मूल लेखक राजेश कुमार
सारांश
राजेश कुमार के तमिल उपन्यास रुपया, पद और बलि का अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा ने किया है। यह एक जासूसी और जुर्म की कहानी है। इसमें तुच्छ राजनीति में पड़ कर किसी के प्राणों को लेने में भी नहीं हिचकते । राजनीति में लोग पैसा कमाने के लिए ही आते हैं। न केवल पैसा पद पाने के लिए भी किसी की बलि चढ़ा देते हैं। राजनीति में रुपया, पद और बलि इसी की प्रमुखता है। यह बहुत ओछी राजनीति है। हत्या जुर्म की जासूसी कहानी आपको अच्छी लगेगी। आगे आप पढ़कर जानिए।
रुपये, पद और बलि
अध्याय 1
बहुत सारे गुलाब की मालाओं से लदे गर्दन के दर्द को सहन करते हुए-नकली दांत के सेट को दिखाते हुए माणिकराज एक सुंदर हंसी हंसे। उनके चारों तरफ फ्लैश कैमरा चमक रहे थे- वे चमक-चमक कर बंद हो गए। पास खड़े हुए राजनीतिक अनुयायियों से वे बोले "वोट की गिनती अभी भी हो रही है। अभी से आपने मुझे मालाओं से लाद दिया।"
"क्या साहब.... अभी भी आपको संशय है ? पचास हजार वोटों से आप आगे हैं । अभी सिर्फ आठ बूथ के वोट गिनने बाकी हैं। उनके पूरे वोट यदि विरोधी पार्टी को मिल जाए तो भी आप नहीं हारोगे। धैर्य के साथ मुस्कुराइए, फोटो में अच्छा पोस दीजिए मुखिया जी..."
माणिकराज के पूरे घर में लोगों की भीड़ जमा थी। बाहर पटाखे छोड़ रहे थे। राजनीतिक अनुयायियों और कार्यकर्ताओं के चेहरे पॉलिश किए हुए जैसे चमक रहे थे।
"सुबह 8:00 बजे की न्यूज़ सुना था... सोमू ?"
"हां... सुना था ना ?"
"मेजॉरिटी वाले जगह अपने ही पार्टी के लोग 100 से 70 सीट ले आएंगे...."
"आएंगे क्या ? आ गए...."
"हम ऐसे जीतेंगे ऐसे तो हमारे प्रधान जी ने भी नहीं सोचा होगा। दक्षिण के भाग में भी अपने ही आदमी आगे हैं।"
माणिकराज के गले में फूलों की माला पर माला पड़े जा रहे थे। - उसी समय - उनका पी.ए. परमानंद जल्दी-जल्दी से उनके पास आए।
"सर।"
"क्या है ?"
"मद्रास से फोन आया है। प्रधान जी लाईन में इंतजार कर रहे हैं..."
"क्यों भैया... इसे पहले ही नहीं बोलना चाहिए क्या ?" माणिकराज बड़ी फुर्ती से अगले कमरे के अंदर गए।
मेज पर रिसीवर रखा था उसे उठाया। बड़ी उत्सुकता के साथ उसे कानों में लगाया।
"हेलो...."
"कौन मणिकराज ?"
"मैं ही बोल रहा हूं।"
"अरे ! वाह ! जबरदस्त जीत हो गई।"
"यह सब आप का दिया हुआ ही भीख है।"
"जनता अभी भी अपनी तरफ ही है। पूरे गांव ही अपनी तरफ हो रहा है। जैसे रिजल्ट आ रहा है उसे देखें... तो 200 जगह अपने हाथ में आ जाएगा लगता है।"
"यदि आप सूरावली पूरे की यात्रा तमिलनाडु में ना की होती तो हमें यह सफलता नहीं मिली होती...."
"अच्छा ठीक.... आज तुम शाम को रवाना होकर कल मद्रास आ जाओ। मंत्रियों और मंत्री-मण्डल के बारे में बात कर लेंगे।"
"मुझे पद मिलेगा कि नहीं ?"
"माणिकराज को मंत्री की पदवी क्यों नहीं ? आप अपने पसंद के पोर्टफोलियो को ले लीजिए।"
"बहुत-बहुत धन्यवाद।"
"सिर्फ धन्यवाद से काम नहीं चलेगा माणिकराज। बड़े नोट में दस नोट्स अपने पार्टी के फंड में जमा कराना होगा ।"
"इलेक्शन के लिए ही मैंने बहुत खर्च कर दिया। करीब-करीब बीस लाख...."
