Mrityu Murti - 4 in Hindi Horror Stories by Rahul Haldhar books and stories PDF | मृत्यु मूर्ति - 4

Featured Books
Categories
Share

मृत्यु मूर्ति - 4

812 ईस्वी ,

पूर्व तरफ से आसमान सफेद हो रहा है।
यशभद्र नालंदा बस्ती से बहुत ही दूर चला आया है। नालंदा महाविहार के आस-पास के गावों में रुकने का उसने पागलपन नहीं किया। ओदंतपुरी व विक्रमशिला महाविहार में भी जाकर कोई लाभ नहीं है। वहां पर भी उसे प्रवेश नहीं मिलेगा क्योंकि इन दो महाविहार के साथ नालंदा महाविहार का एक घनिष्ठ संबंध है इसीलिए अब यशभद्र की यात्रा उद्देश्यहीन है।
कहीं रुकने की एक जगह खोजना ही अब उसके लिए जरूरी कार्य है। अपमान व क्रोध से उसका सिर गरम हो गया है। बाल्यावस्था से ही नालंदा महाविहार की चार दीवारों के अंदर रहने के कारण इन रास्तों को यह मासूम बौद्ध भिक्षुक नहीं पहचानता। जिस रास्ते पर वह आगे बढ़ रहा है उस रास्ते पर ज्यादा गांव भी नहीं है इसीलिए यशभद्र पूरे दिन केवल चलता जा रहा है। बीच में उसे दो जंगल भी पार करना पड़ा इसलिए शाम होने तक वह थक चुका है।
और कुछ दूर चलने के बाद एक मैदान आया इस मैदान को पार कर अचानक उसे एक मठ दिखाई दिया। अवलोकितेश्वर की कृपा हुई।
वह जल्दी से मठ के पास पहुंचा। एक बौद्ध मठ तथा उसके सामने का पट खुला हुआ है लेकिन अंदर के पट बंद हो चुके हैं। आसपास देखने पर कई सारे छोटे-छोटे प्रार्थना कक्ष दिखाइ दिए। आज रात के लिए यशभद्र को यही रुकना होगा तथा सुबह होने पर वह मठ के सन्यासी से यहां रहने के लिए अनुरोध करेगा।एक छोटे से प्रार्थना गृह के अंदर यशभद्र ने प्रवेश किया। क्षुधा व तृष्णा से उसका शरीर सुन्न हो गया है। हालांकि उसने जंगल के एक छोटे से तालाब से जलपान किया था अगर थोड़ा खाने को कुछ मिल जाता तो अच्छा होता। संदूक को जमीन पर रख उसके ऊपर सिर रखकर यशभद्र लेट गया। थकान के कारण कुछ देर में ही उसके आंखों में निद्रा उतर आई।
आधी रात को किसी अनजाने कारण से यशभद्र की नींद खुल गई। नींद खुलते ही उसे ऐसा लगा कि एक बर्फ के टुकड़े पर उसने अपना सिर रखा हुआ है । तुरंत ही वह उठ बैठा । धातु से बना संदूक कुछ ज्यादा ही शीतल हो गया है। इस शीतलता को वह अच्छी तरह जानता है। सब कुछ समझकर यशभद्र की आँखे चौड़ी हो गई। क्षुधा , तृष्णा, क्रोध व अपमान में वह भूल गया था कि संदूक के अंदर स्वयं लाकिनी है और वह ये भी भूल गया था कि प्रति रात्रि की तरह आज भी उसे एक ताज़ा प्राण चाहिए। और इस निर्जन मैदान व छोटे से प्रार्थना कक्ष में प्राण मतलब वह स्वयं है।
मुहूर्त में ही यशभद्र का पूरा शरीर कांप उठा , आखिर वह अब क्या करे ?
जिस साधक ने उसे नर्क के अंधेरे से बाहर लाया है क्या वह उसी को मारेगी? उसपर थोड़ा भी दया प्रदर्शन नहीं करेगी ? इस बारे में यशभद्र को कुछ भी नहीं पता क्योंकि लोभ वश के कारण उसने यह सब जानने की कोशिश भी नहीं किया था । हे अवलोकितेश्वर! कर्मफल मनुष्य को इसी तरह भोगना पड़ता है।
भागने की चेष्टा करके कोई लाभ नहीं है। वह अच्छी तरह जानता है कि लाकिनी उसे पृथ्वी के किसी भी प्रान्त से ढूंढ लाएगी।
उस संदूक के अंदर मानव प्राण का संचार हुआ है। एक खट - खट की आवाज़ से संदूक का ढक्कन हिलता रहा। वह आ रही है। वह बाहर आ रही है । बैठे-बैठे ही यशभद्र पीछे की ओर सरकता रहा अंत में उसका पीठ दीवार से सट गया। अब अंत में उसे क्या अपने ही फंदे में पैर रखना होगा?
अब उसके मन के अंदर तीव्र आतंक के अलावा भी जो अनुभूति ज्यादा हो रहा वह खेद है। मासूम बौद्ध सन्यासियों को मौत के मुंह में धकेल देने का कीमत अब उसे देना होगा। उसके अंदर लोभ का जो जिह्वा था वही अब उसे निगल जाएगा। कक्ष की शीतलता अब पहले से बहुत ही ज्यादा है। संदूक का ढक्कन धीरे - धीरे खुल रहा है और उसके साथ ही एक हल्के हरे रंग की रोशनी पूरे कक्ष में फैल रहा है । संदूक का ढक्कन पूरा खुल गया। एक ,दो, तीन यशभद्र मृत्यु का मुहूर्त गिन रहा है। उसका आश्चर्य से फैला हुआ आँख अब संदूक की ओर है। उसके अंदर से धीरे-धीरे कुछ बाहर निकल रहा है। एक हाथ निकला,अब दूसरा हाथ भी निकल रहा है। दोनों निकले हाथ के बड़े - बड़े नाखून संदूक को खुरच रहे हैं। वह भयानक आवाज़ मानो यशभद्र के सीने को अभी फाड़ डालेगा।
अब धीरे-धीरे उसमें से सिर निकल आया। यशभद्र ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि एक नहीं , दो नहीं तीन सिर निकल रहे हैं। एकदम वैसी ही प्रतिरूप जैसी मूर्ति संदूक के अंदर रखा हुआ है। छः आँख अंगारों की तरह जल रहे हैं। संदूक के अंदर से पूरा शरीर अब बाहर निकल आई तथा धीरे-धीरे वह यशभद्र की ओर बैठते - रेंगते हुए आगे बढ़ने लगी । तीनों चेहरे पर एक वीभत्स भयानक हंसी है। उन तीन जोड़े आँखों की दृष्टि से यशभद्र मानो अभी भस्म हो जायेगा। उसे याद आ गया कि लाकिनी जागरण के लिए जिस पोथी की सहायता उसने लिया था उसके अंत के कुछ पृष्ठ नहीं थे । शायद वहां पर लिखा हुआ था कि इसे जगाने की भयानक व्यथा क्या हो सकती है। शायद वहां इसे रोकने का कोई क्रिया भी लिखा हुआ था। उसे तो इस बारे में कुछ भी नहीं पता। लोभ ! हाँ लोभ में वह अंधा हो गया था इसीलिए उसने इस नर्क के शक्ति को समझ नहीं पाया। डर व आतंक से यशभद्र की आंख बार - बार बंद हो रहा। मृत्यु आ रही है। कुछ ही देर में एक चिल्लाने की आवाज़ के साथ सबकुछ शांत हो गया।

