०४-०६-२०२०
(०१) समय - १०:२१ पर - "यदि उचित एवं अनुचित को उनकी वास्तविकता के अनुसार जानना है तो उन्हें अपनी विडंबनाओं द्वारा निर्मित द्रष्टिकोण के बिना देखना होगा ।अपने परिस्थितियों से निर्मित दृष्टिकोणों से यदि उचित-अनुचित को देखोगे तो उचित-अनुचित उनके अनुसार होगा अपनी वास्तविकता अनुसार नहीं ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(०२) समय - ११:०४ पर - "एक दार्शनिक वैज्ञानिक हो सकता है परंतु एक वैज्ञानिक दार्शनिक नहीं।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(०३) समय - ११:२४ पर - "दार्शनिक और वैज्ञानिक में अंतर यह है कि, जो किसी विषय मे किसी भी द्रष्टिकोण के अनुसार क्या उचित-अनुचित है यह देखता है वह दार्शनिक है और जो किसी विषय मे सर्वथा सर्वदा उचित द्रष्टिकोण के अनुसार उचित-अनुचित देखता है अथार्त वास्तविक द्रष्टिकोण से उचित-अनुचित की वास्तविकता को वह वैज्ञानिक है।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
०५-०६-२०२०
(०४) समय - १३:५९ पर - "जिस प्रकार परमार्थ स्वार्थ की अहमियत ,सत्य असत्य की अहमियत और त्रिदेव राक्षसों की अहमियत समझते है और उनके अस्तित्व को पूर्णतः कदापि नष्ट नहीं करते है उनके साथ कभी अन्याय नहीं करते है ठीक उसी प्रकार सत्य गुणों वाले मनुष्यों को भी सदा स्वार्थी असत्य का साथ देने वाले और राक्षस प्रवत्ति वाले मनुष्यों के साथ भी कभी अन्याय नहीं करना चाहिए ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
०६-०६-२०२०
(०५) समय - ०८:१८ पर - "जिस प्रकार त्रिदेव का असुरों और देवताओं के लिए कितना ही करने पर वह सदा असंतुष्ट ही रहते है ठीक उसी प्रकार परमार्थ का स्वार्थ के लिए कितना ही करने पर वह सदैव असंतुष्ट ही रहेगा । यह उनकी प्रकृति है ।इसके कारण परमार्थ को अपने कर्मो को बाधित कदापि नहीं करना चाहिए ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार त्रिदेव देवो और असुरों के ऐसे व्यवहार के कारण स्वयं के कर्मो को बाधित नहीं होने देते ।वह सदैव दोनो को समानता से देते रहते हैं ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(०६) समय - ०८:५४ पर - "अन्तः में समानता का भाव ही व्यक्ति को सभी से बड़ा बनाता है।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(०७) समय - ०८:५९ पर - "मृत्यु अंत नहीं वरन एक अल्प विराम मात्र है।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(०८) समय - २१:२१ पर - "दुनिया की दौड़ में दौड़ कर के प्रथम आना ही स्वयं को दुनिया में दुनिया से विशेष बताने का विकल्प नहीं वरन इसके अपनी दौड़ मैं दुनिया को दौड़ाना और इतना तेजी से दौड़ना कि उसमे दुनिया का आपसे कभी आगे नहीं आ पाना भी दुनिया में दुनिया से स्वयं को विशेष बताने का विकल्प हैं।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
०८-०६-२०२०
(०९) समय - १०:१४ पर - "जब संसार व्यक्ति को या किसी अन्य वस्तु को अपने नकारात्मक दृष्टिकोण से देखता है तो वह व्यक्ति की वास्तविकता को नहीं समझ सकता और व्यक्ति को अनुचित सिद्ध करने हेतु सदा कार्यरत रहता है ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति के तीन स्वभाव हो सकते है उन स्वभावो में से एक है मजाकिया स्वभाव और दूसरा है गंभीर स्वभाव और तीसरा है उदासीन स्वभाव ।यदि व्यक्ति का स्वभाव गंभीर है तो संसार उसे घुन्ना कहता है और अपने स्वभाव को सदा परिवर्तित करवाने में कार्यरत रहता है ।यदि व्यक्ति मजाकिया है तो संसार उसे मंदबुद्धि कहता है और उसे उसका स्वभाव परिवर्तित करवाने में कार्यरत रहता है ।यदि व्यक्ति अपने स्वभाव को उदासीन कर ले तो संसार उसे भी यह तर्क देकर अनुचित कहता है कि व्यक्ति को सदा समय अनुसार हसमुख और गंभीर रहना चाहिए ।अब व्यक्ति के समक्ष प्रश्न यह आता है कि वह स्वयं से संसार को कैसे संतुष्ट करे उसने सभी प्रयास करके देख लिए ।