अवधूत संत काशी बाबा 3
श्री श्री 108 संत श्री काशी नाथ(काशी बाबा) महाराज-
बेहट ग्वालियर(म.प्र.)
काव्य संकलन
समर्पण-
जीवन को नवीन राह देने वाले,
सुधी मार्ग दर्शक एवं ज्ञानी जनों,
के कर कमलों में सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
डबरा
चिंतन का आईना-
जब-जब मानव धरती पर,अनचाही अव्यवस्थाओं ने अपने पैर पसारे-तब-तब अज्ञात शक्तियों द्वारा उन सभी का निवारण करने संत रुप में अवतरण हुआ है। संतों का जीवन परमार्थ के लिए ही होता है। कहा भी जाता है-संत-विटप-सरिता-गिरि-धरनी,परहित हेतु,इन्हुं की करनी। ऐसे ही महान संत अवधूत श्री काशी नाथ महाराज का अवतरण ग्वालियर जिले की धरती(बेहट) में हुआ,जिन्होंने अपने जीवन को तपमय बनाकर,संसार के जन जीवन के कष्टों का,अपनी सतत तप साधना द्वारा निवारण किया गया। हर प्राणी के प्राणों के आराध्य बनें। आश्रम की तपों भूमि तथा पर्यावरण मानव कष्टों को हरने का मुख्य स्थान रहा है। संकट के समय में जिन्होनें भी उन्हें पुकारा,अविलम्ब उनके साहारे बने। ऐसे ही अवधूत संत श्री काशी नाथ महाराज के जीवन चरित का यह काव्य संकलन आपकी चिंतन अवनी को सरसाने सादर प्रस्तुत हैं। वेदराम प्रजापति मनमस्त
गुप्ता पुरा डबरा ग्वालियर
मो.9981284867
3. श्री काशीनाथ महाराज चरित
साखी-
दोहा-सारद सुधि-बुद्दि दीजिए,विनती बारम्बार।
काशी बाबा का चरित,चाहौ करन उचार।।
ह्रदय बैठो आनिकर,दे दो अनुपम ज्ञान।
मैं तो कुछ जानू नहीं,आपहि हो पहिचान।।
मध्यप्रदेशी भूमि पर,जिला ग्वालियर नाम।
बैहठ ग्राम के पास में,काशी बाबा धाम।।
है सत-साधक संत जो,जगती के आधार।
मानव जन कल्याण हित,प्रगटे क्षेत्र मुरार।।
परिकोटा के मध्य में,मंदिर बना विशाल।
ध्वज फहरै,घंटा ध्वनि,सुन डरता जहाँ काल।।
1. भजन(सुमिरनी)
तुम्हारे चरनन शिर नाऊँ।
बेहट धाम के काशी बाबा.के गुण-गन गाऊँ।
चरण कमल की पावन रज पा,भव से तर जाऊँ।।
अति पावन-भू के प्रताप को,किस बिधि समझाऊँ।
आधि-व्याधि मिट जाती क्षण में,झिलमिल के पाऊँ।।
पावन गंगा झिलमिल हो ज्यों,हरिद्वार ठाऊँ।
सारे तीरथ का फल यहाँ पर,मुक्ति मोक्ष पाऊँ।।
सब भटकाव मिटैं जगती के,जब समाधि जाऊँ।
कह मनमस्त शरण गहि बाबा,जीवन पद गाऊँ।।
2. भजन-
काशी बाबा पुज रहे घर-घर।
सम्बत पन्द्रहवी अमित सुहानी,झिलमिल बह रही झर-झर।
शिवरात्री पर सिद्धेश्वर शिव,पूजत बोले हर-हर।।
बैहट क्षेत्र में यज्ञ रची एक,खुशियाँ छायीं घर-घर।
हरप्रसाद-गंगा देवी ने,सेवा कीनी जी भर।।
संतन के सत्संग सुने नित,ज्ञान ध्यान उर धरि कर।
प्रेम अश्रु नयनन से झर रहे,टपकत जैसे निरझर।।
संत कृपा हो गई दंम्पति पर,आशिष दीनी मुख भर।
कह मनमस्त साध तेरी पूजे,विश्वनाथ शिव-हर-हर।।
3.भजन-
टेक-सिद्धेश्वर बैहट धाम,यज्ञ संतो ने करवाई।
छंद-भरत भूमि सत संत,अनेको पंथ,भ्रमण को जावै।
धरणी जन हरत कलेष,राम गुण गावै।।
जीवन सार्थक करन,गुरु के चरण,नित्य प्रति ध्यावै।
उपवास,व्रत,फलहार,पर्ण सुख चावै।।
लावनी-वियावान जंगल के मग में,जीवन जीते हरषाई।
संसारी माया की माया,भूल तहाँ पर नहीं जाई।।
ब्रम्हचारी,सन्यासी,बिरागी,नागापंथी अधिकाई।
प्रभू की लीला से भी आगे,लीला जिनकी है भाई।।
शैर-सच्चा जीवन यह भाई। नहीं राग रोश तहाँ जाई।
सब चलत मृदंग बजाई। जीवन मनमस्त सुहाई।।
उड़ान-चलत झुंड के झुंड,जटा अरु मुण्ड,निशाने संग चलें भाई।1।
छंद- जन जीवन दुख देख,तृषित जन पेख,बिचारै मन में।
पशु-पक्षी करत पुकार,ताप तन-मन में।।
जल विहीन बन,झारि,सिंह क्या बिलार,ताप कण-कण में।
उगलत अंगारे गगन,दुःख जन-जन में।।
लावनी- फसलें मुरझीं-मुरझाई,आसमान को ताक रहीं।
दिखते नहीं कहीं भी बादल,एक बूँद को तरस रही।।
लहराती तहाँ-मृगमरीचिका,आसमान से झलक रही।
धरती की सारी अंगनाई,जीवन जीने तरस रही।।
शैर- है पंन्द्रहवी सदी दुखदायी। कैसी यह सामत आई।
जन जीवन त्रासदी पाई,सब जन संतन विनय सुनाई।।
उड़ान- पीठाधीश्वर संत,मंडलेश्वर अनंत,दर्द सुन द्रवित भए भाई।2।
छंद- सिद्धेश्वर के धाम,तपस्या बाम,धूनियाँ साजीं।
जय-जय अच्युत-अखिलेश,होऊ अब राजी।।
मंत्रण रहे उचार,हवन की व्यारि,गगन बिच साजी।
देवन के खुल गए श्रवण,धरनि सुख साजी।।
लावनी- यज्ञ धूम आकाश छा गया,पर्यावरण बदल डाला।
मंत्रण के उच्चारण सुनकर,भू-मण्डल सारा हाला।।
मेघमाल इन्दर ने भेजी,जल वर्षा भई ततकाला।
झरना,ताल,तलैइया भर गए,इतनी बर्षा भई लाला।।
शैर- सब जनता तहाँ जुरि आई,संतन की महिमा गाई।
भण्डारे रहे करवाई,संतन सेवा सुखदाई।।
उड़ान- गंगा-रामप्रसाद,बहुत हर्षात,संत सेवा में अधिकाई।3।
छंद- तन-मन सेवा करत,ध्यान उर धरत,चरण रज सेवैं।
परसादी नित्य बनाए,संत पद सेवैं।।
जल झरना से लाए,स्नान कराए,संत पद धोवैं।
दिन रात तहाँ विरमाए,समय सब देवैं।।
