अवधूत संत काशी बाबा 5
श्री श्री 108 संत श्री काशी नाथ(काशी बाबा) महाराज-
बेहट ग्वालियर(म.प्र.)
काव्य संकलन
समर्पण-
जीवन को नवीन राह देने वाले,
सुधी मार्ग दर्शक एवं ज्ञानी जनों,
के कर कमलों में सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
डबरा
चिंतन का आईना-
जब-जब मानव धरती पर,अनचाही अव्यवस्थाओं ने अपने पैर पसारे-तब-तब अज्ञात शक्तियों द्वारा उन सभी का निवारण करने संत रुप में अवतरण हुआ है। संतों का जीवन परमार्थ के लिए ही होता है। कहा भी जाता है-संत-विटप-सरिता-गिरि-धरनी,परहित हेतु,इन्हुं की करनी। ऐसे ही महान संत अवधूत श्री काशी नाथ महाराज का अवतरण ग्वालियर जिले की धरती(बेहट) में हुआ,जिन्होंने अपने जीवन को तपमय बनाकर,संसार के जन जीवन के कष्टों का,अपनी सतत तप साधना द्वारा निवारण किया गया। हर प्राणी के प्राणों के आराध्य बनें। आश्रम की तपों भूमि तथा पर्यावरण मानव कष्टों को हरने का मुख्य स्थान रहा है। संकट के समय में जिन्होनें भी उन्हें पुकारा,अविलम्ब उनके साहारे बने। ऐसे ही अवधूत संत श्री काशी नाथ महाराज के जीवन चरित का यह काव्य संकलन आपकी चिंतन अवनी को सरसाने सादर प्रस्तुत हैं। वेदराम प्रजापति मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा ग्वालियर
मो.9981284867
5. पाठ-पारायण साधना
अर्पण
श्री काशी बाबा चरण,सभी समर्पित भाव।
परम हंस के दरश का ,मन में है अति चाव।।
इस पावन से चरित में,अच्छर-अक्षर बास।
कृपा आपकी पांएगे,मन में हैं विश्वास।।
आप जहाँ,सब कुछ वहाँ,अद्भुत लीला आप।
कौन जान सकता प्रभू,कौन सका है माप ।।
सुना रहें हो विश्व को, अनहद नादी नाँद।
सब कुछ तेरा,तुझी को,अर्पित है महाराज।।
है प्रभू तेरा सभी कुछ, है मनमस्त अज्ञान।
कैसे-क्या दरसा रहें,आप ही हो परिमाण।।
धारणा
मन भजो नित काशी बाबा,वे करुण अवतार हैं।
इस विषम संसार से बस, बेहि तारण-हार हैं।।
वे सुखद,गुरुमंत्र पावन,जप सदाँ उनको,मनः।
आत्मा पावन बनेगी,प्यार कर उनसे घना।
हर घड़ी की,घड़ी हैं वे,स्वाँस के आधार हैं।।1।।
वे सभी के पूज्यतम् हैं,प्राण-पन,पूजन करैं।
अहर्निशि कर जाप उनका,सुद्धत्तम् तन-मन करैं।
जप उन्हीं का मंत्र ओ मन!,तार के-वे तार हैं।।2।।
समर्पित होजा उन्हीं के,सुखद सब हो जाऐगा।
यह नियति क्रम ही तुझे,बस मोक्ष तक,ले जाऐगा।
मोक्ष-पथ की साधना में,प्यार के उपहार हैं।।3।।
छोड़ सब,दुनियाँ के झॅंझट,गुरु चरण आधार हो।
छूटजा-मनमस्त- बंधन, सत्य बेड़ा पार हो।
आओ सब,गुरु की शरण हौं,वहाँ खुला दरबार हैं।।4।।
ध्यान-स्मरण
श्री काशी बाबहि नमन,धरुँ हृदय में ध्यान।
प्रकटे जन कल्याण हित,प्रणवऊॅं गुरुवर मान।।
श्री गुरु विना न ग्यान है,गुरुवर ज्ञानाधार।
विना गुरु के पा सके,को भव-सागर पार।।
सिद्धेश्वर पद वंद कर,काशी को शिर नाय।
जिनकी किरपा कोरसे,निश्चय भव तर जाय।।
बुद्धि विशारद,ज्ञाननिधि,मुक्ति के दातार।
रक्षा गुरुवर कीजिऐ,पड़े आपके द्वार।।
दास जानि अपनाइऐ,प्रणवऊॅं बारम्बार।
दो विवके मनमस्त को,पडा हुआ दरबार।।
श्री काशी बाबा-शतक
सम्पुट -मंगल भवन,अमंगल हारी।
जय काशी बाबा भय हारी।।
चौ. जय काशी बाबा करुणाकर।
दिव्य,दयानिधि ज्ञान प्रभाकर।।
वेद आपके पार न पाये।
नेति-नेति कह निशिदिन गाये।।
भव भय हरण-करण अवतारा।
जय-जय-जय गुरुदेव उदारा।।
बाबा तपनिधि रुप बनाया।
जीव चराचर दुःख नशाया।।
मानव हित सब कही कहानी।
आगम-निगम वेद बुघ वाणी।।
जीवन सुखद,सुयश पग धूरी।
सकल कामना होबहिं पूरी।।
जन हितार्थ निज शक्ति जगाई।
जलते प्रकट किया धृत भाई।।
नित-प्रति ध्यान अर्चना कीजे।
श्री बाबा चरणा अमृत पीजे।।
दोहा- बाबा पद रज शीश धरि,तप अॅंजन दृग आज।
अष्ट याम सुमिरण करो,ध्यान धरो मन माँझ।।1।। मंगल...........
