kept writing stories, the journey also continued in Hindi Book Reviews by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | कहानियाँ रचती रही, यात्रा भी चलती रही

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कहानियाँ रचती रही, यात्रा भी चलती रही

डॉ. दयाशंकर त्रिपाठी

‘गंगटोक का एक भीगा-भीगा दिन’ नीलम कुलश्रेष्ठ का चौथा चर्चित कहानी संग्रह है । इसमें कुल नौ कहानियाँ शामिल हैं । एक कहानी तो वही है जिस पर कहानी संग्रह का नाम है । इस संग्रह की शेष आठ कहानियों में 'अतुलनीय भारत', 'छींटो के अक्स', 'आम औरत की आम डब्बे में यात्रा', 'रेसक्यू',  'युग्म', 'सफेद पत्थरों में अटकी जान....रन के बाछड़ा दादा', 'जन्नत की मुस्कान फ़क्त सात लाख रूपये',' पूनापलट 'के नाम शुमार हैं । वैसे तो इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ पहले ही कई छोटी-बड़ी पत्रिकाओं –हंस', 'ज्ञानोदय,' सरिता', 'पाखी', 'लोकगंगा' आदि-में प्रकाशित होकर एक के बाद एक पाठकों के सामने आ चुकी हैं, लेकिन नव कहानियों को मिलाकर पुस्तकाकार रूप में पाठक समाज तक पहुँचाने का श्रेय साहित्य भण्डार-इलाहाबाद के प्रकाशक सतीश अग्रवाल को है। लेखिका प्रकाशक दोनों इसके लिये बधाई और धन्यवाद के हकदार हैं ।

‘गंगटोक का एक भीगा-भीगा दिन’ कहानी संग्रह का अपना एक खास ठाठ और मिज़ाज है । घुमक्कड़ी के शौकीन लेखक-लेखिका प्रायः यात्रा वृत्तांत लिखते हैं । यदि वे कहानीकार हैं तो उनकी कहानी का संसार-यात्रावृत्त की दुनिया से सामान्यतः अलहदा होता है । अज्ञेय और निर्मल वर्मा के यात्रा वृत्तांतों की दुनिया कुछ है और उनकी कहानियों की दुनिया कुछ और । लेकिन नीलम जी इस दृष्टि से एक ऐसी ख़ास कहानीकार हैं जो अपने यात्रा-अनुभवों को ही अपनी कहानियों की कच्ची सामग्री के रूप में इस्तेमाल करती हैं । यात्रा अनुभवों को कहानी का विषय बनाने में दस्तावेजीकरण का खतरा रहता है, इससे कहानी की रचनात्मकता को क्षति पहुँचती है, लेकिन इस चुनौती को जानते-समझते और स्वीकारते हुए नीलम जी ने यात्रा अनुभवों को बड़ी कलात्मक और संजीदगी से अपनी कहानियों में ढाला है । यात्रा-प्रेम तो उन्हें अपने मायके और ससुराल से विरासत में मिला है, लेकिन उसका कहानी में रूपान्तरण की सर्जनात्मक खुद्दारी नीलम जी की खुद की कमाई है ।इस संग्रह को उन्होंने अपने पति मृदुल कुलश्रेष्ठ,बेटों अभिनव व सुलभ के पर्यटन प्रेम को समर्पित किया है।

