इससे पहले
लेखन की शुरुआत होने पर मैं दो लोगो के सम्पर्क में आया।
पहला राजेन्द्र जैन।इसकी कहानी भी अजीब थी।जैसा उसने बताया वह हिमाचल का रहने वाला था।उसके पिता ने शादी कर ली थीं।सौतेली माँ से परेशान होकर वह घर से भाग आया था।और आगरा फोर्ट स्टेशन पर ए एच् व्हीलहर की बुकस्टाल पर काम करता था।उन दिनों में छोटी लाइन के बुकिंग ऑफिस में काम कर रहा था।लिखना शुरू हो चुका था।मेरी कहानियां फिल्मी दुनिया,ग्लेमर,सीने दर्पण,रोमांटिक दुनिया,सच्चे किस्से,लोटपोट,नन्हे सम्राट,फ़िल्म रेखा,अरुण आदि पत्रिकाओं में निकलने लगी थी।मैं बुक स्टाल पर पत्रिकाएं देखने के लिए जाता था।राजेन्द्र मेरा हमउम्र था।उससे दोस्ती हो गयी।उसकी जिंदगी में ट्रेजेडी थी।जिसके आधार पर मैने कई कहानियां लिखी।एक दिन मैं बुक स्टाल पर खड़ा था।तब वह बोला,"जय प्रकाश को जानते हो?'
"नहीं।कौन है?"
"लेखक हैं।उनकी रचनाये भी मेगज़ीन में छपती हैं।अछनेरा के है।वह भी आते रहते है।"
और राजेंद्र ने मेरी जान पहचान जय प्रकाश से कराई थी।मंझला कद,सांवला रंग,पेंट कमीज पर लाल टाई और हाथ मे ब्रीफ केस।और ऐसी दोस्ती हुई कि अंत तक चली।ईश्वर ने कम उम्र में पास बुला लिया।जय प्रकाश ने ही मेरी दोस्ती डॉ राकेश से कराई थी।जो बदस्तूर जारी है।फेविकोल के जोड़ की तरह।
राजेन्द्र पढ़ने का शौकीन था।उसने अपने जीवन के कई किस्से सुनाए जिनमे से कई पर मैने कहानी लिखी।जो ग्लेमर,कजरारी आदि में छपी।
अब पहले फिर पीछे
"जी मैं ही हूँ?कहिए"
"आपसे मिलने रघुनंदन शर्मा आये है'
यह मेरे लेखन का शुरुआती दौर था।एक पत्रिका का सम्पादक मुझ से मिलने आया था।मैं रोमांचित था।शर्माजी बाहर खड़े थे।मैं उन्हें आदर पूर्वक लाया था।आगरा में रावीजी पर कार्यक्रम था।उसमें भाग लेने के लिए महाराज कृष्ण जैन व अन्य लोग आए थे।शर्माजी भी उसी में आये थे।साथ आने वाला युवक राम मोहन सक्सेना था।जो किशोरपुरा में रहता था और रावीजी का रिश्तेदार भी था।राम मोहन से ऐसी दोस्ती हुई कि पारिवारिक सम्बन्ध बन गए।मेरे लेखन में उसका काफी योगदान रहा।उसकी जिंदगी या उसके बताए विषय पर मैने काफी कुछ लिखा।उसके साथ रावीजी के पास कई बार गया।उन दिनों कैलाश मोड़ से उनके नया नगर तक पैदल ही जाना पड़ता था।
मेरे तीनो दोस्त ।राम मोहन,राजेन्द्र और जय प्रकाश जिनका मेरे लेखन में काफी योगदान रहा।जो मेरे पथ प्रदर्शक रहे आज इस दुनिया मे नही है।लेकिन उनके साथ गुज़ारे समय की यादें दिल मे सुरक्षित है।
रघुनंदन शर्माजी से गहरी दोस्ती हुई।उन्होंने कजरारी का सह सम्पादक बनाया।हर अंक में मेरी रचनाये छपने लगी।अंजनिपुत्र,जाह्नवी,फ़िल्मरेखा,मनोरंजन,अछूते सन्दर्भ आदि पत्रिकाओं में भी रचनाये भेजी।कई पत्रिकाओं से पारिश्रमिक के चेक लाकर मुझे भिजवाए।उनसे भी दोस्ती बराबर कायम है।
राम मोहन सक्सेना ने एक प्लाट मुझे सुनाया था।जिस पर मैने जो कहानी लिखी थी।वो माधुरी पत्रिका के साहित्य मंथन में 1983 में छपी थी।मेरे शीर्षक को बदलकर उन्होंने इसे "प्यार भी इंकार भी",,नाम से छापा था।इसको बाद में मैने दो तरफ बंटा प्यार नाम से फिर से लिखा और यह कई पत्रिकाओं में अब तक छप चुकी है।यह लिव इन रिलेसन पर है।राजेन्द्र को बुक स्टाल से हटा दिया गया था।वह काम की तलाश में था।तब मैंने रघुनंदन शर्माजी से कहा था और उन्होंने उसे अपने पास दिल्ली बुला लिया था।उसके जाने के बाद दामोदर के सम्पर्क में आया था।