लावनी- घर की आस न बिल्कुल करते,संत चरण चित में धारैं।
कुल में एक संत उपजाने,जीवन संतन पर बारैं।।
हैं संतान मगर पथ भटकीं,जो पीढ़ी को नहीं तारैं।
संत पुरुष आ जाए कौख तो,पूरी हो सब मनुहारैं।।
शैर- इच्छा सब संतन जानी,वे संत थे अन्तरज्ञानी।
आशीश दई सब सुख खानी,काशी नाथ की महिमा जानी।।
उड़ान- प्रगटें काशी नाथ,राम परसाद,आशिशैं संतन से पाई।4।
4.भजन-
टेक-संतन की आशीश सुनत,शीश चरणों में है नायौ।
छंद- दम्पति मन भय मगन,लगी जो लगन,आज भई पूरी।
संतन के चरनन लेट,शीश धरी धूरी।
कर बद्ध विनती करत,ध्यान उर धरत,मगन भय भूरी।
जीवन अभिलाषा आज,सभी भई पूरी।।
लावनी- जय-जय-जय कर खुशी मनावै,नाच रहे तहाँ हर्षाई।
सिद्धेश्वर सुनि लई हमारी,सबसे कहते मन पाई।।
तर जाएगे हम तो निश्चय,और तरैगे सब भाई।
लोट-पोट हो गए धरनि पर,सारी सुधि-बुध बिसराई।।
शैर- कह संत सुनो चितलाई,तिहारी सेवा है अधिकाई।
तब पुण्य उदय भओ आई,सेवा भक्ति तुम पाई।।
उड़ान- सुन ले राम प्रसाद,सफल तब काज,प्रसादी शिव भक्ति पायो।1।।
छंद- कह रहे संत बिचार,सति तब नारि,तपस्वी भारी।
कई वर्ष करे उपवास,गवरि नित डारी।
तुम पर भोलानाथ,गवरि के साथ,प्रसन्न है भारी।
उनकी ही किरपा जान,भक्तजन सारी।।
लावनि- शिव है ओढर दानी बाबा,सबके कारज है सारत।
जो जन उनकी सेवा करता,निश्चित ही भव से तारत।।
उनकी महिमा जानि न कोई,नेति-नेति कहते नारद।
शिव चरणों में ध्यान लगा लो,वे ही भव बाधा टारत।।
शैर- धरि ध्यान उन्हीं का भाई,करते रहना शिवकाई।
निज कार्य करो मन लाई,घर जाओ मिले सब भाई।।
उड़ान- पाकर चरण प्रसाद,रामप्रसाद,लौट तब अपने घर आयो।।2।।
छंद- हो गयो मन विश्वास,पूरि है आश,नाथ त्रिपुरारी।
संतो की आशीश मान,प्राण प्रिय प्यारि।।
मन में ऐसे लगे,भाग्य अब जगे,खुशी मन भारी।
जीवन की नईया पार लगे,अब म्हारी।।
लावनि- संत बड़े ज्ञानी-ध्यानी थे,हरि चरणो नित ध्यान करै।
समय बिताते हरि नाम ले,गीता रामायण पाठ करै।।
समय नहीं खोते थे बिल्कुल,ध्यान समाधी साथ करै।
पहुँच मान थे,प्राण प्यारी,शंकर सा जो रुप धरै।।
शैर- ऐही यज्ञ संत बहु आए,नहीं ऐसे और दिखाए।
कोऊ लीला जान न पाए,जिन सात्विक भोजन खाए।।
उड़ान- करते दूध अहार,और जल धार,न उनने और कछु खायो।।3।।
छंद- संतन मन अनुराग,जगे है भाग्य,भजन नित गावै।
आरत हो दीप उजाल,आरती गावै।।
हो तुम ईश-ईशान,विभू-विज्ञान,शीश पद नावै।
निर्वाणक,नित्य,निरीह,वेद अस गावै।।
लावनि- ईश महेश नमामी,विभू हो,लीला तुमरी अधिकाई।
निरंकार,निर्गुण हो स्वामी,विंभुम व्यापक प्रभुताई।।
कलातीत,कल्पांत तुम्हीं हो,चिदानंद हो सुखदाई।
तब पद जो आराधन करते,सब सुख पाते है भाई।।
शैर- हो विभोकार अविनाशी,सबके घट-घट हो वासी।
शिर गंगा सोहे खासी,जय-जय हो काशी वासी।।
उड़ान- नित प्रति ध्यान लगाए,आरति गाए,मस्त मनमस्त शरण आयो।।4।।
5. भजन-
टेक-संतन की आशीश सुनत,गवरि से कहन लगे भोला।
छंद- सुन गिरिराज कुमारि,संत हितकारी,वचन दए भारी।
केहि विधि से पावै लाल,कहो प्रिय प्यारी।।
मोर भरोसो एक,रखे शिव टेक न टरि है टारी।
अब रखना उनकी लाज,हमारी बारी।।
लावनि- सुनि कर गवरि बिचार करै मन,शिव की लीला है न्यारी।
भक्तों का कर आज बहाना,लीला करने की त्यारी।।
हाथ जोरि विनती करै गवरि,धन्य-धन्य हो त्रिपुरारी।
जो आज्ञा शिर धार करुँगी,नहीं जानत महिमा प्यारी।।
शैर- शिव कहत लगा लई तारी,सोचत गिरिराज कुमारि।
लीला-करन चहत त्रिपुरारी,सोचत क्षण खुल गई तारी।।
उड़ान- बाजन लगे मृदंग,घुट गई भंग,चढ़ा रहे भगिया का गोला।।1।।
छंद- भाग्य नहीं संतान,धरौ मैं ध्यान,गवरि क्या कीजे।
दम्पति ने बाँधी आश,कहाँ से दीजे।।
अन्सन लऊँ अवतार,हरुँ भुई भार,भक्त हित रीजे।
बनकर अविनाषी संत,गमन तब कीजे।।
लावनि- हाथ जोरि तब गवरि बोली,सुनिए स्वामी तप धारी।
संतन के हित काज करो सब,आप सभी के हितकारी।।
जब-जब धरनि संकट आए,तहाँ बने संकट हारी।
लाज रखूँ संतन के प्रण की,आप रहो गिरिपर प्यारी।।
शैर- यौं समुझा शिव चल धाए,करि भ्रमण बैहट नियराए।
संध्या भए नगरी में आए,पर काहूँ नहीं उन्हें बिरमाए।।
उड़ान- जाओ वहाँ महाराज,रामपरसाद-द्वार पै टाँग देओ झोला।।2।।
छंद- द्वारे दई अवाज,रामपरसाद,सुनो मेरे भाई।
ये भूले भटके संत,द्वार गए आई।।
सुनि गंगा भई मगन,लगी प्रभू लगन,दौड़कर आई।
करि जोरत चरनन पढ़ी,बहुत हर्षाई।।
लावनि- धन्य भाग्य हम भए आज जो,संत हमारे घर आए।
कौन जनम कौ पुण्य उदय भओ,नयनन असुआ भरि आए।।
मुँह से बोल नहीं निकरत है,केवल ठाड़ी गिगि आए।
धैर्य बाँध तब कहन लगी यौं,धन मेहमान घरै आए।।
शैर- एक दरी बिछा,बैठारे,रही टेरत प्राण प्यारे।
तौलौ आ गए पीतम प्यारे,दोनो मिल चरण पखारे।।
उड़ान- पीबत शीतल नीर,संत मत धीर,मनहि मन खुशी भए भोला।।3।।