आजकल पढ़े-लिखे शहरी मध्यवर्ग, जिससे कहानीकार नीलम कुलश्रेष्ठ का सीधा वास्ता है, की संवेदना इतनी सँकरी हो गयी है कि उसे अपने वर्ग के बारे मे सोचने का अवकाश नहीं है । मध्यवर्गीय संवेदना के संकट के ऐसे दौर में नीलमजी अपने वर्ग के पीछे और आगे-निम्न और उच्च मध्यवर्ग की हकीकत को बड़ी संजीदगी से देखती और अपनी कहानियों में बयाँ करती हैं । नीलम कुलश्रेष्ठ मध्यवर्ग की उत्तर आधुनिक हदबंदी का अतिक्रमण करके, भारतीय लोगों की वह तस्वीर पकड़ती और पेश करती हैं जो वाकई भारत की असली तस्वीर है । मध्यवर्ग की सुखी जिदगी जीते और घुमक्कड़ी करते हुए उनकी संवेदना मौज़-मस्ती तक सीमित नहीं है । वे अपनी कहानियों के सृजन का अक्षय स्रोत इन्हीं पलों के बीच से ढूँढ़ लाती हैं । वे शहर की जिस चकाचौंध का हिस्सा हैं उसके भीतर और पार जाकर अपनी कहानियों की वस्तु तलाशती हैं । यदि आम आदमी के लिये उनकी संवेदना का झरना सूखा नहीं है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों और फिल्म की आभासी चमकदार दुनिया से ताल्लुक रखने वाले लोग नीलम जी की संवेदना से महरूम नहीं है ।

‘गंगटोक का एक भीगा-भीगा दिन’ संग्रह की कहानियाँ अपने दायरे में आधे से ज्यादा भारत को समेटने की कोशिश करती हैं । पता नहीं कैसे दक्षिण भारत कहानियों के दायरे से छूट गया ? कश्मीर से लेकर गोवा, गुजरात से लेकर सिक्किम तक भारत की उत्तर आधुनिक चमक-दमक और मटमैलापन, जगमगाती और बुझती तस्वीर का अक्स नीलम जी की कहानियों में उभरता है । दरअसल आज का भारत अपने समाज, अपनी संस्कृति, प्रकृति, प्रजाति और भाषा की दृष्टि से विविधता और आकाश-पाताल भेद जैसी विषमता का देश है । नीलम कुलश्रेष्ठ मानवीय संवेदना के चालू मुहावरे -सरलीकरण और सामान्यीकरण के उलट अपनी कहानियों का संसार बुनती हैं । वे ट्रेन के सफ़र में रोंगटे खड़े कर देने वाले संवेदनाहीन यथार्थ से हमारा सामना करवाती हैं । ‘आम औरत की आम डब्बे में यात्रा’ का क्रूर यथार्थ है कि कुछ दबंग लड़के एक्सप्रेस ट्रेन के जनरल डिब्बे में आकस्मिक यात्रा करने वाली औरत को रुपये दिये बगैर सीट देने में कोई मुरौवत नहीं करते और डिब्बे के हट्टे कट्टे यात्री उनके सामने भीगी बिल्ली बन जाते हैं । ‘छींटों के अक्स’ में वे संवेदनाहीनता का दूसरा चेहरा हमें दिखाती हैं कि चलती ट्रेन से एक लड़का गिर गया है, लेकिन उसकी परवाह डिब्बे के ज्यादातर लोगों को कतई नहीं है और जिस एक लड़के को उसकी परवाह होती है टीटी से लेकर डिब्बे के लोग उसका विश्वास नहीं करते । ‘अतुलनीय भारत’ की ट्रेन में हमें नीलम जी का सच का तीसरा चेहरा दिखाती हैं कि आधुनिकता के नशे में धुत लड़की हो या शादी-शुदा नवेली औरत उन के प्रति ट्रेन में रोज सफ़र करनेवाले उत्तर भारतीय युवाओं की सामान्य मानसिकता कितनी घिनौनी-औरत की मसखरी करनेवाली पुरुष वर्चस्व की है और इसके ठीक उलट ‘गंगटोक का एक भीगा-भीगा दिन’ में वे हमें उस सच के रू-ब-रू करती है कि गंगटोक की औरतें पुरुष वर्चस्व के आतंक कितनी मुक्त, अपने काम धंधे के प्रति कितनी जागरूक, समर्पित और उत्तर भारतीय औरतों के लिये कितनी प्रेरक हैं ।