चौ- हेतु अनेकन रुप बनाए।
ऋषि-मुनि वेदहु जान न पाए।।
धर्म धरा के पालन हारे।
सत्य-सुधा के हो रखवारे।।
जो जन जबहिं सुमिर तब नामा।
पूरण होंये तिनहुँ-सब कामा।।
घर-घर दीप आरती होईं।
श्रद्धा-शक्ति पाव सब कोई।।
ग्राम-ग्राम हैं धाम तुम्हारे।
आठौ याम होंय जयकारे।।
भाव-साधना कर सुख पावै।
जीवन लाभ पाय हरशावै।।
भय के भूत भगैं सुन नामा।
अलख ज्योति जलती हर ठामा।।
सबके रक्षक हो गुरुदेवा।
अपना लेते हो विन सेवा।।
दोहा-सुन लेते हो अर्जियाँ,घोर निशा के बीच।
तन-मन ताप मिटात हो,प्रेम सुधा मन सींच।।2।। मंगल---------
चौ. बाबा ध्यान मोह मद जाई।
काम क्रोध का अन्त कहाई।।
जेहि पर कृपा करैं गुरुदेवा।
सकल मोक्ष सुख पावहिं सेवा।।
केहि विधि अर्चन करहिं तुम्हारा।
विश्व-बंध तब रुप-उदारा।।
षट विकार के मेंटन हारे।
अग-जग-जीवन के रखवारे।।
शंकट नाशक रुप तुम्हारा।
भक्तन सुखद,विवके-विचारा।।
अशरण-शरण आप जगमांही।
आप कृपा भव-पंथ सिराही।।
अगम कृपा तब जीवन दायनि।
भव-शंकट की मोक्ष रसायनि।।
बाबा शतक गाय जन जोई।
तन-मन-धन पावन सब होई।।
दोहा-बुद्धि-सुद्धि गुरुमंत्र है,मन विकार मिट जाँय।
सकल विश्व कल्याण प्रद,काशी पद जो ध्याय।।3।। मंगल-------
चौ. जग मंगलमय रुप तुम्हारा।
सिद्ध-सनातन-सा उजियारा।।
सकल सिद्धियाँ तब पद सेवैं।
कर जोरित तुव आशिश लेवै।।
आश्रम रज पावन अति होई।
शिर धारत त्रय तापन खोई।।
बडभागी बदरी तरु प्यारा।
कल्यवृक्ष-भा चरण पखारा।।
फल श्रुतिसार भए जगमांही।
भाग्यवान जन जो जेहिं पांही।।
कवन पुण्य फल बदरी पावा।
भाग्य सराहिं-देव यश गावा।।
पीपल-पाकरि-जम्ब-ुरसाला।
तिनकर छाँव सुखद सब काला।।
जो जन-जीव आश्रम बासी।
धन्य भाग्य पावन सुख राशी।।
दोहा-झिल-मिल नंद है भागवत,जो बाबा पद सेब।
सुरसरि-सा पावन बना,दरस परस सुख लेव।।4।। मंगल-------
चै. ओम शक्ति भव रुप तुम्हारा।
सर्बानन्द-सदाँ-उजियारा।।
दासन के सब कष्ट निवारे।
करुणाकर भव पार उतारे।।
अगम भेद के जानन हारे।
ऋषि-मुनियों के सुखद सहारे।।
गुरुवर भावानन्द निकेतन।
भक्त अभय पद दाता केतन।।
कलियुग दोश निवारक रुपा।
चरण-शरण को नहिं भव कूपा।।
सब सुख मिलहिं तुम्हारी दाया।
चरण-शरण तब जो जिब आया।।
रुप तुम्हार सच्चिदानन्दा।
जग रंजन,गंजन भव फन्दा।।
जगत वंद्य अभीष्ट फल दाता।
तुमरी शरण सभी कुछ पाता।।
दोहा-पाप परायण कलिग्रसे,मंद अंध ब्यभिचार।
भव बाधा उद्धार का,बाबा चरण अधार।।5।। मंगल---------
चौ. यज्ञ धूम भव नाशन हारी।
बरसहि जलद सुखद बर बारी।।
गगन मध्य यश ध्वज फहराहीं।
पपिहा,मोर,कीर यश गाहीं।।
पटु-बटु पढ़हिं कथा रस सारी।