छंद- दम्पति खुश,वे-पीर,बना लई खीर,भोग लगवाए।
सबने मिल एकही ठौर प्रसादी पाए।।
ढिग बैठारे दोय रहे वे रोए,संत समझाए।
यह है संसार असार,समझि नहीं आए।।
लावनि- जग का माया जाल अनूठा,समझ नहीं जो आता है।
कोई रोता मिलै यहाँ पर,कोई हँसता गाता है।।
करनी के सबहि ही फल भोगे,दुनियाँ झूठा नाता है।
राम भजन को करलो प्यारे,वही काम बस आता है।।
शैर- सुनि संत ह्रदय की वानी,कर जोरि कह दोऊ प्राणी।
है वंश अंश अज्ञानी,बिन संत मोक्ष नहीं पानी।।
उड़ान- कहै मनमस्त पुराण,दिए बहु ज्ञान,बोल यौं शिव जी ने बोला।।4।।
6.भजन-
टेक-जीवन में होगा भोर,जगा मन-श्रद्धा अरु विश्वास।
छंद- देख तुम्हारी भक्ति और अनुरक्ति,खुशी मन भारी।
सब पुजिहै तुमरी आश,दीन हितकारी।।
सोवो सुख से जाए,कहू समझाए,रात भई भारी।
सब पूरण करहै आश,कैलाश बिहारी।।
लावनि- भोरहि उठ सेवा में हाजिर,संत चरण सेवा कीनी।
चरण पखारि चरणोदक लीना,फेर आरती उन कीनी।।
आशीष देकर संत चल भए,संत विदाई भी दीनी।
थोड़ी दूर दिखाए जाते,फेरि दृष्टि हो झीनी।।
शैर- निज कर्म क्रिया मन लाए,मृतिका से मुराट बनाए।
गंगा का मन समझाए,संतन की कथा सुनाए।।
उड़ान- सपने संत दिखात,कहै कई बात,नारि तूँ धरले मन में आश।।1।।
छंद- हँस तब प्रिया कहै,सपन सच रहे,प्राण पति प्यारे।
बा दिन को भूलूँ नहीं,उदर भए भारे।।
नित प्रति संत दिखाए,मोए समझाए,यों वचन उचारे।
हम तुम की एकई बात,मगन मन भारे।।
लावनि- कहाँ संत भए अंर्तध्यानी,मैं कुछ समझ नहीं पाई।
ऐसे लगा,उदर में कोई आया हो,मन समझाई।।
हलचल कुछ होती रहती,क्या है हरि लीला भाई।
हुलश रहा मन भीतर-भीतर,खुशियाँ होती अधिकाई।।
शैर- यों लगत सुनों मम स्वामी,नित आवत अंतर्यामी।
नहीं कोऊ दिखावत खामी,अंगन में हुलश सुनामी।।
उड़ान- मन आनंदित होय,लगे यों मोए,बदल रहो जीवन का इतिहास।।2।।
छंद- बीते यों नव मास,आश विश्वास,बासन्ती आई।
आमों में अमुयाँ लगे,फसल गदराई।।
संवत पन्द्रह सौ पाँच,बात यौं साँच कहूँ समझाई।
तहाँ चैत्र कृष्ण की पंचमी तिथि गइ आई।।
लावनि- फगुना गा गओ गीत सुहाने,मानव मन हँसते-गाते।
मन को मन से भा गए उनके,जीवन के सारे नाते।।
हिलमिल सबने फाँगे खेली,रंग बिरंगे रंग लाते।
खुशियों का त्योहार हमारा,जिसमें जीवन सुख राते।।
शैर- दिन मंगल,मंगल आया,अभिजित्सा नखत बताया।
ऊँसा का काल सुहाया,ध्वनि ब्रह्म मूहूर्त गाया।।
उड़ान- मिथुन राशी गई आय,चरण द्वि छाए,फैल रहो सूरज का आभास।।3।।
छंद- जुर आई कई नारि,जनेलो कार्य,करै हर्षाई।
तहाँ प्रगट भए गाँगेय,अवाज लगाई।।
नारि नौलि सब करै,तप्त जल धरै,आँगन में आई।
तहाँ हो रहे मंगल गीत,चरुआ धरवाई।।
लावनि- गावै,ढुलक बजावै सबरी,खुशियाँ मंगल चार भए।
लडुआ संग बताशे बाँटे,बिला बाँट व्यवहार दए।।
पंडित जी पर गए प्रसादी,समाचार सब जाए कहे।
पंडित जी ने पत्रा खोला,देख हाल,मन चुप्प रहे।।
शैर- शुभ नखत जनम शिशू लीने,हैं गंगा बाल,नवीने।
इन्हें काशी नाथ जो दीने,राशी है मिथुन प्रवीने।।
उड़ान- फूलन आँगन सजा,प्रभू की रजा,मस्त मनमस्तहूँ पूजी आश।।4।।
7.भजन
टेक- घर- घर में आनंद भयो,छा रही खुशियाँए चहुँ ओर।
छंद- नगर नार नर आए,बधाई गाए,भाग्य सहराए।
गंगा अरु रामप्रसाद आशिशें पाए।।
यौं बीता कुछ काल,द्वार खेलें लाल,सभी हर्षाएँ।
संतन की सेवा करै भजन नित गाए।।
लावनि- बालक की क्रीड़ाऐं लख के,मन में मोद अपार लहैं।
कितना सरल भोलापन बचपन,देख-देख यों बात कहैं।
गंगा तेरे सब लक्षण है,भक्ति भाव के भाव रहैं।
संतन की सेवा में इसको,हमसे ज्यादा चाव रहैं।।
शैर- यौं समय बीतता जाई,भय पाँच वर्ष के कन्हाई।
तब चटशाला गए लिवाई,तहाँ पंड़ित यों समझाई।।
उड़ान- सुन ले रामप्रसाद,कहूँ सच बात,दिखें मोय अंतर्मुखी किशोर।।1।।
छंद- सुन पंड़ित की बात,मनहि पछतात,लौट ग्रह आए।
पत्नि से सबकुछ कही,रहे समझाए।
अपनो ही कृत करें,लेख नहीं टरैं,जो कर्म लिखाए।
विधिना ने जो लिख दयों,न मिटत मिटाए।।
लावनि- पति की सुन के बात भामनि,मन में चिंता बहुत करैं।
बालक एक,पढ़ा नहीं पाए,जियरा कैसे धीर धरैं।
आस पड़ोसी बालक पढ़ रहें,मोरो लाला गाय चरैं।
भोरे तुम्हें बना दए पंडित,ऐसों पांड़े उतै मरैं।।
शैर- निज करमन लगन लगाई,माँटी कला सिखाई।
संग गौ सेवा करवाई,मन बाल रहों हरषाई।।
उड़ान- गऊँऐं नित्य चराए,सिद्ध पद नाए,ह्रदय में है अनहद की घोर।।2।।
छंद- निज गईया को दुग्ध,निकारैं शुद्ध,सिद्ध गुरु प्यावैं।
यह है नित प्रति को कार्य,भजन पद गावै।
गुरु प्रसन्न यों भए,ज्ञान बहु दए,सो कौन बतावै।
इत मात पिता सुख चैन,भवन बतरावैं।।
लावनि- अब तो काशी बड़ा हो गया,सबकुछ करना सीख गया।
कितना सीधा,आज्ञाकारी,मात-पिता को मोद भया।
सारे लक्षण संतजनों से,अपना जीवन धन्य भया।
निश्चय ही बैकुण्ठ जाएगें,यह पूरा विश्वास भया।।
