Gyarah Amavas - 21 in Hindi Thriller by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | ग्यारह अमावस - 21

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ग्यारह अमावस - 21



(21)

दीपांकर दास अपने व्यक्तिगत कक्ष में था। इस कक्ष में एक साधारण सा बिस्तर, एक कबर्ड और एक राइटिंग टेबल थी। बड़े से कमरे में बाकी स्थान खाली था। एक तरफ फर्श पर चटाई बिछी थी। दीपांकर दास उस चटाई पर बैठा था। हाथ में एक फ्रेम था जिसमें उसके और सुनंदा के साथ लिपा थी। लिपा हमेशा की तरह हंस रही थी। तस्वीर हाथ में लिए हुए दीपांकर दास को उसकी हंसी सुनाई पड़ने लगी।
लिपा कुछ समय पहले ही स्कूल पिकनिक से लौटी थी। वह बहुत खुश थी। अपने और अपनी सहेली के साथ हुई एक बात बताते हुए वह हंसी से दोहरी हुई जा रही थी। सुनंदा ने टोंका,
"पहले हंस लो फिर अपनी बात बताना। जब बोलना शुरू करती है तो हंसी आ जाती है। मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा कि कह क्या रही हो।"
"माँ क्या करूँ..... बात ही इतनी मज़ेदार है कि जब बताने लगती हूँ तो याद करके हंसी छूट जाती है।"
सुनंदा ने कहा,
"तुम्हारे लिए तो हर बात हंसने की होती है। तुम्हें हंसने के लिए कोई बहाना थोड़ी ना चाहिए।"
यह सुनकर दीपांकर दास ने कहा,
"क्यों टोंकती रहती हो उसे.... हंसना क्या बुरी बात है। आज के समय में हंसना एक बड़ी बात बन गया है। कितने लोगों को नसीब होती है यह हंसी।"
फिर वह लिपा से बोला,
"तुम्हारी मांँ को कुछ समझ में आए या ना आए। मुझे सब समझ आ रहा है। तुम हंसते हुए अपनी बात बताओ।"
लिपा दीपांकर दास के पास बैठकर अपनी बात बताने लगी थी। दीपांकर दास भी जानता था कि बात इतनी हंसी की नहीं है। लेकिन उसे अपनी बेटी की बहते झरने सी हंसी बहुत अच्छी लगती थी। वह उसकी बताई हुई बात से अधिक उसकी हंसी पर ध्यान दे रहा था।
बीते दिनों की उस बात को याद करते हुए अचानक उसकी आँखों में फिर वही दृश्य घूम गया। मुर्दाघर की टेबल पर पड़ी लाश पड़ी थी। उस आदमी ने चेहरे पर से चादर हटाई। उसकी बेटी का हंसता हुआ चेहरा मुर्झाया हुआ था। उस पर नाखूनों के निशान थे। देखते ही उसने अपना चेहरा घुमा लिया था।
पुलिस ने उसकी बेटी के गुमशुदा होने का केस सॉल्व कर दिया था। वह इंस्पेक्टर बनर्जी के सामने बैठा था। इंस्पेक्टर बनर्जी ने कहा,
"दास बाबू आपकी बेटी के साथ दरिंदगी हुई है। शायद चार से पाँच लोग थे। मेडिकल रिपोर्ट यही कहती है। उसके बाद गला किसी धारदार हथियार से रेता गया था।"
इंस्पेक्टर बनर्जी ने अपनी ड्यूटी निभाई थी। लेकिन पिता दीपांकर दास के लिए सब सुनना उस दर्द से गुज़रना था जो उसकी बेटी ने सहा था। इंस्पेक्टर बनर्जी ने कहा,
"दास बाबू आपकी बेटी बहुत होनहार थी। उसके साथ यह सब होना बहुत दुखद है।"
दीपांकर दास ने इंस्पेक्टर बनर्जी को देखकर कहा,
"किसी भी औरत खासकर बच्ची के साथ ऐसा होना दुखद नहीं हमारे समाज के लिए शर्मनाक बात है।"
उस समय यह बात दीपांकर दास ने बहुत गुस्से में कही थी। इस समय भी उसके मन में वैसा ही गुस्सा था। अपनी बेटी की तस्वीर हाथ में पकड़े हुए उसके मन में दर्द की लहर सी उठ रही थी।
दीपांकर दास के व्यक्तिगत कक्ष के दरवाज़े पर दस्तक हुई। इस दरवाज़े पर केवल शुबेंदु ही दस्तक दे सकता था। वह भी बहुत आवश्यक होने पर। दीपांकर दास उठकर खड़ा हो गया। हाथ में पकड़ी तस्वीर को कबर्ड में रख दिया। जाकर दरवाज़ा खोला। शुबेंदु ने कहा,
"दीपू दा बहुत ज़रूरी था।"
दीपांकर दास एक तरफ हटकर खड़ा हो गया। यह इस बात का इशारा था कि शुबेंदु कमरे में आ सकता है। कमरे में आकर शुबेंदु ने दरवाज़ा बंद कर दिया। दीपांकर दास राइटिंग टेबल की कुर्सी घसीट कर बैठ गया। शुबेंदु उसके सामने खड़ा था। उसने कहा,
"काम को सही तरह से अंजाम दिया जा चुका है।"
यह सुनकर दीपांकर दास के चेहरे पर संतोष का भाव आया। उसने कहा,
"मुझे तुमसे यही उम्मीद थी।"
शुबेंदु ने हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया। फिर बोला,
"शांति कुटीर में एक नया मेहमान आया है। इच्छा जता रहा है कि उसे कुछ दिन यहाँ रहना है।"
दीपांकर दास ने पूछा,
"उसके बारे में पूछताछ की ?"
