गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ।।
साधु असाधु सदन सुक सारीं।सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं ।।
पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता - मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं।
संत तुलसीदास द्वारा बताया गया संगति का यह महत्व आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उस समय था। गुरुदेव की सुसंगति और सानिध्य में रहकर मेरे जीवन का तम मिट गया और जीवन प्रकाशमय हो गया।
मेरा वह स्वप्न साकार हो गया और मेरा उस अध्यापक भर्ती में चयन हो गया। गुरुदेव लेवल -2 के थे और लेवल 2 में कॉम्पिटिशन बहुत ज्यादा था। उनका चयन नहीं हो पाया था ।पर वो कहाँ इन संघर्षों के आगे आत्मसमर्पण करने वाले थे। वे एक बार पुनः जयपुर गए और वरिष्ठ अध्यापक पद के लिए संघर्ष में जुट गए।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती
बच्चन की इस कविता को सार्थक करता गुरुदेव का संघर्ष हम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगा। वरिष्ठ अध्यापक में उच्च रैंक के साथ ही उन्होंने अपने संघर्ष द्वारा असफलता को मात दी और राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, रिदवा जैसलमेर में प्रधानाध्यापक के पद पर सुशोभित हुए।
जिस तरह एक पुष्प हमेशा अपनी सुगंध द्वारा मलीन वातावरण को भी निर्मल बना देता है। वैसे ही एक कर्मठ और समर्पित व्यक्ति अपने कर्म द्वारा कैसी भी परिस्थिति में अपने कर्मक्षेत्र को बगिया की तरह सुव्यवस्थित और महका देता है।
गुरुदेव ने रिदवा में कैसा कार्य किया इसका प्रमाण देने की आवश्यकता मुझे नहीं है। सम्पूर्ण जिले में उनकी जो छाप है और उनके कार्य की जिले के सबसे बड़े प्रशासनिक अधिकारी श्रीमान जिला कलेक्टर और विधायक महोदय द्वारा उनके कर्म को श्रेष्ठ बताकर उनका कायल होना ही उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
सौभाग्य से एक बार गुरुदेव के विद्यालय जाने का अवसर प्राप्त हुआ। उनकी कर्मस्थली को देखकर मन गदगद हो गया। साफ और स्वच्छ वातावरण,महकते हुए पुष्पों से सुसज्जित वाटिका, विद्यार्थियों के मिड-डे-मील के लिए पोषक सब्जियों से भरा किचन-गार्डन, विद्यालय परिसर को स्वच्छ ऑक्सीजन देने ,गर्मियों में शीतल छाया देने व विद्यालय को हरियाली से सजाते देव रूपी पेड़, स्वच्छ व शीतल जल व्यवस्था , अपनी सफेदी से तारों की चमक को फीके करने वाले कक्षा - कक्ष,दीवारों पर बच्चों के लिए बने सुंदर व ज्ञानवर्धक चित्र,उच्च प्राथमिक और साथ ही सरकारी विद्यालय होने के उपरांत भी बच्चों के लिये सुविधा के अनुसार स्टूल,टेबल और बैठने की सुंदर व्यवस्था इत्यादि बहुत सारी व्यवस्थाएं मैंने उनके विद्यालय में देखी।
विद्यालय का भौतिक वातावरण जितना मनोहर था उतना ही विद्यालय का बौद्धिक, शैक्षिक और सामाजिक वातावरण था।
जैसलमेर में अधिकांश उच्च माध्यमिक विद्यालयों में प्रोजेक्टर का अता-पता नहीं और गुरुदेव ने निश्चित तौर पर भामाशाहों के अतुलनीय सहयोग से विद्यालय में उच्च कोटि के प्रोजेक्टर के साथ ही कम्प्यूटर लैब भी स्थापित की।
पहले सम्पूर्ण जैसलमेर जिले में ही केवल निजी संस्थानों में ही विद्यालय का वार्षिक उत्सव होता था लेकिन गुरुदेव ने न केवल विद्यालय में वार्षिक उत्सव का आयोजन किया बल्कि बहुत ही शानदार तरीके से उसका आयोजन कर निजी विद्यालय में ही इसके आयोजन की परिपाटी को तोड़ दिया जिसकी प्रसंशा किये बिना स्वयं जिला कलेक्टर भी नहीं रह सके। उनके इस आयोजन के अगले वर्ष से ही सरकार ने भी अपने विद्यालयों में इसके आयोजन के आदेश दे दिए थे।