शैर- मुक्ति को यही सहारो,जीवन भयों सुभल हमारो।
ध्यानों मन रमत न्यारो,संसारी मारग टारो।।
उड़ान- कट गओ जीवन नेक,भजन को लेख,मोक्ष के रहे दिना दो चार।।3।।
छंद- आशा पूरण भई,टरत नहीं मुई,समय गओ आई।
ध्यानों में रामप्रसाद,मोक्ष निज पाई।
काशी जानत सभी,न चिंता कभी,मात समझाई।
प्रभू इच्छा टरती नहीं,न टरत टराई।।
लावनि- आवा गमन सदा की लीला,यही नियति क्रम है चलना।
इसी माया से मोह मिटें तो,भाग्यवान निज को कहना।
करते ध्यान पिता नित जैसे,तुम भी मात किया करना।
प्रभू का काम यही होता है,भक्तों के संकट हरना।।
शैर- सब कार्य करों मन लाई,दयो ज्ञान मात समझाई।
सुन मात मनहि हरषाई,भक्ति में लगन लगाई।।
उड़ान- हो न हार जो होए,न जानत कोए,न दो मनमस्त विधि को खोर।।4।।
8.भजन-
टेक- प्रभू की लीला है सही,भजन तो निर्दुन्दी में होए।
छंद- प्रभू रंग जो रंग जाए,न जगत सुहाए,मान लो भाई।
काशी सब जानत भेद,मनहि हर्षाई।
दोऊ पथ करनि करै,मात सुख भरै,दिव्यता पाई।
माता मन कियों विरक्त,ज्ञान बहु गाई।।
लावनि- माता को समझात रहे यों,रहस्य नहीं कोई जाना।
पुत्र बड़ा आज्ञाकारी है,माँ ने इतना ही माना।
सत मारग की राह निभाई,जीवन सब सुखमय पाना।
माँ मन में हरषाती रहती,काशी लख,मन सुख माना।।
शैर- सुख जीवन यों ही जीते,नहीं भव बाधा भयभीते।
मन भाए भक्ति रस पीते,यों दिना बहुत कुछ बीते।।
उड़ान- रखैं न मन में द्वेश,संत पथ भेष,न जाना इस रहस्य को कोए।।1।।
छंद- भक्ति पंथ सुखसार,होए भव पार,वेद नित गाते।
हैं सिया राममय जगत,यहीं दर्शाते।
माँ को यों समझाए,गुरु ठिंग जाए,भक्ति में राते।
ग्रह-आश्रम एकहि जान,लौट कब पाते।।
लावनि- मात बिचार करै मनमाही,वर मैंने ही यह माँगा।
संत होए मेरे कुल में तो,मिट जाए सब भव बाधा।
नहीं रोकना मुझे चाहिए,भक्ति पथ इसने साधा।
ये यदि भक्ति पंथ आराधे,हमको नहीं कोई बाधा।।
शैर- हंसकर माँ आज्ञा दीनी,भव माया सब तज दीनी।
माँ की भी सेवा कीनी,भोजन की व्यवस्था कीनी।।
उड़ान- त्याग सकल भव द्वन्ध,होए निर्द्वन्ध,गए तब काशी निज में खोए।।2।।
छंद- किरपा श्री गुरु पाए,भक्ति रंग लाए,दिनों दिन बाढ़ी।
माता ने पचरंग रंगी,चुनरियाँ छाढ़ी।
समाधिस्थ भई मातु,जगी नहीं प्रात,सोय गई गाढ़ी।
काशी को कर दई खबर,देखकर नाढ़ी।।
लावनि- माँ की ध्यान समाधी सुनकर,काशी मन में सुख पायो।
अंतिम कर्तव्य पूरा हो गया,जो जग माया में गायो।
गुरु आज्ञा काशी ले,आए सबको आकर समझायो।
क्रियाकरम सब कुछ करने को,सामग्री सब ले आया।।
शैर- तहाँ नगर नारि नर आए,काशी ने कफन उड़ाहे।
सबको बहु विधि समझाए,माता ने मोक्ष पद पाए।।
उड़ान- भजन करो निर्द्वन्द,कटें भव फंद,जगत की माया जहाँ न होय।।3।।
छंद- गुरु से सीख अभंग,बजावैं चंग,गुफा में जाई।
जहाँ पर संसारी माया,पहुँच न पाई।
चढ़ गयो भक्ति रंग,भंग के संग,चिलम चढ़ाई।
बन बैठे अनहद संत,जटा रहीं छाई।।
लावनि- भारत के भू-भाग घूमने,मन में इच्छा इक आई।
कैसी है पावन माँ धरती,जिसकी महिमा सब गाई।
हिमगिर से लेकर सागर तक,कितनी है सुन्दरताई।
गुरु से आज्ञा ले लूँ पहले,घूँमू तीर्थ तब भाई।।
शैर- विनती गुरु चरण सुनाई,चाहूँ मैं भ्रमण गुसाई।
गुरु मन में रहे हर्षाई,दई आज्ञा हस्थ उठाई।।
उड़ान- भ्रमण करो सब ओर,ध्यान धरि मोर,जगत मनमस्त न जाना सोय।।4।।
9- भजन-
टेक- आज्ञा पा मनमस्त,चलें गुरु चरणों में शिर नाए।
छंद- धर झोला में चंग,और मृदंग,खंजरि लीनी।
चिमटा को चलें बजात,दिग्विजय कीनी।
गालव भुई रज बंद,दर्श मुचकंद,ताज छवि चीनी।
जाकर ब्रज,राधा श्याम,विनय बहु कीनी।।
लावनि- घूमें मथुरा और बरसाने,गोवर्धन के दर्श किए।
राधा कुण्ड निहार मग्न भए,मानसी गंगा चरण छुए।
गोकुल में वंशीवट देखा,यमुना जल जलपान किए।
बारह कोशी कर परिक्रमा,जीवन के सुख सार लए।।
शैर- लख जन्म भूमि हरषाए,विन्द्रावन शीश नवाए।
राधा मन ध्यान लगाए,ब्रज रज को शीश चढ़ाए।।
उड़ान- घूमत धाम अनेक,चढ़े कई टेक,पहुँच गए हरिद्वार में जाए।।1।।
छंद- करि गंगा स्नान,दर्श भगवान,बढ़ गए आगे।
लख कुरुक्षेत्र रणभूमि,सभी भय भागे।
अमृतसर गुरु द्वार,शिमला पा प्यार,श्री नगर पागे।
फिर देखा रुद्र प्रयाग,केदार सुहागे।।
लावनि- ऊँचे शिखर हिमालए देखे,बर्फीली चादर ओढ़े।
मन को हरण करैं क्षणमाही,पकर लेए मन,नहीं छोड़े।
गहरी खाई यमुनोत्री की,जो जीवन के पथ मोड़े।
गंगोत्री की महिमा न्यारी,भगवन के पद से जोड़े।।
शैर- अयोध्या नगरी गए आई,पटना भी घूमें भाई ।
कई प्रान्त मिले मगमाई,गंगा सागर लहराई।।
उड़ान- उत्तर पूरव छान,दक्षिण गए आन,रमा मन रामेश्वर में जाए।।2।।
छंद- सोमनाथ गुजरात,नागेश्वर जात,महाराष्ट्र गए आई।
भीमाशमकर के दर्श किए,मन भाई।
दर्श द्वारिका पाए,उज्जैयनि जाए,काल-महा ध्याई।
सारे भारत के तीर्थ,भ्रमण किये भाई।।
