Intezar Pyaar ka - 38 in Hindi Love Stories by Unknown Writer books and stories PDF | इंतजार प्यार का - भाग - 38

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इंतजार प्यार का - भाग - 38

उसकी मुंह से इतनी सारी बात सुन ने के बाद सबके मुंह से पानी बह रहा था। जब उसने अपना बोलना खतम किया तभी वो उन सबसे खाना शुरू करने को बोलता हे। तो सब लोग एक एक कर के अपना खाना खाना शुरू कर दिए। खाना को खाते वक्त उन सबके फेस में स्माइल दिल्ली जाति हे। 30 मिनट बाद उन सबका खाना खत्म हो गया था। सब लोग एक एक कर के वहां से उठ कर हाथ धोने लगे। फिर खाना का बिल पे करने के बाद वहां से बाहर चले गए। बाहर जाने के बाद सूरज बोलता हे पवन तुमने तो हमें बहुत अच्छा खाना खिलाया और अब हमारा पेट पूरी तरह से फुल हो गया था। आगे हम कहां जाने वाले हे जरा बताना प्लीज में तो अभी से बहुत एक्साइटेड हो रहा हूं वहां जाने के लिए। तो सब लोग उसकी और क्यूरियोसिटी के साथ देखने लगते हे।
तो पवन उन सबको बोलता हे की हम लोग अब अम्बर फोर्ट जाने वाले हे। जो की यहां से तकरीबन 11 km दूर हे। और हम वहां पर जाने के लिए तकरीबन आधा घंटा लगेगा। तो वो लोग उसको हां बोलते हे। और फिर उसको amber fort के बारे में बताने को बोलते हे। तो पवन बोलता हे की मैने जो भी बुक में या आर्टिकल में पढ़ा हे वहीं बता सकता हूं तो वो सब उसको सब बताने को बोलते हे। तो पवन उन लोगों को बताते हुए बोलता हे की,“ आमेर दुर्ग जिसे आमेर का किला या आंबेर का किला नाम से भी जाना जाता है। भारत के राजस्थान राज्य की राजधानी जयपुर के आमेर क्षेत्र में एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित एक पर्वतीय दुर्ग है। यह जयपुर नगर का प्रधान पर्यटक आकर्षण है। आमेर का कस्बा मूल रूप से स्थानीय मीणाओं द्वारा बसाया गया था, जिस पर कालांतर में कछवाहा राजपूत मान सिंह प्रथम ने राज किया व इस दुर्ग का निर्माण करवाया। यह दुर्ग व महल अपने कलात्मक विशुद्ध हिन्दू वास्तु शैली के घटकों के लिये भी जाना जाता है। दुर्ग की विशाल प्राचीरों, द्वारों की शृंखलाओं एवं पत्थर के बने रास्तों से भरा ये दुर्ग पहाड़ी के ठीक नीचे बने मावठा सरोवर को देखता हुआ प्रतीत होता है।
लाल बलुआ पत्थर एवं संगमर्मर से निर्मित यह आकर्षक एवं भव्य दुर्ग पहाड़ी के चार स्तरों पर बना हुआ है, जिसमें से प्रत्येक में विशाल प्रांगण हैं। इसमें दीवान-ए-आम अर्थात जन साधारण का प्रांगण, दीवान-ए-खास अर्थात विशिष्ट प्रांगण, शीश महल या जय मन्दिर एवं सुख निवास आदि भाग हैं। सुख निवास भाग में जल धाराओं से कृत्रिम रूप से बना शीतल वातावरण यहां की भीषण ग्रीष्म-ऋतु में अत्यानन्ददायक होता था। यह महल कछवाहा राजपूत महाराजाओं एवं उनके परिवारों का निवास स्थान हुआ करता था। दुर्ग के भीतर महल के मुख्य प्रवेश द्वार के निकट ही इनकी आराध्या चैतन्य पंथ की देवी शिला को समर्पित एक मन्दिर बना है। आमेर एवं जयगढ़ दुर्ग अरावली पर्वतमाला के एक पर्वत के ऊपर ही बने हुए हैं व एक गुप्त पहाड़ी सुरंग के मार्ग से जुड़े हुए हैं।
