हाईस्कूल पास होने तक मैं कभी बीमार नहीं पड़ी थी।वैसे थी तो बहुत ही दुबली पतली पर ऊर्जा,उत्साह और शक्ति से भरी हुई।गर्मियों की छुट्टियां थीं ।मेरी दो घनिष्ठ सहेलियां थीं।दोनों सहेलियाँ गांव से पढ़ने के लिए कस्बे में आती थीं।दोनों के पिता हमारे ही इंटर कॉलेज के प्रवक्ता थे।मेरा घर कस्बे में और कॉलेज के पास था।मेरी दोनों सहेलियाँ अक्सर मेरे घर आया करतीं पर मैं मीलों दूर उनके घर नहीं जा पाती थी।इस बार छुट्टियों में एक सहेली मीना के गांव जाने का प्रोग्राम बन गया।अवसर भी था क्योंकि उसके बड़े भैया का गौना था।उसके घरवालों ने हम दोनों को विशेष रूपसे आमंत्रित किया था।हम दोनों सहेलियाँ पैदल ही मीना के गांव की तरफ़ चल पड़ी।कस्बे से उसके गांव की दूरी सात से आठ किलोमीटर से कम नहीं थी।जब थक जातीं तो गांव की तरफ़ जा रही किसी बैलगाड़ी से लिफ्ट मांग लेती।गांव जब नज़दीक आने लगा तो हम खुशी से उछल पड़ी।अब तो पैदल ही चला जा सकता था।रास्ता उबड़ -खाबड़ और टेढ़ा- मेढ़ा था।दोनों तरफ फसलों से भरे खेत ,कच्ची पगडंडियां ,बाग -बगीचे हरियाली ही हरियाली।वह मटर का सीजन था।मटर की फलियां गदरा गई थीं और मेड़ों पर चढ़ आई थीं। हम दोनों सहेलियों ने ढेर सारी हरी मटर तोड़ ली थी और मीना के घर पहुंच गई।शाम हो गई थी।उसी ताजा हरी मटर की घुधनी चाय के साथ हमें खाने को मिली तो मजा आ गया। गौना दूसरे दिन था। हमें तीन दिन गांव में रहने की इजाज़त मिली थी।उस रात हम तीनों सहेलियाँ एक पास लेटी और रात -भर बातें करती रहीं।इधर -उधर की बातें भूत -प्रेत के किस्सों तक आ गईं।सबके पास भुतहा कहानियाँ थीं।कहानियां सुनकर हम बहुत डरे,पर मजा भी बहुत आया।
दूसरे दिन गौने की रौनक थी।हम लोगों ने खूब आनन्द उठाया।पास के गांव की लड़की थी इसलिए उसी दिन शाम तक दुल्हन आ गई। भाभी नौ हाथ के धूँघट काढ़े थीं ।हम उनका चेहरा देखने के लिए उनके चारों तरफ घूमती रहीं,पर भाभी चेहरा ही नहीं दिखाती थीं ।आखिरकार मीना की माँ ने दुल्हन का चेहरा दिखाया।
तीसरे दिन मीना ने हम दोनों को अपना पूरा गांव दिखाया।बाग -बागीचा,नदी सब।नदी के पास एक छोटी -सी डोंगी थी ।हम उसमें जा बैठे।केवट चाचा ने हमें मुफ़्त की सैर करा दी।हम नदी में हाथ डालकर एक दूसरे के ऊपर पानी उछालते रहे और उससे भी ज्यादा उछलते रहे।बगीचे में आम ,जामुन, फालसे ,बड़हड़ सबके पेड़ थे।बड़हड़ का पेड़ मैंने पहली बार देखा था पर वह टेढ़ा -मेढ़ा सा था।सीधा होता तो मैं उस पर चढ़ कर उसका फल तोड़ लेती।बड़हड़ का स्वाद मुझे पसन्द था।खट्टा मीठा एक अनोखा स्वाद।हालांकि उसकी शक्ल भी टेढ़ी ही होती है ।कहीं से उभरा कहीं से दबा हुआ।जैसे कोई बूढ़ा- सा चेहरा।कच्चा हो तो हरा पर बेकार स्वाद और जितना पके नारंगी रंग का होता है और उतना ही मीठा लगे।बड़हड़ के फल अभी कच्चे थे नहीं तो मीना उन्हें तुड़वा देती।अब हम फालसे के पेड़ के पास आए।मैं लपककर उस पर चढ़ गई।मंझोले कद का सुडौल पेड़ था।फालसे से लदा हुआ।हालांकि ज्यादातर फालसे अभी कच्चे और हरे थे।पर उनके गुच्छों में अधपके लाल और पूरे पके काले फालसे भी थे।मैं डाल पर बैठकर आराम से पके फालसे खाने लगी तो नीचे खड़ी दोनों सहेलियाँ चिल्लाई --हमें भी दो।मैंने हँसते हुए कुछ फालसे तोड़े और बंदरिया सी लटककर उन्हें थमा दिए।
