Vah ab bhi vahi hai - 47 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | वह अब भी वहीं है - 47

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वह अब भी वहीं है - 47

भाग -47

यह कहते हुए तुम एकदम अड़ कर बैठ गई मेरे सामने । बात टालने की मेरी सारी कोशिश बेकार हो गई तो मैं बोला, बोला क्या उन्हीं प्रोफ़ेसर साहब की बात दोहरा दी। जो उम्र में हम छात्रों से चार-छह साल ही बड़े थे, और हम-लोगों से क्लास के बाहर दोस्तों की तरह मिलते, बोलते-बतियाते थे। हर तरह की बातें।

लेकिन छात्रों को हद से बाहर होते देखते ही, उन्हें ठेल कर हद में करने में देर नहीं लगाते थे। उनकी बातों में इतनी ताक़त होती थी कि, तब हम उनसे नज़र मिलाने की भी हिम्मत नहीं कर पाते थे। अक्सर खाना-पीना भी साथ होता। एक बार बाग़ में हम दोस्तों ने हाड़ीं (मटकी) में मुर्गा बनाया। नॉन रोटी, सलाद, चटनी, पापड़, नीबू होटल से ले आये। सब-कुछ खासतौर से प्रोफ़ेसर साहब के लिए किया गया था।

उनके लिए अक्सर ऐसी पार्टी हम-लोग करते रहते थे, जिससे वो एक्जाम में हमारा ध्यान रखें। उस दिन भी एक साथी उनको मोटरसाइकिल पर बैठा कर ले आया। आये तो मोटर-साइकिल से उतरते ही, सांवले बादलों से भरे आसमान की ओर सर ऊपर कर एक नज़र देख कर बोले, ''लगता है इस-बार मानसून समय से बरसना शुरू कर मौसम विभाग की लाज रख लेगा।' उनको लाने वाले साथी ने भी एक नज़र ऊपर देख उनके सुर में सुर मिलाया, ''अबकी पक्का समझिये सर।''

बैठने का इंतजाम एक बहुत बड़े आम के पेड़ के नीचे किया गया था। वह एक कलमी आम का पेड़ था। बहुत घना, उसके कई मोटे तने मुख्य तने से लगे दूर तक चले गए थे। बाग़ में आम, अमरुद, कटहल, पाकड़, जामुन, शीशम के मिला कर करीब डेढ़ सौ पेड़ थे। छह बीघे से बड़ी उस बाग़ में आम्रपाली प्रजाति के पेड़ ज्यादा थे, जिनमें उस समय भी आम लदे हुए थे।

दूर एक घने पाकड़ के पेड़ के नीचे पड़ी मड़ई के सामने एक बँसखटी चारपाई पर बाग़ का रखवाला लाठी लिए बैठा था। खाने में एक हिस्सा उसे भी मिलना था। खाना मिट्टी के बर्तन में पकाया और परोसा भी गया। यहाँ तक कि पानी भी कुल्हड़ में पिया गया। पानी भी मटके का था। हमने प्रयोग यह किया था कि एक साथी सुबह ही नया मटका लेकर वहां गया, और बाग़ के ट्यूब-वेल के ताज़े पानी से मटके को भर कर ज़मीन में गाड़ दिया।

जब छह घंटे बाद खाने के साथ पानी पीया गया तो उसमें एक ख़ास तरह की भीनी-भीनी सोंधी खुश्बू थी। खाने से लेकर पानी तक में मिट्टी की सोंधी खुश्बू ने प्रोफ़ेसर साहब को अभिभूत कर दिया था। खाने के बाद मुंह में बढियाँ मघई पान दबाते हुए बोले, ''बहुत स्वादिष्ट मुर्गा बनाया तुम लोगों ने, और उससे भी कहीं ज्यादा मन से खिलाया। ऐसे वातावरण में, ऐसे खाने का जैसा सुख महसूस कर रहा हूँ, ऐसा सुख न फाइव स्टार होटल में मिलेगा, न ही घर में।''

इतना कह कर कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अचानक ही पूछा, ''अच्छा क्या तुम लोग यह बता सकते हो कि जीवन का तीव्रतम सुख क्या है?''