नीलम जी बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारी पुरुषों और औरतों की दुनिया के दो अलग-अलग यथार्थों से हमारा साक्षात्कार करवाती हैं । ‘रेसक्यू’ कहानी जिसमें बिना किसी पूर्व सूचना के बाँध का पानी खोल दिया जाता है और अनेक लोग घर से बेघर, क्या मर भी जाते हैं । ऐसे मानव सर्जित संकट के समय एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकारी अपनी मीटिंग स्थगित कर सूरत की बाढ़ में फँसे अपने तीन कर्मचारियों की जान बचाने के लिये आकाश-पाताल की जुगत भिड़ाते हैं वहीं दूसरी ओर ‘युग्म’ की भंगिमा है जो अपने मध्यवर्गीय माँ-बाप की ख़्वाहिश को पलीता लगाकर अपने ढंग के जीवन का चुनाव करती है । दो पीढ़ियों के बीच तनाव से लेकर निजी प्रेम के तनाव तक यह कहानी यात्रा करती है । ‘जन्नत की मुस्कान फ़कत सात लाख रूपये में’ कहानी कश्मीर समस्या के दो अलग-अलग यथार्थ से हमारा परिचय करवाती है । एक है कश्मीर का टैक्सी ड्राइवर अयाज़ जिसका सपना आतंकवाद से जलते कश्मीर में जलकर खाक हो जाता है और दूसरी है खालिदा जिसका सपना पिता के सात लाख रूपये पर दूसरे प्रांत से होकर आबू धाबी पहुँचकर भूमंडलीकृत मुस्कान में बदल जाता है । ‘गंगटोक का एक भीगा-भीगा दिन’ की हकीकत कुछ दूसरे प्रकार की है । गंगटोक के अमीर लोगों के बच्चे वहाँ के महँगे स्कूलों में पढ़ते हैं और वहाँ के टैक्सी ड्राइवर नीमा लिप्चा के अपने बेटे के लिये देखे साहब वाले सपने को कलकत्ता में विस्थापित कर देते हैं । यह सपना भी ट्रेवल एजेंटो की मनमानी लूट के बरक्स उसके ख़ून -पसीने की कमाई पर पल रहा है । ‘ सफ़ेद पत्थरों में अटकी जान’ में एक ओर ‘अगरिया’ लोगों का नमक बनाते तमाम होता जीवन है, मामूली ज़िंदगी जीते हुए जिनमें इंसानियत जज़िंदा है दूसरी ओर मौज़ूदा गौ रक्षकों, जो गाय रक्षा की ओट में निरपराध लोगों की हत्या कर देते हैं, के स्मृतिभ्रंश के विपरीत रन के गौ रक्षक बाछड़ा दादा का जीवन आदर्श है जो एक विधवा देवला के परिवार की जीवन आधार गायों को बचाने में खुद को शहीद कर देते हैं । यह कहानी मालिक और उनके पालतू जानवरों के आपसी प्रेम की भी अद्भुत कहानी है । ‘पूनापलट’  का एक पहलू राजेश का जीवन संघर्ष खोलता है और उसका दूसरा पहलू सलमान खान के जीवन संघर्ष से खुलता है । राजेश का हीरो बनने के सपने की जिद के आगे उसका पूरा परिवार बर्बाद हो जाता है और सलमान का फिल्मी संघर्ष उन्हें आकाश की बुलंदी तक ले जाता है ।

नीलम कुलश्रेष्ठ की सभी कहानियाँ भारत के इसी ऊबड़-खाबड, चिकने, विषम यथार्थ की जमीन पर विकसित होते हुए फलती-फूलती हैं । वे अपनी कहानी को अक्सर पिछले अनुभव यथार्थ (फ़्लैश बैक) और मौजूदा यथार्थ, कभी-कभी दो विरोधी सामाजिक यथार्थ के तनाव में बुनती है और बड़ी ख़ूबी से उन्हें अंत तक संभालती भी हैं । उनकी हर कहानी का कथानक, उसके भीतर का अनुभव-संसार अलग-अलग है । इसलिए उनमें न तो किसी प्रकार का दुहराव है और न ही एकरसता ।

