मानव जाति के क्रमबद्ध सुव्यवस्थित और सकारात्मक विकास के लिए एक निश्चित दायरे में संरक्षण तथा प्रोत्साहन की आवश्यकता सदैव से ही अनुभव की जाती रही है और की जाती रहेगी। किसी भी लोकप्रिय न्याय पूर्ण शासन व्यवस्था ने इस अहम् तथ्य को सदैव ही स्वीकारा है और यथाशक्ति निवाहा भी है ।
यदि हम प्राचीन भारतीय इतिहास की ओर एक नजर दौड़ाते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि भारतीय शासनपद्धतिनेसदैवसेहीशासित प्रजा की रक्षा, संवर्धन, तथा विकास को शासन की नैतिक जिम्मेदारी का रूप दिया। राजा शिवि से लेकर राजा हरिश्चंद्र, राजा दिलीप, राजा श्रीराम, समुद्रगुप्त, अशोक, महाराणा प्रताप, व वीर शिवाजी, आदि सभी महान शासकों ने प्रजा के अधिकारों को सदैव सर्वोपरि स्थान दिया, अपना गुरुतम दायित्व समझा और यथा शक्ति उसका पालन किया। श्री राम ने अपने राज्य में सदैव ही लोकतंत्र की भावना को सर्वोच्च स्थान दिया और प्रजा रंजन हेतु देवी सीता का भी त्याग करने में संकोच नहीं किया।
समय चक्र घूमा और राजवंशी हाथों से निकल कर सत्ता, जनता द्वारा निर्वाचित हाथों में आ गई। संसार के अधिकांश देशों में लोक तांत्रिक शासन प्रणाली को अपनाया गया और अब्राहम लिंकन के शब्दों में----" जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार," ----पुराने तथा नवीन आदर्शो व मूल्यों के अनुसार शासन व्यवस्था को चलाने लगी। शासन के नैतिक दायित्व को संवैधानिक स्वरूप प्रदान किया गया और मानव अधिकारों के नए नाम से मानवी जीवन को अधिक श्रेष्ठ बनाने का एक सफल व सशक्त प्रयास किया गया।
मानवाधिकार किसी एक देश की सरहदों से बंधी अवधारणा नहीं वरन संपूर्ण विश्व के प्राणी मात्र के कल्याण, संवर्धन व पोषण की परिपूर्ण परिकल्पना है ।वस्तुतः मानवाधिकार वे पायदान है, जो किसी देश को सर्वांगीण विकास के शिखर तक पहुंचाते हैं। मानवाधिकार एक विचारधारा है जो संपूर्ण प्राणी जगत को उनकी सुरक्षा ,समृद्धि व स्वतंत्रता का आश्वासन देती है।
वर्तमान की इस बहुचर्चित अवधारणा का जन्म 1946 में हुआ। जब विश्व के कुछ प्रबुद्ध नागरिकों ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा पत्र को तैयार करना प्रारंभ किया। 10 दिसंबर 1948 के ऐतिहासिक दिन श्रीमती एलीनर रूजवेल्ट की अध्यक्षता में संयुक्त राष्ट्र संघ की असाधारण महासभा में संपूर्ण विश्व के नागरिकों के लिए मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा पत्र प्रस्तुत किया गया। उस सार्वभौमिक घोषणापत्र में मानव मात्र की स्वतंत्रता को अत्यंत व्यापक अर्थों में उसके नैसर्गिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया। अपनी इच्छा अनुसार भ्रमण की आजादी ,अभिव्यक्ति की आजादी ,सूचना प्राप्त करने की आजादी ,शिक्षा का अधिकार, चिकित्सा सुविधा प्राप्त करने का अधिकार, आदि अनेकों अधिकारों को मानवाधिकारों के रूप में समाहित किया गया । मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा पत्र मानव इतिहास का अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है । जो मानवीय जीवन की प्रतिष्ठा, उसके सम्मान की रक्षा तथा उसके विकास के लिए हर संभव, प्रयास करने के प्रति, हर शासन व्यवस्था की ,जवाबदेही निश्चित करता है।