उनके इस प्रश्न से हम सब के सर चकरा गए कि सुख तो सुख होता है, ये तीव्रतम, मध्यम, न्यूनतम सुख क्या बला है? लेकिन उन्होंने हमारे सर ज्यादा देर नहीं चकराने दिए। स्वयं उत्तर देते हुए कहा, ''देखो जैसे अभी इस स्वादिष्ट खाने से मुझे एक तृप्ति मिली, उससे मैं एक ख़ास तरह के सुख की अनुभूति कर रहा हूँ, लेकिन इस स्थिति तक पहुँचने में अच्छा-खासा समय व्यतीत हो गया। जब कि काम-क्रीड़ा की चरम परिणति तीव्रतम सुख है। कुछ ही क्षण में मिला वह सुख आदमी को कुछ पल के लिए ही सही समाधि की स्थिति में पहुंचा देता है।

एक बात और कि आदमी की भोजन और काम-वासना की भूख कभी समाप्त नहीं होती। आवश्यकता महसूस होने पर आदमी दोनों को मन भर प्राप्त कर, उस समय तृप्ति महसूस करता है। मगर कुछ समय बाद वह फिर प्रारम्भिक अवस्था में पहुँच जाता है। तो अगले हफ्ते फिर यहीं व्यवस्था करो, उस समय बारिस भी होती रहेगी तो आनंद दुगुना हो जाएगा। इन्हीं पेड़ों से एक तिरपाल बाँध लिया जाएगा, खूब होती बरखा, इन हरे-भरे विशाल वृक्षों की असंख्य पत्तियों पर गिरती असंख्य बरखा बूँदों से उत्पन्न, अद्भुत प्राकृतिक वाद्य-यंत्रीय संगीत से अभिभूत होते हुए भोजन का आनंद लिया जाएगा। और उस दिन टर्की बनाएंगे। सबलोग मेरी गाड़ी में आओगे। वह दावत मेरी तरफ से है, इसलिए तुम लोग अपनी जेब से एक पैसा नहीं निकालोगे।'

प्रोफ़ेसर साहब का अनुमान सही निकला, टर्की की दावत का मज़ा बारिस में ही लिया गया। लगातार होती रिमझिम बारिश में। तो समझी मेरी छम्मक-छल्लो, पेट भी भरता है, मन भी भरता है, तीव्रतम सुख भी मिलता है, लेकिन बाद में फिर वही हाल, इसलिए कैसे भी हो, जल्दी जुगाड़ करो न, इमेल्डा चली गई तो.....

बड़ी देर से मुझे सुन रही तुम बीच में ही झल्लाती हुई बोली, 'बाज आई मैं तुम्हारी भूख से समझे, अब तेरे लिए कोई जुगाड़-वूगाड़ करना मेरे वश का नहीं है। तेरे लिए तो मैं ही परमानेंट जुगाड़ बन गई हूँ, जितना तीव्रतम सुख लेना है, ले, नहीं मुझे सोने दे।' यह कहते हुए तुम मेरे ही पैरों पर सर रख कर लेट गई ।

रमानी बहनों का यह पिता-हन्ता भाई जब परिवार सहित वापस चला गया तब भी मैं अक्सर तुमको छेड़ने के लिए इमेल्डा की सुंदरता की बात जरूर करता। समीना सच यह था कि उसकी सुंदरता, परियों सा उसका बदन मेरे ह्रदय में इतना गहरे समा गया था कि मैं उसे भूल नहीं पा रहा था। खाते-पीते, बात करते, सोते-जागते या सहवास करते तुम मेरे साथ होती थी, लेकिन मेरा मन इमेल्डा के पास होता था।

अंदर ही अंदर मैं उसके लिए छटपटा उठता था। मेरी इस मानसिक स्थिति का प्रभाव मेरे चेहरे, मेरे कामों पर साफ़ दिख रहा था। इतना साफ़ कि तुमने दो-तीन दिन में ही सही-सही पढ़ कर टांट मारते हुए कहा, 'ई गोरकी जब से गई है, तब से तुम का बुझे दीया की बाती नाई करियाये जा रहे हो विलेन राजा। ऊ ख्वाब है ख्वाब, समझे। वो तो कभी ख्वाब में भी नहीं जान पाएगी कि यहां तुम उसके ख्वाब में करियाये जा रहे हो। इसलिए बौराओ नहीं, जो करना है ऊमां ध्यान लगाओ।' इसके साथ ही तुम उसे गोरकी कह-कह कर कई दिन अपशब्द कहती रही थी। तुम्हारी इस हरकत से एक दिन मैं बहुत गुस्सा हो गया, तब तुमने उसका नाम लेना बंद किया।

