Gyarah Amavas - 17 in Hindi Thriller by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | ग्यारह अमावस - 17

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ग्यारह अमावस - 17



(17)

गगन एक टेबल पर ऑर्डर ले रहा था। उसे मैसेज अलर्ट मिला। लेकिन उस समय वह मैसेज चेक नहीं कर सकता था। उसने कस्टमर का आर्डर लिया और किचन में जाकर बता दिया। जब तक ऑर्डर तैयार हो रहा था उसने अपना फोन निकाल कर देखा। उसके वाट्सएप ग्रुप ब्लैक नाइट पर मैसेज था। उसने इधर उधर देखा। कोई भी उसकी तरफ नहीं देख रहा था। उसने मैसेज खोलकर पढ़ा,
'सभी पंछियों को नया घोंसला दिखाना है। कल रात पुराने घोंसले पर मिलो'
गगन समझ गया कि उत्तरी पहाड़ के जंगल में उस पुराने मकान की बात हो रही है जहांँ आने वाली अमावस को अनुष्ठान होगा। वह सोचने लगा कि इस बार अधिक छुट्टी की आवश्यकता होगी। कल नई जगह देखना है। उसके दो दिनों के बाद अमावस है। बार बार छुट्टी मिलना मुश्किल होगा। या फिर वह कल अपना काम करके जाए और नई जगह देखकर फौरन पालमगढ़ के लिए निकल ले। लेकिन उसमें बहुत भागदौड़ हो जाएगी। फिर उसे दो दिन बाद छुट्टी मांगनी ही पड़ेगी।
वह सोच रहा था कि मालिक उसे इतनी छुट्टी देगा नहीं। जब तक उसे शक्ति प्राप्त नहीं हो जाती है उसे मजबूरी में यह नौकरी करनी पड़ेगी। उसे एक ऐसा उपाय निकालना था जिससे उसका काम बन जाए। सोचते हुए उसकी नज़र मोबाइल की स्क्रीन पर थी। उसे मालिक की आवाज़ सुनाई पड़ी,
"काम के वक्त मोबाइल पर ध्यान रहता है तुम्हारा। इस तरह से कामचोरी की तो काम से निकाल कर बाहर कर दूंँगा।"
मालिक उसे अक्सर इसी तरह से डांटता रहता था। गगन ने फोन जेब में रखते हुए कहा,
"एक टेबल से आर्डर लेकर आया था। उसके पूरा होने का इंतज़ार कर रहा था।"
मालिक ने एक बार फिर डांटा,
"जब तक आर्डर पूरा नहीं होगा तब तक तुम आराम से खड़े रहोगे। ऑर्डर कुछ देर में आकर ले जाते। तब तक दूसरी टेबल देखो।"
गगन चुपचाप चला गया। वह काम तो कर रहा था पर उसका ध्यान इस बात पर था कि वह मालिक से छुट्टी कैसे मांगे। इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ वह काम कर रहा था। उसने एक टेबल पर ऑर्डर ले जाकर दिया। टेबल पर बैठा कस्टमर चिल्लाने लगा,
"यह कैसी सर्विस है इस रेस्टोरेंट की। मैंने दाल फ्राई और रोटी मांगी थी। मुझे पनीर लाकर दिया गया है। मुझे पनीर से एलर्जी है।"
गगन को अपनी गलती समझ आ गई। उसने कहा,
"सॉरी सर थोड़ा कन्फ्यूज़न हो गया। मैं अभी ठीक कर देता हूंँ।"
वह हड़बड़ी में ट्रे उठाने लगा तो पानी का गिलास गिर गया। वह भरा हुआ था। कस्टमर की जींस गीली हो गई। वह पहले से ही चिढ़ा हुआ था। इस बात से और अधिक चिढ़ गया। वह चिल्लाने लगा,
"इस रेस्टोरेंट का मैनेजर कहांँ है ? बुलाओ उसे।"
रेस्टोरेंट का मालिक ही मैनेजर की तरह काम करता था। वह दौड़कर आया और बोला,
"क्या हुआ सर ? कोई परेशानी है ?"
कस्टमर ने गुस्से से कहा,
"कैसा बेकार रेस्टोरेंट खोल कर रखा है। तुम्हारे स्टाफ को काम करने की तमीज़ नहीं है। एक तो जो कहा था उसकी जगह कुछ और ही उठा लाया। ऊपर से पानी गिराकर मेरे कपड़े गीले कर दिए।"
गगन नज़रें झुकाए खड़ा था। उसने कहा,
"सर मैं अभी कपड़ा लाकर पोंछ देता हूंँ।"
कस्टमर ने आँखें दिखाते हुए कहा,
"मेरे कपड़े गीले कर दिए उसका क्या ? इस हालत में मैं बाहर कैसे जाऊंँगा।"
मालिक गुस्से में गगन को घूर रहा था। आसपास की टेबल पर बैठे कस्टमर भी यह सब देख रहे थे। मालिक को डर था कि उसके रेस्टोरेंट की बदनामी हो जाएगी। उसने गगन से कहा,
"तुम इसी वक्त इस रेस्टोरेंट से चले जाओ। तुमसे मैं बाद में बात करूंँगा।"
गगन चुपचाप बाहर निकल गया। मालिक कस्टमर से माफी मांगने लगा।