और आपको पता हे। फ्नोम पेन्ह, कम्बोडिया में वर्ष २०१३ में आयोजित हुए विश्व धरोहर समिति के ३७वें सत्र में राजस्थान के पांच अन्य दुर्गों सहित आमेर दुर्ग को राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों के भाग के रूप में युनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया है।”
तो बिक्रम उसको बीच में हीं रोकते हुए बोलता हे की पवन जरा हम बताना की तुमने अभी इसका नाम amber और आमेर बोला था तो कोन सा नाम सही हे। तो पवन उसकी और देखता हे और बोलता हे की इसके पीछे भी बहुत अच्छी कहानी हे तो बिक्रम उसको बोलता हे की जल्दी से हम भी बताओ ना तो पवन उसको बताते हुए बोलता हे की,“आंबेर या आमेर को यह नाम यहां निकटस्थ चील के टीले नामक पहाड़ी पर स्थित अम्बिकेश्वर मन्दिर से मिला। अम्बिकेश्वर नाम भगवान शिव के उस रूप का है जो इस मन्दिर में स्थित हैं, अर्थात अम्बिका के ईश्वर। यहां के कुछ स्थानीय लोगों एवं किंवदन्तियों के अनुसार दुर्ग को यह नाम माता दुर्गा के पर्यायवाची अम्बा से मिला है।[2] इसके अलावा इसे अम्बावती, अमरपुरा, अम्बर, आम्रदाद्री एवं अमरगढ़ नाम से भी जाना जाता रहा है। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार यहां के राजपूत स्वयं को अयोध्यापति राजा रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंशज मानते हैं, जिससे उन्हें कुशवाहा नाम मिला जो कालांतर में कछवाहा हो गया। [3] आमेर स्थित संघी जूथाराम मन्दिर से मिले मिर्जा राजा जयसिंह काल के वि॰सं॰ १७१४ तदनुसार १६५७ ई॰ के शिलालेख के अनुसार इसे अम्बावती नाम से ढूंढाड़ क्षेत्र की राजधानी बताया गया है। यह शिलालेख राजस्थान सरकार के पुरातत्त्व एवं इतिहास विभाग के संग्रहालय में सुरक्षित है।
यहाँ के अधिकांश लोग इसका मूल अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश के राजा विष्णुभक्त भक्त अम्बरीष के नाम से जोड़ते हैं। इनकी मान्यता अनुसार अम्बरीष ने दीन-दुखियों की सहायता हेतु अपने राज्य के भण्डार खोल रखे थे। इससे राज्य में सब तरफ़ सुख और शांति तो थी परन्तु राज्य के भण्डार दिन पर दिन खाली होते गए। उनके पिता राजा नाभाग के पूछने पर अम्बरीश ने उत्तर दिया कि ये गोदाम भगवान के भक्तों के है और उनके लिए सदैव खुले रहने चाहिए। तब अम्बरीश को राज्य के हितों के विरुद्ध कार्य के आरोप लगाकर दोषी घोषित किया गया, किन्तु जब गोदामों में आई माल की कमी का ब्यौरा लिया जाने लगा तो कर्मचारी यह देखकर विस्मित रह गए कि जो गोदाम खाली पड़े थे, वे रात रात में पुनः कैसे भर गये। अम्बरीश ने इसे ईश्वर की कृपा बताया जो उनकी भक्ति के फलस्वरूप हुआ था। इस पर उनके पिता राजा नतमस्तक हो गये। तब ईश्वर की कृपा के लिये धन्यवादस्वरूप अम्बरीश ने अपनी भक्ति और आराधना के लिए अरावली पहाड़ी पर इस स्थान को चुना। उन्हीं के नाम से कालांतर में अपभ्रंश होता हुआ अम्बरीश से "आम्बेर" बन गया।

