TEDHI PAGDANDIYAN - 32 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | टेढी पगडंडियाँ - 32

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टेढी पगडंडियाँ - 32

टेढी पगडंडियाँ

32

गुरनैब जब तक दिखता रहा , किरण वहीं खङी उसे जाता देखती रही फिर वह भीतर आकर धम्म से चारपायी पर ढेर हो गयी । जिंदगी क्या से क्या हो गयी थी । कितना प्यारा था उसका बचपन । एक खूबसूरत प्यारी सी बच्ची जो पूरे टोले की लाडली थी । जो अपने भाई बीरे की जान थी । माँ बाप की उम्मीद थी । बहन सीरीं की दुलारी । पढाई में सबसे तेज । मन लगा कर पढती और हमेशा अव्वल आती । उसकी शिक्षिकाएँ अक्सर कहती , अगर ऐसे ही पढती रही तो एक दिन बङी अफसर बन जाएगी किरण । घर में सुविधाओं का अभाव था पर सारे सदस्य एक दूसरे के साथ मन से जुङे थे । हर सुख दुख मिलकर झेल जाते । सब एक दूसरे का पूरा पूरा ध्यान रखते । यह अफसर बनने का सपना नौवीं दसवीं में पढते पढते उसकी आँखों में पलने लगा था । ग्यारहवीं बारहवीं में उसने जान लगा दी थी इस सपने को पूरा करने में । पूरे जिले में दूसरे स्थान पर आई थी वह और पंजाब स्टेट में नौवें । डी सी सर ने स्कूल की स्टेज पर उसे अपने हाथों से इनाम दिया था । बापू का माथा गर्व से तन गया था उस दिन । माँ कितना खुश थी । सबको लड्डू बाँटे थे उन्होंने । पूरे पाँच हजार की स्कालरशिप मिली थी उसे आगे पढने के लिए । माँ अब उसकी शादी कर देना चाहती थी पर वह पढना चाहती थी । जिन्दगी में कुछ बनना चाहती थी । बीरा उसे पढाना चाहता था । बापू ने उसका साथ दिया और उसने शहर के सबसे बङे कालेज में दाखिला ले लिया था । दस महीने कालेज में पढाई भी की पर उसके बाद किस्मत ने यहाँ लाकर पटक दिया । अगर उस दिन वह निरंजन से नहीं टकरायी होती तो उसकी फस्ट इयर की पढाई पूरी हो चुकी होती और वह दूसरे साल की पढाई कर रही होती । अपने अफसर बनने के सपने के थोङा और करीब हो गयी होती । पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था । जिस रूप रंग पर उसे हमेशा नाज होता था , वही रंग रूप उसका सबसे बङा दुश्मन हो गया । इसी रूप के चलते उसका घर बार छूट गया । आज छ महीने हो गये है उसे परिवार से बिछुङे हुए । कहाँ एक दिन के लिए वह कभी घर से दूर नहीं गयी । बीरा हमेशा हर मुसीबत में उसके साथ खङा रहा । अब उसकी सूरत देखे सदियाँ बीत गयी । कई बार तो उसे ऐसा लगता है जैसे यह सब किसी और जनम की बातें थी ।
यहाँ उसका नया जनम हुआ था । उसने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया था । सख्त शरीर का मालिक था निरंजन । उतना ही सख्तजान स्वभाव । उसकी चाल , उसके बोलों में सरदारी बसी हुई थी । जिधर नजर घुमाता , लोग हाथ जोङकर खङे हो जाते । शेर की तरह चलता । बादल की गरजन जैसी आवाज थी उसकी । किरण से उसका विरोध न हुआ । जिधर वह चलाता गया , उधर चुपचाप चलती गयी । दरिया के धारे में कागज की किश्ती की जो हालत होती है , कुछ वैसी ही जिंदगी जी रही थी वह । बिना बोले चुपचाप किसी अदृश्य धागे से बंधी कठपुतली की तरह निरंजन के इशारों पर नाचती रहती ।
