महाकवि भवभूति और मीमांसक उम्बेक की समानिकता एवं भिन्नता पर अभी तक कोई ऐसा निष्कर्ष प्राप्त नहीं हो सका है जो सर्वमान्य और सर्वग्राहय हो । दोनों ही पक्षों के पास अपने तर्क हैं और उन तर्कों का अपना औचित्य भी है। भवभूति तथा उम्बेक दोनों एक ही है अथवा भिन्न है? ---इस प्रश्न की ओर साहित्यकारों का ध्यान सबसे पहले आकृष्ट करने वाले स्वर्गीय श्री पांडुरंग पंडित थे। श्री पंडित ने इंदौर के श्री एम० बी० लेले से मालती माधव की लगभग 500 वर्ष पुरानी पांडुलिपि प्राप्त की। इस पांडुलिपि के तृतीय अंक की पुष्पिका में वह प्रकरण कुमारिल भट्ट के शिष्य द्वारा प्रणीत बताया गया है ----
"इति भट्ट कुमारिल शिष्य कृते मालती माधवे तृतीयो अंक : ।"
जबकि छठे अंक की पुष्पिका यह बताती है कि उसके कर्ता उम्बेकाचार्य है।-----
"इति श्री कुमारिलस्वामीप्रसादप्राप्त वाग्वैभव श्रीमद् उम्बेकाचार्य विरचिते मालती माधवे षष्ठो अंक: "----
तथा 10 वे अंक की पुष्पिका में उल्लेखित है कि वह भवभूति द्वारा विरचित है ----
"श्रीमद् भवभूति विरचिते मालती माधवे दशमो अंक: "
इन उद्धरणों से भवभूति और उम्बेकाचार्य का एक ही होना प्रमाणित होता है।
इन दोनों आचार्यों के अभिन्न होने का एक और प्रमाण उम्बेकाचार्य की तात्पर्य टीका के प्रारंभ में दिए गए मालती माधव के इस प्रसिद्ध श्लोक से भी मिलता है‐---
"ये नाम केचिदिह नः प्रथमन्दत्यवज्ञाम्
जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्नः ।
उत्पत्स्यते ऽस्ति मम कोऽपि समान धर्मा,
कालो ऽयम् निरवधिर्विपुला च पृथ्वी । ।,,
इनके अतिरिक्त भी अनेक दार्शनक ग्रंथों में भवभूति और उम्बेक को अभिन्न समझने का प्रयास किया गया है। उम्बेक की
दो रचनाएं टीकाओं के रूप में प्रकाशित है ----"कुमारिल के "श्लोक वार्तिक"पर "तात्पर्य टीका "और "मंडन मिश्र" के "भावना विवेक "पर एक टीका । इन टीकाओं एवं अन्य स्थलों पर उल्लिखित उम्बेक आचार्य के मतों तथा तथ्यों के विश्लेषण के पश्चात ,श्री कुप्पू स्वामी , शास्त्री श्री गंगानाथ झा ,श्री पी• वी• काणे ,जैसे अनेक विद्वानों ने भवभूति और उम्बेक की समानिकता को स्वीकार किया है और उन्हें अभिन्न माना है।
श्री पी० वी ०काणे महोदय के मत में भवभूति एवं उम्बेक को एक स्वीकार करने के पीछे यह तर्क दिया जा सकता है कि भवभूति अपने प्रारंभिक जीवन में कुमारिल के शिष्य उम्बेक थे और जीवन के बाद के वर्षों में उन्होंने पूर्व मीमांसा की उपेक्षा कर वेदांत विद्या के अध्ययन हेतु महर्षि बाल्मीकि के पास से अगस्त आदि ब्रह्मवेताऋषियों के पास जाना (उत्तररामचरित 2/ 3) भवभूति के अपने जीवन की ही घटना हो सकती है जो इस बात की द्योतक है कि भवभूति ने अपने जीवन में न केवल स्थान परिवर्तन किया बल्कि गुरु परिवर्तन भी किया था।