लावनि- मन तीर्थ भाए इतने,गुरु धाम को भूल गए।
याद गुरु की वाणी आई,मन में भारी शूल भए।
जगति की सुन्दरता देखीं,नए-नए नद,कूल नए।
झाड़ी जंगल सब मन भाए,तीर्थ कीने सभी नए।।
शैर- पर्वत कई देखें निराले,हिम,मेरु,नील,शिव वाले।
नदियों के उलझे जाले,भारत भू रंगत गाले।।
उड़ान- वन उपवन सुख सार,द्वीप और कछार,घूम लए भारत भर में धाए।।3।।
छंद- मिले पंथ,बहु संत,विवेकी अनंत,ज्ञान निधि साँई।
वेदों के गूंढ़ रहस्य,मिले सुखदाई।
स्मरण शक्ति आपार,सुने इक बार,न भूलत भाई।
इनने जो गाढ़ी मेख,उखार न पाई।।
लावनि- प्रवचन कीने कई धाम पर,अनहत का परिचार किया।
वेदों से अनहद की ध्वनि ले,उसको ही विस्तार दिया।
व्याकरण,मीमां समझाए,कई समीक्षा सार लिया।
भारत की महति-महत्ता को जी भर के विस्तार दिया।।
शैर- शास्त्रार्थ किये मन चाही,सूत्रों से कथा सुनाई।
सब पंथन में अगुआई,हर जगह प्रसस्ति पीई।।
उड़ान- आध्यात्मित के तंत्र,अलौकिक जंत्र,मंत्र संतन को दिये सिखाए।।4।।
10. भजन-
टेक- पाकर अद्भुत ज्ञान,ज्ञान के भण्डारी भए आप।
छंद- सूरा,कविरा ज्ञान,रैदासी तान,बहुत मन भाई।
तुलसी के अनुपम छंद,मोक्ष दर्शाई।
जगत गुरुन के पंथ,अनेकन संत,भए अनुयायी।
हैं शंकर रामा,निम्ब,मध्बा साई।।
लावनि- सब का लेकर सार,सार को ह्रद धारण कीना।
छोड़ दिया निस्सार,न उसको कोई पथ लीना।
पाखण्डी व्यवहार न सीखा,उसको मन से तज दीना।
हंस विवेकी बने,आपने नीर-क्षीर का पद लीना।।
शैर- कई आसन रोज लगावै,निज चिंतन को शरसावै।
चित प्राणायामी भावै,यौगों को नित्य जगावै।।
उड़ान- चित्त वृत्ति का सोध,योग का बोध,मिले जहाँ आतम को नवताप।।1।।
छंद- शिव अनादी भगवान,अधिष्ठा जान,योग के प्यारे।
पा उनसे तत्व विधान,योगी भए सारे।
कारण-सूक्ष्म-स्थूल,त्याग सब भूल,योग अपना रे।
माया का मिटत प्रपंच,वेद विधि गा रे।।
लावनि- ध्यान साधना विकट क्रिया है,सावधान होकर करना।
थोड़े से भटकावे में ही,जीवन हो गहरा झरना।
गुरु चरणों में रहना प्यारे,अनुशासन पालन करना।
खाँडे कैसी धार दुधारी,उससे हर क्षण ही डरना।।
शैर- मिलैं इड़ा,पिंगला-सुषुम्ना,जहाँ त्रिवेणी संगमना।
हो गुरु की किरपा निमग्ना,पाओ मोक्ष कहीं शकना।।
उड़ान- आत्मा द्वारा आत्म,आत्म हो जात,मिटैं जहाँ आपाधापी आप।।2।।
छंद- खेचरि मुद्रा कीन,ब्रह्म में लीन, होन की ठानी।
रस पीते अमृत समान,योगी जन ज्ञानी।
कुम्भक प्राणायाम,सुबह और शाम,करै मनमानी।
जय पृथ्वी तत्व पें होए,परिणाम बखानी।।
लावनि- करि साधना भेद अनेकी,मानस उज्जवल कर डाला।
आत्म तत्व की गहराई का,छू डाला इनने पाला।
डरे नहीं वे मृत्यु आदि से,कीना उसका मुँह काला।
अमृत पीते गुरु चरणों का,क्या कर सके जहर लाला।।
शैर- जब नाद क्रिया अपनाई,सब भेद जान लए भाई।
अम्ली नाद श्रवण सुखदायी,अंतिम उन्मन कहलाई।।
उड़ान- अजपा जाप विधान,सूक्ष्मत्तम ज्ञान,नाद की क्रियाओं का जाप।।3।।
छंद- बज्रोली अपनाए,उर्ध्व गति पाए,सुनो जन वाणी।
योगी जन कई विधि करे,योग की कहानी।
दूध,तेल,घृत,खींच,निकालन रीति क्रिया अपनानी।
पारा तक भी ले जाए,कई विज्ञानी।।
लावनि- कठिन क्रिया यह मेरे भाई,सावधान होकर करना।
कई भटक गए इसके पथ में,जीवन हो जाता मरना।
है खाडे की धार यही तो,जिसको पार तुम्हें करना।
अगर ढिग गए डीवन पथ में,आर-पार होकर मरना।।
शैर- जब स्वादिष्ठान खुल जावै,मूलाधार क्रिया को पावै।
आज्ञा चक्र योग अपनावै,कामों का भव मिट जावै।।
उडान- योग लए सब जान,ज्ञान और ध्यान,कहै मनमस्त गुरु परताप।।4।।
11. भजन-
टेक- तप-तापन तप गई मही,सुयश का झंड़ा रहो फहराए।
छंद- काशी गुरु आधीन,क्रियाऐं कीन,तपे तप भारी।
जंगल में मंगल करे,दीन हितकारी।
मौसम सुखद बहार,अन्य धन भार,भुई भई सारी।
तहाँ रही न कोई कमी,कुबेर निहारी।।
लावनि- एक बीज से सौ-सौ दाने,धरती देती हरषाई।
फल फूलों से वृक्ष लदें है,नदियाँ बहती सुखदाई।
तीनों मौसम की मनुहारे,सबके मन को अति भाई।
धरती का श्रंगार सुहाना,सबके मन को सुखदाई।।
शैर- घन बरसहि शीतल बारी,धन धान्य उगलि भुई सारी।
जन चारहु फल अधिकारी,तहाँ स्वर्ग हुई भुई सारी।।
उड़ान- ऊगत सुख के भानु,स्वर्ण अनुमानु,दिव्यता धरनि लई अपनाए।।1।।
छंद- घर-घर पूजन,ध्यान,वेद ध्वनि गान,सुनत सुखदाई।
काशी-गुरु महिमा चारहु दिशिन सुहाई।
हो रहे यज्ञ विधान,शास्त्र औ पुरान,सुने सब भाई।
भओ सतयुग सा व्यवहार,सभी हरषाई।।
लावनि- झिलमिल कूल सुहाने लागै,झूमैं वृक्ष तहाँ भारी।
नीर-क्षीर सा पीवत सबही,सभी अमंगल जो हारी।
कोयल बोल रही अमराई,जीवन को आनंदकारी।
चारों दिशन खुशी का आलम,खुशी हो रहे नर-नारी।।
शैर- सब जीवन भेद मिटायों,बैकुण्ड तहाँ पर आयो।
सुख स्वर्गहु से अधिकायो,सब देवन मंगल गायो।।
उड़ान- क्या राजा क्या रंक,सभी है निःशंक,अमरता पाय-प्यादे आए।।2।।