वैसे टॉड एवं कन्निंघम, दोनों ने ही अम्बिकेश्वर नामक शिव स्वरूप से इसका नाम व्युत्पन्न माना है। यह अम्बिकेश्वर शिव मूर्ति पुरानी नगरी के मध्य स्थित एक कुण्ड के समीप स्थित है। राजपूताना इतिहास में इसे कभी पुरातनकाल में बहुत से आम के वृक्ष होने के कारण आम्रदाद्री नाम भी मिल था। जगदीश सिंह गहलौत के अनुसार[कृपया उद्धरण जोड़ें] कछवाहों के इतिहास में महाराणा कुम्भा केे समय के अभिलेख आमेर को आम्रदाद्रि नाम से ही सम्बोधित करते हैं।

ख्यातों में प्राप्त विवरण के अनुसार दूल्हाराय कछवाहा की सं॰ १०९३ ई॰ में मृत्योपरांत राजा बने के पुत्र अम्बा भक्त राजा कांकिल ने इसे आमेर नाम से सम्बोधित किया है।”
उन सबको amer का इतिहास जन ने में काफी इंटरेस्ट आ रहा था। और वो उसकी बातों को काफी ध्यान से सुन भी रहे थे। वहीं सनाया इस बार इसको पूछती हे क्या तुम हमे इस बारे में कुछ बता सकते हो की यहां पर ये केसे बना।

आमेर की स्थापना मूल रूप से ९६७ ई॰ में राजस्थान के मीणाओं में चन्दा वंश के राजा एलान सिंह द्वारा की गयी थी। वर्तमान आमेर दुर्ग जो दिखाई देता है वह आमेर के कछवाहा राजा मानसिंह के शासन में पुराने किले के अवशेषों पर बनाया गया है। मानसिंह के बनवाये महल का अच्छा विस्तार उनके वंशज जय सिंह प्रथम द्वारा किया गया। अगले १५० वर्षों में कछवाहा राजपूत राजाओं द्वारा आमेर दुर्ग में बहुत से सुधार एवं प्रसार किये गए और अन्ततः सवाई जयसिंह द्वितीय के शासनकाल में १७२७ में इन्होंने अपनी राजधानी नवरचित जयपुर नगर में स्थानांतरित कर ली।
इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार इस क्षेत्र को पहले खोगोंग नाम से जाना जाता था। तब यहाँ मीणा राजा रलुन सिंह जिसे एलान सिंह चन्दा भी कहा जाता था, का राज था। वह बहुत ही नेक एवं अच्छा राजा था। उसने एक असहाय एवं बेघर राजपूत माता और उसके पुत्र को शरण मांगने पर अपना लिया। कालान्तर में मीणा राजा ने उस बच्चे ढोला राय (दूल्हेराय) को बड़ा होने पर मीणा रजवाड़े के प्रतिनिधि स्वरूप दिल्ली भेजा। मीणा राजवंश के लोग सदा ही शस्त्रों से सज्जित रहा करते थे अतः उन पर आक्रमण करना व हराना सरल नहीं था। किन्तु वर्ष में केवल एक बार, दीवाली के दिन वे यहां बने एक कुण्ड में अपने शस्त्रों को उतार कर अलग रख देते थे एवं स्नान एवं पितृ-तर्पण किया करते थे। ये बात अति गुप्त रखी जाती थी, किन्तु ढोलाराय ने एक ढोल बजाने वाले को ये बात बता दी जो आगे अन्य राजपूतों में फ़ैल गयी। तब दीवाली के दिन घात लगाकर राजपूतों ने उन निहत्थे मीणाओं पर आक्रमण कर दिया एवं उस कुण्ड को मीणाओं की रक्तरंजित लाशों से भर दिया। [18] इस तरह खोगोंग पर आधिपत्य प्राप्त किया।[19] राजस्थान के इतिहास में कछवाहा राजपूतों के इस कार्य को अति हेय दृष्टि से देखा जाता है व अत्यधिक कायरतापूर्ण व शर्मनाक माना जाता है।[20] उस समय मीणा राजा पन्ना मीणा का शासन था, अतः इसे पन्ना मीणा की बावली कहा जाने लगा। यह बावड़ी आज भी मिलती है और २०० फ़ीट गहरी है तथा इसमें १८०० सीढियां है।
पहला राजपूत निर्माण राजा कांकिल देव ने १०३६ में आमेर के अपनी राजधानी बन जाने पर करवाया। यह आज के जयगढ़ दुर्ग के स्थान पर था। अधिकांश वर्तमान इमारतें राजा मान सिंह प्रथम (दिसम्बर २१, १५५० – जुलाई ६, १६१४ ई॰) के शासन में १६०० ई॰ के बाद बनवायी गयीं थीं। उनमें से कुछ प्रमुख इमारतें हैं आमेर महल का दीवान-ए-खास और अत्यधिक सुन्दरता से चित्रित किया हुआ गणेश पोल द्वार जिसका निर्माण मिर्ज़ा राजा जय सिंह प्रथम ने करवाया था।[16]

वर्तमान आमेर महल को १६वीं शताब्दी के परार्ध में बनवाया गया जो वहां के शासकों के निवास के लिये पहले से ही बने प्रासाद का विस्तार स्वरूप था। यहां का पुराना प्रासाद, जिसे कादिमी महल कहा जाता है (प्राचीन का फारसी अनुवाद) भारत के प्राचीनतम विद्यमान महलों में से एक है। यह प्राचीन महल आमेर महल के पीछे की घाटी में बना हुआ है।

