माँ
माँ का स्नेह
देता था स्वर्ग की अनुभूति।
उसका आशीष
भरता था जीवन में स्फूर्ति।
एक दिन
उसकी सांसों में हो रहा था सूर्यास्त
हम थे स्तब्ध और विवेक शून्य
देख रहे थे जीवन का यथार्थ
हम थे बेबस और लाचार
उसे रोक सकने में असमर्थ
और वह चली गई
अनन्त की ओर
मुझे याद है
जब मैं रोता था
वह परेशान हो जाती थी।
जब मैं हँसता था
वह खुशी से फूल जाती थी।
वह हमेशा
सदाचार, सद्व्यवहार, सद्कर्म,
पीड़ित मानवता की सेवा,
राष्ट्र के प्रति समर्पण,
सेवा और त्याग की
देती थी शिक्षा।
शिक्षा देते-देते ही
आशीष लुटाते-लुटाते ही
ममता बरसाते-बरसाते ही
हमारे देखते-देखते ही
एक दिन वह
हो गई पंच तत्वों में विलीन।
आज भी
जब कभी होता हूँ
होता हूँ परेशान
बंद करता हूँ आंखें
वह सामने आ जाती है।
जब कभी होता हूँ व्यथित
बदल रहा होता हूँ करवटें
वह आती है
लोरी सुनाती है
और सुला जाती है।
समझ नहीं पाता हूँ
यह प्रारम्भ से अन्त है
या अन्त से प्रारम्भ।
सूर्योदय
सूर्योदय हो रहा है
सत्य का प्रकाश विचारों की किरणें बनकर
चारों दिशाओं में फैल रहा है
मेरा मन प्रफुल्लित होकर
चिंतन मनन कर रहा है
प्रभु की कृपा एवं भक्ति का अहसास हो रहा है
समुद्र की लहरों पर
ये प्रकाश की किरणें पडती है
तो तन, मन हृदय एवं आँखें
ऐसे मनोरम दृश्य को देखकर
शांति का आभास देती है
सुख और सौहार्द्र का वातावरण
सृजन की दिशा में प्रेरित कर रहा है।
आज की दिनचर्या का प्रारंभ
गंभीरता से नये प्रयासों की
समीक्षा कर रहा है।
शुभम्, मंगलम्, सुप्रभातम्
हमारी अंतरात्मा
वीणा के तारों का आभास देकर
वीणावादिनी सरस्वती व लक्ष्मी का
स्मरण कर रही है
तमसो मा ज्योतिर्गमय के रूप में
दिन का शुभारंभ हो रहा है
सूर्यास्त होने पर
मन हृदय व आत्मा में समीक्षा हो रही है
और आगे आने वाले कल की
सुखद कल्पनाओ मे खोकर
जीवन का क्रम चलता रहा है
और चलता रहेगा।
जीवन की नदी
मानव सोच रहा है
कि जीवन और नदी मे
कितनी है समानता
बह रही सरिता
कि जैसे चल रहा हो जीवन।
तैरती वह नाव जैसे डोलती काया
दे रहा है गति नाव को
वह नाव में बैठा हुआ नाविक
कि जैसे आत्मा इस देह को
करती है संचालित
और पतवारें निरन्तर चल रही है
कर्म की प्रतीक है ये
जो दिशा देती है जीवन को
कि यह जाए किधर को।
जन्म है उद्गम नदी का
और सागर में होता है समापन
शोर करती नदी पर्वत पर उछलती जा रही है
और समतल में लहराती शान्त बहती जा रही है
दुख में जैसे करूण क्रंदन
और सुख में मधुर स्वर गा रही है
बुद्धि कौशल और अनुभव के सहारे
भंवर में, मझधार मे, ऊँची लहर में
नाव बढती जा रही है।
दुखों से, कठिनाईयों से
जूझकर भी सांस चलती जा रही है।
स्वयं पर विश्वास जिसमें
जो परिश्रमरत रहा है
लक्ष्य पर थी दृष्टि जिसकी