छंद- कामदेव भयो क्षीण,दुखी हो म्लीन,धरनि पैं डोले।
कोऊ सुने न उसकी बात,न मुख से बोले।
लोभ-क्रोध-मद आदि,झेलते विषादि,विपत सी झेले।
सिद्धन गुरु पुण्य प्रताप,न मिलती गैले।।
लावनि- मारे-मारे षट रिपू डोले,कोऊ न उनकी सुनते है।
हीन भाव के कारण से,सबहि शिर को धुनते है।
सदभावी हुआ जन जीवन,सदमारग को चुनते है।
कामदेव बैठा दगरे में,जिसको षटमल चुनते है।।
शैर- कामहि मन सोच घनेरी,ढूँढत है गैल अनेरी।
बज्रोली क्रिया जो फेरी,तन ताप हुआ,नहीं देरी।।
उड़ान- गुरु आज्ञा बिन कीन,न आज्ञा लीन,भेद से-भव बाधा गई आए।।3।।
छंद- बुटीं खाई अपार,न पाया पार,ताप तन छायो।
बज्रोली-पारा क्रिया ने ताप बढ़ायो।
गुरु को ध्यान लगाए,करो गुरु सहाए,यही मन आयो।
गुरु भेद दृष्टि ने,सब परपंच रचायो।।
लावनि- काम भेद की क्रिया हारी,दृष्टि दोष नहीं कहीं रहा।
अथवा यही नियति का क्रम है,जिसको सबने सदा सहा।
करनी भरनी अपनी होती,कोऊ न मैंटन हार रहा।
चारों युग की यही कल्पना,राग रोग संग योग रहा।।
शैर- मन सोचत काशी ज्ञानी,गुरु आज्ञा बिन,भई हानी।
यों समझा काशी ध्यानी,गुरु के बिन पार न पानी।।
उड़ान- गुरु से करी पुकार,चरण शिर धार,आए मनमस्त की करो सहाए।।4।।
12. भजन-
टेक- श्री गुरुवर दीन दयालु,दया के दानी हो महाराज।
छंद- गुरु दयालू है सिद्ध,न होते क्रुध,भक्त हितकारी।
सबके कारज दें सार,जो विनत पुकारी।
गुरु सम कौन महान,धरो मन ध्यान,विश्व मझधारी।
नहीं डूबन देंगे नाव,पतवार समारी।।
लावनि- सबके संकट उनने टारे,गज को वहाँ उबार लिया।
हस्तिनापुर में द्रोपती को,दे साड़ी,से उद्धार किया।
भारई के अण्डन पें उनने,गज का घंटा डार दिया।
पड़ा हुआ था कूप-ग्रह नृग,उसका भी उद्धार किया।।
शैर- सुन आरत काशी वाणी,मन विहसे आतम ज्ञानी।
भई भूल सभी में जानी,तज चिंता काशी ध्यानी।।
उड़ान- राजा होए या रंक,मिटें नहीं अंक,भोग सब भोगत,करनी काज।।1।।
छंद- तुम विज्ञानी संत,सोचते अंत,ज्ञान गुन लीजे।
हैं कर्म प्रधानी विश्व,न संसय कीजे।
गिनती की हैं स्वाँस,करो विश्वास,न घट बढ़ कीजे।
तन विषमृत करके,ध्यान आत्मा कीजे।।
लावनी- आतम ज्ञान होए जब उर में,दुख कहाँ से फिर है भाई।
देह भाव जिसके मिट जाते,उसकी दुनियाँ नहीं गाई।
जीव भोगता भोग आपने,वेद पुरानन ने गाई।
ज्ञानीजन चिंता नहीं करते,भव संकट सब मिंट जाई।।
शैर- जीवआत्म अलख जगारे,तब कष्ट कहाँ किंम प्यारे।
नादी अनहद मतवारे,ध्यानी निज ध्यान लगा रे।।
उड़ान- सुन गुरु वाणी ज्ञान,हटा अज्ञान,दुःख का भागा,तन में राज।।2।।
छंद- अंध निशा हट गई,किरण इक नई,ज्ञान गुरु पाई।
नहीं मन में कोई विकार,देह विसराई।
तप में हो गए लीन,गुरु आधीन,लगन जो लगाई।
तप ध्यान धारणा साध्य,समाधी भाई।।
लावनि- दुःख भाग गए दूर सभी,जब योग क्रिया को अपनाया।
तन का सारा ज्ञान हट गया,आतम अलख जहाँ पाया।
संसारी अज्ञान खो गया,जिसकी गहरी थी माया।
गुरु चरणों की बड़ी बात है,जिसको समझे समझाया।।
शैर- तप तापन तेज बढ़ायो,मन श्री गुरु चरण लगायों।
एक तेज गुरु ढ़िग आओ,तामें काशी नाथ दिखायो।।
उड़ान- ब्रह्म जीव का मेल,अनूठा खेल,चल पढ़े काशी ढिंग,गुरुराज।।3।।
छंद- गोदी लिया बिठाए,कही समझाए,देव अवतारी।
मैंने सब लीला,जानी नहीं तुम्हारी।
सुन काशी गुरु बात,मनहि मुस्कात,माया विस्तारी।
गुरु का वह ज्ञान विलुप्त,क्षणहि,बलिहारी।।
लावनि- अंश-भेद जाना गुरु ज्ञानी,धरत ध्यान त्रिपुरारी का।
लीला समझ न पाया अब तक,वैभव-विभव बिहारी का।
काशी को गोदी में देखत,मोह न दुनियाँ दारी का।
बड़भागी हो गया आज मैं,काशी नाथ तिहारी का।।
शैर- गुरु कहन लगे समझाई,लेऊ समाधि समय गयो आई।
इक नाद लई मगवाई,तामें काशी दयो बिठाई।।
उड़ान- नादी नादहि गए,अलख वे भए,मस्त मनमस्त न जाना राज।।4।।
13. भजन-
टेक- हैं समाधि काशी नाथ,इकौना-झिलमिल-गंगा तीर।।
छंद- पावन झिलमिल नीर,हरै जो पीर,भक्त जन सारी।
तहाँ सुन्दर सुगम बिहार,बिटप तरु-झारी।
बदरी,जम्बू,रसाल,पाकरि-तमाल,छाँव सुखकारी।
पीपल,वट,महुअन महक,मगन मन भारी।।
लावनि- झूम रहे तट वृक्ष अनेको,शोभा कही न जाई है।
खग कुल करत कलोलें तहाँ पर,गूँजत तिनकी झाँई है।
यात्रीगण बिश्राम लेय तहाँ,मन आनंद अधिकाई है।
संतन के तहाँ झुण्ड-झुण्ड है,नित्य राम धुनि गाई है।।
शैर- लख केकी नृत्य निराले,बीनत मोर पंख मतबाले।
तोतन के झुण्ड निराले,सारस बोलत मतवाले।।
उड़ान- करै परेवा सोर,लगे ज्यों भोर,उषा संग बहती मस्त समीर।।1।।
छंद- बियावान बन झारी,सिंह और सियार,मस्त बन फिरते।
गईयन-बैलन के झुण्ड,तहाँ तृण चरते।
गवाल बाल संग-साथ,समाधी माँथ,नवाँ सुख भरते।
बाबा को मन में सुमिर,लीलाएँ करते।।
लावनि- घोर नगाड़ो की तहाँ होती,जंगल मंगल होते है।
