Taapuon par picnic - 100 - Last Part in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | टापुओं पर पिकनिक - 100 (अंतिम भाग)

Featured Books
  • सनातन - 3

    ...मैं दिखने में प्रौढ़ और वेशभूषा से पंडित किस्म का आदमी हूँ...

  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

Categories
Share

टापुओं पर पिकनिक - 100 (अंतिम भाग)

कार सड़क पर बेतहाशा दौड़ रही थी।
सुबह - सुबह का समय होने से कुछ तो ट्रैफिक भी कम था और कुछ बात ही ऐसी थी कि साजिद उड़ कर आंटी के पास पहुंच जाना चाहता था। मनप्रीत भी उसकी उत्तेजना देख कर साथ चली आई थी।
जब वो दोनों बंगले पर पहुंचे आंटी पूरी तरह बिस्तर से उठी नहीं थीं। वो अधलेटी सी ही चाय पी रही थीं जो उनके यहां काम करने वाली लड़की रसोई से उन्हें देकर गई थी।
मनप्रीत के रोकते- रोकते भी साजिद बोल ही पड़ा- आंटी, अताउल्ला और सुल्तान मर गए।
आंटी ने उसकी ओर ऐसे देखा जैसे वो इन दोनों को जानती ही न हों।
मनप्रीत ने आंटी के पास बिस्तर पर बैठ कर पहले उनके कंधे पर हाथ रख कर उन्हें संभाला फ़िर धीरे- धीरे समझाने लगी।
- आंटी, हॉस्पिटल परिसर में जो लाशें मिलीं हैं न, उनमें एम्बुलेंस मैनेजर सुल्तान और स्टोरकीपर अताउल्ला की शिनाख्त भी हुई है। हमारी बेकरी में अताउल्ला के गांव का जो लड़का काम करता है ना उसने बताया कि आग केवल एक जगह लग कर नहीं फैली बल्कि एक साथ कई जगह विस्फोट करके जानबूझ कर आग लगाई गई।
आंटी उसकी शक्ल ऐसे देख रही थीं मानो वो कोई पागल हो जो मनमर्जी से कुछ भी बके जा रही हो।
उनका कप उठाने लड़की आई तो वो उससे आगंतुकों के लिए और चाय बनाने के लिए कहने लगीं।
मनप्रीत उन्हें रोकती इससे पहले ही नीचे से ज़ोरदार घंटी बजी।
साजिद दौड़ कर नीचे का दरवाज़ा खोलने गया। लेकिन लगभग बीस मिनट बाद जब वो परेशान सा ऊपर आया तो ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी उमड़ते- घुमड़ते बांध का गेट खोल आया हो। पलभर में जानलेवा जलजला ऊपर आ गया।
नीचे सादी वर्दी में पुलिस के दो आदमी एक जीप लेकर आए थे और उसके दस्तख़त लेकर कुछ कागज़ात व एक छोटा बैग उसे सौंप गए।
कागज़ात साफ़ बता रहे थे कि कुछ दिनों पहले जापान में जहाज डूबने के हादसे के बाद जिन लोगों के डूब कर मरने की पुष्टि हुई है उनमें हॉस्पिटल के कई डॉक्टर्स के साथ आगोश के पिता भी थे।
लो, आंटी जैसे एक के बाद एक ऐसे ही समाचार सुनते रहने के लिए ही अब तक जीवित थीं। अब इसी की कसर और बाकी थी।
लेकिन साजिद व मनप्रीत को गहरा आश्चर्य तब हुआ जब उन्होंने देखा कि आंटी ने इस इतनी बड़ी खबर पर न तो कुछ पूछा, न कहा, न अविश्वास किया... और न ही रो- बिलख कर कोई प्रतिक्रिया दी।
जैसे वो ये मान कर ही बैठी थीं कि ये कयामत का ही दिन है और सब कुछ मिट कर ही रहेगा।
वो जैसे प्रलय के लिए तैयार थीं।
ऐसा लगता था मानो सामने बैठी ये महिला आंटी नहीं, बल्कि कहीं से बन कर आया आंटी का कोई बुत हो।
आंटी का पुतला।
लेकिन घर में कोहराम मच गया। क्लीनिक में काम करने वाले बचे- खुचे लोग, घर के नौकर- चाकर, काम वाली, माली... सब धीरे - धीरे आंटी के पास इकट्ठे होने लगे।
साजिद ने भी फ़ोन कर करके मनन, मान्या, सिद्धांत और बाकी सबको डॉक्टर साहब के न रहने की सूचना देनी शुरू कर दी।
मधुरिमा और आर्यन की मम्मी को भी बताया गया। मनप्रीत के पीहर में भी खबर पहुंची।
ये कैसी मौत थी? न यहां कोई शव, न कोई अर्थी, न चिता...न शवयात्रा, न कोई संस्कार!