सुनत श्रवण सुख लैं नरनारी।।
धरनि-धाम गो-लोक समाना।
प्रभू चरित के जहाँ गुणगाना।।
देव-देवियाँ आरती गावैं।
पा-प्रसाद अदभुत सुख पावैं।।
चरणामृत पावै जन जोई।
भव-व्यधिन्ह मोक्ष-भा सोई।।
जेा जन पूजन नित-प्रति आहीं।
दरश पाय मनमहिं -हरषाहीं।।
ध्यान- धारणा- दर्शन पावहिं।
सुखद होय निज पंथ चलावहिं।।
दोहा-बडभागी हैं रवि-शषी-उडुगन नित प्रति आँय।
परस करहिं कर किरण से मन हर्षित सुख पाँय।।6।। मंगल------
चौ. भाव साधना करहिं जो प्राणी।
पाय भगति अनुपम सुख दानी।।
बचनामृत का पान जो करहिं।
भव-बरिधि गो-पद इव तरहिं।।
सर्व व्यापक हो सुखराशी।
जीवन मुक्तक काशी-वासी।।
तुम अनंत अच्युत नारायण।
वासुदेव -यज्ञेश- परायण।।
यज्ञ रुप जग पालन हारे ।
गुरुवर कृपा अनेकन तारे।।
पुण्य जनक दुःख नाशक नामा।
बाबा ध्यान विनाशक कामा।।
गुरु तव्वार्थ-वेत्ता जानो।
शान्ति स्वरुपा नित्य बखानो।।
अपराधी-अपराध निवारे।
अंध किए चौरादि उवारे।।
दोहा-श्री गुरु चरण प्रताप से,सकल दाप मिट जाँय।
जो जन आठौ याम ही,काषी बाबहिं ध्याय।।7।। मंगल------
चौ. बहहि बयारि सुखद सब काली।
अगर गंध मंहकहि मन लाली।।
शीश सुमन धरि पादप झूमहि।
मन मनमस्त मधुप तहाँ घूमहिं।।
खग मृग मगन उछाह घनेरी।
झूमहिं प्रेम-रंग-झरबेरी।।
झूमत धरा,धान्य भरि झोरी।
खेलत मनहूँ पे्रम रंग होरी।।
सुख के साज सजी भुयी सारी।
पावन मन भावन अति प्यारी।।
दुःख-दारिद्रय कतहुँ नहिं पावैं।
बैर-क्रौध के भाव न आवैं।।
सिंह-शशक खेलहिं एक साथा।
सर्प-मयूरन- पंखन गाता।।
नीति-गीत गावहिं नर-नारी।
झालर-शंख न्यारि धुन प्यारि।।
दोहा- आश्रम बासी सुखी सब, धरनी मंगल मूल।
कंटक भए सब सुमन बत,मिटे मोह मद शूल।।8।। मंगल-------
चै. मंगल मूल मनोहर- धामा।
जीव लहहिं सुख समृद्धि नामा।।
दसहुँ दिसन सुख का संसारा।
धन बरसत तहाँ धनद निहारा।।
निज भण्डार लगा लघु ताही।
जय-जय-जय काशी सब गाही।।
चर और अचर सुखी भए भारी।
काशी महिमा सबन निहारी।।
बरद हस्थ लख काशी नाथा।
अस्तुति करहिं पाद धरि माथा।।
दरश हेतु आवहिं नर नारी।
भई भीर महिमा सुन भारी।।
साधु,सिद्ध,मुनि,पीर अपारा।
भा-बैकुण्ठ बेहट-दरबारा।।
मानव रुप देव धरि आवहिं।
आरति गायॅं परम सुख पावहिं।।
ललित ललाम गुरु का धामा।
गीत मनोहर गाबहिं बामा।।
दोहा- बैर- भाव कतहूँ नहिं,सुयश रहा चहुँ ओर।
लगै नया गौ-धाग यह सुख का ओर न छोर।।9।। मंगल-------
चै. जंगल-मंगल मोद अपारा।
भव्य धाम गुरु सबन निहारा।।
विन्ध्याटवी भयी सुख खानी।
ऋद्धि-सिद्धि तहाँ आप भुलानी।।
सिद्ध भवन भए पुलक पहारा।
लघु लागा हिमराज विचारा।।
खाँयी गहवर गुफा सिंहाहीं।