आमेर को मध्यकाल में ढूंढाड़ नाम से जाना जाता था (अर्थात पश्चिमी सीमा पर एक बलि-पर्वत) और यहां ११वीं शताब्दी से – अर्थात १०३७ से १७२७ ई॰ तक कछवाहा राजपूतों का शासन रहा, जब तक की उनकी राजधानी आमेर से नवनिर्मित जयपुर शहर में स्थानांतरित नहीं हो गयी। [8] इसीलिये आमेर का इतिहास इन शासकों से अमिट रूप से जुड़ा हुआ है, क्योंकि इन्होंने यहां अपना साम्राज्य स्थापित किया था।[21]

मीणाओं के समय के मध्यकाल के बहुत से निर्माण या तो ध्वंस कर दिये गए या उनके स्थान पर आज कोई अन्य निर्माण किया हुआ है। हालांकि १६वीं शताब्दी का आमेर दुर्ग एवं निहित महल परिसर जिसे राजपूत महाराजाओं ने बनवाया था, भली भांति संरक्षित है।


राजा रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंशज शासक नरवर के सोढ़ा सिंह के पुत्र दुलहराय ने लगभग सन् ११३७ ई॰ में तत्कालीन रामगढ़ (ढूंढाड़) में मीणाओं को युद्ध में मात दी तथा बाद में दौसा के बड़गूजरों को पराजित कर कछवाहा वंश का राज्य स्थापित किया। तब उन्होंने रामगढ़ मे अपनी कुलदेवी जमुवाय माता का मन्दिर बनवाया। इनके पुत्र कांकिल देव ने सन् १२०७ में आमेर पर राज कर रहे मीणाओं को परास्त कर अपने राज्य में विलय कर लिया व उसे अपनी राजधानी बनाया। तभी से आमेर कछवाहों की राजधानी बना और नवनिर्मित नगर जयपुर के निर्माण तक बना रहा। इसी वंश के शासक पृथ्वीराज मेवाड़ के महाराणा सांगा के सामन्त थे जो खानवा के युद्ध में सांगा की ओर से लड़े थे। पृथ्वीराज स्वयं गलता के श्री वैष्णव संप्रदाय के संत कृष्णदास पयहारी के अनुयायी थे । इन्हीं के पुत्र सांगा ने सांगानेर कस्बा बनाया।
तभी आर्यन उससे पूछता हे की यहां का खयाल केसे रखा जाता हे। मतलब इसको ठीक ठाक रखने के लिए कोन funding करता हे। तो पवन उसको बताते हुए बोलता हे की,“ राजस्थान के छः दुर्ग, आमेर, चित्तौड़ दुर्ग, गागरौन दुर्ग, जैसलमेर दुर्ग, कुम्भलगढ़ दुर्ग एवं रणथम्भोर दुर्ग को यूनेस्को विश्वदाय समिति ने फ्नोम पेन में जून २०१३ में आयोजित ३७वें सत्र की बैठक में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल सूची में सम्मिलित किया था। इन्हें सांस्कृतिक विरासत की श्रेणी आंका गया एवं राजपूत पर्वतीय वास्तुकला में श्रेणीगत किया गया।

आमेर का कस्बा इस दुर्ग एवं महल का अभिन्न एवं अपरिहार्य अंग है तथा इसका प्रवेशद्वार भी है। यह कस्बा अब एक धरोहर स्थल बन गया है तथा इसकी अर्थ-व्यवस्था अधिकांश रूप से यहाँ आने वाले बड़ी संख्या के पर्यटकों (लगभग ४००० से ५००० प्रतिदिन, सर्वोच्च पर्यटक काल में) पर निर्भर रहती है। यह कस्बा ४ वर्ग कि॰मी॰ (४,३०,००,००० वर्ग फ़ीट) के क्षेत्रफ़ल में फ़ैला हुआ है और यहाँ १८ मन्दिर, ३ जैन मन्दिर एवं २ मस्जिदें हैं। इसको विश्व स्मारक निधि (वर्ल्ड मॉन्युमेण्ट फ़ण्ड) द्वारा विश्व के १०० लुप्तप्राय स्थलों में गिना गया है। इसके संरक्षण हेतु व्यय रॉबर्ट विलियम चैलेन्ज ग्रांट द्वारा वहन किया जाता है।[6] वर्ष २००५ के आंकड़ों के अनुसार दुर्ग में ८७ हाथी रहते थे, जिनमें से कई हाथी पैसों की कमी के कारण कुपोषण के शिकार थे।[36]