व्यक्ति ऐसे दृष्टिकोणों वाले संसार को संतुष्ट करने का कितना ही प्रयास कर ले सब व्यर्थ है उसे इस परम सत्य को समझ लेना चाहिए कि ऐसे दृष्टिकोण वाला संसार असंतुष्टि का पर्याय अथार्त असंतुष्टि का दूसरा नाम है ।यदि अनुचित कुछ है तो वह व्यक्ति का स्वभाव नहीं जिसे नकारात्मक दृष्टिकोण वाला संसार अनुचित कहता है वरन इसके अनुचित तो संसार का दृष्टिकोण है जिसे उसे परिवर्तित करना चाहिए ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(१०) समय - १०:१९ पर - "नकारात्मक दृष्टिकोण इसलिए अनुचित है क्योंकि इसकी तुलना में सकारात्मक दृष्टिकोण जो दिखाता है उसकी वास्तविक होने की संभावना कई ज्यादा होती है परंतु सकारात्मक दृष्टिकोण सदा वास्तविकता नहीं दिखाता अतः जो जैसा है उसे वैसा है बिना अपने विडंबनाओं से निर्मित द्रष्टिकोण की सहायता से देखना ही सर्वदा सर्वथा उचित है ।"- रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
१४-०६-२०२०
(११) समय - २०:२७ पर - "हमारा अचेतन मस्तिष्क चेतन मस्तिष्क की तुलना में अधिक रचनात्मक होता है।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
१६-०६-२०२०
(१२) समय - ०३:३८ पर - "सत्य असत्य ,उचित एवं अनुचित ,अच्छा बुरा सभी दृष्टिकोण के मोहताज होते है जब एक गहन चिंतक चिंतन की यात्रा पर निकलता है तो एक समय वह ऐसे दृष्टिकोण के अस्तित्व का साक्षात्कार करता है जिसके अनुसार जीवन मे प्राप्त उसकी उपलब्धियां , उसकी अच्छाई ,बुराई ,मेहनत जो उसने उसके तन के लिए करी ,मन-मस्तिष्क के लिए करी दूसरों के लिए करी स्वयं के लिए करी सभी की व्यर्थता का उसे ज्ञान हो जाता है ।जिस दृष्टिकोण के अनुसार सभी व्यर्थ है उसका दृष्टिकोण वह हो जाता है। जब उसका वैसा दृष्टिकोण हो जाता है तो उसके दृष्टिकोण अनुसार उसकी सभी उपलब्धियां ,उसका जीवन सभी उसके अनुसार व्यर्थ हो जाते है ।
हमारे सभी द्रष्टिकोण हमारी परिस्थितियों से प्रभावित होते है। हमारे आस पास के वातावरण से प्रभावित होते है और यदि जिस द्रष्टिकोण के अनुसार सभी कुछ व्यर्थ है वह उचित समय पर परिवर्तित नहीं हुआ तो नि:संदेह व्यक्ति के जीवन मे कोई कमि हो या नहीं हो ,वह कितना ही उपलब्धि वाला क्यों न हो , उसका भविष्य कितना ही उज्वल क्यो न हो ,उसके कितने ही सपने क्यो न हो वह सभी को व्यर्थ समझता है और स्वयं के जीवन को नष्ठ कर लेता है ।
आप स्वयं विचार कीजिए कि यदि सुशांत सिंह किसी से नाखुश होते या किसी व्यक्ति के कारण नाखुश होते तो अंतिम पत्र या किसी अन्य माध्यम से अपनी आत्ममृत्यु का कारण अवश्य बताते ।
सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु का यही कारण है; यदि उन्होंने आत्महत्या की तो और वह यह कि एक चिंतक थे ।उनका स्वयं की आत्म हत्या करने का कारण उनके मस्तिष्क की कमज़ोरी नहीं थी अपितु चिंतन के एक पड़ाव पर ज्ञात होने वाला एक द्रष्टिकोण का साक्षात्कार जिसके अनुसार व्यक्ति का सभी कुछ और उसका जीवन अर्थहीन है और आप कितना ही प्रत्यन कर लीजिए सत्य खोजने का सत्य यही है ।मैं एक चिंतन हूँ एवं अत्यधिक चिंतन करता हूँ मानव मस्तिष्क को समझता हूँ और एक समय मैंने भी ऐसे ही द्रष्टिकोण का साक्षात्कार किया था जिसके अनुसार इस जीवन में सभी कुछ व्यर्थ है और स्वयं आत्म हत्या करने के लिए सज्ज था परंतु किसी तरह मैंने अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित किया और मुझे जीवन की वास्तविकता का ज्ञान हुआ ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
२०-०६-२०२०
(१३) समय - ०४:४९ पर - "यदि आपको लगता है कि आपके जीवन में संतुलन नहीं इसका अर्थ यह नहीं की आपका जीवन असंतुलित है वरन इसके आपके जीवन मे जो संतुलन है वह आपके द्वारा नहीं है ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
२१-०६-२०२०