और संघर्षों में जो अविचल रहा है
वह सफल है
और जिसका डिग गया विश्वास
वह निश्चित मरा है।
आशीर्वाद
हम प्रतीक्षा कर रहे थे कि
आपका हो आगमन।
तन पुलकित था गुलाब सा
और महक रहा था मन बेला सा
हृदय में थी प्यास
और थी तुम्हारे आने की आस
यह प्रतीक्षा भी करती है कितना विचलित
एक साथ देती है
सुख और दुख का आभास
तुम आये तो
आ गई घर आंगन में रौनक
मिली इतनी षांति
और मिला इतना सुकून
कि जीवन मे आ गया हो नयापन
मानो मैं अपने आप में ही खो गया
तुम हो गए मेरे
और मैं तुम्हारा हो गया
हो गया हमारा साथ
मेरे हाथों में तुम्हारा और
तुम्हारे हाथो में मेरा हाथ
चल पडे हम अनजान राहों में
हमें थी जीवन में सफलता की चाह
एक दूसरे का सहारा
और प्रभु की भक्ति का विष्वास
हमारे जीवन में हो
षांति, सदाचार और अपनत्व का भाव
सुखी हो हमारा संसार
हर हाल में रहें हम साथ
हे प्रभु हमें दो ऐसे जीवन का आशीर्वाद।
संकल्प और समर्पण
गंगा सी पवित्रता
यमुना सी स्निग्धता
सरस्वती सी वाणी
गोदावरी सी निर्मलता
नर्मदा सा कौमार्य
अलकनंदा सी चंचलता
कावेरी सी अठखेलियाँ
सिंधु सा चातुर्य
ब्रम्हपुत्र सी अलहड़ता
मंदाकिनी सी सहनशीलता
क्षिप्रा सा त्याग और तपस्या
सब मिलकर बनती है, भारत की संस्कृति
विश्व में अनूठी सभ्यता, हमे इस पर गर्व है
ये नदियाँ नही, हमारी जननी हैं
हम अपनी माँ को प्रदूषित कर रहें हैं
उसे मैला कर रहे हैं
परंपरा के नाम पर
विकास के नाम पर
विस्तार के नाम पर
अपना सारा प्रदूषण
उडे़ल रहे हैं उसके आँचल में
नदियाँ केवल नदियाँ नहीं हैं
ये हैं हमारी सुख, समृद्धि, वैभव,संस्कृति
और जीवन का आधार
हमें इन्हें बचाना है
अपना जीवन बनाना है
अपनी माँ को बचाना है
आओ हम सच्चे अंतः करण से संकल्प लें
हम प्रदूषण रोककर अक्षुण्य रखेंगे
अपनी माँ की पवित्रता
यही हो हमारी भक्ति और पूजा
यही हो हमारा संकल्प और समर्पण।
खोज और उपलब्धि
जिस आनंद की खोज में
हम भटक रहे है
संतो के प्रवचन सुन रहे है
वहाँ नही मिलता है वह
मिलेगा तो कैसे
वह तो एक अनुभूती है
नही उसका कोई रंग रूप आकार
वह महसूस होता है
हृदय से आत्मा तक
आनंद के लिये चाहिए
प्रेम और सकारात्मक दृष्टिकोण
जिससे हो निरंतर नूतन सृजन
फिर होगा नया परिवर्तन
जन्म लेगी नए विचारों की एक धारा
यही विचारधारा दिखलाएगी रास्ता
गंतव्य के पथ पर हमे बढाकर
परिवर्तित करेगी जीवन की दिशा धारा
हे राम
इतनी कृपा दिखाना राघव,
कभी न हो अभिमान।
मस्तक ऊँचा रहे मान से ,
ऐसे हों सब काम।
रहें समर्पित, करें लोक हित,
देना यह आशीष।
विनत भाव से प्रभु चरणों में,
झुका रहे यह शीश।
करें दुख में सुख का अहसास,
रहे तन-मन में यह आभास।
धर्म से कर्म
कर्म से सृजन
सृजन में हो समाज उत्थान।
चलूं जब दुनियाँ से हे राम!