गगन अपने कमरे में वापस आ गया। वह परेशान था। मालिक उससे बहुत नाराज़ हो गया था। अब छुट्टी मांगने का मतलब नौकरी से हाथ धोना था। वह सोच रहा था कि कुछ सही नहीं चल रहा है। पहले जगत ने गड़बड़ कर दी थी। नहीं तो हब्बाली को प्रसन्न करने के लिए किशोर उम्र की लड़की वही भेंट करता। अब सूचना मिली थी कि लड़का और लड़की दोनों भेटों की व्यवस्था हो चुकी थी। अब छठी अमावस को अनुष्ठान होना था। इस बार अनुष्ठान बहुत महत्वपूर्ण था। उसने सोचा कि अगर मालिक उसे नौकरी से निकाल भी देगा तो कोई बात नहीं है। इस अमावस के बाद ज़ेबूल की कृपा प्राप्त हो जाएगी। फिर उसे डरने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी।
गगन आने वाले समय के बारे में सोचने लगा। वह जांबूर की बताई हुई बातों को याद कर रहा था। उसने कहा था कि ज़ेबूल के प्रसन्न होने के बाद किसी भी चीज़ की कमी नहीं रह जाएगी। जितना चाहो पैसा मिलेगा। तुम्हारी ताकत के आगे सब खुशी खुशी सर झुकाएंगे। तुम जिसके साथ जो चाहोगे कर पाओगे। वह सोच रहा था कि जब ज़ेबूल उन सबकी उपासना से प्रसन्न होकर उन्हें अपनी शक्ति देगा तो वह किसी राजा की तरह ज़िंदगी जिएगा। दिल खोलकर खर्च करेगा। लोगों से अपनी इज्ज़त करवाएगा। जो भी उसकी इज्ज़त नहीं करेगा उसे उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा।
उसके ज़ेहन में एक बहुत ही सुंदर दृश्य चल रहा था। वह आराम से टेबल पर बैठा था। जो कस्टमर उस पर चिल्ला रहा था वह हाथ बांधे उसके सामने खड़ा था। मालिक उसे डांट रहा था कि किसी भी काम की तमीज़ नहीं है। गगन ने हाथ बांधकर खड़े कस्टमर की तरफ देखकर कहा,
"तुम जैसा वाहियात आदमी नहीं देखा है मैंने। मेरे इतने महंगे कपड़े खराब कर दिए। अब तुम्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। मेरे सामने कान पकड़कर उठो बैठो। जब तक मैं ना कहूंँ रुकना नहीं।"
उस कस्टमर ने हाथ जोड़कर माफी मांगनी चाही। लेकिन गगन ने डांट दिया। वह उसके आदेश का पालन करने लगा। फिर गगन ने मालिक से कहा,
"अब तुम वेटर बनकर मुझे सर्विस दोगे।"
मालिक ने उसके सामने सर झुकाया और ऑर्डर लेने लगा।
इस स्थिति को सोचकर गगन के मन को बहुत तसल्ली मिली। लेकिन तभी उसके दिमाग में उर्मी की लिखी लाइनें हथौड़े की तरह चोट करने लगीं,
'तुम्हारे साथ ज़िंदगी एक सज़ा है। कुछ और दिन मैं तुम्हारे साथ रही तो मेरा दम घुट जाएगा। इसलिए उसके साथ जा रही हूँ जो मुझे खुश रख सकता है।'
उसका दिमाग फटने लगा। वह ज़ोर से चिल्लाया,
"सज़ा क्या होती है वह तो अब मैं तुझे बताऊंँगा। तेरी ज़िंदगी नर्क से भी बदतर कर दूंँगा। तू नाली के कीड़े की तरह मेरे सामने पड़ी होगी। मैं तुझे पैरों से कुचल दूँगा। तेरा वह आशिक मेरे हाथों कुत्ते की मौत मारा जाएगा।"
कोई उसके कमरे का दरवाज़ा खटखटा रहा था। वह होश में आया। उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने संजीव था। संजीव अंदर आते हुए बोला,
"किस पर चिल्ला रहे थे ?"
गगन ने गुस्से से कहा,
"उस पर जिसे मैं सबसे अधिक नफरत करता हूँ।"
संजीव समझ गया। उसे सारी बात पता थी। उसके सामने भी कई बार वह उर्मी को सबक सिखाने की बात कर चुका था। वह खुद भी मन ही मन अपने दुश्मनों से इसी तरह नफरत करता था। उसके लिए उस गुस्से को समझना कठिन नहीं था। उसने कहा,
"अपना समय आएगा दोस्त। फिर सबसे गिन गिन कर बदला लेंगे। फिलहाल बताओ कल क्या करोगे ?"
गगन ने कहा,
"करना क्या है ? बसरपुर जाएंगे।"
संजीव कुर्सी पर बैठकर बोला,
"जाना तो हर हाल में है‌। इतने दिनों की तपस्या बेकार थोड़ी ना जाने देंगे। मैं पूछ रहा था कि तुम्हें छुट्टी मिल गई ?"
जवाब में गगन ने जो कुछ भी रेस्टोरेंट में हुआ था बता दिया। वह बोला,
"मालिक की ऐसी की तैसी। मैं तो जाऊँगा। अपने हिसाब से लौटकर आऊँगा। काम से निकाल देगा तो कुछ और कर लूँगा। बाद में उससे भी निपटना है।"
"मैंने भी यही सोचा है। छुट्टी के लिए कहा तो गाली देने लगा। मैं भी तुम्हारी तरह बाद में लौटकर जाऊँगा। देखता हूँ क्या करता है।"
संजीव की बात सुनकर गगन ने कहा,
"अभी चाहें जो कर लें‌। बाद में हम अपने अपने मालिक को नौकर बनाकर रखेंगे।"
संजीव कुछ रुककर बोला,
"ऐसा है तो कल दोपहर में ही निकल लेंगे। वहाँ चलकर आराम भी कर लेंगे। तुम मुझे अपने साथ ले चलना।"
गगन ने कहा,
"तो फिर दोपहर तक भी क्यों रुकें। सुबह उठकर निकल चलते हैं।"
संजीव को उसका विचार अच्छा लगा। उसने कहा कि वह कुछ देर में अपना बैग लेकर यहीं आ जा रहा है। सुबह दोनों जल्दी निकल जाएंगे।