थोड़ी देर बाग -बगीचे में घुमाने के बाद मीना हमें अपने कुछ रिश्तेदारों से मिलाने ले गई।उन सभी घरों में बहुएं घूंघट में थीं,पर हम लोगों से वे पर्दा हटाकर मिलीं।एक घर में एक बूढ़ी काकी थीं।वह मुझे अजीब सी लगीं।उन्होंने हमें अपने पास बिठाया और फिर मेरी तरफ देखते हुए बोलीं--वैसे तो तीनों ही सुंदर हो और इसकी तो बात ही अलग है।इसका गेहुआँ रंग सोने -सा दमक रहा है । मैं शरमा गई।उन्होंने हमें खाने को गुड़ दिया।मैंने तो तुरत उसे मुँह में रख लिया पर दोनों सहेलियों ने जाने क्यों उसे नहीं खाया।हम कई घरों में गए और गांव के डिशों का आनन्द लिया।
अगले दिन हम वापस अपने घर आ गए।दूसरे दिन ही मेरी तबियत खराब हो गई।पेट में दर्द शुरू हो गया था।माँ ने पूछा कि गांव में कुछ ऐसा -वैसा तो नहीं खा लिया था।
मैंने सफाई दी---नहीं माँ,बहुत संभलकर खाया ।जो सबने खाया वही खाया।बस एक जगह गुड़ ही अकेले खा लिया था।मीना की गांव की बूढ़ी काकी के घर।
'अरे तुम गाँव में घर -घर क्यों घूमने लग गई थी? गांव में जादू- टोना करने वाले भी होते हैं।किसी ने कुछ टोना करके तो नहीं खिला दिया।'
माँ चिंतित हो गई थी।डर मुझे भी लग रहा था।मेरा पेट दर्द बढ़ता ही जा रहा था।माँ ने अजवाइन,मेथी,हिंग ,काले नमक वाला चूरन खिलाया।गरम पानी से पेट की सिकाई की।पर दर्द बढ़ता ही गया।आखिरकार डॉक्टर के पास जाना पड़ा।मुझे अंग्रेजी दवा निगलने में बड़ी परेशानी होती थी।कितनी भी कोशिश करती दवा मुंह से बाहर आ जाती थी।हारकर माँ ने गोलियों को पीसकर चम्मच में घोलकर पिलाया।अब तो दवा और भी जहरीली लग रही थी,पर मुझे निगलने से आसान पीना लगता था।
डॉक्टर की दवा से आराम महसूस हो रहा था पर वह आराम बस एक -दो दिन तक ही रहा।माँ परेशान थी। पिता जी को पूरा विश्वास हो गया था कि किसी ने मुझे कुछ कर -करा दिया है या फिर गाँव की किसी भूत -प्रेत की छाया मुझ पर पड़ गई है। नानी ने स्पष्ट कह दिया कि चौदह साल की सुंदर,सलोनी ,ऊर्जावान लड़की को देखकर कोई अतृप्त आत्मा ललचा गई होगी।हालांकि मेरी माँ इन सब बातों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी पर मेरी हालत देखकर उसे भी शंका हो रही थी।जब मैंने अपने बारे में की गई काकी की उस टिप्पड़ी के बारे में बताया ,तब तो माँ का भी शक विश्वास में बदल गया।
सभी सलाह देने लगे थे कि किसी जानकार को मुझे दिखाया जाए।उनलोगों की बातों से मुझे डर लगने लगा था कि रात को अकेले नहीं सोती थी।रात को बाथरूम तक अकेले नहीं जाती थी।माँ बाथरूम के बाहर खड़ी रहती फिर भी भीतर मुझे डर लगता।रोशनदान से बाहर फैले अंधकार में कुछ आकृतियां तैरती लगतीं।उस समय घर में बिजली नहीं थी।लालटेन, दीया या मोमबत्ती लेकर ही मैं बाथरूम में जाती और बाथरूम का दरवाजा भीतर से बंद नहीं करती थी।साथ ही माँ से ताकीद करती रहती कि वह वहां से न जाए। एक बार हवा के झोंके से दीया बुझ गया तो मैं डर से चीख पड़ी।माँ ने दरवाजा खोलकर मेरा हाथ न पकड़ा होता तो मैं बाथरूम में ही गिरकर बेहोश हो जाती।
घर में हो रहे जादू -टोने और भूत -प्रेत की बातों ने मुझमें खौफ़ पैदा कर दिया था।अक्सर मुझे अपने भीतर किसी के होने का आभास होता।कभी लगता कि मेरे कमरे में कोई है।कई बार नींद में ऐसा भी लगता कि कोई मुझे दबाए जा रहा है।मैं साफ -साफ एक भारी बोझ अपने ऊपर लदा पाती,पर डर के मारे चीख नहीं पाती थी।