अवधूत संत काशी बाबा 4
श्री श्री 108 संत श्री काशी नाथ(काशी बाबा) महाराज-
बेहट ग्वालियर(म.प्र.)
काव्य संकलन
समर्पण-
जीवन को नवीन राह देने वाले,
सुधी मार्ग दर्शक एवं ज्ञानी जनों,
के कर कमलों में सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
डबरा
चिंतन का आईना-
जब-जब मानव धरती पर,अनचाही अव्यवस्थाओं ने अपने पैर पसारे-तब-तब अज्ञात शक्तियों द्वारा उन सभी का निवारण करने संत रुप में अवतरण हुआ है। संतों का जीवन परमार्थ के लिए ही होता है। कहा भी जाता है-संत-विटप-सरिता-गिरि-धरनी,परहित हेतु,इन्हुं की करनी। ऐसे ही महान संत अवधूत श्री काशी नाथ महाराज का अवतरण ग्वालियर जिले की धरती(बेहट) में हुआ,जिन्होंने अपने जीवन को तपमय बनाकर,संसार के जन जीवन के कष्टों का,अपनी सतत तप साधना द्वारा निवारण किया गया। हर प्राणी के प्राणों के आराध्य बनें। आश्रम की तपों भूमि तथा पर्यावरण मानव कष्टों को हरने का मुख्य स्थान रहा है। संकट के समय में जिन्होनें भी उन्हें पुकारा,अविलम्ब उनके साहारे बने। ऐसे ही अवधूत संत श्री काशी नाथ महाराज के जीवन चरित का यह काव्य संकलन आपकी चिंतन अवनी को सरसाने सादर प्रस्तुत हैं। वेदराम प्रजापति मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा ग्वालियर
मो.9981284867
1-धरो मन,काशी बाबा,ध्यान।
विन्ध्याटवी-रम्य गोदी में,तीरथ दिव्य,महान।
गिरि,गहवर् श्रंखला अनूठी, झर-झर-झरना तान।।
जिला ग्वालियर,मौं के पथ में,बेहट ग्राम को जान।
है विशाल मंदिर और परिसर,दिव्य समाधि स्थान।।
जहाँ संतजन,करत आराधना,ग्यान,समाधि,ध्यान।
भजन-मण्डली के मण्डल में,नाचत है भगवान।।
है बैकुण्ठ तपो भूमि यह,नाँद-ब्रह्म स्थान।
आत्म-ब्रह्म मनमस्त यहाँ हैं,दर्शन करलो आन।।
2ः-काशी बाबा,गुरु हमारे।
झिलमिल सरित-तीर पै आश्रम,झुक रहे वृक्ष-किनारे।
पाकरि,जम्बु,रसाल,बदरि,वट,क्षेकुर,पीपल न्यारे।।
तोता,मोर,पपीहा,पिउ-पिउ,सारस सरस उचारे।
तानसेन की रम्य भूमि यह,जहाँ राग अनियारे।।
काशी बाबा तपोभूमि यह,आश्रम सुन्दर,प्यारे।
बैर भाव तज,जीव जन्तु तहाँ,प्रेम भाव भए सारे।।
धन्य-धन्य बाबा के तपने,सबके संकट टारे।
मिलन सगुन मनमस्त हो रहे,काए शरण न जारे।।
3- अरे मन, मान अबहुँ शिख मोरी।
काँ उलझो,का-का पै उलझो,तोरी मति भई भोरी।
तेरे को,का-का कौ, तूँ लख,तकौ चरण-गुरु ओरी।।
बींधे फन्दन सुरझि न पायो,शट्-रिपु वंदन डोरी।
जो भी आए,शरण गुरु की,सब बंधन दए छोरी।।
सबरे माला माल हो गए,तूँ जाऐ किस ओरी।।