ध्यान में रहे तुम्हारा नाम।
प्रेरणा के स्त्रोत
अपनी व्यथा को
कथा मत बनाइये
इसे दुनिया को मत दिखाइये
कोई नही बांटेगा आपकी पीडा
स्वयं को मजबूर नही मजबूत बनाइये
संचित कीजिए आत्मशक्ति व आत्मविश्वास
कीजिये आत्म मंथन
पहचानिये समय को
हो जाइये कर्मरत
बीत जाएगी व्यथा की निशा
उदय होगा सफलता का सूर्य
समाज दुहरायेगा
आपकी सफलता की कथा
आप बन जाएंगे
प्रेरणा के स्त्रोत।
रूदन
कभी भी, कही भी, किसी का भी रूदन
है उसकी मजबूरी का आभास
बतलाता है उसके भीतर की कमजोर बुनियाद।
हमें समझना है
उसके रूदन का कारण
और करना है
उसका निराकरण
समाप्त करना है उसका रूदन।
हमारा यह प्रयास
उस पर उपकार नही
कर्तव्य है हमारा
इससे मिलेगा किसी को नया जीवन
और हमारे जीवन में होगा नया सृजन
अनेको लोगो को नये जीवन का इंतजार है
आगे बढो।
दुखिया यह संसार हैं।
लोग करें याद
जीवन में गरीबी
पैदा करती है अभाव
पनपाती है अपराध और
होता है समाज का अपराधीकरण।
जीवन में अमीरी
पैदा करती है दुव्र्यसन
लिप्त करती है समाज को
जुआ, सट्टा, व्याभिचार
और शराब में।
इसलिये हमारे ग्रंथ कहते हैं:-
धन हो इतना कि
पूरी हो हमारी आवश्यकताएँ।
कभी ना हो
धन का दुरूपयोग।
जीवन हो
परोपकार और जनसेवा से परिपूर्ण।
पाप और पुण्य की तराजू में
पाप हमेशा कम हों।
तन में पवित्रता और
मन में मधुरता हो।
हृदय में प्रभु की भक्ति और
दर्शन की चाह हो।
धर्म कर्म करते हुए ही
पूरी हो जीवन की लीला।
हमारे जाने के बाद
लोगों के दिलो में
बनी रहे सदा हमारी याद।
माँ
वह थी अंधेरी रात
हो रही थी बरसात
रह रह कर होती चमक
और गरजते हुए बादल
पैदा कर रहे थे सिहरन।
गायब थी बिजली,
हाथ को नही सूझ रहा था हाथ
घुप्प अंधियारे मे वह उठी
दबे पांव आई मेरे पास
अपने कोमल हाथों से मुझे छूकर
उसने किया कुछ समझने का प्रयास।
फिर वह भरी बरसात में
सारी भयानकता से बेपरवाह
जाने कहाँ चली गई।
कुछ देर बाद
पानी से तरबतर भीगी हुई
वह लौटकर आई
आकर उसने मुझे दवा खिलाई
फिर वह चली गई
कपडे बदले और बदन सुखाने
अब जाकर उसे
अपना ध्यान आया था
अभी तक तो उसे अपनी
सुधि ही कहाँ थी।
वह मेरी माँ
मेरी महान माँ थी।
रीति और प्रीति
सुनो मेरे मीत
यहाँ किसको है किससे प्रीत ?
इस दुनिया को समझो
यह चलती है धन पर।
जब तक धन होता है
सच्चे होते है सपने
सभी होते है अपने
सभी करते हैं गुणगान
हम समझते लगते हैं
अपने आप को महान
जिस दिन धन की नदी सूख जाती है
अपने तो क्या अपनी किस्मत भी रूठ जाती है
वे करने लगते है उपहास
जो रहते थे सदा हमारे पास
कोई नही देता सहारा
सभी कर लेते है किनारा
लेकिन वह परम पिता
नहीं छोडता है अपने पुत्रों का साथ
बढ़ाओ उनकी ओर हाथ
यदि चरित्र में होगी ईमानदारी
तथा कर्म में लगन व श्रम
मन में होगी श्रद्धा व भक्ति
परम पिता के प्रति सच्ची आसक्ति
तो वे थामेंगे तुम्हारा हाथ
बतलाएंगे तुम्हें रास्ता
और देंगे तुम्हारा साथ
जीवन में होगी स्नेह की बरसात
रूठे हुए भी मान जाएंगे
दूर वाले भी पास आएंगे
यही है दुनिया की रीत
बनी रहे सदा परमात्मा से प्रीत l
सृजन का नया इतिहास
मैं अपनी ही धुन में जा रहा था।
वह अपनी ही धुन में आ रही थी।
नजरें हुईं चार, फिर हुआ प्यार
मैंने उसे और उसने मुझे
सात फेरों के साथ
कर लिया स्वीकार।
जीवन की बगिया में खिल उठे
गेंदा, गुलाब, मोंगरा और हर सिंगार।
मेरे हर काम में अब
वह हाथ बंटाने लगी।
मेरी हर अपूर्णता को
पूर्णता बनाने लगी।
उसके कौशल से
घर की लक्ष्मी
दिन दूनी रात चौगुनी
बढती ही जाती है।
उसके सद्भावों से
उसकी प्रतिष्ठा
ऊपर और ऊपर को
चढती ही जाती है।
मैं अक्सर सोचता हूँ
अगर मेरे देश में हर घर में
चौके चूल्हे की सीमाओं को लांघकर
हर नारी कर्मक्षेत्र में उतर जाए।
तो देश की विकास दर
कभी नही घट पाए।
बस ऊपर और ऊपर को
बढती ही चली जाए।
तब कल्पना में नही
हकीकत में देश हो समृद्ध
बढे उसका मान सम्मान और नाम
रचे सृजन का नया आयाम l