"हाँ दीपू दा....बता रहा है कि उसका नाम शिवराम हेगड़े है। कह रहा है मुंबई में पला बढ़ा है। मॉडलिंग करता है। कुछ दिनों से परेशान है इसलिए यहाँ आया है।"
दीपांकर दास ने मन ही मन कुछ सोचा फिर शुबेंदु से कहा,
"तुम्हें क्या लगता है ?"
"मुझे तो लगता है कि ठीक ही कह रहा है।"
"ठीक है उसे रहने के लिए जगह दे दो। यहाँ के नियम बता देना। थोड़ा ध्यान रखना। कहना मैं कल उससे मिलूंँगा।"
शुबेंदु कमरे से चला गया। दीपांकर दास ने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। वह वापस चटाई पर बैठ गया। शुबेंदु ने कहा था कि काम को सही तरह से अंजाम दिया जा चुका है। यह सुनने के बाद दीपांकर दास के मन बहुत संतुष्ट हुआ था। उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे उसकी बेटी के जाने का दर्द कुछ कम हुआ हो। उसके कलेजे को ठंडक पहुंँच रही थी । वह चटाई पर एकदम सीधा लेट गया। गर्दन के नीचे तकिया नहीं था। वह एकदम सीधी थी। दोनों हाथ एकदम सीधे थे और कमर से जुड़े हुए थे। उसके दोनों पैर भी सीधे थे और एेड़ी से एकसाथ जुड़े हुए थे। इस अवस्था में लेटे हुए वह एकबार फिर अतीत में चला गया।
मुर्दाघर की टेबल पर जो लाश उसने देखी थी वह कुमुदिनी की थी। उसने कुमुदिनी का ही अंतिम संस्कार किया था। लिपा तो आज तक उसके सीने में ज़िंदा थी। वह जब चाहे उसकी हंसी सुन सकता था। उसकी बाहों को अपनी गर्दन पर महसूस कर सकता था जिनसे वह उसे गले लगाती थी। अक्सर वह उसकी आवाज़ सुनता था 'बाबा देखिए एक और ट्रॉफी मिली है मुझे।'
कुमुदिनी को अंतिम विदाई देने के बाद उस पर सुनंदा की ज़िम्मेदारी आ गई। अपनी बेटी के इस तरह जाने को वह सह नहीं पाई थी। उस दुख के कारण उसने बिस्तर पकड़ लिया था। उसे अपने दुख को परे हटाकर उसकी देखभाल करनी पड़ी। तब उसके दिल में बसी लिपा उसे सहारा देती थी। सुनंदा अधिक जी नहीं पाई। कुछ ही महीनों में उसने भी दम तोड़ दिया।
वह अक्सर पुलिस स्टेशन जाकर पता करता था कि ‌उसकी बेटी को इतनी ‌निर्दयता से मारने वालों का कुछ पता चला या नहीं। हर बार यही सुनना पड़ता था कि अभी तक उनका कोई सुराग नहीं मिल सका है। पुलिस का कहना था कि कुमुदिनी की लाश जहाँ मिली थी उस जगह उसके साथ दुराचार नहीं हुआ था। दुराचार कहीं और करने के बाद उस जगह लाकर गर्दन रेती गई थी जहाँ लाश मिली थी। उसके शरीर से मिले सबूतों का डीएनए पुलिस रिकॉर्ड में किसी भी मुजरिम से मेल नहीं खा रहा था। पुलिस का कहना था कि कुमुदिनी के साथ वह जघन्य अपराध करने वालों का यह पहला अपराध हो सकता है।
कुमुदिनी अपनी साइकिल लेकर अपने आर्ट प्रोजेक्ट के लिए कुछ सामान लेने घर से बाहर गई थी। जब वह घर नहीं लौटी तो सुनंदा ने उसके ऑफिस फोन करके बताया। वह फौरन घर आया। खुद आसपास जाकर देखा। सुनंदा पहले ही कुमुदिनी की सहेलियों को फोन करके पूछ चुकी थी। वह किसी के घर नहीं गई थी। उन लोगों ने कुमुदिनी के लापता होने की खबर पुलिस को दी।