वर्तमान समय,

एक छोटी सी घटना का उल्लेख करना जरूरी है। यह घटना सचमुच बहुत ही छोटा है लेकिन उस घटना ने मेरे मन में कुछ सवाल पैदा कर दिया है। हिमगिरी एक्सप्रेस में लखनऊ लौट रहा हूं। साथ में पूरा कॉलेज का ग्रुप है। ग्रुप की मस्ती व दोस्तों के शोर - शराबे में समय कैसे व्यतीत हो रहा है समझ में नहीं आ रहा। पठानकोट से ट्रेन में चढ़ते वक्त कई सारी बिस्कुट का पैकेट खरीद लिया था। वही सब मेरे बैग में रखा हुआ है। ट्रेन में चढ़ते ही मुझे बीच - बीच में भूख लग जाता है इसीलिए साथ में बिस्कुट ले लिया था। हम सभी अपने - अपने बर्थ में बैठकर मस्ती कर रहे हैं। कुछ देर बाद भूख लगते ही ऊपर के बर्थ पर रखे बैग से बिस्कुट के पैकेट निकालते वक्त मैं आश्चर्य हो गया। जैसे ही मैंने बैग के जिप को खोलकर हाथ अंदर डाला उसी वक्त मुझे ऐसा लगा कि एक रेफ्रिजरेटर को खोलकर डीप फ्रिज के अंदर आइस बॉक्स पर हाथ रख दिया है। तुरंत ही मैंने अपना हाथ बाहर निकाल लिया। बैग का अंदरूनी हिस्सा किसी बर्फ की तरह ठंडा हो गया है। अप्रैल का महीना ,पहाड़ से बहुत देर पहले नीचे उतर आया था। इस गर्मी में बैग के अंदर इतना ठंड बहुत ही विचित्र बात है। शायद मन का कोई वहम हो इसीलिए फिर हाथ डाला। नहीं , सचमुच बैग का अंदरूनी हिस्सा बहुत ही ठंडा है। एक पैकेट बिस्कुट निकालकर नीचे बैठा। पैकेट खोल कर देखा तो सभी बिस्कुट गल गए थे। इस अद्भुत घटना की व्याख्या मैं नहीं कर पाया । बहुत ही सामान्य सी घटना है लेकिन अपने मन से मैं इसे निकाल नहीं पा रहा।

क्रमशः......