आमेर विकास एवं प्रबन्धन प्राधिकरण (आमेर डवलपमेण्ट एण्ड मैंनेजमेण्ट अथॉरिटी (एडीएमए)) द्वारा आमेर महल एवं परिसर में ४० करोड़ रुपये ( ८.८८ मिलियन अमरीकी डॉलर) का व्यव संरक्षण एवं विकास कार्यों में किया गया है। हालांकि इन संरक्षण एवं पुनरोद्धार कार्यों को प्राचीन संरचनाओं की ऐतिहासिकता और स्थापत्य सुविधाओं को बनाए रखने के लिए उनकी उपयोगिता के संबंध में गहन वाद-विवादों, चर्चाओं एवं विरोधों का सामना करना पड़ा है। एक अन्य मुद्दा इस स्मारक के व्यावसायीकरण संबंधी भी उठा है।
और आप को पता हे की यहां पर काफी सारे प्रसिद्ध फिल्म का शूटिंग हुआ हे, और शूटिंग के वजह से यहां के काफी चीज़ों को भी खेती भी पहुंचती है। तो सब उसको पूछते हे की वो केसे तो उन लोगों को बताता हे की,
एक फ़िल्म शूटिंग करते हुए एक बड़ी फिल्म निर्माण कंपनी से एक ५०० वर्ष पुराना झरोखा गिर गया तथा चाँद महल की पुरानी चूनेपत्थर की छत को भी क्षति पहुँची है। कंपनी ने अपने सेट्स खड़े करने हेतु यहाँ छेद ड्रिल किये तथा जलेब चौक पर खूब रेत भी फ़ैलायी और इस तरह राजस्थान स्मारक एवं पुरातात्त्विक स्थल एवं एन्टीक अधिनियम (१९६१) की उपेक्षा एवं उल्लंघन किया था।

राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर बेंच ने हस्तक्षेप कर शूटिंग को बंद करवाया। इस बारे में उनका निरीक्षण उपरांत कथन था: "दुर्भाग्यवश न केवल जनता बल्कि विशेषकर संबंधित अधिकारीगण भी पैसे की चमक से अंधे, बहरे और गूंगे बन गए हैं, और ऐसे ऐतिहासिक संरक्षित स्मारक आय का एक स्रोत मात्र बन कर रह गए हैं।"
आमेर दुर्ग बहुत सी हिन्दी चलचित्र (बॉलीवुड) जगत की फिल्मों में दिखाया गया है। इसका ताजा उदाहरण है फ़िल्म बाजीराव मस्तानी जिसमें - मोहे रंग दो लाल..। नामक गीत पर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण का कत्थक नृत्य इसी दुर्ग को पृष्ठभूमि में रखकर किया गया है। इसका मंचन केसर क्यारी बगीचे में हुआ है।
इसके अलावा मुगले आज़म, जोधा अकबर, शुद्ध देसी रोमांस, भूल भुलैया आदि कई बॉलीवुड एवं कुछ हॉलीवुड फ़िल्मों जैसे नार्थ वेस्ट फ़्रन्टियर, द बेस्ट एग्ज़ॉटिक मॅरिगोल्ड होटल, आदि फिल्मों की शूटिंग भी यहां की गई है।
येसे हीं बात करते हुए वो लोग आमेर fort पहुंच गए तभी क्षण सब को बताता हे की आप लोग जल्दी से जाकर लाइन में खड़े होइए और में आप सबको अंदर की काफी सारे चीज़ों के बारे में बताने वाला हूं तो जल्दी से चलिए। तो सब लोग जल्दी से उसके पीछे पीछे वहां पर चले जाते। पवन के पास एक स्पेशल पास था जो की सिर्फ हिस्ट्री इंस्टीट्यूट में पढ़ाई करने वाले बच्चे जो की यहां पर गाइड के काम करते हे उनको हीं दिया जाता हे। उसके पास दिखाने के बाद उन लोगों को जल्दी से अन्दर जाने दिया गया और वो लोग अंदर चले गए।
तो क्या होता हे आगे। और आगे एक मजे सर ट्विस्ट आने वाली हे। जान ने के लिए पढ़िए ये कहानी इंतजार प्यार का...............
To be continued...........
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