जिस दुकान पर कुमुदिनी गई थी वहाँ पूछताछ करने पर दुकानदार ने बताया कि कुमुदिनी आई तो थी लेकिन उसके पास वह सामान नहीं था जो उसे चाहिए था। इसलिए वह लौट गई थी। इससे अधिक उसे कुछ भी नहीं पता है। पुलिस ने आसपास उसी तरह की दुकानों में पूछताछ की लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। जहाँ कुमुदिनी गई थी उस दुकान से दो सौ मीटर आगे कॉर्नर के एक खाली पड़े मकान के सामने उसकी साइकिल साइड की बाउंड्री वॉल के पास गिरी मिली थी। वह जगह कुछ सुनसान थी। लोगों से पूछताछ करने पर किसी ने भी कुछ ना देखने की बात कही। दीपांकर दास और सुनंदा को समझ नहीं आया कि कुमुदिनी उस जगह क्या करने गई थी।
दीपांकर दास का प्रकाशन का काम था। उसके कारण उसकी थोड़ी बहुत पहुँच थी। उसने उसका इस्तेमाल किया। जो बात सामने आई वह यह थी कि कुमुदिनी के दोषियों में जो प्रमुख था वह एक रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखता था। उसके साथी भी अच्छे परिवारों से थे। उन्होंने अपने प्रभाव का प्रयोग करके केस को दबवा दिया था। दीपांकर दास ने बहुत कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कोई उसकी सहायता करने वाला नहीं था।
लेटे हुए उसके शरीर में अचानक एक तनाव सा पैदा हुआ। उसकी मुठ्ठियां भिंचने लगी थीं। एड़ियां अभी भी जुड़ी हुई थीं। पर उंगलियां फर्श की तरफ खिंच रही थीं। चेहरे पर एक कठोरता थी लेकिन होंठों पर एक कुटिल मुस्कान थी। वह सोच रहा था कि अब शुरुआत हो गई है। वह हर एक चीज़ का बदला लेगा।

अर्दली दयाराम ने डिनर टेबल पर लगा दिया था। वह गुरुनूर के आने की राह देख रहा था। लेकिन गुरुनूर अभी तक आई नहीं थी। रोज़ उसे डिनर कराने के बाद वह सब समेट कर अपने क्वार्टर में जाता था। आज अधिक ही देर हो गई थी। वह अपना मोबाइल लेकर वहीं बैठ गया। मोबाइल देखते हुए उसकी पलकें भारी होने लगीं। उसने मेज पर अपना सर रख दिया। उसे झपकी लग गई।
गुरुनूर वापस लौटी तो दयाराम को मेज़ पर सर रखकर सोता पाया। उसने घड़ी देखी। साढ़े दस बजे थे। उसने दयाराम को आवाज़ दी। वह हड़बड़ा कर उठ गया। माफी मांगते हुए बोला,
"माफ करिए मैडम ना जाने कैसे आँख लग गई।"
गुरुनूर बिना कुछ बोले अपने कमरे में फ्रेश होने चली गई।
डिनर करने में गुरुनूर का मन नहीं लग रहा था। थोड़ा बहुत खाकर वह अपने कमरे में चली गई। वह बहुत परेशान थी। मंगलू के गायब होने के केस में अभी तक कोई सुराग नहीं मिला था। अमन का केस भी बीच में ही अटक गया था। हालांकि इस बीच कोई नई लाश नहीं मिली थी लेकिन उसका मन कह रहा था कि जो शांति दिखाई पड़ रही है उसके पीछे बहुत कुछ चल रहा है। यह सोचकर उसका मन खराब हो रहा था कि वह कुछ नहीं कर पा रही है।