लेकिन हमारी ज़िंदगी में दुश्वारिओं के आने का रास्ता रामानी बहनें और चौड़ा, और सुगम बनाती जा रही थीं। भाई के जाने के दो महीने बाद ही दोनों बहनें भी उसके पास पंद्रह दिनों के लिए अमरीका गईं। पूरा रमानी हाऊस हमारे सहारे था। धंधा किसके सहारे थे इसका हमें पता नहीं था। ऑफिस का एक सीनियर बंदा डेली रमानी हाऊस जरूर आता था।

वह बहनों का विश्वासपात्र एवं मुंह-लगा था। जब आता तो पूरे घर को देखता। हमारे भी हाल-चाल लेता और चला जाता। उसके आने का कोई निश्चित टाइम नहीं था। भाई के इंडिया आने की शुरुआत के साथ ही एक काम और हुआ कि, अब हर दूसरे-तीसरे महीने ये बहनें अमरीका जाने लगीं और घर में जो पार्टी हर महीने में दो-तीन बार होती थी वह धीरे-धीरे कम होने लगी। जल्दी ही यह डेढ़-दो महीने के अंतराल पर होने लगी। लेकिन बहनों की निर्लज्जता जरूर बढ़ती जा रही थी।

अमरीका का चक्कर लगाने के साथ ही यह ज़्यादा तेजी से बढ़ रही थी। इन सारे क्रियाकलापों के साथ सबसे बड़ी बात यह रही कि, देखते-देखते बहनों का कारोबार कुछ ही समय में आठ-दस गुना ज़्यादा बढ़ गया। अचानक ही यह सुनाई देने लगा कि दोनों बहनें भी अमरीका की नागरिकता ले रही हैं। जल्दी ही यह बात सच साबित हो गई।

इस बीच हम-दोनों ने रमानी बहनों के चलते जितनी रकम गंवाई थी, उससे करीब दुगुनी रकम जमा कर ली थी। लेकिन हज़ार इच्छाओं, कोशिशों के बाद भी अपना व्यवसाय शुरू नहीं कर पा रहे थे।

रमानी बहनें हमारी प्रेरणा बनी हुई थीं। उनसे मिलती प्रेरणा हमें सोते-जागते एक मिनट भी चैन से नहीं बैठने देती थी। मगर सुन्दर हिडिम्बा की तरह ये बहनें भी हमें हर कदम पर सबसे बड़ी बाधा की तरह सामने खड़ी मिलतीं थीं। हमारे कदमों की बेड़ियाँ इन बहनों ने करीब तीन महीनें बाद फिर एक धमाकेदार पार्टी की। इसका आयोजन रमानी बहनों ने अपनी एक पंद्रह दिवसीय अमरीका यात्रा से वापस आने के हफ्ते भर बाद किया था।

इस बार उनकी एक अमरीकन साथी भी थी। बाकी सब यहीं के थे। मगर पहले की पार्टियों की तरह इस बार आधे नहीं बल्कि ज़्यादातर लोग चले गए। अमरीकन लेडी, बहनें, पांच लोग और थे। हम-दोनों सदैव की तरह पार्टी का अनिवार्य हिस्सा थे। इस पार्टी में अमरीकन लेडी ने शराब के साथ ना जाने कौन सी ड्रग्स दी सबको, कि कईयों की जान जाते-जाते बची। खुद उसकी भी तबियत बहुत ज़्यादा खराब हो गई थी।

उस दिन तुमने ना जाने कैसे सबसे आंख बचाकर, खुद नाम-मात्र को ही नशा किया था। तुम्हारा प्लान उस दिन कुछ और ही था। लेकिन सबकी खराब तबियत ने तुम्हारा प्लान फेल कर दिया। मगर तुम्हारी वजह से जान सबकी बच गई। मैंने ड्रग्स नहीं ली थी, तो सुरक्षित मैं भी था। रमानी बहनों ने उसी समय कान पकड़ लिए कि अब ऐसी पार्टी कभी नहीं होगी। बस पीना है, पीकर सो जाना है।

