,
"ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम जेल की सलाखों के पीछे होगे। अपने किए की सज़ा भुगतोगे।"
जांबूर ने कहा,
"हमारी कैद में होकर भी ऐसा सपना देख रही हो।"
"सपना तो तुम देख रहे हो। मैं तुम्हारी कैद में हूँ। पूरी पुलिस फोर्स नहीं है। मुझे अपने कब्ज़े में लेकर तुमने अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी है।"
गुरुनूर ने गुस्से से उसकी तरफ देखकर कहा। जांबूर बोला,
"जानती हो लोग तुम पर और तुम्हारी फोर्स पर हंस रहे हैं। लोग पुलिस से नाराज़ हैं। तुम्हारे साथियों को मुंह छिपाना पड़ रहा है। उनके पास लोगों से कहने के लिए कुछ नहीं है। ऐसे में कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।"
यह सब सुनकर गुरुनूर कुछ परेशान हो गई। जांबूर ने कहा,
"पहले सोचा था कि तुम्हें मारकर तुम्हारी लाश तोहफे के तौर पर पुलिस स्टेशन भिजवा दूंँगा। पर तुमने इतनी बड़ी बड़ी बातें की हैं कि सोचता हूँ कि आने वाली अमावस तक रुक जाऊँ। एक और बलि चढ़ा दूँ। उसके बाद तुम्हारी लाश तुम्हारे पुलिस स्टेशन पहुँचा दूँगा। तुम्हारे साथियों को भी कुछ सीख मिलेगी।"
यह कहकर वह उठा और दीवार के उस हिस्से के पास जाकर खड़ा हो गया जहाँ से अंदर आने का रास्ता खुला था। उसने उस जगह पर अपनी हथेली रखी। कुछ क्षणों में दरवाज़ा खुल गया। जांबूर ने जाने से पहले एकबार फिर गुरुनूर की तरफ देखा। उसके बाद वहाँ से चला गया। उसके जाते ही दरवाज़ा बंद हो गया।
गुरुनूर का दिमाग बहुत परेशान था। वह जांबूर की असलियत जानने के लिए व्याकुल थी। उसकी आँखों और आवाज़ ने ऐसा आभास दिया था जैसे कि वह जाना पहचाना हो। उसका दिमाग एकबार फिर दीपांकर दास की तरफ गया था। लेकिन आवाज़ किसी और की तरफ इशारा कर रही थी जिसे वह पहचान नहीं पा रही थी। वह आवाज़ सुनी हुई सी लगते हुए भी अलग थी। दूसरी बात जो उसे परेशान कर रही थी वह था जांबूर द्वारा उसके साथियों के विषय में बताई गई बात। वह नहीं चाहती थी कि लोगों का विश्वास पुलिस से हट जाए।
कुछ ही देर में उस कमरे का दरवाज़ा खुला। जो लोग उसे लेकर इस कमरे में आए थे वो कमरे के अंदर आए। दोनों के चेहरे ढके हुए थे। उनमें से एक ने दोबारा उसकी आँखों पर पट्टी बांधी। दोनों उसे वहाँ से लेकर चले गए। गुरुनूर को वापस उसी जगह लाकर छोड़ दिया गया जहाँ उसे कैद करके रखा गया था। उन दोनों के जाने के बाद गुरुनूर बेड पर जाकर बैठ गई। उसे इस जगह से दूसरी जगह ले जाते समय उसकी आँखों पर पट्टी बांधी गई थी। पर उसके अंदर की पुलिस ऑफिसर ने बहुत कुछ महसूस किया था। यहाँ से जाते समय उसे सीढियां चढ़नी पड़ी थीं। वापस आने पर उन्हीं सीढ़ियों से नीचे आई। उसने अंदाज़ा लगाया कि यह कमरा बेसमेंट में है। उसे एक गाड़ी में बैठाकर ले जाया गया था। उसके अनुमान से पंद्रह से बीस मिनट के बीच लगे होंगे। यानी जिस जगह जांबूर से उसकी मुलाकात हुई थी वह जगह यहाँ से दूर थी।
जाते हुए और लौटते हुए दोनों वक्त गुरुनूर ने अजीब सी दुर्गंध महसूस की थी। जैसे वहाँ कोई नाला हो। उसने यह भी अनुमान लगाया था कि वह नाला दोनों जगहों के बीच कहीं स्थिति था। जांबूर से वह जिस कमरे में मिली थी उसमें जाने के लिए भी सीढियां चढ़नी पड़ी थीं। सीढ़ियां दो हिस्सों में थीं। एक हिस्से से ऊपर पहुँचने के बाद एक कॉरीडोर था। उसमें कुछ आगे बढ़ने पर फिर ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां थीं। गुरुनूर के अनुमान के अनुसार कमरा दूसरी मंज़िल पर था।