गगन और संजीव बंसीलाल की दुकान पर बैठे चाय का इंतज़ार कर रहे थे। आज बंसीलाल अकेला था। वही चाय बना रहा था और वही सबको बांट रहा था। दुकान में एक दो और लोग थे जो जल्दी करने को कह रहे थे। बंसीलाल ने कहा,
"सब्र रखो....दो ही हाथ हैं। अकेले समय लग रहा है।"
उसी समय जोगिंदर दुकान पर आया। बंसीलाल को अकेला काम करते हुए देखकर बोला,
"बंसी भइया मंगलू कहाँ है ?"
बंसीलाल ने गिलासों में चाय डालते हुए कहा,
"उसे उसके घर भेज दिया।"
जोगिंदर ने बैठते हुए कहा,
"ऐसा क्यों भइया ? अकेले दुकान कैसे चलाओगे ?"
बंसीलाल ने ग्राहकों को चाय पकड़ा दी‌। फिर जोगिंदर के पास जाकर बोला,
"क्या करते भइया। एक तो वह सुस्त था। ऊपर से रात दिन झीकता रहता था कि घरवालों की याद आती है। पर भइया उसके घर में खाने के लाले पड़े थे। उसके बाप ने हाथ जोड़कर कहा था कि इसे अपने साथ ले जाओ। इसलिए समझा बुझाकर रखा हुआ था।"
बंसीलाल उठकर पतीले से दो गिलास चाय ले आया। एक जोगिंदर को पकड़ाते हुए बोला,
"उस दिन एसपी मैडम यहाँ आई थीं। हमने मंगलू से चाय लाने को कहा। उसे देखकर बोलीं कि बच्चे से काम कराना अच्छा नहीं है। हमने कहा मैडम छोटा नहीं है चौदह का होने वाला है। इस पर बोलीं कि यह उम्र तो स्कूल जाकर पढ़ने की है। इससे काम मत कराओ। इसे स्कूल भेजो।"
बंसीलाल ने अपनी चाय सुड़कते हुए कहा,
"उसके बाद तो पीछे पड़ गईं। रोज़ आकर वही बात। हमने भी सोचा कि कौन झंझट मोल ले उसके घर भेज दिया। अब उसका बाप जो चाहे करवाए। हमें अब ढूंढना पड़ेगा दुकान के लिए कोई। तुम्हारी नज़र में कोई आए तो बताना।"
जोगिंदर ने कहा,
"भइया ये मैडम जिस काम के लिए भेजी गई हैं‌ वह तो कर नहीं पा रही हैं। बेवजह लीडरी दिखा रही हैं। एक दिन उस मोहन से उलझ रही थीं कि तुम अपनी दुकान का कूड़ा सड़क पर फैलाकर मत रखा करो। हम कहते हैं जिस काम के लिए आई हो वह करो।"
बंसीलाल ने कहा,
"हम लोग ठहरे साधारण आदमी। उनके पास वर्दी की ताकत है। अधिक बोल भी तो नहीं सकते हैं।"
यह कहकर बंसीलाल उठकर दूसरे ग्राहकों के लिए चाय बनाने लगा।