लेकिन उनके इस फैसले के साथ ही मेरी मुसीबत बढ़ गई। बड़ी वाली आए दिन पीने के बाद सोते समय बुला लेती। कुछ दिन बाद छोटी भी बुलाने लगी। मगर वह डेढ़-दो महीने के अंतराल पर बुलाती थी। इन सबके चलते हमारे तुम्हारे बीच खटास पैदा होने लगी। जब आधी रात के बाद मैं कमरे पर पहुंचता तो तुम इंतजार करती मिलती। तुम्हारी आंखों से आंसू टपकते देखता तो मैं बड़ी मुसीबत में पड़ जाता।

मैं तुम्हें समझाने की कोशिश करता तो तुम हाथ ना लगाने देती। ताना मारती। रमानी बहनों को गंदी-गंदी गालियां देती हुई कहती, 'जा उन्हीं की भरसांय में घुस जा। मेरे पास क्यों आया है? मैं तेरी क्या लगती हूं?'

मैं अपनी मजबूरी बताता तो तुम मानने के बजाय कहती, 'तू खुद ही यही चाहता है, इसी लिए इशारा मिलते ही भाग जाता है कमीनियों के पास।'

मैं कहता कि, 'किया-धरा तो सब तुम्हारा ही है, पहले तो तूने ही उनके सामने मुझे पहुंचाया। तूने ही कितनी कोशिश की, कि ये बहनें मुझे अपने साथ लें।'

तुम ठहरने वाली तो थी नहीं तो, बिना रुके ही तुरंत जवाब देती थी, 'तब मैंने कुछ और सोच कर किया था। मगर जो सोचा था वह तो कुछ हो ही नहीं पाया। यह दोनों तो मस्ती भी करती हैं, आगे भी बढ़ती जाती हैं। हम बस इनकी सेवा ही करते रह जाते हैं। हमें गुलाम से बद्तर बना दिया है। हमारा नाम, हमारा शरीर भी हमारा नहीं रह गया है।'

एक बार जब मैंने कहा कि, 'जो काम तुम्हारी योजना, तुम्हारी कोशिशों से हुआ, जिसमें मैं केवल एक पुर्जे की तरह तुम्हारे हाथों प्रयोग हुआ, तो ऐसे काम की ज़िम्मेदारी तुम मुझ पर थोपने पर क्यों तुली हुई हो। मैं तो काम तक ही सीमित रहना चाहता था। लेकिन तू ही नई-नई योजना बनाती और आगे-आगे घुसती गई। साथ ही साथ मुझे भी उनके सामने चारा बना कर डालती गई। अब-जब उन दोनों को तुम्हारा यह चारा पसंद आ गया है, तो तुम्हें बुरा लग रहा है।'

मेरा यह कहना था कि, तुम एकदम भड़क उठी। तुमने मुझे चारा बनाया अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए, यह बात तुम्हें मिर्ची की तरह लगी।

एकदम भड़कती हुई बोली, 'लगता है तेरा दिमाग इन बहनों के साथ सो-सो कर फिर गया है। मैं स्वार्थी नहीं हूं। स्वार्थी वह दोनों हैं। उनका असर तुझ पर भी आ गया है। मैं खूब अच्छी तरह समझ रही हूँ कि अब तू मुझसे ऊब गया है, तुझ पर उन दोनों की गोरी चमड़ी का नशा चढ़ गया है, और पैसा कमाने का तूने कोई और रास्ता ढूंढ लिया है, सब अकेले ही कमाना चाहता है।'

मुझे तुम्हारी यह एकदम झूठी बात बहुत बुरी लगी। मैं भी बिगड़ गया। तुम्हारे ही अंदाज़ में बोला, 'स्वार्थी तो लगता है तू हो गई है, रास्ता तूने नया पकड़ लिया है या फिर ढूंढ रही है, इसीलिए उस दिन खुद पीने के नाम पर लगता है केवल अपने कपड़ों पर छिड़क ली थी बस, और मुझे जमकर पिला कर उस अमरीकन के सामने चारे की तरह डाल दिया, लेकिन उस दिन तुम्हारी योजना क्या थी, बार-बार पूछने पर भी आजतक नहीं बताया। तुम्हारी बदकिस्मती से सबकी तबियत न खराब होती तो तू आज न जाने कहाँ होती।'

मैं सख्त बातें बोलता ही चला गया तो तुम रोने लगी, रोते-रोते बोली, 'गुस्से में थी इसलिए बोल दिया। इतना भी नहीं समझता, कुछ समझाने के बजाय उलटा ताव दिखा रहा है।'