नद कछार तट मोद मनाहीं।।
वाट-वाटिका बाग सुहाने।
कूप बाबरी पार न पाने।।
वन उपवन नंदन सम तूला।
सुर-नारी झूलहिं मन झूला।।
पावन होय परस पग घूरी।
पाथर भए पारसमणि भूरी।।
तरु भए कल्प वृक्ष सुख राशी।
पाँय अमित सुख मारग बासी।।
करुणा रुप सकल सुख राशी।
जीव हृदय सुचि ज्ञान प्रकाशी।।
दोहा-नहीं आऐं यमदूत तहाँ,महिमा लखत अपार।
पहुँचे सब यमराज पहिं,चरित सुनाया सार।।10।। मंगल--------
चौ. काशी महिमा सुन यम काना।
मन चिंतित यमराज सुजाना।।
ध्यान धारि यम दृष्टि पसारी।
कृपा दृष्टि सिद्धेश्वर सारी।।
काशी-शिव रुपक जब जाना।
विनय करी यमराज सुजाना।।
विनय सुनत शिव कृपा निहारा।
नियति नीति भा सब संसार।।
सिद्ध,साधु,प्रभु लीला न्यारी।
कब जानहिं मानव संसारी।।
बाबा चरण-शरण जो जाँही।
भव वंधनहि छूट सो पाँही।।
करुणा पुँज आपका रुपा।
वेद अगम,सुचि सुगम सरुपा।।
बाबा तपोनिष्ट जग प्यारे।
गिरागम्य कवि कौन उचारे।।
जीवन का फल श्री गुरु शरणा।
नहिं संसार अग्मि में जरना।।
दोहाः- बाबा करूणा रूप है,है करूणा अवतार।
श्री चरणों मनमस्त जो,निश्चय बेड़ा पार।।11।। मंगल----
चौ. केहि विधि गान करहिं तब स्वामी।
जय-जय-जय हो,सहस्त्र नमामी।।
चार पदारथ करतल पावै।
जो गुरु चरणों ध्यान लगावैं।।
गुरु कृपा जेहि पर जब होई।
सकल सुगम पथ पावै सोई।।
बाबा शतक पढे जो कोई।
अणमादिक सिद्धि पावै सोई।।
जन जीवन का एक सहारा।
काशी सुमिर होंय भव पारा।।
काशी बाबा सिद्ध हमारे।
जिन भव अगणित जीव उबारे।।
सुमिरत नाम अभय भय हारी।
पूरण होंय कामना सारी।।
आठहु याम ध्यान जो धरहीं।
ते भव कूप कवहूँ नहिं परही।।
जीव लहहिं विश्राम अपारा।
बाबा कृपा होहि भव पारा।।
जो जन पढै-शतक मन नेहा।
सुखद होय ताकहुँ भव गेहा।।
दोहा-गुरु से बड़ा न कोई भी,गुरु सा रुप न कोय।
गुरु प्रसाद मनमस्त मन,पूर्ण भरोसे होय।।12।। मंगल-------
श्री काशी बाबा चालीसा
दोहा-श्री काशी बाबहि नमन,सकल बुद्धि दातार।
अर्चन-वंदन करहिं तब,जय-जय-जय सरकार।।
चौ. जय काशी बाबा महाराजा।
सुफल कीजिए सबके काजा।।
मंगल मूर्ति सकल सुखदाई।
आनंद-कंद अनन्त दुहाई।।
धवल धाम झिनमिल के तीरा।
पावन अमित-अमिय फल नीरा।।
ब्राँज रहे अवनीश कृपाला।
गूँजना गाँव सुखद सब काला।।
आरति गाँय सुखद नर-नारि।
सुबह-शाम जय-जय धुनि प्यारी।।
शिव अवतार तुम्हीं हो देवा।
अपना लेते हो विन सेवा।।
दरश लाभ जाकहुँ जब होई।
सकल पाप-मल आपहिं धोई।।
सब जीवन के रक्षक स्वामी।
आनंद कंद अनन्त नमामि।।
जनहित कारण रुप तुम्हारा।
सकल सुमंगल जग आधारा।।
सुनहूँ विनय आरत जन केरी।
दीन पुकारत करो न देरी।।