वह उठकर कमरे में इधर उधर टहलने लगी। उसका ध्यान जांबूर की धमकी की तरफ गया। उसने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा था कि आने वाली अमावस को बलि देने के बाद वह उसका कत्ल कर लाश पुलिस स्टेशन पहुँचा देगा। उसने इस तरह से यह बात कही थी जैसे कि उसके पूरा होने में उसे कोई संदेह नहीं था। गुरुनूर को उसका यह विश्वास खल गया था। जांबूर का विश्वास उसकी और पुलिस की नाकामी को दर्शा रहा था। उसे गुस्सा आने लगा। वह सोच रही थी कि केस जिस मोड़ पर था उस समय उसका जांबूर के कब्ज़े में आ जाना बहुत बुरा हुआ। इस बात ने उसके साथियों का मनोबल तोड़ दिया होगा।
वह वापस बेड पर जाकर बैठ गई। वह संजीव के घर में जो कुछ हुआ याद करने लगी।
गगन और संजीव का इंतज़ार करते हुए गुरुनूर सोच रही थी कि वह अब केस को सॉल्व करने के नज़दीक पहुँच रही है। राजेंद्र पुलिस के कब्ज़े में है ही। उससे बहुत कुछ पता चलेगा। गगन और संजीव को गिरफ्तार करके भी बहुत सी बातें पता की जा सकेंगी। यह सब सोचकर वह निश्चिंत थी। उसके साथियों को गए हुए अभी कुछ ही समय हुआ था। उसे उस मकान के बाहर कुछ आहट सुनाई पड़ी। उसने अपनी गन संभाली और इंतज़ार करने लगी कि गगन और संजीव अंदर आएं। कुछ क्षण बीतने के बाद भी कोई अंदर नहीं आया। उसे लगा कि शायद उसे गलतफहमी हुई होगी। वह बैठ गई।
कुछ ही क्षणों के बाद उसे फिर आहट सुनाई पड़ी। इस बार अपनी गन लेकर वह सावधानी से दरवाज़े के बाहर आई। उसने इधर उधर देखा। कोई दिखाई नहीं पड़ा। वह वापस अंदर जाने लगी। एकबार फिर उसे कदमों की आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने पलट कर देखा। कुछ नहीं दिखा। पर इस बार उसे पूरा यकीन था कि उसने किसी के होने की आहट सुनी है। वह सीढ़ियों से नीचे उतर कर इधर उधर देखने लगी। पास में एक पेड़ था। उसे वहाँ कोई साया सा दिखाई पड़ा। उसने अपनी गन संभाली और पेड़ की तरफ बढ़ गई। पेड़ के पीछे उसे एक आदमी दिखाई पड़ा। उसने पूछा,
"कौन हो तुम ?"
उस आदमी ने कांपते हुए कहा,
"गगन...."
"तुम्हारा साथी संजीव कहाँ है ?"
गगन ने उसके पीछे इशारा किया। गुरुनूर ने पीछे मुड़कर देखा। संजीव उसके सामने खड़ा था। तभी पीछे से किसी ने गुरुनूर के सर पर चोट की। गुरुनूर ने पीछे देखा। गगन के पास एक दूसरा आदमी खड़ा था। उसके हाथ में एक पेड़ की मोटी डाल थी। उसने गुरुनूर पर एक और वार किया। वह गिरकर बेहोश हो गई।
गुरुनूर का हाथ सर पर बंधी हुई पट्टी पर गया। घाव की जगह उसके दिल में दर्द उठा। वह सोच रही थी कि उसके पकड़े जाने से उनका मिशन कमज़ोर पड़ गया। जांबूर को वह ताकत मिली कि वह बेखौफ होकर अपने अपराध को अंजाम देने की बात कर रहा था।
उसके कमरे का दरवाज़ा खुला। एक आदमी खाने की ट्रे लेकर आया। जाते हुए उसने कहा,
"खाना खा लेने के बाद ट्रे में रखी दवा खा लेना। घाव भरने में आसानी होगी।"
यह कहकर वह चला गया। गुरुनूर कुछ देर तक चुपचाप बैठी रही। उसका मन खाना खाने का नहीं था। उसकी आँखों में आंसू थे। वह बेबस थी। जिस अपराधी को पकड़ने के लिए उसे भेजा गया था आज वह उसके सामने खुलेआम धमकी दे रहा था। पर वह कुछ कर नहीं पाई। कुछ देर तक वह अपनी आँखों में आए आंसुओं को रोकने की कोशिश करती रही। पर नाकाम रही। वह ज़ोर ज़ोर से रोने लगी।
रोते हुए अचानक उसके मन में अपने डैडी का चेहरा उभरा। उसे उनकी बात याद आई।
'जब मुश्किल समय हो तो हिम्मत हारना कमज़ोर लोगों का काम है। तुम कभी हिम्मत मत हारना। यकीन रखना कि तुम एक दिन ज़रूर जीतोगी।'
यह शब्द याद करते ही उसकी मनोदशा बदल गई। उसने अपने आंसू पोंछे। अपनी लड़ाई के लिए उसे मानसिक दृढ़ता के साथ शारीरिक शक्ति भी चाहिए थी। वह उठी और खाना खाने लगी।