इस मत के विपरीत डॉ आर ०जी० भंडारकर इन दोनों के अभिन्न होने में संदेह करते हैं। उन्होंने मालती माधव पर अपने संस्करण की प्रस्तावना में कहा है कि ----"कोई भी ऐसा तथ्य परिचय में नहीं है, जिसके अनुसार भवभूति और उम्बेक को एक न स्वीकार किया जा सके, किंतु तब भी कुछ कठिनाइयां ऐसी हैं जो इस ऐक्य की सत्यता में बाधा प्रस्तुत करती हैं। ---
(1 )श्री एस०पी० पंडित को प्राप्त मालती माधव की हस्तलिखित प्रति के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रति या संस्करण में उम्बेक आचार्य का उल्लेख नहीं मिलता।
( 2) उम्बेक मीमांसा के आचार्य थे, किंतु भवभूति अपने जिन विषयों के पांडित्य की ओर संकेत करते हैं उनमें मीमांसा का समाहार नहीं होता और न ही उनकी रचनाओं में उनके मीमांसक होने का कोई प्रमाण मिलता है ।
( 3) भवभूति ने कहीं भी कुमारिल भट्ट को अपना गुरु नहीं कहा है उन्होंने अपने गुरु को ज्ञान निधि कहकर संबोधित किया है। इतना मानने पर भी डॉक्टर भंडारकर इसमत की सत्यता की जांच का भार भावी अनुसंधानकर्ताओं पर छोड़ देते हैं।
प्रो० मिराशी ने ऐसे विभिन्न मतों के प्रकाश में इस प्रश्न पर कुछ मौलिक ढंग से चिंतन किया है। दोनों ही पक्षों की सारगर्भित मीमांसा करने के पश्चात वे इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भवभूति और उम्बेक एक नहीं अपितु दो भिन्न व्यक्तित्व हैं। प्रो मिराशी के मत की पुष्टि में जो तथ्य उभरकर आते हैं वे इस प्रकार है----
1 उम्बेक की साहित्यिक गतिविधि का समय लगभग 775 ईसवी से लेकर 800 ईसवी के बीच पड़ता है जबकि भवभूति इन से लगभग 50 वर्ष पूर्व भी अपना साहित्यिक काल समाप्त कर चुके थे।
2 कश्मीर से लेकर मैसूर तक बिखरी हुई भवभूति की पांडुलिपियों में कहीं भी ऐसे तथ्य नहीं मिलते कि जिससे यह सिद्ध हो सके कि भवभूति और उम्बेक एक ही व्यक्ति के दो नाम है। असली पंडित द्वारा प्राप्त केवल एक पांडुलिपि के आधार पर इसे प्रमाणित नहीं कहा जा सकता।
3 भवभूति तथा उनके पूर्वजों के नाम विशुद्ध संस्कृत भाषा से लिए गए हैं जब कि उम्बेक नाम द्रविड़ संस्कृति का सूचक है ।
4 यदि भवभूति के गुरु कुमारिल भट्ट होते तो निश्चय ही वे उनके इसी नाम का उल्लेख अपने ग्रंथों में करते"" ज्ञान निधि" शब्द का नहीं। "ज्ञान निधि" शब्द का प्रयोग भी किसी के विशेषण के रूप में प्रयोग किया गया प्रतीत नहीं होता। वह वस्तुतः संज्ञा पद की तरह ही प्रयुक्त है, जिस का विशेषण पद है ,---"श्रेष्ठ परमहंसानाम्"। अतः स्पष्ट है कि "ज्ञान निधि" निश्चय ही कोई दूसरे आचार्य हैं जिनक चरणों में बैठकर भवभूति ने विविध शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था।
5: "नयन प्रसादिनी "टीका में प्रत्यक्ष रूप भगवान द्वारा-- "भवभूतिरूम्बेक :" आदि कहकर दोनों के ऐक्य की पुष्टि होने का कारण यह भी हो सकता है कि प्रत्यक्ष रूप भगवान का समय बहुत बाद का है और संभवत उनके समय तक यह भ्रम फैल चुका था कि भवभूति और उम्बेक एक ही व्यक्ति थे।