अबै नहीं विगरौ कछु राजन,अबै चदरिया कोरी।
विगर न पावै,चलो सभल के,धर देऊ कोरी-कोरी।
हो!मनमस्त शरण स्वामी के,मत बन तूँ अॅंघोरी।।
4ः- मो मन, काशी बाबा बस गए।
गृह जंजाल त्याग,गुरू सेवा,तपसी बन,बन बस गऐ।
कठिन साधना की गुरू-चरणों,योग क्रिया में बढ़ गऐ।।
असन,बसन का ध्यान न कीना,नीर अहारी हो गऐ।
सरल भेष,मन गुरू चिंतन में,अल्हड़ बाबा बन गऐ।।
करी अर्चना नहिं काहू से,जो पाया,सो चख गए।
ध्यान-धारण की गुरू चरणों,भव से पार उतर गऐ।।
फल,पत्ती अहार आधारित,वायु सेवन,तर गऐ।
देव पुरूष,मनमस्त हैं बाबा,सबकें कारज कर गऐ।।
5-स्वामी तुम हो औढ़र दानी।
रीझ जाओ,कापै तुम,कब-कब,ये काहू नहिं जानी।
एक नारियल,पुआ,चनों पर,भरत झोलियाँ घानी।।
गाँजा-चिलम सदाँ ही चलती,मनमौजी मन जानी।
भक्तन के भए,सदाँ सहाई,सबको सुख के दानी।।
मन को भाँता हलुआ-पूड़ी,रोटी-दाल-रिझानी।
परेम परीक्षा लेत रहत हो,देत सबै,मन-मानी।
जो कोई,बाबा शरणै आया,ताकी पीर नशानी।
लीला समझ सकौ नहिं कोऊ,का मनमस्त बखानी।।
6- घी के पुआ तुम्हें मन भावैं।
ना चहिए लडडू और पेरा,नहिं मेवा को चावै।
धन दौलत पै नहीं रीझते,वैभव से नहीं पावै।।
परेमी जन को सदाँ चाहते,प्रेम गीत जो गावै।
सबकी अर्ज प्रेम से सुनते,जो कोउ शरणै आवै।।
सच्चे हृदय प्रेम की पूजा,जो कोउ करत दिखावै।
ऐसे मिलत सबहि काहू सौं,ले कर गलैं लगावैं।।
परेम डोरि में बॅंध रहे बाबा,मन मस्ती मन लावैं।
सब संकट क्षण में ही मैंटत,जो गुरु चरण मनावैं।।
7-काशी बाबा रंग गए,हरि रंग।
झाँझ,मृदंग,पखाबज बाजत,शड़तालों के स्वर संग।
बुझती नहीं चिंलम गाँजे की,घौंट-घौंट के-पी भंग।।
असन-बसन का ध्यान नहीं है,भए दिगंबर,अंग-अंग।
नृत्य करैं,सुरगण हरशावैं,सुमन झर रहे,बहु रंग।।
उड़ते गहरे ग्यान- गुब्बारे,खिंचतीं- ताने-स्वर संग।
विजय घोरि भई आसमान से,जय हो झिलमिल सुचि गंग।।
कठिन साधना,तप प्रभाव से,बाँध लिए हैं जन मन।
हैं मनमस्त जगत रखबारे,मन-फिर चिंता क्यों मन।।
8- समय गति,मानो यहाँ रूकी।
भजन करै जहाँ संत मण्डली,दुनियाँ वहाँ झुकी।
संसारी झंझट-झॅंझावत,ऐहि मग कहाँ टिकी।।
सुख का स्वर्ग,सदाँ यहाँ होता,किस्मत चुकी-चुकी।
वेद और वेदन की वाणी,अब तक नहीं बिकी।।
अगम पंथ का पंथ यही है,जिस पर धरा टिकी।
समुझत-समुझत सब ही हारे,रेखा नहीं छिकी।।
जीवन मुक्त होउ गुरू चरणों,रस्ता यही सुखी।
अब हूँ चेत,करै क्यों टैं-टैं,ओ! मनमस्त षुकी।।
9-बाबा हरी मंत्र आराधैं।
ओऽम् नमो भगवते वासुदेवाय,स्वाँस-स्वाँस,स्वर बाँधै।
