Paajeb - 3 in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | पाज़ेब - भाग(३)

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पाज़ेब - भाग(३)

कमरें में अँधेरा था फिर हमीदा की नज़र दरवाज़े की ओट की तरफ़ गई,उसने देखा कि वहाँ सफ़ेद लिबास़ में एक साया खड़ा है,लेकिन उसका चेहरा हमीदा नहीं देख पा रही थीं उसे देखते ही हमीदा ने पूछा....
कौन हैं वहाँ? तो किसी ने कुछ भी जवाब ना दी....
हमीदा ने एक बार फिर से पूछा....
कौन हैं? जवाब दीजिए।।
लेकिन तब भी किसी ने कोई आवाज नहीं दी....
हमीदा का दिमाग़ चकरा गया और वो बौखलाकर चीख उठी....
हम पूछते हैं कौन है वहाँ? कोई जवाब क्यों नहीं देता?
लेकिन तब तक वो साया दरवाज़े की ओट से गायब हो चुका था...
हमीदा लम्बी साँस लेते हुए बिस्तर पर बैठी ही थी कि बिस्तर के नीचें से किसी ने उसके पैर पकड़े,हमीदा ने डरते डरते अपने पैरों की ओर देखा,उसके पैरों को दो घिनौने हाथों ने पकड़ रखा था,उसने पैर छुड़ाने की कोशिश की लेकिन उन हाथों की पकड़ बहुत मजबूत थी वो अपने पैर नहीं छुड़ा सकीं,जब उसके पैर नहीं छूटे तो वो जोर से चीखीं,
उसकी आवाज़ सुनते ही शहनाज़ भागकर आई और मुर्तजा भाईजान भी जाग पड़े,उन्होंने अपने कमरें से ही पूछा....
क्या हुआ हमीदा? आप चीखीं क्यों?
तब तक उसके पैर उन हाथों की जकड़ से छूट चुके थे तो वो बोली...
कुछ नहीं भाईजान! बुरा ख्वाब था।।
शहनाज़ ने भी यही सवाल किया तो हमीदा ने उसे भी वही जवाब दिया,फिर उसने शहनाज़ से कहा....
शहनाज़ अगर आपको कोई दिक्कत ना हो तो आप हमारे पास ही सो जाएं,हमें डर लगता है।।
जी! अम्मीजान! हम आपके पास ही सो जाते हैं और शहनाज़ उस रात हमीदा के पास ही सो गई।।
दूसरे दिन सुबह हमीदा बड़ी अजीब ही कश्मकश में थी उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि वो क्या करें?दिनभर कुछ ना कुछ सोचती रही उसका किसी भी काम में दिल नहीं लग रहा था,अपने ही ख्यालों में गुम थी,आखिर वो साया किसका था?वो हाथ किसके थे जिन्होंने हमारे पैरों को जकड़ रखा था, बहुत ही संजीदा हालात थे हमीदा के सामने ,
दिन तो जैसे तैसे गुजर गया लेकिन फिर से रात हुई आज हमीदा ने नाइट बल्ब की रौशनी कर रखी थी ताकि रौशनी में वो साया उसे दिख जाएं और हमीदा को फिर से उसी साऐ का खौफ़ सताने लगा,रात को उससे खाना भी ना खाया गया और ऐसे बिस्तर पर लेट गई,उसे एक अजीब़ सी खामोश़ी ने आ घेरा था,वो मन में सोच ही थी कि कहीं ये वही तो नहीं जो अपना इन्तकाम लेने वापस लौटीं हों,लेकिन उनका तो इन्तकाल हो चुका था,वो वापस कैसें लौट सकतीं हैं....?
ऐसी ही उलझनों के बीच हमीदा को कब नींद आ गई उसे पता ही नहीं चला...
करीब आधी रात के वक्त हमीदा को फिर किसी ने पुकारा.....
हमीदा...आपा...सुनिए ना ! हमीदा आपा.....
हमीदा ने अपनी आँखें खोलीं तो उसके माथे पर कुछ गीला गीला गिरा,उसने अपने हाथ से माथा पोछा और ऊपर देखा कि आखिर क्या टपक रहा है? देखा तो कोई औरत पंखें में अपने पैर फँसाकर उल्टी लटकी है और उसके लम्बे बालों ने उसका चेहरा ढ़क रखा हैं,उसके हाथ नीचें लटक रहें हैं और उसकी ऊँगलियों से खून रिस रहा है तो टपक टपककर हमीदा के माथे को भिगों रहा था.....
ये देखते ही हमीदा फिर से चीखी और इस बार तो शहनाज़ के साथ साथ मुर्तजा भाईजान भी आ पहुँचे,उन्होंने हमीदा से पूछा....
क्या हुआ हमीदा? कोई परेशानी हो तो कहें,हम आपकी मुश्क़िलात़ से आपको निज़ात दिलाएं,आपका यूँ घड़ी घड़ी खौफ़ खाना हमें बैचेन कर रहा है,आप दिल्ली में भी ऐसे ही चीखतीं थीं या केवल यहीं ऐसा हो रहा है।।
भाईजान! खौफ़ज़द़ा ख़्वाब देख लिया,शायद उसी का अस़र है,हमीदा बोली।।
कैसा ख्वाब है भाई? जो आप चींख पड़तीं हैं,आप कहें तो हम मस्जिद के मौलवी साहब से बात करें,शायद वो आपको इस खौफ़ज़दा ख्वाब से निजात दिला सकें,मुर्तजा साहब बोले।।
नहीं भाईजान! आप हमारी फिक्र ना करें ,हम ठीक है,हमीदा बोली।।
आप कहतीं हैं तो ठीक है लेकिन आगें से कोई ऐसी दिक्कत हो तो खुलकर कहिएगा,मुर्तजा साहब बोले।।
ठीक है भाईजान! आप सो जाइए,हम भी अब लेटते हैं,हमीदा बोली।।
ठीक है तो हम जाते हैं और इतना कहकर मुर्तजा साहब अपने कमरें में सोने चले गए....
फिर शहनाज़ बोली....
आप कहें तो अम्मीजान! हम आपके साथ लेट जाएं।।
नहीं! आप जाइए,अब हम ठीक हैं,हमीदा बोली।।
और फिर शहनाज़ भी अपने कमरें में चली गई लेकिन हमीदा फिर रात भर सो ना सकीं,सुबह हुई उसने उस पुरानी हवेली में जाने का सोचा और दोपहर को सबको खाना खिलाने के बाद वो उस पुरानी हवेली में चली आई और घूम घूमकर हवेली को देखने लगी फिर वो उस कुएँ के पास भी आई जिसमें बरगद का पेड़ उग आया था और उसकी जड़े यहाँ वहाँ फैलीं हुईं थीं.....
हमीदा खड़े होकर उस पेड़ को निहारने लगी तभी अचानक उस पेड़ की जड़ो ने हमीदा के नजदीक आना शुरू कर दिया , हमीदा पीछे हटती जा रही थी और उस पेड़ की जड़े उसके और नजदीक आती जा रहीं थीं,हमीदा खौफ़ खाकर जैसे ही भागने को हुई तो उन जड़ों ने हमीदा के पेड़ो को जकड़ लिया,हमीदा अपने पैरों को छुड़ाने की कोशिश करती रही लेकिन वो कामयाब ना हो सकी,हमीदा जोर से चीखी,उसकी चीख सुनकर बाहर से गुज़र रहे कोई साहब हवेली के भीतर दाखिल हुए और उन्होंने घबराई हुई हमीदा से पूछा....
क्या बात है मोहतरमा? आप चीखीं क्यों? और इस वक्त आप! इस वीरान हवेली में क्या कर रहीं हैं?
हमीदा जैसे ही ये बोलने को हुई कि उसके पैरों को बरगद की जड़ों ने जकड़ रखा है तो तब उसने नीचें की तरफ अपने पैरों को देखा वहाँ किसी भी जड़ का कोई भी नामोनिशान तक नहीं था,फिर हमीदा ने झूठ बोलते हुए कहा कि यहाँ एक बड़ा सा गिरगिट था हमने वो देख लिया और खौफ़ में आकर चीख पड़े....
अच्छा तो ये बात है,चलिए मैं आपको बाहर तक छोड़ दूँ और आइन्दा इस हवेली में कभी मत आइएगा,यहाँ आपका आना आपके लिए मुश्किलात खड़ी कर सकता है,वें साहब बोले।।
और फिर हमीदा उनके साथ हवेली के बाहर आकर घर चली आई लेकिन रास्ते भर मन में सोचती रही कि उसे पक्का यकीन है कि जड़ो ने उसके पैरों को जकड़ा था,एक घड़ी में गायब कैसें हो गईं ?समझ नहीं आ रहा।।
हमीदा घर लौटी तो शहनाज़ ने पूछा...
अम्मीजान! आप कहाँ गईं थीं?
हमारी एक सहेली रहतीं हैं उनकी खैरियत पूछने गए थे।।
ठीक है लेकिन आप इतनी बैचेन से क्यों लग रहीं हैं?शहनाज़ ने पूछा।।
बस,कुछ नहीं,सहेली के हालात ठीक नहीं इसलिए दिल थोड़ा डूब सा गया है,हमीदा बोली।।
अच्छा! कोई बात नहीं अम्मीजान! सब ठीक हो जाएगा,आप फिक्र ना करें,शहनाज़ बोली।।
उम्मीद तो यही है,हमीदा बोली।।
ठीक है तो आप हाथ पैर धो लीजिए,हम आपके लिए चाय बनाएं देते हैं,शहनाज़ बोली।।
हमारी प्यारी बच्ची! और इतना कहकर शहनाज़ हाथ मुह धोने चली गई।।