लोकतांत्रिक शासन पद्धति में मानवाधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण तथा प्रभावी स्थान रखते हैं। प्रजातांत्रिक देशों में शासन का मूल जनता ही होती है। तथा शासन के समस्त क्रियाकलाप, जनकल्याणकारी भावना लिए होते हैं। जनता के मूलभूत अधिकारों की रक्षा लोकतंत्र की मूल भावना है ,जिसकी पूर्ति के बिना सच्चे तथा वास्तविक अर्थों में लोकतंत्रीय पद्धति का अस्तित्व ही संकटमय हो जाता है।
किसी भी देश की सर्वोत्कृष्ट, सर्वाधिक मूल्यवान संपदा --उसका नागरिक होता है। यदि किसी देश के नागरिक दीन- हीन विपन्न ,अकर्मण्य, अशिक्षित तथा सामाजिक चेतना विहीन, हो तो उस देश में लोकतंत्र का सच्चे अर्थों में मूल्यांकन विपरीत परिणाम ही प्रदान करता है। नागरिको को शिक्षा, उचित स्वास्थ्य सुविधाओं को प्रदान करना शासन का प्रथम दायित्व है।
यदि आज हम लोकतांत्रिक देशों में मानवाधिकारों पर दृष्टिपात करते हैं तो स्थिति बड़ी ही सोचनीय दिखाई देती है। चाहे फिर हम बात, विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र अमेरिका की करें या छोटे से देश श्रीलंका की। हर ओर मानवाधिकारों का चीर हरण अपने वीभत्स रूप में नजर आता है। अमेरिका जैसे विकसित और सभ्य समझे जाने वाले देश में भी रंगभेद और लिंग भेद के आधार पर भेदभाव के हजारों उदाहरण दिखाई देते हैं । अमेरिका की जेलों में बंद कैदियों में से काले कैदियों का 85% होना एक भयावह संकेत करता है । आज भी वहां मात्र 11 प्रतिशत अश्वेत श्वेत नागरिकों के जीवन स्तर के साथ समानता कर पाते हैं । शिक्षा, रोजगार हर क्षेत्र में यह भेदभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। अमेरिका के इतिहास में अश्वेत व्यक्ति का राष्ट्रपति बनना मात्र अपवाद ही कहा जा सकता है। अन्यथा आज भी अमेरिका द्वारा मानवाधिकार की आड़ में अन्य बहुत से देशों के अधिकारों का हनन कर, आर्थिक व व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं जो सर्वथा अनुचित है ।इस प्रकार अमेरिका द्वारा मानवाधिकार का प्रयोग, दूसरे देशों पर दबाव बनाने हेतु हथियार के रूप में किया जाता है । हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी एक महिला प्रधानमंत्री के होते हुए भी देश की आधी आबादी के साथ किया जाने वाला सौतेला व्यवहार मानवाधिकारों के नाम पर कलंक ही था। पाकिस्तान में प्रति 3 घंटे में एक महिला के साथ दुराचार और उसके बाद कानूनी प्रक्रिया में प्रताड़ित महिला पर अपराधी के अपराध को सिद्ध करने की बाध्यता हमें आदिम युग की याद दिलाती है। श्रीलंका, अफगानिस्तान, नेपाल ,कहीं भी हम निगाह डालें लोकतंत्र के रक्षक, जनता के प्रतिनिधि ,विभिन्न अनावश्यक कार्यों की आड़ लेकर मानव अधिकारों के साथ अशोभनीय खेल खेल रहे हैं ।
हमारा अपना देश भारत भी मानवाधिकारों के परिप्रेक्ष्य में अपना मस्तक अधिक ऊंचा नहीं कर सका है। सन् 1982 में हमारे देश की ओर से श्रीमती गांधी ने यू॰ एन ॰ओ॰ के मानवाधिकार घोषणापत्र पर हस्ताक्षर कर मानव अधिकारों के प्रति अपने देश की वचनबद्धता स्वीकार की। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत अपने निवासियों के अधिकारों की रक्षा में आंशिक सफलता ही प्राप्त कर पाया है। विश्व के सर्वाधिक निरक्षरो की संख्या, सर्वाधिक अंधे व कुष्ठ रोगियों की संख्या, भारत सरकार के मानव अधकारों की पूर्ति के प्रयासों का सच्चा हाल बताते हैं। सन 1995 के वर्ष में हिरासत में हुई 250 मौतें मानव अधिकारों के प्रति सरकारी वचनबद्धता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। उत्तराखंड आंदोलन हेतु उत्तर प्रदेश में प्रदर्शनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार और नागपुर में आदिवासी प्रदर्शनकारियों पर बर्बर लाठीचार्ज हमारे शासको की सोच को उजागर करते हैं ।