इकपग खड़े,दोऊ कर जोरे,दृष्टि ऊर्द्धगति साधै।।
नित्य करैं,करबद्ध प्रार्थना,योगासन अपनावैं।
करी अनेकन क्रिया योग की,जो-जो मनको भावे।।
हठयोगों की योग क्रिया में,अग्नी-जल अपनावैं।
कई आसनों के साधन संग,बज्रोली सुख पावैं।।
क्रिया-सन्नधानन् के मग में,अन्र्तध्यान हो जावैं।
कठिन साध,मनमस्त करी उन,जन-जन के मन बाँधै।।
10ः-गुँजैं तान गुफा के अन्दर।
नृत्य करत मन भावन मौंसम,साज सजाए सुन्दर।
गभुआरे घन,धरनि चूमते,घुमडत मनहुँ समन्दर।।
सिंह-स्यार,मृग-मोर नाँच लख,उछल-कूँद रहे बंदर।
जंगल में,मंगल की गुँजन,गुफा-सुहानी-मंदर।।
है सच्चा,गो-लोक यहाँ पर,जगते-भाव-कलंदर।
माया की नहिं दाल गलै यहाँ,आन न पाऐ,अन्दर।।
है संसार यहाँ का अदभुत,उमड़त-ज्ञान समन्दर।
जो डूबैं,मनमस्त याहि रंग,पुज जाऐ,जग अंदर।।
11-मन तूँ,रटले काशी बाबा।
ब्रह्मज्ञान के अगम पारखी,अति गहरे हैं दावा।
सारे जग का,न्यारा अनुभव,नहिं जो काशी कावा।।
है संसार अनूठा इनका,अगम ज्ञान जहाँ छावा।
ज्ञानामृत,जो पानि करे नित,वह सुख,कहीं न पावा।।
जिसने,उनको मन से ध्यावा,उसने मेवा चावा।
जय-जय-जय,संसार गा रहा,झरि-झरि सुमन सुहावा।।
अनहद-नाँद,निनाँद ध्यान में,सबने सदगुरू पावा।
अब-भी जग,मनमस्त हठीले,बाम दिशा क्यों धावा।।
12ः- काशी बाबा,सच्चे साधक।
ब्रह्मज्ञान,वेदान्त,रसायन,अद्वेती अनुवादक।
चैसठ विद्या के अनुज्ञाता,स्वर,नाँदों आराधक।।
भ्रकुटि-ध्यान,ब्रह्माण्ड वेत्ता,गुरू प्रसाद पारांगत।
भ्रामरि-नाँद,त्रापटिक पारखी,सकल सिद्धि संधारक।।
नाँडी ज्ञान,स्वरोदय साधक,तंत्री-भेद विचारक।
इडा,पिंगला और सुषुम्ना,के सच्चे आराधक।।
मूलाधार,पदम् की क्रिया,चित्रषुद्धि-स्मारक।
आज्ञा चक्र मनमस्त बैठकर,युग ब्रह्माण्ड सुधारक।।
13- वसो मन,झिलमिल तीर-,विशेष।
जहाँ विराजे काशी बाबा,बाल-ब्रह्म के वेश।
बालापन,नटखटी अनूठे,चाल चलन अति नेक।।
आयु के अनुसार गयान की,चढ़ गए ऊॅंची टेक।
सिद्धगुरू के शरण,चरण गहि,सिद्धी लयीं अनेक।।
झिलमिल नीर किया गंगाजल,तर गए जहाँ अनेक।
जल ने घृत का रूप लिया यहाँ,पार ब्रह्म परवेश।।
वट,पीपल,रसाल भए धन्-धन्,कल्पवृक्ष-अभिषेक।
केकी,कोयल,कीर पीर विन,हैं मनमस्त विशेष।।
14- हरहो,कवलौं पीर हमारी।
चारौ तरफ विकट अॅंधियारी,कैसे पावैं पारी।
जिनसे करत भरोसे थे हम,उनने सुरति विसारी।।
संग देत नहिं,अबतौ कोऊ,हो रही अधिक ख्बारी।
तुम ही,पर-पीड़ा को जानत,कब है,हमरी बारी।।
हम जाने संसार,सार है,पर असार,संसारी।