"क्या..... यह क्या ! 20 लाख ? मंत्री के पद पर आए तो.... बीस लाख बीस रुपए जितना है.... कल सुबह मद्रास आ जाओ... बात करेंगे। पटाखों की आवाज बड़ी जोर से आ रही है। यह सब तुम्हारी तैयारी है क्या?"
"हां जी।"
माणिकराज खुशी में पुलकित होते समय ही प्रधान जी ने रिसीवर को रख दिया। इन्होंने भी रखकर "परमानंद" आवाज दी।
पी.ए. परमानंद ने झांक कर देखा।
"सर"
"कल सुबह मुझे मद्रास में रहना है। ट्रेन या फ्लाइट के टिकट का इंतजाम करो।"
"ठीक है, सर।"
माणिकराज जानें ही वाले थे कि - टेलीफोन की घंटी बजी। उन्होंने ही रिसीवर को उठाया।
"हेलो।"
"कौन माणिकराज ?"
"हां.. हां.. "
"जीत गए ऐसा सोच कर बहुत खुश मत हो.... तुम्हारी खुशी कभी भी खत्म हो सकती है।"
"कौन है रे... तू ?"
तुम्हारे घर में कंपाउंड वॉल पर एक लेटर बॉक्स रखा है ना.... उस बॉक्स में तुम्हारे लिए एक पत्र रखा है। किसी आदमी को भेज कर उसको लेकर आने को बोल उसे पढ़ कर देख.... मैं कौन हूं तुम्हें समझ में आ जाएगा.... जीत गया हूं सोच अपने जीत पर इतना मत उछल।"
"अरे... अरे..." - माणिकराज गुस्से से जोर से चिल्लाते समय ही - रिसीवर को दूसरी तरफ से रख दिया।
"परमानंद"
"सर..."
"अपने कंपाउंड गेट के लेटर बॉक्स को खोलकर सभी लेटरस् लेकर आ।"
परमानंद ने अपनी घड़ी को देखा।
"इस समय पोस्ट मैन भी नहीं आया होगा सर ?"
"कोई बदमाश आदमी.... एक लेटर को - अपने लेटर बॉक्स में डाला है। जा कर ले आओ... उस पत्र को पूरा पढ़ लूं - उसके पहले किसी को भी मेरे कमरे में आने मत देना।"
"ठीक है सर।"
परमानंद अंदर से - बाहर गए। दो मिनट बाद ही - एक सफेद रंग के लिफाफे के साथ अंदर आए।
"सर यह सिर्फ एक ही लेटर था।।"
माणिकराज लेटर को लेकर देखा। सफेद रंग के लिफाफे में एक कोने में - 'एक भारतीय नागरिक प्रार्थना।' तमिल में टाइप किया हुआ साफ दिखाई दे रहा था।
लिफाफे को खोलकर माणिकराज ने पत्र को निकाला ।
दुर्भाग्य से जीत गए माणिकराज को, एक भारतीय नागरिक का बड़ा नमस्कार।
तुमने खर्च किया बीस लाख रुपए - तुम्हारी आदमियों ने जो नकली वोट दिया है – उन्होंने तुम्हारे गले में गुलाब की माला डाली हैं। परंतु तुम तो तमिलनाडु के एक नागरिक होने के भी काबिल नहीं हो - राजनीतिक विपत्ति के कारण बिना कानून के महान व्यक्ति बन गए। यह यहीं पर खत्म होना चाहिए। तुम कानून से जीत कर आ गए विधायक बन गए। इसमें मुझे कोई परेशानी नहीं है पर तुम किसी भी कीमत में मंत्री नहीं बन सकते! अभी तुम अपने सहयोगियों को बुलाकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में – ‘मुझे मंत्री पद नहीं चाहिए तुम्हें ऐसा बोलना पड़ेगा। क्योंकि मंत्री बनने की योग्यता मुझ में नहीं है ऐसा मैं सोचता हूं।’ मेरी बात को काटकर तुम मंत्री बने - तो दूसरे दिन ही तुम्हारे शव पर फूल चढ़ाना पड़ेगा। यह मेरी नम्र चेतावनी है।'
इसके बाद पत्र खत्म हो गया तो माणिकराज सदमे में आ गए।