अमित शक्ति दाता तब नामा।
पावहि जन मनमहि विश्रामा।।
धाम धरा गौ-लोक बनाई।
कीरति गाय लहहि सुख भाई।।
कष्ट हरण जन मन के स्वामी।
छाया-काया रुप नमामि।।
लीला अमित न कोई जाना।
मन कंदर्प नहीं स्थाना।।
करुणा पुँज दीन हितकारी।
मन इच्छा के हो अधिकारी।।
दरश लालशा मन अति होई।
अब तक नाथ याद क्यों खोई।।
मन बगिया में आन बिराजों।
आनंद कंद अमित छवि छाजो।।
तुम अनन्य हो और न कोई।
देव भगति अनपायनि मोई।।
खोलहु नाथ भक्ति के द्वारे।
भव-भय भूत भगे मन सारे।।
अगणित योग साधना स्वामी।
मनमहि रमो हमेश नमामी।।
भव के जीव अनेकन तारे।
तप निहार कलि कालहु हारे।।
अंधन दृष्टि दई सुखकारी।
रोग विमुक्त किए नरनारी।।
भय के भूत भगे सुन नामा।
दर्श तुम्हार लहहि विश्रामा।।
भूलेहु कतहु सुमिर जो कोई।
ताकी आधि-व्याधि सब खोई।।
जीव चराचर के तुम स्वामी।
मेंटहु भव दुख सकल नमामि।।
अधम जीव हम अघ के भाड़े।
पाहि-पाहि तब द्वारे ठाड़े।।
और न कतहुँ कोउ रखवारा।
चरण-शरण आए दरवारा।।
धरनि भई बैकुण्ठ समाना।
आए देव रुप धरि नाना।।
भुवन चारिदश सुयश तुम्हारा।
है परिसिद्ध जगत उजियारा।।
आठौ याम भजन धुनि होई।
यम यातना तहाँ नहि कोई।।
सकल जीव सुख लहहि अपारा।
सुमन वृष्टि नभ जय-जय कारा।।
प्रभु तुम हो अग जग रखवारे।
मोक्ष पाएँ तब चरण पखारे।।
केहि विधि करहि अर्चना स्वामी।।
नेम-नूँक नहि सिर्फ नमामी।।
क्षमहु नाथ अपराध हमारे।
आए अशरण-शरण तुम्हारे।।
ज्ञान ध्यान कछु जानत नाही।
त्राहि-त्राहि प्रभु पायन आही।।
बोल रहे केवल जयकारे।
तुमरे सिवा न कोउ हमारे।।
दोहाः तुम महेश परमेश हो,ब्रम्ह सनातन रुप।
सरण आपकी आ पड़े,तुम्हीं सकल जग भूप।।
हैं अज्ञानी जीव हम,करते नमन हजार।
मैटों भव वाधा सभी,गुरु रुप सरकार।।
अष्टक
हो भव पार करइया तुम्ही,भवपार करो,भव नाँव हमारी।।
एक समय भुयीं ताप-तपी,
तब पात विहीन भए तरु झारी।
सूख गए झरते झरना,
नीर विना,सब जीव दुखारी।
कीन्ही कृपा गुरुदेव तभी,
घन मेंघन से बरसा भयी भारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करों भव नाँव हमारी।।1।।
मातु पिता के दुलारे बने,
कैलाश तजौ मन्मथ अहारी।
गोद को मोद अनंत दियो,
बनके श्री सिद्ध अनन्य पुजारी।
जग से बहरे,हो गए गहरे,
गाँऐं सभी सतकीर्ति तुम्हारी।
हो भव पार करइया तुम्ही,
भव पार करो भव नाँव हमारी।।2।।
सिद्ध पदों के आराध्य बने,
त्याग दिये भव षष्ट् विकारी।
स्वाँस पै नाम गुरु का रहा,
करुणानिधि से कर आरत भारी।
प्रभु जी भर दो भुयीं वैभव से,
कर जोरित हैं सब,आस तिहाँरी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाव हमारी।।3।।