गुरनैब उसकी जिंदगी में एक सहारे की तरह आया था जिससे अपने मन की बात कह सकती थी वह । मन लगातार उसकी ओर खिंच रहा था जिसे उसने बङी मुश्किल से अपने काबू में कर रखा था । लगता यही है जो उसके लिए बनाया गया है । गुरनैब के मन की तो वही जाने । शायद वह भी अपनी भावनाओं पर लिहाज का परदा डाले था । वह घंटों बैठकर किरण को हजारों किस्से सुनाता । उसके छोटे बङे सैकङों काम करता । जो निरंजन उसे काम देता वह तो करता ही , खुद से भी उसके कई काम कर देता । और फिर निरंजन असमय काल के क्रूर हाथों में चला गया । वह बिन ब्याहे ही निरंजन की विधवा हो गयी और अब निरंजन का बच्चा उसकी कोख में है ।
और कल रात अचानक गुरनैब का उसकी झोली में आ गिरना , लगा दरगाह से उसकी दुआ कुबूल हो गयी । सात महीने में पहली रात वह सुकून से सोयी थी । ऊपर से पापाजी का उनको देखने आना और बिना जगाए चुपचाप लौट जाना इसे वह क्या कहे । पापाजी और बीबीजी इसे कैसे लेंगे । गुरनैब की बीबी क्या करेगी । किरण यह सब जितना सोचती , उतना ही गहरा सोच में डूबती जाती ।
गुरनैब डरते डरते हवेली में घुसा । अवतार सिंह फाटक के पास ही मूढा बिछाए बैठे थे । गुरनैब ने उनके पाँव छुए तो उन्होंने पास पङे मूढे पर बैठने का इशारा किया । गुरनैब सहमा सा उनके पास बैठ गया । उसकी उम्मीद के विपरीत अवतार सिंह ने उसे समझाना शुरु किया – देख बेटा , पहले निरंजन था तो काम वह संभाल रहा था । खेती कराना , फसल मंडी में भेजना , घर बाजार के काम सब उसने संभाल रखे थे । अपनेआप ही सब करता रहता । बस लौटकर मुझे बता देता । वैसे तो तू उसके साथ ही रहता था पर अब सब कुछ तुझे अकेले को संभालना पङेगा । मेरी तो कमर ही टूट गयी है । ऊपर से डर और दहशत । पहले निरंजन की हादसे में मौत और अब जंगीर और सतनाम की हत्या । तू अपना ख्याल रखा कर । वक्त बेवक्त अकेले मत निकलना । दुश्मन पता नहीं कहाँ घात लगा कर बैठा हो ।
आप चिंता न करो पापा जी मैं अपना ध्यान रखूँगा और काम तो करना ही पङनै ।
चल तू नहा धो ले और नाश्ता पानी खा ।
जी पापाजी ।
वह उठकर भीतर आया तो सिमरन ने गरम पानी नहाने के लिए डाला हुआ था । उसके कपङे नहानघर में रखे थे । वह नहाने घुस गया और बीस मिनट बाद जब नहाकर निकला तो सिमरन रसोई में मूली के परांठे बना रही थी । उसने चुपचाप परांठे खाए । तभी सिमरन ने कहा – सुन आज टाईम निकालकर बठिंडा चल सकता है , मुझे कुछ सामान खरीदना है ।
ठीक है तू तैयार हो जा । फिर चल पङते हैं ।
सिमरन तैयार होने चली गयी तो वह सोच में डूबा रहा – आज वह सोच कर आया था कि पापाजी और बीबीजी उससे बहुत नाराज होंगे पर उन दोनों ने तो कुछ भी नहीं कहा । कुछ पूछा भी नहीं । और सिमरन से पूरे क्लेश की उम्मीद थी पर ये तो बिल्कुल शांत है । चलो बाजार से सामान दिला लाऊँ और उसने थाली सरकाकर हाथ धो लिए ।

बाकी अगली कङी में ...