नीलम जी अपनी कहानियों में स्थान, वस्तु, रूप वर्णन में बहुत माहिर है । ये वर्णन उनकी कहानियों को उनके भूगोल, आबोहवा, समाज और संस्कृति से बाँधे रहते हैं । वे वर्णन के विस्तार में नहीं जाती, बल्कि अपने सर्जनात्मक संयम से अपनी कहानियों को पुष्ट और ठोस बनाती हैं । इसी अद्भुत संयम के चलते वे अपनी कहानियों को यात्रा वृत्तांत के भँवर से निकाल कर उनके मर्म और आस्वाद तक अपने पाठक को पहुँचाती हैं । वे यात्रा वृत्तांत और कहानी दोनों विधाओं की शक्ति और सीमा को बहुत अच्छी तरह से जानती हैं । इसीलिये वे कहानी की संरचना में यात्रा वृत्तांत को खपा लेती हैं । अपने इसी सर्जनात्मक कौशल के बूते वे मथुरा-वृंदावन इंटरसीटी, बाम्बे-दिल्ली एक्सप्रेस, आगरा इंटर सीटी के अंदर की जीती-जागती, आकर्षक, अमानवीय दुनिया को साकार कर देती हैं । उनकी कहानियों में सूरत की मानव सर्जित जानलेवा बाढ़, कश्मीर और गंगटोक का प्राकृतिक सौंदर्य, उत्तर गुजरात का वीरान रन, सिक्किम का टैक्सी ड्राइवर नीमा लिप्सा और अयाज़ की शक्ल-सूरत, गोवा का समंदर, बाघा बीच, लोना वाला की पहाड़ियाँ और रिसोर्ट, पंच सितारा होटल के रिसोर्ट और ब्रेकफास्ट काउंटर, रन का सूर्यास्त, कश्मीर में मिलिटेंट और मिलेट्री का आतंकी माहौल, बिग बॉस का सेट और शूटिंग, राजेश का डांस, कबूतर बाबा और भी बहुत कुछ को बहुत कम शब्दों में हमारी आँखों के सामने साकार हो जाता है । प्रकृति हो या मनुष्य के क्रिया कलाप नीलम जी की दृष्टि अपनी कहानी में बड़े मूर्त और कम शब्दों में टाँक लेती हैं ।