भटक रहे अबलौं याहीं में,नाशी-बुद्धि हमारी।।
शरण आपके आनि पड़े हैं,तुमने दुनियाँ तारी।
नाचत-नाचत हार गए अब,कब मनमस्त की बारी।।
15- तुम से राजाहु माने,हारी।
राय जियाजी तोप निकारी,जानैं सब संसारी।
हाथी दे चिंघाड,हार गए,अल्हड बैल उपारी।।
सिंहों से जन रक्षा कीन्ही,कहाँ तक कहैं उचारी।
कई बार,भक्तों की खातिर,सारी रात-जगारी।।
भक्तों ने,जहाँ तुम्हें पुकारा,पलकी करी न बारी।
नॅंगे पैर,दौड़ गए तत्क्षण,तुम से मृत्यु हारी।।
चोरन को दयौ गयान अनूठा,बने भक्त,वृतधारी।
सुयश रहा मनमस्त आपका,चुकहै कवै-उधारी।।
16- तुम विन,कौन करै,हित मेरौ।
सब स्वारथ के मीत यहाँ पर,स्वारथ जौंलों,टेरौ।
अब तौ,द्वार,गली छोड़ी उन,भूल कबहुँ ना,हेरौ।।
मन चंचल,हैरान करत है,मन कौ भरम निवेरौ।
सबकी साधी तुमने बाबा,मेरो कब,निरवेरौ।।
मैं अज्ञानी जीव,अधर्मी,माया जालन प्रेरौ।
आप विना,अब कौन सहायक,षट रिपु आकर घेरौ।।
साधन हीन जानकैं मोखौं,तुमने ही,मुँह फेरौं।
अपनी बानि संभारो बाबा,मनमस्तहु है चेरौ।।
17- महिमा अपरम्पार तुम्हारी।
नहीं जानैं,गुरू चरणों लीला,हमतो हें,संसारी।
बन-बन ढूँढ थके, नहीं पाए,नयना अॅंसुअन भारी।।
विचर रहे तुम विश्व विहारी,वेदन मानीं हारी।
तुमको जहा पुकारा जिसने,तहाँ पहुँचे,भयहारी।।
बाँह पकरि कर,सबहिं उबारौ,सब जानत संसारी।
शंख ध्वनि,वेदन की वाणी,आरति करत तुम्हारी।।
विनय हमारी सुनलेऊ बाबा,करूणा सिंधु,हजारी।
दर्शन दो! मनमस्त जान जन,ओ बाबा!अबतारी।।
18- लगि है,कबलौं नम्बर मेरौ।
पशु-पक्षी के दर्द हरे तुम,अडिग भरोसो तेरौ।
कोढ़ी काया,कंचन कर दयीं,प्रेम भाव जिन,टेरौ।।
ऐसी दयी नसीहत चोरन,अॅंखियन-अॅंध,अॅंधेरौ।
रक्षा करी,भगा दए डाँकू,उनकोउ कष्ट निवेरौ।।
तुम हो अलख,अगोचर बाबा,कवन दिशा में,टेरौं।
समझ नहीं कछु परत गुंसाँई,है अॅंधियार,घनेरौ।।
सबकी सुनत,न सुनते मेरी,कबै करौ निर्वेरौ।
और द्वार,मनमस्त न जावै,झण्डा गाढ़ो तेरौ।।
19- तुम से लग गई,लगन हमारी।
लख चैरासी भरम-भरम कैं,अबतौ हिम्मत हारी।
संकट में,आ बनौ सहाई,औरऊ सबै-विसारी।।
एक आसरौ शेष तुम्हारौ,कहाँ गए,मेरी बारी।
सबनैं पता बताओ तुमरौ,तुम करूणा अवतारी।।
अपनी बान,सम्हारो बाबा,दीनबंधु-हितकारी।
अब मन,लगै न और कहूँ पर,तुम्हरीं शरण निहारी।।
तारौ चाहे न, तारौ स्वामी,जाऊॅं न,और दुआरी।
हो स्वामी मनमस्त,आपहीं,तारो!दुनियाँ तारी।।
20-जो मन,चाहौ भरम मिटाना।
हैं वे,बेहट धाम के स्वामी,उनके चरनन जा ना।
दुनियाँ का गो-धाम वहाँ है,सबनैं उनको माना।।