(१४) समय - १०:४३ पर - "सत्य का अर्थ है उचित अर्थात जो करना चाहिए ,होना चाहिए एवं जो हुआ है ।ऐसा जो करना चाहिए ,होना चाहिए एवं जो हुआ है वह कर्म है जिसमे कण कण से लेकर अनंत का भला अथार्त अच्छा निहित हो ।इससे यह सिद्ध होता है कि जिसमे कण कण से लेकर अनंत का भला निहित हो वही सत्य है ।उसी सत्य कर्म को करना प्रत्येक व्यक्ति का परम धर्म (कर्तव्य) है ।अब प्रश्न यह है कि ऐसा क्या है जिससे कण कण से लेकर अनंत का पूर्णतः हित संभव हो सकता है ?तो उत्तर है केवल परमार्थ। ऐसा कर्म जिसकी सहायता से परमार्थ कर्म को पूर्णतः अंजाम देने योग्य हम बन सकते है तो वह केवल और केवल योग है। योग की सहायता से हम हमारी आत्मा ,मस्तिष्क ,मन सम्पूर्ण तन के कण कण का एवं संसार ,ब्रह्मांड ,अनंत का भला कर सकते है। सभी के लिए श्रेष्ठ कर सकते हैं।
यदि परमार्थ कर्म परम सत्य है तो उस कर्म को सिद्ध करने का सर्वश्रेष्ठ सर्वदा सर्वथा उचित सहायक है योग।" -रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
२४-०६-२०२०
(१५) समय - २१:५० पर - "अपने संघर्ष की सहायता से हर व्यक्ति की सफलता प्राप्ति नि:संदेह निश्चित है परंतु ऐसे सफल सभी में से सर्वाधिक सफलता वाला सफल व्यक्ति वही है जिसके मस्तिष्क में स्वयं के कठिन संघर्ष के लिए तुच्छता का भाव हो।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
२५-०६-२०२०
(१६) समय - १४:१२ पर - "जब जब दृष्टिकोण को सर्वाधिक उचित अनुसार जानना चाहोगे सदा उत्तर किसी न किसी अन्य दृष्टिकोण के अनुसार पाओगे।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
२६-०६-२०२०
(१७) समय - ०४:३६ पर - "जिस प्रकार स्वार्थ के कारण बच्चो को अपने माता पिता को वृद्धावस्था में नहीं त्यागना चाहिए ठीक उसी प्रकार माता-पिता को वृद्धावस्था में ,अपने बच्चो की सफलता को निज मोह के कारण बाधित कर अपने धर्म से दूर कदापि नहीं भागना चाहिए ।वृद्धावस्था में स्वार्थी बन अपने माता-पिता को त्यागना बच्चो के लिए जितना बड़ा पाप है माता-पिता का अपने बच्चो के धर्म मे मोह के कारण बाधा बनना ठीक उतने ही बड़े पाप के समान है ।पिता श्री दशरथ ने इस पाप से बचने हेतु अपने प्राणो को त्याग दिया ।पुत्र श्री राम की प्रिय पितृ विरह वेदना का कारण बन उन्हें कष्ठ देने का पाप करना अपने पुत्र के धर्म को बाधित करने के पाप को करने से उचित समझा ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(१८) समय - ०४:५१ पर - "हम किसी व्यक्ति के बिना रह नहीं सकते अथार्त हमे उस व्यक्ति से मोह है परंतु मोह का हमे कष्ट देना यही केवल एक उद्देश्य है ।श्री राम और पिता श्री दशरथ दोनो पिता-पुत्र पिता और पुत्र संबंध के आदर्श है । यदि दशरथ जी को अपने पुत्र से मोह नहीं होता तो वह उनके विरह की पीड़ा में स्वयं के प्राण नहीं त्यागते और श्री राम को पिता विरह वेदना की पीड़ा से पीड़ित नहीं होना पड़ता। दोनो पिता-पुत्र का १४ वर्ष पश्चात सुखद मिलान होता और आजीवन दोनो साथ रहते ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
(१९) समय - ०४:४८ पर - "एक आदर्श व्यक्ति वही है जो अपनी आत्मा ,मस्तिष्क ,मन ,तन ,परिवार ,देश ,विश्व ,ब्रह्मांड एवं अनंत के लिए सर्वश्रेष्ठ करने में सक्षम हो और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ करने में सदा कार्यरत हो।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)
२७-०६-२०२०
(२०) समय - २१:३४ पर - "व्यक्ति ने एक बार नशे का स्वाद चख लिया उसने नशे का सेवन कर लिया अर्थात उसने भूल नहीं अपितु अपराध को अंजाम दिया ।उसे प्रथम बार ऐसा करने पर हम उसके कर्म का उसे दोषी कह सकते है क्योंकि उसने उसकी सोचने समझने की शक्ति होने के पश्चात भी ऐसे कर्म को अंजाम दिया है । एक बार नशे का पान करने के पश्चात नशा उसकी चेतना को हर लेता है व्यक्ति उसके आधीन रहता है ।फिर वह कितनी ही बार उसका सेवन करे हम उसे दोषी नहीं कह सकते ।उसे उसके कर्म का दोष कदापि नहीं दे सकते उससे मुक्त होना उस पर ही निर्भर रहता हैं और उसे दुसरो का रोकना व्यर्थ है ।" - रुद्र एस. शर्मा (०,∞)