गुरुदेव ने विद्यालय में बच्चों के स्तर को लेकर भी बहुत उम्दा कार्य किया। चाहे खेल हो,विज्ञान मेला हो अथवा बच्चों का बौद्धिक स्तर सभी में विद्यालय का स्तर उत्कृष्ट ही रहा।
निश्चित तौर से विद्यालय में पुष्प रूपी सभी कर्मचारी अपनी खुश्बू से विद्यालय के वातावरण को खुशनुमा बना रहे थे लेकिन वही वाटिका श्रेष्ठ हो पाती है जिसका माली कर्मठ और लगनशील हो। और गुरुदेव जैसा माली जब इस वाटिका को प्राप्त हुआ तो यह बाग चारों और अपनी महक फैला रहा था और जहाँ इतनी पवित्र और निर्मल सुगंध आ रही हो तो भँवरे तो उस ओर आकृष्ट होंगे ही। इसीलिए निरीक्षण करने वाले अधिकांश अधिकारी इस ओर अवश्य ही आते और गुरुदेव अपने सुरम्य बाग का भ्रमण उन्हें करवाते और उस बाग की खुश्बू से आने वाले सब लोग आनंदित हो जाते।
गुरुदेव के अपने सहकर्मी अध्यापकों के साथ संबंध भी बहुत अनूठे थे। किसी साथी को वो हर तरह से प्रोत्साहन तो प्रदान करते ही थे साथ ही कुछ बातों पर एक अच्छे अभिभावक की भांति समझा भी देते थे। उसकी किसी भी व्यक्ति से कार्य करवाने की स्कीम का खुलासा तो मैं पूर्व में ही कर चुका हूँ।
बच्चों, सहकर्मचारियों और अपने से उच्च अधिकारियों के साथ ही ग्रामीणों से भी उनका तारतम्य गजब का था। रिदवा का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो उनके व्यक्तित्व का कायल न हो। भामाशाहों को प्रोत्साहन और उनका सहयोग जो गुरुदेव ने लिया उसका अन्यतम उदाहरण मिलना अतिदुर्लभ है।
गुरुदेव को इस विद्यालय में लगे करीब तीन वर्ष ही हुए थे और गुरुदेव ने इतने कम समय में विद्यालय के सौंदर्य में जो अप्रतिम कार्य किया वह करने में कई जगह सालों लग जाते है।
वर्तमान में गुरुदेव का स्थानांतरण उनके गाँव के नजदीक ही पाबनासर में हो चुका है। और रिदवा में उनका विद्यालय के प्रति उत्साह,लगन,स्नेह और पूर्ण समर्पण का ही परिणाम है कि रिदवा से उनके स्थानांतरित होने के उपरांत आयोजित विदाई समारोह में गाँव के बुजुर्ग तक शामिल हो गए। ग्राम के लोगों की आँखों में जो प्रेम रूपी मधुर स्नेह बरस रहा था उससे बड़ी पूंजी भला एक व्यक्ति के लिए क्या हो सकती है? पूर्ण विश्वास है कि नई कर्मभूमि पर भी गुरुदेव वही सुगंध और पवित्र धारा का वर्षण करेंगे जो उन्होंने रिदवा में रहकर किया था।
केवल इतने समय में ही ऐसा सुंदर कार्य करने के कारण ही उनको ब्लॉक और वर्तमान में जिला स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है। आशा है आने वाले समय में वो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मानित हो जाये पर आम लोगों और बच्चों के इस प्रेम से बड़ा सम्मान तो वो भी नहीं होगा।
गुरुदेव के संग की इस संस्मरण की मधुर यात्रा को अब मैं यही विराम देता हूँ। लेकिन गुरुदेव के निर्मल संग का लाभ मिलना अब भी जारी है। जीवन में कभी अवसर मिला तो अवश्य ही यात्रा को आगे बढ़ाने का प्रयत्न करूँगा।
आशा है इस यात्रा में आपको कुछ आनंद अवश्य प्राप्त हुआ होगा। अगर मेरी किसी बात से किसी बंधु को बुरा लगा हो तो मैं क्षमा का प्रार्थी हूँ। मुझे एक अबोध और भाव में डूबा हुआ प्राणी समझ कर आप मेरे बालपन पर हँस कर मुझे क्षमा करेंगे और अपने स्नेह की निर्मल वर्षा से मुझे पवित्र और आनंदित करते रहेंगे।
- नन्दलाल सुथार "राही"