सदमार्ग चले,सन्यास लिया,
बैरागी बने,बने नाँद विहारी।
उपदेश लिए गुरुते बहुते,
हरि नाम रटा,रसना सुख सारी।
सत् लोक मिलै,सत् साधन से,
सत्य-सनातन-वेद पुकारी।
हो भव पार करइया तुम्ही ,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।4।।
पग एक पै होय तपस्या करी,
अन्न तजा,फल-मूल अहारी।
पंचाग्नि तपीं,जलशेज लयीं,
बयारि भखी,बन ऊर्द्ध मुखारि।
वर्ष अनेकन,योग किए,
भूँख सही,तज पात सुखारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाव हमारी।।5।।
ध्यान समाधि अखण्ड लयीं,
तब सिद्ध गुरु की खुली मन तारी।
आए गुरु करने किरपा,
निज शक्ति दयी,दे आषीश हजारी।
जन जीवन के सब कष्ट हरो,
जग के कल्याण को भक्ति तुम्हारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।6।।
शत वर्ष से ज्याँदा यौं आयु भयी,
मन आयी उछंग,समाधी की त्यारी।
नाँद की माँद समाधी लयी,नद
झिलमिल तीर सुपावन बारी।
मन,मान,मना,काशी धाम बना,
बैकुण्ठ ही जानि,सुशीतल झारी।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।7।।
पूजन की विधि जानैं नहीं प्रभू,
आरत हो,करैं आरति त्यारी।
झालर,शंख,मृदंग बजै,
अगरान की गंध,अनंग बुहारी
ध्यान में आठौहि याम रहो,
त्याग दयीं,भव भवना सारी।।
हो भव पार करइया तुम्हीं,
भव पार करो,भव नाँव हमारी।।8।।
दोहाः शरण आपकी आ गए,रखदो सब की लाज।
और सहारा है नहीं,खे दो सकल जहाज।।
और कहाँ जाँऐं प्रभू,तुम सा और न कोय।
चरण शरण मनमस्त है,देऊ सहारा मोय।।
आरती-
जय काशी बाबा-----।
जय काशी बाबा! बाबा-जय काशी बाबा।
जो जन तुमको ध्यावे,सुख-शान्ति पावा।।
-बाबा जय काशी बाबा।।
सगुण रुप धरि,जन जीवन के,अगणित कष्ट हरे।
पावन-भू, विन्ध्याटवी में,रतनाभरण भरे।।बाबा----
विश्वनाथ प्राकट्य देखकर,वसुधा भयी नई।
रामप्रसाद-गंगादेवी की,गोदी धन्य भई।। बाबा----
जनहित कारण तपोनिष्ट हो,लीन समाधि भए।
निर्गुण,निराकार,निःरंजन,व्यापक विश्व भए।। बाबा----
नाँद-माँद में ब्रह्मनाँद पा,जन-जन हित कीना।
अलख,अगोचर,अविनाशी बन,सबको सुख दीना।। बाबा-----
एक रंग की ओढ़ि चूनरी,पचरंगी त्यागी।
प्रभू की ध्यान-अर्चना करते,हम सब बडभागी।। बाबा-----
स्वाँस-स्वाँस हो तेरा सुमिरन,स्वाँस न हो खाली।
जयति-जयति,जय चहुँ दिसि होवै,विखर रही लाली।। बाबा-----
करो मनोरथ सबके पूरे,अर्जी यह बाबा।
तन,मन,धन अर्पित है सबकुछ,ओ! काशी बाबा।। बाबा-----
दोहाः कण-कण में रमते मिले,सब सुमनों की गंध।
अगर-बगर सब ही जगह,बिखरी आप सुगंध।।
सदाँ-हृदय ब्राजे रहो,विनती बारम्बार।
तुम करुणा के रुप हो,सुनि! मनमस्त पुकार।।
000000