बस, डॉक्टर साहब नहीं रहे...वो जहां थे, वहीं डूब गए।
दोपहर तक सारा शहर जान गया कि शहर के नामचीन चिकित्सक, चिकित्सा जगत की प्रतिष्ठित हस्ती, अंतरराष्ट्रीय ख्याति के हॉस्पिटल के मालिक डॉक्टर साहब... कहीं डूब गए।
आंटी को पहले तो उनकी याद दिला- दिला कर जबरन रुलाने की कोशिश की गई किंतु बाद में हताश होकर उन्हें इंजेक्शंस देकर सुला दिया गया।
किसी को समझ में नहीं आया कि दुख या मातम कैसे मनाया जाए। ऐसा क्या किया जाए कि सबको लगे- हां, सब कुछ ख़त्म हो गया।
रसोई घर बंद कर दिया गया। कर्मचारियों को छुट्टी दे दी गई।
रात का खाना मनन के घर से बन कर आया।
देर शाम आंटी नींद से तो जाग गई थीं, पर उन्हें ऐसे में घर में अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था।
मनन, मान्या, आर्यन, मनप्रीत, साजिद, मधुरिमा की मम्मी... इन सब ने रात को आंटी के पास यहीं रुकने का फ़ैसला किया।
कुछ देर बाद आर्यन भी आ पहुंचा। सबको आश्चर्य हुआ। पता चला कि कुछ दिन से आर्यन यहीं है पर तबीयत ठीक न होने के कारण किसी से नहीं मिल सका। उसे उसकी मम्मी ने सब कुछ बता तो दिया था पर वो घर में बैठा बेबसी में छटपटाने के अलावा कुछ नहीं कर सका।
साजिद, सिद्धांत और मनन को वहां रुका देख वो भी आंटी के पास ही रुकने के लिए आज यहीं ठहर गया।
आंटी का अकेलापन अब कोई दो - चार दिन की बात नहीं रह गया था लेकिन और कुछ किया भी तो नहीं जा सकता था।
सिद्धांत तो आंटी के कहने पर इस बंगले और क्लीनिक को बिकवाने के लिए पार्टियों से बात तक कर चुका था। लेकिन अब सब कुछ फ़िर से अनिश्चित होगया था।
मान्या और मनप्रीत ने खाने की प्लेटें तो सबको पकड़ाईं पर किसी से कुछ खाया न जा सका।
आंटी के बेडरूम के बाहर वाली लॉबी में ज़मीन पर बिस्तर फ़ैला दिए गए।
मनन, साजिद, आर्यन और सिद्धांत के लिए बगल वाले कमरे में व्यवस्था कर ली गई।
दबे सुर में आर्यन सब बता रहा था कि क्या - कैसे हो गया। सबको आंटी का ख्याल था कि वो किसी तरह अपने को संभालें। उन्हें कुछ भी ऐसा न सुनाई पड़े जिसे सुन कर उन्हें ठेस पहुंचे।
आंटी के बेडरूम के दूसरी तरफ वाले कमरे में रखे बिस्तरों से ओढ़ने की कुछ चादरें उठा कर लाने के लिए मान्या उठी।
सब बातें कर रहे थे। नींद किसी की भी आंखों में नहीं थी। सब चर्चा कर रहे थे कि डॉक्टर साहब की शोक सभा किस तरह की जाए।
तभी सबको एक ज़ोरदार चीख सुनाई पड़ी। इतनी रात गए नीरव सन्नाटे में ये चिल्लाने की आवाज़ कहां से आई?
