जयपुर की सिटी बस और उसमें कोई अनजान व्यक्ति किसी से फ़ोन नंबर मांगे और कहे कि "मुझे आप बहुत अच्छे लगे। आपसे और बाते करनी है कृपया मुझे अपने फ़ोन नंबर देना।"
यह विलक्षण प्रतिभा गुरुदेव में कैसी थी इसका वर्णन करना मेरी लेखनी से परे है। बस में और साथ ही बाजार हो या कोई भी अन्य जगह मेरी और गुरुदेव की अधिकतर बातें तुकांत में ही होती थी। मेरे काव्य में अगर थोड़ा बहुत रस है तो उसमें गुरुदेव के सानिध्य का ही प्रभाव है।
एक बार हम ऐसे ही बस में तुकांत में बातें कर रहे थे और बस में मौजूद सवारियों का ध्यान हमारी बातों पर आकृष्ट हो ही गया। तभी एक अनजान भाई ने ही गुरुदेव को कहा कि "मुझे आप बहुत अच्छे लगे। आपसे और बाते करनी है कृपया मुझे अपने फ़ोन नंबर देना।"
यहाँ तक कि सिटी बस के कंडक्टर भी उनके खास बन गए। एक बार गुरुदेव अपने मित्र के साथ बाइक पर पीछे आ रहे थे और मैं अकेला ही बस में बैठ गया तो बस कडंक्टर बोला" आज हमारे दोस्त कहाँ है?आये नहीं?"
गुरुदेव सिटी बस में ही मारवाड़ी गीत गाने लगते और सभी उनकी तरफ देखने लगते कि ये कौन आ गया है? कोई हँसते भी ,कई आनंद भी लेते पर गुरुदेव दूसरों के मन की परवाह किये बिना अपनी मस्ती में मस्त रहते। उनकी इस बेफिक्री और मस्ती ने ही मुझे भी अपनी उदासी को दरकिनार कर आनंद से रहना सिखाया।
न केवल बस के यात्री और कंडक्टर बल्कि सब्जी वाला,चाय वाला,फेरी वाला,मूंगफली वाला,फल बेचने वाला,दूध डेयरी वाला,राशन वाला , नाई और यहाँ तक कि एक गलगप्पे वाला पप्पू पतासी वाला भी उनके खास बन गए थे। एक ही मुलाकात में ये सब उनके "जिगरी" बन गए थे। उनके साथ हँसी-मजाक और आनंद के किस्से भरपूर है।
आम लोगो से इतने अपनेपन, प्रेम और विनोदपूर्ण व्यवहार ने मुझे सिखाया कि आनंद की प्राप्ति हमारे किसी खास मित्र या परिवार के सदस्य के साथ ही नहीं बल्कि हर जगह और हर व्यक्ति के साथ प्राप्त हो सकती है। न केवल ये आम आदमी बल्कि कोचिंग के गुरुजन भी इतनी भीड़ में गुरुदेव को ही जानते थे और वो उनके भी खास हो गए थे।
एक बार गुरुदेव एक क्लास पूरी होने के बाद सभी मित्रों के साथ कमरे से बाहर आ रहे थे और अपनी ही मस्ती में एक जैसलमेरी लोक भजन गा रहे थे। तब क्लास में से बाहर आते हुए कोचिंग के गुरु ने उनका वो भजन थोड़ा सा सुन लिया फिर तो गुरुदेव उनके भी खास हो ही गए।
हम जब घर से दूर होते है तब स्वाभाविक रूप से हमें परिवार की याद आती ही है लेकिन अगर किसी उत्सव -त्योहार में हम घर से दूर होते है तब उनकी याद और ज्यादा सताती है। पहली बार मैं दीवाली घर से दूर मना रहा था। हृदय की पीड़ा नयनों के द्वार से प्रवाहित हो रही थी।
उस समय मिशन इंस्टीट्यूट के संचालक कुँवर कनक सिंह राव की एक बात ने बहुत हौसला दिया कि " अभी आप भले ही घर में दीवाली नहीं मना सको लेकिन अगर आप कुछ त्याग और संयम से काम लो तो जॉब के बाद रोज ही आपकी दीवाली होगी वरना दीवाली भी आपको टेंशन देने वाली ही होगी।"
उस समय जयपुर में हमारे जैसलमेर के नोरे के लगभग बीस -बाइस साथी तैयारी में लगे हुए थे और सभी का निवास अलग-अलग जगह पर था। हम अक्सर एक दूसरे के कमरे में आया-जाया करते थे। दीवाली के दिन हम जैताराम जी और उनके साथ वाली बिल्डिंग में रहने वाले साथियों के पास गए। निश्चित रूप से वह दीवाली मेरे अब तक के अनुभवों से सबसे अलग दीवाली रही। मित्रों के साथ से वह दीवाली भी यादगार बन गयी।
ऐसे ही एक बार नेहड़ाई के रामलाल जी जिन्होंने वरिष्ठ अध्यापक की परीक्षा में हिंदी विषय में सम्पूर्ण राजस्थान में पांचवा स्थान प्राप्त किया था । वो कुछ दिनों के लिए हमारे रूम में आये उनके ज्ञान और परीक्षा के प्रति समर्पण ने हमें बहुत प्रभावित किया। उनसे हमनें मुख्य रूप से यह सीखा की केवल दिन -रात पढ़ने से ही हम परीक्षा की दौड़ में आगे नहीं निकल सकते । तेज दौड़ के साथ ही हमारी टेक्निक बहुत मायने रखती है। क्या पढ़ना है? क्या नहीं? कितना पढ़ना है? और किस तरह पढ़ना है? आदि बहुत कुछ उनसे सीखने को मिला।
जयपुर में रहने वाले उन सभी साथियों के संघर्ष ने मुझे बहुत प्रभावित किया । सभी साथियों में मैं सबसे छोटा और इस प्रतियोगिता की दौड़ में सबसे नया था। उन दोस्तों में से आज लगभग सभी सफलता को प्राप्त कर चुके है और दो-चार मित्र जो अभी भी संघर्ष कर रहे है। उम्मीद है शीघ्र ही वो भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे।
जब कोचिंग पूर्ण हो गयी और हमनें अब कमरे में ही पढ़ने का निर्णय लिया तो उन अंतिम दिनों में हमारी सफलता के सबसे निर्णायक पल गुजरे जिनका वर्णन मैं अगले अध्याय में आपसे कहूँगा।