21वीं सदी की भी अनेकों घटनाऐ मानव अधिकारों के हनन के उदाहरण कही जा सकती हैं । गत कुछ वर्षों में ही इराक मे तथाकथित आई•एस•आई•एस •के द्वारा बहुत बड़े स्तर पर मानवाधिकारों का हनन किया गया। इसमें मुख्य रूप से महिलाओं को कठोरतम दंड से गुजरना पड़ा। इस संगठन द्वारा इराक में बलपूर्वक महिलाओं का अपहरण तथा तदुपरांत लंबे समय तक शारीरिक शोषण किया जाता रहा। इतना ही नहीं तुनेशिया से प्रारंभ होने वाले सत्ता परिवर्तन मे हजारों निर्दोष व्यक्तियों को प्राणों से हाथ धोने पड़े। यह सत्ता परिवर्तन का खेल तुनेशिया से प्रारंभ होकर इराक तक फैल गया । इसका सबसे बड़ा वीभत्स रूप सीरिया में देखने को मिला। यहां पर मानव अधिकारों का हनन होने के कारण असंख्य लोग मारे गए जिसकी कोई गणना नहीं है। इसी कारण सीरिया आज भी अशांत है।
कभी-कभी मानव अधिकारों का ढोल पीटने वाले देश दूसरे देशों की सत्ता पलट करने की लालसा में मानवाधिकारों का उल्लंघन कर देते हैं। उदाहरण स्वरूप अफगानिस्तान, इराक, चिल्ली आदि दिशा में सत्ता परिवर्तन का स्वरूप मानवाधिकारों के हनन का जीता जागता उदाहरण ही कहा जा सकता है।
आज 21 वी सदी के इस विकासशील युग में यदि हम विश्व को उन्नति के शिखर तक ले जाना चाहते हैं तो निश्चय ही हमें मानवाधिकार के महत्व को पुनः एक बार गंभीरता से समझने की आवश्यकता है मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता और उनका संरक्षण करना प्रत्येक देश का उत्तरदायित्व होना चाहिए ।
1 समस्त देशवासियों को शिक्षा का अधिकार प्रदान कर एक सभ्य सुशिक्षित जागरूक व प्रगतिशील समाज का निर्माण किया जा सकता है।
2 समस्त नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा प्रदान कर स्वस्थ समाज का निर्माण संभव है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है। अतः उच्च स्तरीय मानसिक विकास हेतु स्वस्थ समाज का निर्माण परम आवश्यक है।
3: मौलिक चिंतन व प्रगतिशील कदम बढ़ाने हेतु समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी दिया जाना चाहिए।
4: सुरक्षा व सम्मान की रक्षा की दृष्टि से हम आज भी विशेषकर महिलाओं को हजारों वर्ष पूर्व की दयनीय अवस्था में ही खड़ा पाते हैं । मात्र कुछ प्रतिशत महिलाओं की उन्नति से ही समाज का विकास संभव नहीं है। लोकतंत्र को सशक्त व दृढ़ बनाने हेतु समाज को आधी जनसंख्या वाले महिला वर्ग को भी पूर्ण सुरक्षा व सम्मानजनक स्थान देना अत्यावश्यक है।
वस्तुतः अधिकार व कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मानवाधिकारों की सुरक्षा तभी संभव है जब एक ओर अधिकारों के प्रति लोगों को सूचित किया जाए और दूसरी ओर कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित किया जाए। शिक्षा के बढ़ते स्तर को भी मानवाधिकार का एक सशक्त पहलू के रूप में स्वीकारना होगा। निसंदेह 1992 में जस्टिस रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सरकारी पक्ष का एक सफल व सार्थक कदम है मानव अधिकारों के संवर्धन के बिना लोकतंत्र य शासन पद्धति का भविष्य अंधकार मय है। इस तथ्य को रेखांकित किए बिना न तो हम स्वस्थ लोकतंत्र का सृजन कर सकते हैं और न ही सुदृढ समाज का।
इति