आधुनिक हिंदी भाषा को समृद्ध करने में सर्वाधिक योगदान उपन्यासों और कहानियों का है । दरअसल जिस प्रांत और भाषा क्षेत्र का कथानक होता है पात्र भी वहीं के होते हैं । भारतीय भाषाओं के विविध रूपों और उनके बोलचाल के लहजे को पकड़ना आसान काम नहीं है । इसके साथ बंबइया हिन्दी तो पहले से ही पिजन भाषा थी । पिछले तीस वर्षों में मीडिया और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव ने भारत में और एक पिजन भाषा हिंग्लिशिया हिन्दी को तेजी से बढ़ावा दिया है । नीलम जी मूलतः हिन्दी भाषी हैं, कई दशकों से रहती गुजरात में हैं और घुमक्कड़ी तो उन्होंने भारत के अनेक प्रांतों की की है । अलग-अलग प्रांतों के कथानक और वहाँ के लोगों की तरह-तरह की भाषा संस्कृति की पकड़ नीलम जी की कहानियों को विश्वसनीय तो बनाती ही हैं, इनके पात्रों के खास प्रदेश का होने की यथार्थ प्रतीति भी कराती है । मराठी, पंजाबी, उर्दू और बृज चाशनी वाली खड़ी बोली, हिन्दीतर भाषाओं के लहजे में ढली हिन्दी आदि की जीती-जागती व्यवहारू झाँकियाँ हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों से जुड़ी ‘रेसक्यू’. ‘युग्म’, चैट शो से जुड़ी ‘पूना पलट’ की हिंग्लिशिया हिन्दी, जिस पर अँग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व है, देखने लायक है । ट्रेन में तो अनेक भाषा-बोली के लोग अपने-अपने प्रांत के लोगों से अपनी प्रांतीय भाषा में बातचीत करते मिल जाते हैं । इप्शिता जैसे लोग भारत से बाहर रहते हैं उनकी हिंदी अँग्रेज़ी की बैसाखी लेकर चलती है । कश्मीर और गंगटोक जैसी घूमने की जगहों के टैक्सी ड्राइवर अपने प्रांतीय भाषा के टोन में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का व्यवहार करते हैं । सैण्ड्रा कार्पोरेट जगत के हिंग्लिशिया माहौल में बड़े ठसके से एंग्लो इंडियन बंबइया हिन्दी बोलती है । रेल के भीतर मूंगफली बेचने वाले, रेलवे पुलिस, टीटी रोज आने-जाने वालों की भाषा का एक ख़ास लहज़ा होता है । नीलम जी भारतीय भाषा और बोलियों के अनेक लहज़ों को अपनी कहानियों में लाती हैं । उनके ज्यादातर उपमान पुराने हैं, लेकिन नुडल्स की तरह बलखाती सड़क, गंगटोक की सड़क के किनारे लगे बोर्ड का होटल के रैंप पर कैटवाक करती ग्रामीण लड़की की तरह लगना आदि उपमान नये हैं और उनके मध्यवर्गीय जीवन के अनुभव से ऊपजे हैं ।

नीलम जी का कथा कौशल सामान्यतः पुरानी कहानियों से कुछ अलग किस्म का है । वे अपने यात्रानुभवों के अनुरूप कथा बुनती हैं और उन्हीं के बीच से पात्रों और उनके यथार्थ को पकड़ती हैं । कहानी का पुराना और प्रचलित ढर्रा यह रहा है कि उसका कोई न कोई मुख्य पात्र होता है । सामान्यतः उसकी उपस्थिति पूरी कहानी में रहती है । यदि उसकी उपस्थिति कहानी के बीच में हो तो भी उसकी उपस्थिति का आभास आरंभ से कराया जाता रहा है । नीलम जी अपनी कहानियों में शर्त की पाबंद नहीं हैं । यात्रा के दौरान जो पात्र नीलम जी की संवेदना को, वे अनुकूल हों या प्रतिकूल, अधिक छूते हैं वे अपने कौशल से उन्हीं का रंग विशेष गाढ़ा करती है । 'युग्म',' पूना पलट', 'सफ़ेद पत्थरों में अटकी जान, रन के बाछड़ा दादा',' जन्नत की मुस्कान फक्त सात लाख रूपये में',' गंगटोक का एक भीगा-भीगा दिन' में एक हद तक कहानी का पुराना कौशल दिखता है। कुछ कहानियों में कथा समाहार की कमी खटकती है । ‘युग्म’ और ‘पूनापलट’ का कथा विधान कुछ ढीला है, उन्हें और भी कसा जा सकता है । अमूमन नीलम जी के इस संग्रह की सभी कहानियाँ अच्छी है, लेकिन उनके अगले संग्रह में मैं इनसे भी बेहतर और कसी कहानियों की उम्मीद करता हूँ ।

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कहानी संग्रह- ‘गंगटोक का एक भीगा-भीगा दिन’

लेखिका - नीलम कुलश्रेष्ठ,

प्रकाशक   -साहित्य भंडार-इलाहाबाद,

प्रथम संस्करण-2017, मूल्य रु.175/-

समीक्षक -- -डॉ .दयाशंकर त्रिपाठी (094275 49364)

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग

सरदार पटेल विश्वविद्यालय,

वल्लभ विद्यानगर, आणंद

गुजरात-388 120