चौंक कर साजिद, आर्यन, सिद्धांत और मनन भी तुरंत कमरे से बाहर निकल आए और इधर - उधर देखने लगे।
आवाज़ मान्या की थी।
चारों आवाज़ की दिशा में कमरे की ओर दौड़े।
कमरे से मान्या निकल रही थी, बेहद डरी हुई और कांपती सी।
वह मनन से टकराती - टकराती ही बची जो सबसे आगे था।
सबको देख कर मान्या का भय कुछ कम हुआ, बोली- अंदर कोई है!
उसकी बात सुनकर साजिद, आर्यन और सिद्धांत ने एकदम से कमरे में घुस कर धावा बोल दिया।
मान्या मनन को बताने लगी कि बिस्तर पर कोई आदमी सोया हुआ है, जब मान्या ने चादरें खींची तो घूर कर लाल आंखों से उसकी ओर देखने लगा। मान्या अब तक हांफ़ रही थी।
सब महिलाएं उठ कर मान्या की ओर बढ़ीं किंतु तब तक कमरे में से मारपीट करने की आवाज़ आने लगी।
भीतर घुसा हुआ आदमी मान्या के चिल्लाने से थोड़ा सचेत हो गया था और किसी भी आक्रमण के भय से पलंग के नीचे घुस गया था।
केवल उसके पैर दिखाई दे रहे थे।
सिद्धांत ने चप्पल से उसे पीटना शुरू कर दिया था और साजिद उसकी टांगों को पकड़ कर घसीट रहा था ताकि उसका चेहरा दिखाई दे सके, जो पलंग के नीचे कौने में घुसा हुआ था।
मनप्रीत ने भी आवाज़ें सुन कर कमरे का रुख़ किया ही था कि वह भीतर से निकल कर भागते सिद्धांत से बड़े ज़ोर से टकराई जो बदहवास होकर "भूत... भूत" चिल्लाते हुए भाग रहा था।
साजिद का चेहरा भी पीला पड़ गया था।
आर्यन को सिद्धांत की बात पर यकीन नहीं हुआ, उसने जंप मारकर ज़मीन पर लेटे हुए आदमी को कस कर पकड़ लिया।
लेकिन उसका चेहरा देखते ही आर्यन के रोंगटे खड़े हो गए। .... सामने उसकी गिरफ्त में आगोश पड़ा था।
- आगोश??? ... ये कैसे हो सकता है। हैं... उसने अपनी पकड़ को कुछ ढीला बनाया और उसे कंधों से पकड़ कर खड़ा कर दिया।
...सब भीतर झांकने लगे थे, आर्यन का हौसला बढ़ा। उसने झिंझोड़ कर आदमी से पूछा- कौन है तू? बोल... यहां क्या कर रहा है? कैसे घुसा भीतर।
आदमी हंसा।
सभी घबरा कर बाहर की ओर भागे.. पर आगोश की मम्मी आंखें फाड़े आगोश की ओर बढ़ीं- आगोश! मेरा आगोश। ... तू ज़िंदा है बेटा? इतने दिनों से कहां था तू?? मैं जानती थी कि तू आयेगा।
आगोश का एक हाथ आर्यन ने कस कर पकड़ा हुआ था मम्मी ने दूसरा हाथ पकड़ना चाहा...
साजिद बोल पड़ा- आंटी संभल के... ये कोई बहरूपिया हो सकता है। आगोश अब कैसे आएगा!
पर मम्मी ने साजिद की बात को अनसुना कर दिया और वो आगोश की ओर बढ़ीं!
- आगोश, बेटा बोल... बता तो सही कहां था तू... मुझे पता था कि तू मुझे छोड़ कर नहीं जा सकता!