फिर शाम हुई और शाम होते ही हमीदा के दिल की धड़कने बढ़ने लगी,उसने शाम के कुछ काम निपटाएं,जैसे की अजिर (आँगन) में बावर्चीखाने से बरतन लाकर धुलें,अजिर में झाड़ू लगाई क्योकिं दिनभर फूल पत्ते झड़कर अजिर को गंदा कर देते थे,फिर अँधेरा भी हो चला और वो बावर्चीखाने में आकर सब्जियांँ काटने में लग गई,सिलबट्टे में मसाला पीसा और सब्जी बनाने के लिए कढ़ाई चढ़ा दी ,सब्जी झौंककर वो बावर्चीखाने की खिड़की पर आकर खड़ी हो गई,जहाँ से नीम का पेड़ दिखाई दे रहा था,
उसने नीम के पेड़ पर कुछ लटका हुआ देखा गौर किया तो कोई पेड़ की टहनी में अपने दोनों पैर फँसाकर झूल रहा है,अब वो उसमें इतनी तेज़ झूल रहा था कि बिल्कुल चक्करघिन्नी बन गया था लेकिन एक पल में वो वहाँ से गायब भी हो गया,हमीदा ने सोचा होगा कुछ लेकिन वो जैसे ही मुड़ी तो वो उसी साएं से जा टकराई लेकिन चीखीं नहीं,फिर वो साया एकदम से वहाँ से भी गायब हो गया,अब तो हमीदा को काटो तो खून ना निकले वो एकदम बुत की तरह कुछ पल खड़ी रही फिर बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी,इतने में शहनाज़ बावर्चीखाने में पानी पीने आई हमीदा को फर्श पर गिरा हुआ देखकर परेशान हो उठी....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....