डमरु की ध्वनि प्यारी-प्यारी,सब के मन मोह लेते है।
बजे चीमटा और खंजरि,मन के पापन धोते है।
हरि नाम का सुमरन सुनके,भव बंधन खोते है।।
शैर- एक बेर बिटप तहाँ भाई,मिल सब चौपाल बनाई।
लीपा-पोती करवाई,तहाँ गावै गीत सुहाई।।
उड़ान- मन में अति विश्वास,पुजें सब आश,हरत है बाबा सब की पीर।।2।।
छंद- नहीं कोई उत्कर्ष,तीन सौ वर्ष,गए यौंही भाई।
जीयाजी ग्वालियर नृपती,फौज तहाँ आई।
समय लेख अनूमान,उसी स्थान,फौज बिरमाई।
हाथी ने बेरी तोड़,धरनि बिखराई।।
लावनि- आस-पास के बिटप तोड़ दए,झिलमिल नृत्य रचायों है।
कमल नाल सबरी तोडारीं,फूलन फैंक गिरायो है।
मचल गयों हाथी तहाँ भारी,जन जीवन घबरायों है।
ग्वाल बाल सब भागे ढोले,हा हा कार मचायों है।।
शैर- दयो फौर चौतरा सारो,हाथी जोरहि चिंघारो।
भयो फौजन बिघटन भारो,पीलबाँनहु भगो बिचारो।।
उड़ान- नृपहि सुनायो हाल,सुनत ततकाल,नृप तहाँ आओ लेकर भीर।।3।।
छंद- क्यों रथ पंक में लोप,न खिंचती तोप,पंक रथ डूबत।
हाथी नहीं करता काम,देव कुल पूजत।
नहीं पायो उद्धार,सोच मनहार,उपाय ये सूझत।
ग्वालन को टेर बुलाए,बात सब बूझत।।
लावनि- काँप रही क्यों फौज हमारी,बात बताओ सब भाई।
हाथी तोंप खींच नहीं पावत,कौन शक्ति की प्रभुताई।
ग्वालन बात कही तब मन की,काशी बाबा ठकुराई।
पूजन करो,उतर के रथ से,उनकी महिमा बल दाई।।
शैर- नृप उतरि ग्वाल ढिंग आए,कर जोरत विनय सुनाये।
नृप-बाबहि पूज मनाए,सब कारज सफल कराए।।
उड़ान- जोतो अल्हड़ बैल,हो गई गैल,खींच रथ कर दीन बा तीर।।4।।
14. भजन-
टेक- जीयाजी महाराज,बनाया काशी बाबा थान।
छंद- विनय कीन करि जोरि,रखी पतिमोर,संत अविनासी।
मैंने महिमा तिहारी जानी,काशी खासी।
धर्मशाला बनवाऊ कुआ खुदवाऊ,बात हैं साँसी।
तेरा सुन्दर सा स्थान,बनाऊँ काशी।।
लावनि- देर रही कीनी राजा ने,फौरन हुकुम चढ़यो है।
भेज दिया सामान तहाँ पर,सारो साज सजायो है।
घड़ी मुर्हुरत सकल सुभि भए,पूजन भी करवायो है।
बना दिया स्थान नृपति ने,झंडा तुरत चढ़ायो है।।
शैर- नृप ने यह सब करवायो,खुश हो मेला लगवायो।
भूमि औकाव लिखायों,पूजा का बिधान बनायो।।
उड़ान- पूजे निज कुल अंश,प्रजापति वंश,लिखा सब,काशी जन श्रुरति गान।।1।।
छंद- मेला लगत हर वर्ष,पंचमी हर्ष,चेत्र की कुष्णा।
लाखों की होती भीर,मिटें जग तृष्णा।
रंग पंचमी उपहार,रंगो के हार,पहन सब हँसना।
काशी की कर लेओ सेव,रात भर बसना।।
लावनि- मेला भरता जोर शोर से,भारी भीर तहाँ आती है।
लगे दुकानें,परसादी भी,ललनाएँ गीतो गातीं।
होता धाम तहाँ दरवारी,अर्जी लीं सबकी जाती।
सबके दुख दारिद्र मिट जाते,आती यहाँ पर सब जाती।।
शैर- बैकुण्ड यही सुख दाई,गंगाजल ले जाए भाई।
घर भण्डारे करवाई,मन इच्छा पूजत साँई।।
उड़ान- सब घर पुज रहे नाथ,न झूठी बात,बने है सबके घर स्थान।।2।।
छंद- सब जानत है लोग,पुओ का भोग,चढ़त है भाई।
संग मेवा नारियल अगर,चढ़ा सुखपाई।
पूरी करै मुराद,न कोई व्याधि,रटे मन माई।
पानी से घृत कर देए,न संसय भाई।।
लावनि- राम राज्य हो गया यहाँ पर,दुख दारिद्रय नहीं आते।
सबके मन में काशी बस रहे,ताले कोऊ नहीं लगाते।
आधि व्याधि नहीं आती यहाँ पर,हंसते बाबा को ध्याते।
जय-जय-जय बाबा की हो रही,भण्डारे नित हो जाते।।
शैर- कई ऐसे करिश्मा कीने,अंधे चोरन कर दीने।
गहे बाबा चरण सभी ने,तिन सब सुख बाबा दीने।।
उड़ान- अबहुँ चेत मतमंद,छोड़ छरछंद,करो नित काशी बाबा गान।।3।।
छंद- आओ बाबा धाम,छोड़ सब काम,भरैं वे झोलीं।
रंग जा सतरंगी रंग,बाबा की होली।
तज जग के जंजाल,खेल हैं लाल,सभी की ओली।
क्यों अब भी सोचत खड़ी,बनी क्यों भोली।।
लावनि- अब भी चरण गहो बाबा के,तेरा बेड़ा पार करै।
भूल नहीं उनको मन प्यारे,तेरा वे उद्धार करै।
जिनने शरण गही है उनकी उनका बेड़ा पार करै।
सोचो नहीं,अभी भी चल दो,क्यों बैठे हो आज घरै।।
शैर- बाबा है औढर दानी,क्यों भटक रहै अज्ञानी।
तूने सारी महिमा जानी,संतन ने जाए बखानी।।
उड़ान- बनजा मन मनमस्त,न होवे अस्त,धरो मन नित काशी का ध्यान।।4।।
15- भजन-
टेक- हैं काशी बाबा धाम,बैहट में झंण्डा रहो फैहराए।
छंद- मंदिर बना विशाल,प्ररिक्रमा जाल चहुँ दिश भाई।
क्षत्र की अनुपम शोभा कही न जाई।
ब्राजे जहाँ आराध्य,चबूतरा मध्य,ज्योति जले साँई।
घण्टन की हो रही घोर,ध्वजा फैराई।।
लावनि- सूंदर मूरति काशी बाबा,शोभा कही न जाई है।
पगड़ी बँध रही शिर के ऊपर,कुण्डल कर्ण सुहाई है।
गले सुहावै रुद्राक्ष माला,गाँजा चिलम चड़ाई है।
ध्यान धरत श्री सिद्ध गुरु जिनसे गरिमा पाई है।
शैर- तहाँ जलत अखण्डित ज्योती,जय-जय-जय काशी होती।
बदरी फल सोह ज्यों मोती,सब व्याधी धूनी खोती।।
उड़ान- जल ढारै नर नारी,बदरी को हार,फूल माला दें मन हरषाएँ।।1।।
छंद- भक्त परिक्रमा करै,शीश पग धरै,विनय बहु करते।
मन में पावै संतोष,आचमन करते,।