अब सामने खड़े आगोश जैसे दिखते आदमी में कुछ हलचल हुई और उसने एक झटके से आर्यन से हाथ छुड़ा लिया।
वह तेज़ी से आगे बढ़ कर अपनी मम्मी के कदमों से लिपट गया और ज़ोर- ज़ोर से रोने लगा।
मम्मी की आंखें भी अनवरत टपकने लगीं और सब लोग हैरानी से खड़े होकर देखते रहे ये करिश्मा। सिद्धांत भी कुछ भयभीत सा वहां आकर खड़ा हो गया।
अब किसी को भी संदेह न रहा कि ये आगोश ही है।
मम्मी ने आगोश के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे बैठाया और मान्या से जल्दी कुछ खाने के लिए लाने को कहा।
घर में मेला सा लग गया।
रसोई घर फ़िर से महकने लगा।
कुछ खाकर जब आगोश कुछ स्वस्थ सा दिखा तो मम्मी ने पूछा- पापा को कहां छोड़ आया बेटा.... वह बिल्कुल ऐसे बोलीं जैसे उनकी मौत की कोई खबर उन्होंने सुनी न हो।
आगोश की आंखें थकान और नींद से मुंदी जा रही थीं। जल्दी ही खाना खाकर वह सो गया।
सबका रतजगा हो गया। सब बैठे- बैठे यही बातें करते रहे कि ये क्या हुआ?
प्रभु की लीला अपरम्पार!
सुबह सारे शहर को खबर हो गई कि वर्षों बाद मृत युवक जीवित लौटा।
सुबह आगोश काफ़ी स्वस्थ और संभला हुआ दिख रहा था...
चारों ओर दुनिया को मीडिया से खबर मिल रही थी कि पुलिस ने इस प्रकरण की गुत्थी को सुलझा लिया है... दिल्ली के समीप एक बड़े हॉस्पिटल में आग लगने तथा विस्फोटकों द्वारा भारी विध्वंस के पीछे एक विदेशी आतंकवादी बंटिम तेहरानवाला का हाथ होने की पुष्टि हुई है लेकिन अभी वह शख्स फरार है। उसकी तलाश ज़ोर- शोर से जारी है। वह अब तक पुलिस के हाथ नहीं लगा है।
इतना ही नहीं, बल्कि ये भी कहा जा रहा था कि उसी का हाथ मुंबई के फिल्मसिटी क्षेत्र से तस्करों के लिए एक कीमती मूर्ति चुराने में भी बताया जाता है।
यह सब सुन कर आर्यन की आंखें भय और अविश्वास से फ़ैल गईं। रोज़ अजीबो- गरीब पटकथाएं पढ़ कर उन पर अमल करने वाला इतना बड़ा अभिनेता इस सत्यकथा पर हैरान था।
अंग्रेज़ी के सबसे प्रतिष्ठित अख़बार ने लिखा था कि अंतरराष्ट्रीय अपराधी बंटिम तेहरानवाला ने एक फ़िल्म प्रोड्यूसर से तस्कर- सरगना की भारी रकम वसूलने के लिए उसकी शूटिंग को हादसे में बदल दिया तथा समझा जाता है कि एक पर्यटकों से भरे जहाज को नष्ट करने में भी पुलिस को उसका ही हाथ होने का संदेह है।
आगोश के सामने खामोश बैठा हुआ आर्यन महसूस कर रहा था जैसे चंद्रमा अपनी कलाओं से उसके मस्तिष्क को उद्वेग का झूला झुला रहा हो।
उसने मन ही मन कहा- ओह, मैं पागल तो नहीं हो रहा?
कुछ संभल कर उसने कहा- थैंक गॉड, मैं बाल - बाल बचा, मैंने क्या कर लिया था! मैं ज़हरीले सांप की खोह में बस गया था?
...अब जब वो खौफ़नाक कातिल पुलिस को मिलेगा तो उसके चेहरे पर थूकने के लिए ही एक बार मैं भी जाऊंगा।
- अब वह पुलिस को कभी नहीं मिलेगा। कभी भी नहीं!
आगोश के होठों से ये सुन कर आर्यन के रोंगटे एक बार फिर खड़े हो गए, वह भय से कांपने लगा...उसने आंखों से डर के तमाम बादलों को झाड़ते हुए कहा
- ... साले..बंटी ???
बंगले की रौनक लौटने लगी थी। सुदूर टापुओं पर पिकनिक मना कर इसके रहवासी अपने घरौंदे में वापस लौट आए थे।
( समाप्त ) - प्रबोध कुमार गोविल