6 उम्बेक ने जानबूझकर भवभूति के उक्त श्लोक को अपने तात्पर्य टीका में पहले रखा है। क्योंकि वे स्वयं भी अपनी विद्वता के संबंध में अपने पाठकों से वही कहना चाहते थे जो भवभूति अपने सामाजिकों को बताना चाहते थे ।
इस प्रकार अनेक तथ्यों के प्रकाश में प्रो० मिराशी का मत अधिक समीचीन प्रतीत होता है। डॉ० कुंदन भी इसी मत के पक्षधर प्रतीत होते है
ग्रंथों के विश्लेषण से यह बात भी स्पष्ट होती है कि भवभूति ने अपने ग्रंथों में कहीं भी उम्बेक का नाम उल्लेख नहीं किया है और न ही उम्बेक कहीं भवभूति की चर्चा करते हैं। इन दोनों का मौन इनके अलगाव का ही नहीं अपितु इस बात का भी सूचक है कि दोनों का कार्यक्षेत्र पूर्णत भिन्न था। भवभूति विशुद्ध कवि थे और उम्बेक शुद्ध मीमांसक । यदि उम्बेक कवि होते तो परिवर्ती होने पर भी अन्य कवियों की भांति भवभूति का उल्लेख अपनी रचनाओं में कर सकते थे।
भवभूति और उम्बेक दोनों के ग्रंथों में एक श्लोक होने के आधार पर भी दोनों को एक नहीं माना जा सकता। अनेक ग्रंथों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि रचनाकार अपने प्रयोजन सिद्धि हेतु या अपनी भावना की पूर्णता हेतु कई बार अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों के उन श्लोकों का अपनी कृति में आहरण कर लेते हैं जो उन्हें पूरी तरह अपनी भावनाओं के अनुकूल जान पड़ते हैं। अपनी कृति की मौलिकता बनाए रखने की दृष्टि से वे उन्हें उद्धरण के रूप में प्रस्तुत न कर अपने वक्तव्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उम्बेक ने जिस प्रकार भवभूति के श्लोक को अपने तात्पर्य टीका के प्रारंभ में ग्रहण किया है उसी प्रकार शबर और कुमारिल के विचारों की आलोचना करते समय अपने समर्थन में महाभारत का यह श्लोक दिया है---'---
"गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।
उत्पथ प्रतिपलस्य परित्यागो विधीयते ।।"
इससे स्पष्ट है कि तात्पर्य टीका और मालती माधव में आया हुआ--" ये नाम केचिदिह "---यह श्लोक उम्बेक और भवभूति के एकत्व को प्रमाणित नहीं करता।
भवभूति ने अपने को---" पद वाक्य प्रमाणज्ञ:"-- कहा है। यहां वाक्य का संबंध मीमांसा से लिया जाता है ,जो वैदिक वाक्यों के निर्वचन के लिए नियम प्रस्तुत करती है और ऐसा करके वे संभवत : अपने समसामयिक उम्बेक के समकक्ष मीमांसक सिद्ध हुए हो । दोनों को एक मान लेने के पीछे यह भी एक कारण संभावित प्रतीत होता है।
मेरे विचार से आचार्य भवभूति एक लब्ध प्रतिष्ठित कवि एवं नाटककार तो थे ही साथ ही उच्च कोटि के दार्शनिक भी थे। वेदांत, दर्शन ,मीमांसा, तंत्र ,काव्य ,नाटक ,आदि सभी विषयों पर उन्होंने संस्कृत निष्ठ अपने प्रसिद्ध नाम भवभूति से ही साधिकार लिखा ,जो आज भी कालजयी है । उम्बेक इससे भिन्न कोई द्रविड़ आचार्य रहे होंगे ।
मेरी तुच्छ बुद्धि इस गहन सागर का पार भला कैसे पा सकती है अतः अंतिम निर्णय विद्वत मंडल पर ही छोड़ती हूं।
इति