काशी की यहीं समाधी,पूज सब व्याधि सभी की हरते।
ढाड़े होके पग एक,प्रार्थना करते।।
लावनि- काशी बाबा आप हमारे,रक्षक और रखवारे हो।
शरण आपकी आगए स्वामी,भक्तों को तुम तारै हो।
भूल चूक हो माँफी सबरी,करुणा नाथ हमारै हो।
तुम्हें छोड़ कहाँ जावै बाबा,आपही एक सहारे हो।।
शैर- तहाँ जल की बौरिंग है भारी,हैण्डपंपहूँ लगे अगारी।
जल टंकी बन गई न्यारी,विदधुत की लाइन डारी।।
उड़ान- खंम्मन लट्टू लगे,अंधेरा भगे,रोशनी भय को देत भगाए।।2।।
छंद- परिकोटा बन गयो,गेट लग गयो,गूर से दीसे।
है मजबूती में बहुत,चोर मन झीके।
धर्म शालाएँ कई,पुरानी नई,सुहाती जी को।
झिलमिल में जावै गेट,लगो एक नीचे।।
लावनि- सुंदर फर्स लगो चहुँ ओरी,कोटा के स्टाँनो को।
कंकरीट की नाली बन रही,कीचड़ अब नहीं होने को।
भई व्यवस्था जन-भक्तों की,सुविधा हो गई सोने को।
टीनें डाल दई झिलमिल तन,बनै रशोई खाने को।।
शैर- संढास दए बनवाई,पानी की नली लगाई।
नहानी भी अलग बनाई,तामें नहाते हरषाई।।
उड़ान- भोजनालय अलग निहार,भरे भण्डार,होए नित भण्डारे,मन भाए।।3।।
छंद- एक पक्का रोड़ बनाए,बैहट ढिंग जाए,मिलावै सबको।
सिद्धन के दर्शन हेतु,जाएँ इक मग से।
झिलमिल रपटा एक बनायो नेक,मिलत है सबसे।
तहाँ सिद्ध पाट हैं एक,इसी के पथ से।।
लावनि- नया रोड़ बन रहा यहाँ पर,सुविधा आने जाने की।
डैक लगे है आरति करने,यही व्यवस्था गाने की।
संत भजन करते कुटियों में,रखे व्यवस्था खाने की।
ध्यान साधना नित प्रति करते,भव से ही तर जाने की।।
शैर- आरति मिलकर सब गावै,मिल झालर संख बजावै।
परसाद पाए सुख पावै,काशी के गुण गन गावै।।
उड़ान- तुम हो,अच्युत अनंत,जपै जेही संत,दर्श मनमस्तहु देव दिखाय।।4।।
16. भजन-
टेक- बैहठ धाम,गो-धाम,चलो दर्शन को मेरे वीर।
छंद- मन में करो विचार,जन्म लयो यार,भुई क्यों भाई।
कितने कीने सतकर्म,मनुज तन पाई।
मानव तन यह पाए,मोक्ष विसराए,कहाँ चतुराई।
चौरासी को कर याद,न भटको भाई।।
लावनि- ध्यान धरो संतन के चरणों,यही मोक्ष का है धामा।
विना संत गुरु पाया किसने,इतना सुंदर सा ठामा।
लोभ,मोह तहाँ कोऊ नहीं है,नहीं यहाँ पर है कामा।
सच्चा सा बैकुण्ड यहाँ है,जहाँ बिराजे शिव धामा।।
शैर- वेदन का है यह कहना,मानव तन फैर मिले ना।
सब समझ सोच के रहना,अब भी कुछ मानो कहना।।
उड़ान- नर तन मोक्ष का द्वार,करो कुछ बिचार,मठा क्यों पीते,त्यागत क्षीर।।1।।
छंद- शास्त्र पुरानन लेख,पढ़ो अभिलेख,भूल मत करना।
मत खोओ यौं ही समय,समय नहीं टरना।
जो जाने नहीं आज,मिटें सब साज,रह कोऊ घर ना।
तुम काय भटकत भिरो,बने ज्यों हिरना।।
लावनि- लम्बी चौड़ी है यह दुनियाँ,कितना दौड़ोगे भाई।
खोजत-खोजत हार गए सब,इसका पार नहीं पाई।
बड़े-बड़े संतो ने इसकी,थाह न पाई है भाई।
यह अथाह सागर है दुनियाँ,अब भी सोचो कुछ भाई।।
शैर- यह समय लौट नहीं आवै,फिर मन ही मन पछतावै।
कोऊ तेरे काम न आवै,क्यों भटभेरा जग खावै।।
उड़ान- जो भटका जग जाल,खा गयो काल,हरै नहीं तेरी कोऊ पीर।।2।।
छंद- निकर पड़ोसी गए,तेरे ना भए,न तोए बुलायों।
तेरो नहीं जग में कोऊ,तोय समझायो।
यहाँ कोऊ किसी का नाय,कौन समझाए,समझ नहीं पायो।
अबहुँ मनुआँ कुछ चेत,समय गयो आयो।।
लावनि- रहते समय,नहीं जो चेते,फिर पछताते है भाई।
जोड़ जरा संबंध प्रभू से,वेद रहे है समझाई।
भजन किया जिसने यहाँ आकर,उनकी लीला सब गाई।
अब भी चेत अरे ओ-मानव,पावेगा मुक्ति भाई।।
शैर- अबहुँ मन मानहुँ वानी,तेरी दो दिन की जिंदगानी।
क्यों पेरत कोल्हू घानी,सतनामी बात न जानी।।
उड़ान- मानो अबहुँ बात,कोए इतरात,कोऊ नहीं खाए राँधी खीर।।3।।
छंद- आओ होलो संग,बजे जहाँ चंग,नाद हो अनहद।
वह है बाबा का धाम,बना जो बैहठ।
खुद में खुद उपमेय,सभी कुछ देय,बड़ा ही है कद।
जहाँ नेति-नेति सब कहै,संत-मुनि-नारद।।
लावनि- आया यहाँ,सभी कुछ पाया,पावन बाबा का धामा।
ऋषि मुनियों की तपो भूमि है,जहाँ पाते सब विश्रामा।
काशी यहीं,अयोध्या-मथुरा,भूलों नहीं यही ठामा।
होना जो भव पार तुम्हें तो, जाओ काशी धामा।।
शैर- आओ,मन यहाँ डरोना चलना वहाँ,नाही करोना।
जीवन यह सुखद बरौना,हरषा लेऊ जीवन कौना।।
उड़ान- व्यर्थ स्वाँस जिन खोऊ,सुमिरनी लेऊ,मस्त मनमस्त यहीं तदवीर।।4।।
17- भजन-
टेक- करुँ मैं,सबको सहस्त्र प्रणाम।
इतना समय दिया जो तुमने,धन्यवाद के धाम।
बाबा चरित सुना चित देकर,तुम हो पूरण काम।।1।।
संतन से सुन जो कुछ सुन पाया,वह ही किया बखान।
मेरा इसमें नहीं कहीं कुछ,सब बाबा का मान।।2।।
मेरी लज्जा जैसे राखी,राखों सबकी बाम।
भूल चूक जो होवै स्वामी,क्षमा करो सुचि धाम।।3।।
हैं बाबा बैकुण्ड बिहारी,पुज हैं आस तमाम।
सब मिल अर्जी करो उन्हीं से,राम-राम कहे राम।।4।।
आए सभी शरण में तेरी,सुनने चरित ललाम।
सबका ध्यान राखना बाबा,मनमस्तहुँ के नाम।।5।।
000000