उजाले की ओर ---संस्मरण
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स्नेही साथियों
सस्नेह नमस्कार
हमारी दुनिया इतने भिन्न प्रकार ले लोगों से भरी पड़ी है | कोई पैसे से अमीर है तो दिल से गरीब ! कोई दिल से अमीर है तो पैसे से मार खा जाता है |
मित्रों ! आप सब यह भली प्रकार जानते हैं ,अनुभव करते हैं कि पेट से बड़ी कोई समस्या नहीं | हाँ जी ,ठीक पढ़ रहे हैं आप मैं पेट ही कह रही हूँ जिसमें दाना यानि अन्न न पड़े तो शरीर काम ही नहीं करता | बताइए,कैसी मुसीबत है कि पेट में कुछ न कुछ तो डालना ज़रूरी है | हम वो संत तो हैं नहीं जो हवा-पानी के सहारे जी लेंगे| मैं तो नहीं हूँ | सुना जाता है कुछ लोगों के बारे में कि वे हवा ,पानी के सहारे ज़िंदा रह सकते हैं ---मालूम नहीं ---ख़ैर ---
मुद्दा ये है कि हमें पेट भरने के लिए हाथ-पैर भी मारने पड़ते हैं | न---दोस्तों ,गलत न समझें ,मैं वो किसी से लड़ाई या पिटाई वाले हाथ-पैर मारने की बात नहीं कर रही | मेरा तात्पर्य है कि कुछ खाने के लिए ,पेट भरने के लिए हर मनुष्य को कुछ न कुछ करना पड़ता है | नहीं करता तो करना चाहिए | केवल पड़े रहने से पेट तो शायद कैसे न कैसे भर जाए किन्तु कब तक ? स्वयं के लिए भी नहीं तो परिवार के लिए उसे कुछ न कुछ करना ही पड़ता है |
हमारे ज़माने से आज का ज़माना बहुत बहुत बदल गया है | पहले संयुक्त परिवार होते थे जिनमें कई भाई एक साथ रहा करते थे | एक पिता की संतानें एक घर में रहती थीं और सब मिलजुलकर पेट भर लेते थे | अब जबसे परिवारों का विघटन शुरू हुआ तब से छोटे हों या बड़े उन्हें अपने-अपने अनुसार जीने का शौक चढ़ गया है |
मेरा एक सब्ज़ी वाला है भूषण ,बड़ा प्यारा इंसान है | बड़ा परेशान !
रोज़ सुबह बड़े सब्ज़ी बाज़ार सस्ती सब्जियाँ खरीदने जाता है फिर गली-गली सब्जियाँ बेचता है | साँझ ढले घर पहुँचता है |
पहले उसका पिता बरसों से सब्जी की दुकान लगाता था ,फिर लारी पर भी बेचने आता था | अब वह वृद्ध हो गया है तो भूषण आता है | उसका एक और भाई है सत्येन्द्र --पहले वह भी उसके साथ आता था | कुछ दिनों से उसने आना बंद कर दिया है| उसे परेशान देखकर मैंने पूछा -
"क्या बात है भूषण ,पहले तो दोनों भाई आते थे | पिता की सब्जी की दुकान थी | उस पर दोनों बैठते थे |"
ताज़ी सब्जियाँ होने के कारण थोड़ी महंगी होने से भी अधिकतर लोग उसकी दुकान से सब्जी लेना पसंद करते थे | फिर कोई न कोई भाई या पिता सब्ज़ी की लारी लेकर निकल जाता था | खूब बढ़िया काम चला रहा था उनका | लेकिन जबसे दोनों भाईयों की शादी हुई ,उनकी पत्नियों को ज़माने की हवा लग गई | उनका सब्जियों का इतना बढ़िया व्यापार चलता था कि उन्होने दो मंज़िल का घर बना लिया था | घर में सब सुविधाएँ इक्कट्ठी कर लीं थीं लेकिन दोनों भाइयों की शादी के बाद घर ही टूट गया,सबको अपने लिए अलग सुविधा चाहिए,सबको अपने अलग टी. वी चाहिए | व्यापार में भी दोनों की पत्नियाँ टाँग अड़ाने लगीं |पैसा उनके हाथ में होना चाहिए ,माँ बुढ़ा गईं हैं ,उन्हें भला क्या समझ हमारी ज़रूरतों की !
"आँटी ! क्या बताएँ ---सबको अपनी-अपनी पड़ी है | पिता जी,माँ अब वृद्ध हो गए हैं | छोटा भाई अलग लारी लेकर निकलता है | दुकान निकाल दी है --" फिर उसने सारी क्लेश की जड़ मेरे सामने खोल दी | उसकी आँखों में आँसू भरे थे |
"आप ही बताइए आँटी ! मैं रोज़ सुबह चार बजे उठकर ताज़ी सब्जियाँ लेने बड़े सब्जी-बाज़ार जाता हूँ | लेकिन जो ग्राहक दुकान पर गाड़ी खड़ी करके सब्जियाँ खरीदते थे ,वे ही अब ठेले पर से सब्ज़ी खरीदते समय इतना मोल-भाव करते हैं कि मैं अक्सर कम दामों में सब्ज़ी बेचकर नुकसान में रहता हूँ | "कुछ रुककर बोला ;
"आँटी ! ये दुनिया का उसूल है ,मरते हुए को और मारती है | हमारे जैसों को पेट भरने के भी लाले हैं और उन बड़े-बड़े मॉल में ,बड़ी दुकानों में कोई एक पैसा भी कम करने के लिए नहीं बोल सकता | आप ही बताइए ,हमारे जैसे लोग कहाँ जाएँ ? हमारे बच्चों को भी ज़माने को देखकर पर लग गए हैं |"
उसकी बातें सुनकर न जाने कितने प्रश्न मेरे मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ करने लगे |
जीना सबको है ,सबको अपना व परिवार का पेट भी भरना है किन्तु जो लोग महँगे -महँगे रेस्टोरेंट्स में बिना किसी न-नुकर के लगभग रोज़ ही कहते या पार्सल माँगते हैं |
वे इन लारी वालों से ऐसा व्यवहार करके कैसे संतुष्टि पाते हैं? प्रश्न चिंतनीय है -----!!
सस्नेह
आपकी मित्र
डॉ.प्राणव भारती