तज संकोच,कपट,छल,छिदम्,गीत उन्ही के गा ना।
अपरम्पारी लीला उनकी,ध्यानी ध्यानन,पा-ना।।
वे हैं अलख,अगोचर,ओ मन,क्या उनको पहिचाना।
जा-जा शरण,चरण बाबा के,क्यों करता है,ना ना।।
ऐसे संत मिलैं नहिं जग में,अगम पंथ जो,छाना।
घट-घट में मनमस्त हैं वासी,काऐ नहीं पहिचाना।।
21- काशी बाबा-अनहद नाँदी।
परम हंस,परकाशी बाबा,धरा धाम बुनियादी।
सत्य,सनातन,अलख,निरंजन,रचना शब्द नवादी।।
भेद भाव है जहाँ न कोई,ना लयी कोई उपाधी।
नागा पंथी,जून अखाड़ा,धर्म क्रिया-अनुवादी।।
बज्रोली की क्रिया शक्ति से,लिंग साधना साधी।
अपढ़,पढे़ सत संगति शाला,आत्म-ज्ञान-मुनादी।
मस्तक दिव्य ज्योति से राजत,आज्ञा चक्कर गादी।
हैं मनमस्त सभी के स्वामी,जाग्रत-ज्योति-समाधी।।
22-बाबा अलख-साधना-साधी।
बेहट अवनि को धन्य कर दयी,गालब-गोरव गादी।
जीवन कर अर्पित गुरू चरणों,झिलमिल गंग-मुनादी।।
षट विकार,बेकार कर दए,सुरति साधना साधी।
भक्ति भावना जाग्रत करके,लीन अखण्ड समाधी।।
चित्तवृति एकाग्र करत ही,ज्ञान निरोधन वादी।
प्राणायाम करी क्रियाऐं,षिवोऽहम भए नाँदी।।
अजपा जाप निरंतर चलता,विन ध्वनि,नाँद-अनादी।
जा मनमस्त उन्हीं के चरनन,मैंटहिं सकल ब्याधी।।
23- सबके संकट मैंटन हारे।
सतत साधना बाबा कीनी,श्री गुरू चरण सहारे।
ब्रह्मज्ञान,तत्वांक-वेत्ता,वेद तत्व अनियारे।।
आगम-निगम स्वाँस कीं क्रियाँ,मूलाधार अधारे।
सबकी सुनत,न लौटा कोई,सबको दए सहारे।।
भूँख,प्यास की सबकी सुनते,पकरि बाँह बैठारे।
टेर-टेर कैं,हेर-हेर कैं,सबके दुःख निवारे।।
आर्त अर्चना जिनने कीनी,भऐ-पौ-बारह-सारे।
मनमस्तहु की इस नइया के,वे ही एक सहारे।।
24- भज मन,काशी बाबा,प्यारे।
जिनकी कृपा-दृष्टि पा होते,अॅंधियारे उजियारे।
समधिस्थ हैं-ब्रह्मलीन हैं,काशी नाथ हमारे।।
सिद्ध गुरू चरनन की सेवा,निशि दिन करत निहारे।
जीवन धन्य बनाले अपना,क्यों भटकत,जग दुआरे।।
भटकावे जहाँ मिटत क्षिणक में,ऐसे नाथ हमारे।
हार गयी वहँ नियति परीक्षा,चली न उनके द्वारे।।
आठौ याम भजन कर जिननें,पाऐ मोक्ष दुआरे।
कहाँ सोवै? मनमस्त बाबरे,शरण उन्हीं के जारे।।
25- जीवन करले,अपना धन्-धन्।
विना भजन कोई साध न पूजे,यह जानत है जन-जन।
सचमुच चाहै भरम मिटाना तो सुनि,अनहद टन्-टन्।।
जीवन पथ का,जो सच साथी,उसे सौंप दे सब-धन।
इन स्वाँसों को करो सार्थक,जो स्वर साधे,धन्-धन्।।
गुरू नाम,अबलम्ब एक है,जिनकी लीला जन-जन।
सदगुरू के,मनमस्त चरण-जा,क्यों भरमाता एहि बन।।
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